आई० सी० ए० आई० द्वारा लेखांकन प्रमापों के निर्माण व निर्गमन की कार्यविधि की व्याख्या कीजिए। अब तक आई० सी० ए० आई० द्वारा कुल कितने प्रमाप निर्गत किये जा चुके हैं ? Explain the procedure of formulation and insurance of accounting standards by the I.C.A.I. How many standards have been issued by the I.C.A.I. thus for?
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आई० सी० ए० आई० द्वारा निर्गमित लेखांकन प्रमाप (Accounting Standards Issued by the ICAI )
इन्स्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड एकाउन्टेण्ट्स ऑफ इण्डिया ने आज तक निम्नलिखित प्रमाप जारी किये हैं और जो उनके नाम के आगे अंकित तिथि से प्रभावशाली हैं।
(i) ए एस-1 : लेखांकन नीतियों का प्रकटीकरण (1-4-1991)
(ii) ए एस-2 : स्कन्ध का मूल्यांकन (1-4-1999) (पुनः निरीक्षित)
(iii) ए एस-3 : रोकड़ बहाव विवरण (1-6-1991) (पुनः निरीक्षित)
(iv) ए एस-4 : चिट्ठे की तिथि के बाद घटित होने वाली आकस्मिकताएँ व घटनाएँ (1-4-1995)
(v) ए एस-5 : अवधि के लिए शुद्ध लाभ या हानि, पूर्व अवधि की मदें तथा लेखांकन नीतियों में परिवर्तन (1-4-1996)
(vi) ए एस-6: ह्रास लेखांकन (1-4-1995)
(vii) ए एस-7 : निर्माणी ठेकों का लेखांकन (1-4-1991)
(viii) ए एस-8 : अनुसन्धान एवं विकास के लिए लेखांकन (1-4-1991)
(ix) ए एस-9 : आय की मान्यता (1-4-1991)
(x) ए एस-10 : स्थायी सम्पत्तियों के लिए लेखांकन (1-4-19951)
(xi) ए एस-11 : विदेशी विनिमय दरों में परिवर्तन के प्रभाव हेतु लेखांकन (1-4-1995)
(xii) ए एस -12: सरकारी अनुदानों के लिए लेखांकन (1-4-1994)
(xiii) ए एस-13: विनियोगों के लिए लेखांकन (1-4-1995)
(xiv) ए एस-14: एकीकरण के लिए लेखांकन (1-4-1995)
(xv) ए एस-15: नियोक्ताओं के वित्तीय विवरण में अवकाश ग्रहण सुविधा के लिए लेखांकन (1-4-1995)
(xvi) ए एस-16 : उधार की लागत (1-4-2000)
(xvii) ए एस-17: खण्ड प्रतिवेदन (1-4-2001)
(xviii) ए एस -18 : सम्बन्धित पक्षों का प्रकटीकरण (1-4-2001)
(xix) ए एस -19: पट्टे (1-4-2001)
(xx) ए एस-20 : प्रति अंश आय (1-4-2001)
(xxi) ए एस-21: समूह वित्तीय विवरण (1-4-2001)
(xxii) ए एस 22 :आय पर कर सम्बन्धी लेखांकन (1-4-2002)
(xxiii) ए एस – 23 : समूह वित्तीय विवरण में सम्बद्ध प्रतिष्ठानों में विनियोग सम्बन्धी लेखांकन (1-4-2002)
(xxiv) ए एस-24 : असंतत संचालन (1-4-2002)
(xv) ए एस-25: अन्तरिम वित्तीय रिपोर्टिंग (1-4-2002)
(xvi) ए एस-26 : अमूर्त सम्पत्तियाँ (1-4-2003)
(xxvii) ए एस-27 : संयुक्त उपक्रम में हित की वित्तीय रिपोर्टिंग (1-4-2002)
(xxviii) ए एस-28 : सम्पत्तियों की हानि (1-4-2004)
(xxix) ए एस-29 : प्रावधान, संयोगिक दायित्व एवं संयोगिक सम्पत्तियाँ (1-4-2004)
(xxx) ए एस-30 : वित्तीय विलेख-मान्यता एवं मापन (1-4-2011)
(xxxi) ए एस-31: वित्तीय विलेख- प्रस्तुतिकरण (1-4-2011)
(xxxii) ए एस-32 : वित्तीय विलेख- प्रकटीकरण (1-4-2011)
(1) लेखांकन प्रमाप-1 : लेखांकन नीतियों का प्रकटीकरण (Disclosure of Accounting Policies) – यह मानक, संस्था के वित्तीय विवरणों का निर्माण करते समय जो महत्त्वपूर्ण लेखांकन नीतियाँ अपनायी गयी हैं उनके प्रकटीकरण से सम्बन्ध रखता है।
अलग-अलग व्यावसायिक संस्थान विवरणों का निर्माण करते समय अलग-अलग नीतियाँ अपनाते हैं। स्थिति विवरण द्वारा दिखाई गयी स्थिति व लाभ/ हानि विवरण द्वारा दिखाया गया लाभ हानि उनको तैयार करने में अपनायी गयी नीतियों द्वारा महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित हो सकते हैं। इस मानक का प्रमुख उद्देश्य उन नीतियों को प्रस्तुत करना है, जिससे वित्तीय विवरणों को उचित तरीके से समझा जा सके। ऐसे प्रस्तुतीकरण से विभिन्न संस्थाओं के वित्तीय विवरणों में ज्यादा अर्थपूर्ण तुलना सम्भव हो सकेगी।
(2) लेखांकन प्रमाप-2 : स्कन्ध का मूल्यांकन (Valuation of Inventory ) यह लेखांकन प्रमाप वित्तीय विवरणों के लिये स्कन्ध के मूल्यांकन के सिद्धान्तों से सम्बन्धित है। स्कन्ध के मूल्यांकन में जो लेखांकन नीति अपनाई जाए व लागत ज्ञात करने के लिये जो पद्धति अपनाई जाए, उसका उल्लेख वित्तीय विवरणों में किया जाना चाहिए। यदि मूल्यांकन सम्बन्धी लेखांकन नीति में कोई परिवर्तन होता है जो वर्तमान या भविष्य की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है तो ऐसे परिवर्तन का भी उल्लेख किया जाना चाहिए। परिवर्तन से प्रभावित होने वाली राशि का भी विवरण दिया जाना चाहिए। यदि यह राशि निश्चित न हो सके तो इस तथ्य का उल्लेख किया जाना चाहिए।
(3) लेखांकन प्रमाप-3 : रोकड़ बहाव विवरण (Cash flow statement) : यह मानक यह बताता है कि एक उपक्रम को रोकड़ बहाव विवरण तैयार करके प्रत्येक उस अवधि के लिए प्रस्तुत करना चाहिए, जिस अवधि के लिए वित्तीय विवरण तैयार किये जाने हैं। रोकड़ बहाव विवरण को निम्न में किसी एक रूप में प्रस्तुत किया जाता है-
(अ) प्रत्यक्ष रीति- इसमें प्रत्यक्ष रीति से रोकड़ की प्राप्ति एवं भुगतान की मदों को बताया जाता है।
(ब) अप्रत्यक्ष रीति- इसमें शुद्ध हानि के आधार पर गैर नकद स्वभाव के लेन-देन, स्थगित या अर्जित, भूत या भविष्य के संचालन, रोकड़ प्राप्ति या भुगतान आदि को बताया जाता है।
(4) लेखांकन प्रमाप-4 : चिट्ठे की तिथि के बाद घटित होने वाली आकस्मिकताएँ व घटनाएँ (Contingencies and Events occurring after Balance Sheet Date) – आकस्मिकताओं से आशय भविष्य में घटित होने वाली अनिश्चित घटनाओं से है, जिसका अंतिम परिणाम सम्भावित हानि या हानि, उस घटना के घटित होने या न होने पर ही जाना जा सकता है, इसके पहले नहीं।
चिट्ठे की तिथि के बाद घटित होने वाली घटनाओं से आशय उन महत्त्वपूर्ण घटनाओं से है जो चिट्ठा बनाने के बाद लेकिन संचालक मण्डल द्वारा चिट्ठे के स्वीकृत किये जाने से पूर्व घटित हुई हों। चिट्ठे की तिथि के पश्चात् घटित होने वाली घटनाओं के सम्बन्ध में वित्तीय विवरणों में पहले से ही समायोजन कर लेना चाहिए ।
आकस्मिक घटनाओं के कारण अगर भविष्य में लाभ होने की उम्मीद हो तो इस संभावित लाभ को वित्तीय लेखों में तभी सम्मिलित करना चाहिए जब इसका प्राप्त होना बिल्कुल निश्चित हो। अगर इन घटनाओं के कारण भविष्य में हानि की सम्भावना है तथा अगर इस हानि का अनुमान लगाया जा सके तो इसे लाभ-हानि खाते के डेबिट में बताना चाहिए।
(5) लेखांकन प्रमाप-5 : अवधि के लिए शुद्ध लाभ या हानि (Net profit or loss for the period)— पूर्व अवधि की मदें तथा लेखांकन नीतियों में परिवर्तन यह प्रमाप, 1 अप्रैल 1996 को या इसके बाद प्रारम्भ होने वाली लेखांकन अवधि के सम्बन्ध में लागू होगा। अवधि के लिए शुद्ध लाभ या हानि के दो अंग होते हैं जिनको लाभ एवं हानि के मुख पर दर्शाना चाहिए ।
(अ) सामान्य क्रियायों से लाभ या हानि,
(ब) असाधारण मदों को लाभ-हानि विवरण में अवधि के शुद्ध लाभ या शुद्ध हानि के हिस्से के रूप में दर्शाना चाहिए।
(6) लेखांकन प्रमाप-6 : ह्रास लेखांकन (Depreciation Accounting) — यह विवरण-पत्र मूल्य ह्रास लेखांकन से सम्बन्ध रखता है तथा सभी मूल्य ह्रास योग्य संपत्तियों पर लागू होता है। व्यवसाय में ह्रास लेखांकन के लिए अपनाई गई नीतियों को वित्तीय विवरणों में प्रकट कर देना चाहिए। इस प्रमाप के अनुसार स्थायी संपत्तियों पर ह्रास का आयोजन करने के लिए उसके कार्यशील जीवन का अनुमान, उस संपत्ति की लागत, अनुमानित अवशेष मूल्य एवं उसके प्रयोग करने के समय तथा उसके प्रयोग करने पर लगाये गये वैधानिक एवं अन्य प्रतिबन्धों को ध्यान में रखना चाहिए। इसके अतिरिक्त सम्पत्ति के प्रभावी व क्रियाशील जीवनकाल की समय-समय पर जाँच करते रहना चाहिए एवं परिस्थितियों के अनुसार जीवनकाल को संशोधित कर लेना चाहिए।
(7) लेखांकन प्रमाप-7 निर्माणी ठेकों का लेखांकन (Accounting for Construction Contracts) – इस प्रमाप की कुछ प्रमुख बातें निम्नलिखित हैं-
1. यह प्रमाप सभी प्रकार की संस्थाओं पर लागू होता है।
2. निर्माणी कार्यों या ठेकों से सम्बन्धित वित्तीय लेखे तैयार करने की दृष्टि से ठेकेदार द्वारा एक ही प्रकार के ठेकों अथवा एक ही ठेकादाता से प्राप्त किये गये ठेकों के लिए एक ही विधि का प्रयोग किया जाना चाहिए।
3. लेखांकन के लिए प्रयुक्त नीतियों के प्रयोग में स्थिरता होनी चाहिए। नीतियों में परिवर्तनों के कारण प्रमाप को वित्तीय विवरणों में प्रकट कर देना चाहिए।
4. दीर्घकालीन ठेकों पर लाभ को तभी अर्जित मानना चाहिए जबकि प्रमाणित कार्य का मूल्य ठेका मूल्य के 1/3 से अधिक हो। इससे कम कार्य होने पर सम्पूर्ण लाभ को Working Progress A/c में हस्तान्तरित कर देना चाहिए। अर्जित लाभ ज्ञात करने का सूत्र निम्न है-
Profit upon contract X 2/3 X Cash Received / Work certified
(8) लेखांकन प्रमाप-8 : अनुसंधान एवं विकास के लिए लेखांकन (Accounting for Research and Development) – इस प्रमाप की कुछ प्रमुख बातें निम्न हैं-
(1) यह प्रमाप सभी संस्थाओं पर एकसमान रूप से लागू होता है।
(2) शोध व विकास कार्यों में किसी नवीन तकनीकी, वैज्ञानिक तथा सैद्धान्तिक ज्ञान प्राप्त करने हेतु किये गये समस्त कार्यों को सम्मिलित किया जाता है।
(3) अनुसंधान व विकास व्ययों के अन्तर्गत इस कार्य में लगे कर्मचारियों का वेतन, अन्य संस्थाओं को अनुसंधान कार्य के लिए दी गई राशि, प्रयुक्त सामग्री, श्रम, प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष व्यय एवं वैज्ञानिक अनुसंधान के पूँजीगत व्ययों को सम्मिलित किया जाता है।
(4) यह व्यय चालू लेखांकन वर्ष से सम्बन्धित है तो इन व्ययों को लाभ-हानि खाते में डालकर अपलिखित कर देना चाहिए। अगर इनका लाभ भविष्य में मिलने वाला हो तो इन्हें अगले वर्षों में हस्तान्तरित कर देना चाहिए।
(5) अगर इन व्ययों से प्राप्त आगमों के अगले वर्षों में अर्जित होने की संभावना हो तो इन व्ययों को चालू वर्ष के व्ययों में सम्मिलित नहीं करना चाहिए।
(6) अनुसंधान एवं विकास व्ययों तथा उनकी प्राप्तियों की राशि और उनके स्वभाव को वित्तीय विवरणों में स्पष्ट रूप से प्रकट कर देना चाहिए।
(7) जो व्यय भावी लेखांकन अवधि से सम्बन्धित हों उन्हें संपत्ति मानना चाहिए ।
(9) लेखांकन प्रमाप-9 : आय की मान्यता ( Revenue Recognition)— लेखांकन की दृष्टि से आगम को अर्जित हुआ या वसूल हुआ माना जाने के सम्बन्ध में लेखापालकों द्वारा भिन्न-भिन्न आधारों का प्रयोग किया जाता है; जैसे- आदेश प्राप्ति पर, अनुबन्ध लिखे जाने पर, किए गये कार्य के अनुपात में, स्वामित्व हस्तान्तरण होने पर, प्राप्त राशि के अनुपात में या पूर्ण भुगतान प्राप्त होने पर इत्यादि । आगम मान्यता के उपर्युक्त आधार पर निर्धारित करने की समस्या विभिन्न व्यावसायिक क्रियाओं के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न लेखाविधियाँ प्रचलित होने के कारण और अधिक जटिल बन जाती है।
(10) लेखांकन प्रमाप-10 : स्थाई सम्पत्तियों के लिए लेखांकन (Accounting for Fixed Assets)— किसी भी व्यापारिक संस्था की स्पष्ट व सही वित्तीय स्थिति का ज्ञान प्राप्त करने के लिये सम्पत्तियों का सही व उचित तरीके से मूल्यांकन व लेखांकन किया जाना अत्यन्त आवश्यक है। इस प्रमाप के आधार पर वित्तीय विवरणों में स्थायी सम्पत्तियों का लेखा उनके वास्तविक क्रम की लागत अथवा प्राप्त लागत पर ही करना चाहिए, चाहे उनकी लागत व बाजार मूल्य में कितना ही अन्तर हो ।
(11) लेखांकन प्रमाप-11 विदेशी विनिमय दरों में परिवर्तन के प्रभाव हेतु लेखांकन (Accounting for the Effects of Changes in Foreign Exchange Rates) – यह प्रमाप एक अप्रैल, 1995 या उसके बाद से प्रारम्भ होने वाली लेखांकन अवधि से प्रभावी है और इसकी प्रकृति आदेशात्मक है। एक संस्था द्वारा इस प्रमाप का प्रयोग निम्न दशों में किया जाता है-
(1) विदेशी मुद्रा के किये गये लेन-देनों के लेखांकन में,
(2) संस्था के वित्तीय विवरणों में सम्मिलित करने हेतु विदेशी शाखा के वित्तीय विवरण का अनुवाद (परिवर्तन) करने में।
(12) लेखांकन प्रमाप-12 : सरकारी अनुदानों के लिए लेखांकन (Accounting for Government Grants) – यह प्रमाप सरकारी अनुदान के लेखांकन के सम्बन्ध में है। सरकारी अनुदान को सहायता, नकद प्रेरणा या कर वापिसी आदि नाम से भी जाना जाता है।
(1) सरकारी अनुदान के लिए लेखांकन व्यवहार के दो व्यापक उपगम (approach) हैं: प्रथम पूँजीगत उपगम जिसके अन्तर्गत अनुदान को अंशधारियों के फण्ड का हिस्सा मानते हैं और द्वितीय आय उपगम जिसके अन्तर्गत अनुदान को एक या अधिक अवधि के लिए आय माना जाता है।
(2) सरकारी अनुदान की मान्यता एक संस्था को निम्न शर्तें पूर्ण करने के बाद ही सम्मिलित किया जाता है: (i) जब इसका उचित विश्वास हो कि उपक्रम उनके साथ जुड़ी शर्तों का पालन कर लेगा तथा (ii) जबकि ऐसा लाभ उपक्रम द्वारा अर्जित किया जा चुका है और यह उचित रूप से निश्चित है कि इनकी अन्ततः वसूली हो जायेगी।
(3) विशिष्ट स्थायी सम्पत्ति से सम्बन्धित सरकारी अनुदान का प्रस्तुतीकरण ।
(4) आगम से सम्बन्धित सरकारी अनुदान का प्रस्तुतीकरण ।
(5) प्रवर्तकों के अंशदान की प्रकृति वाले सरकारी अनुदान का प्रस्तुतीकरण ।
(6) गैर-मौद्रिक सरकारी अनुदान ऐसे अनुदान हैं, जो गैर-मौद्रिक सम्पत्तियों जैसे रियायती दर पर भूमि या अन्य संसाधन के रूप में प्रदान किये जाते हैं।
(7) व्ययों अथवा हानियों की क्षतिपूर्ति के रूप में सरकारी अनुदान ।
(8) सरकारी अनुदान की सम्भाव्यता ।
(9) सरकारी अनुदानों की वापिसी ।
(13) लेखांकन प्रमाप-13 : विनियोगों के लिए लेखांकन (Accounting for Investments)— यह मानक 1 अप्रैल, 1995 से लेखांकन अवधियों के लिये सभी संस्थाओं पर अनिवार्य रूप से लागू है।
(14) लेखांकन प्रमाप-14: एकीकरण के लिए लेखांकन (Accounting for Amalgamation ) – यह प्रमाप 1 अप्रैल, 1995 से प्रारम्भ लेखांकन अवधियों के लिए सभी कम्पनियों पर अनिवार्य रूप से लागू है।
(i) एकीकरण से अभिप्राय कम्पनी अधिनियम 1956 के प्रावधानों का पालन करते हुए या अन्य विधान जो कम्पनी पर लागू हो, का पालन करते हुए कम्पनी का मिलना।
(ii) हस्तान्तरक कम्पनी से अभिप्राय ऐसी कम्पनी जो दूसरी कम्पनी में एकीकृत हो रही हो।
(iii) हस्तान्तरिती कम्पनी से अभिप्राय जिसमें हस्तान्तरक कम्पनी एकीकृत हो रही हो।
(iv) उचित मूल्य से अभिप्राय वह राशि जिस पर सम्पत्तियों को क्रेता व विक्रेता की पूर्ण जानकारी व सहमति से दोनों के मध्य आमने-सामने सौदों में विनिमय किया जा सके।
(15) लेखांकन प्रमाप-15: नियोक्ताओं के वित्तीय विवरण में अवकाश ग्रहण सुविधा के लिए लेखांकन (Accounting for Retirement Benefits in the Financial Statements of Employees) – 1 अप्रैल, 1995 या इसके बाद से प्रारम्भ होने वाले लेखांकन अवधि के सन्दर्भ में यह प्रमाप प्रभावशाली है। इसकी प्रकृति आदेशात्मक है। अवकाश ग्रहण सुविधा में साधारणतया निम्न को सम्मिलित करते हैं—
(i) प्रॉविडेण्ट फण्ड, (ii) ग्रेज्युइटी, (iii) सुपरऐनुएशन / पेन्शन, (iv) अवकाश ग्रहण पर अवकाश का नकदीकरण, (v) अवकाश-ग्रहण उपरान्त स्वास्थ्य एवं कल्याण योजनाएँ, (vi) अन्य अवकाश ग्रहण सुविधायें ।
(16) लेखांकन प्रमाप-16: उधार की लागत (Borrowing Costs) – यह प्रमाप 1-4-2000 से प्रभावी है। इस प्रमाप के अनुसार उधार की लागत को उस ब्याज व लागत के रूप में परिभाषित किया गया है जो एक उपक्रम द्वारा उधार के सम्बन्ध में खर्च किये गये हों। इसी प्रकार समर्थ संपत्ति को ऐसी संपत्ति के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसे इच्छित प्रयोग या विक्रय हेतु तैयार करने में आवश्यक रूप से पर्याप्त समय लगा हो।
वित्तीय विवरणों में प्रकटीकरण के सम्बन्ध में निम्न नियम हैं-
(i) उधार की लागत के लिए अपनायी गयी लेखांकन नीति का उल्लेख होना चाहिए।
(ii) उधार की लागत की वह राशि, जिसे अवध के दौरान पूँजीकृत किया गया हो, स्पष्ट रूप से दर्शायी गयी हो।
किसी समर्थ संपत्ति के अधिग्रहण, निर्माण या उत्पादन पर प्रत्यक्ष रूप से आरोपित उधार की लागत को पूँजीकृत कर देना चाहिए।
(17) लेखांकन प्रमाप-17 : खण्ड प्रतिवेदन (Segment Reporting) – यह मानक 1-4-2001 से प्रभावी है और इसकी प्रकृति निम्न संस्थाओं के लिए आदेशात्मक है-
(i) कम्पनी जिनका सूचीयन हो गया है या होने वाला है,
(ii) किसी लेखांकन वर्ष में 50 करोड़ रुपये से अधिक बिक्री वाले सभी उपक्रम ।
इसका उद्देश्य वित्तीय विवरणों में उपयोग करने वालों को ऐसी सूचनायें प्रदान करना एवं ऐसे सिद्धान्तों का निर्माण करना है जो कि किसी संस्थान द्वारा प्रदान की गई सेवाओं एवं निर्मित उत्पादों से सम्बन्धित होते हैं। साथ ही उपक्रम की क्रियाशीलता के विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों की सूचना भी प्रदान करना इस प्रमाप का उद्देश्य है।
(18) लेखांकन प्रमाप-18 : सम्बन्धित पक्षों का प्रकटीकरण (Related Partly Disclosures) – इसे 1 अप्रैल 2001 से या इसके बाद आरम्भ होने वाली अवधि के सम्बन्ध में लागू किया गया है।इसका उद्देश्य किसी संस्थान के प्रतिवेदन तथा उससे सम्बद्ध पक्षकारों के बीच लेन-देन एवं सम्बन्धों को अभिव्यक्त करना है।
पक्षों को उस समय सम्बन्धित माना जाता है जब एक पक्ष प्रतिवेदन अवधि में किसी भी समय दूसरे पक्ष को नियंत्रित करने की योग्यता रखता हो या वित्तीय संचालनात्मक निर्णयन में दूसरे पक्ष पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालने की क्षमता रखता हो। सम्बन्धित पक्ष का नाम और सम्बन्धित पक्षों की प्रकृति जहाँ नियन्त्रण मौजूद हो प्रकट करनी चाहिए, चाहे पक्षों के बीच कोई लेन-देन हुआ हो या न हुआ हो।
(19) लेखांकन प्रमाप-19: पट्टे (Leases) – यह प्रमाप 1 अप्रैल, 2001 से प्रभावी है और आदेशात्मक प्रकृति का है। पट्टा एक अनुबन्ध है जिसमें पट्टादाता (सम्पत्ति स्वामी) पट्टेदार को एक भुगतान या भुगतान श्रृंखला के बदले में एक निश्चित अवधि के लिए सम्पत्ति के प्रयोग का अधिकार प्रदान करता है।
(20) लेखांकन प्रमाप-20 प्रति अंश आय (Earnings Per Share)— यह प्रमाप 1 अप्रैल, 2001 को या उसके बाद शुरू होने वाली अवधि के लिए लागू किया गया है। इसका उद्देश्य प्रति अंश आय की गणना करने हेतु सिद्धान्तों का निर्धारण करना है।
प्रति अंश आय गणना के लिए अवधि के समता अंशों की भारित औसत संख्या द्वारा समता अंशधारियों के लिए शुद्ध लाभ या हानि को विभाजित करके निकालना चाहिए।
(21) लेखांकन प्रमाप-21 : समूह वित्तीय विवरण (Consolidated Financial Statements) — यह प्रमाप 1-4-2001 से प्रभावी है और उन सभी उपक्रमों के लिए आदेशात्मक प्रकृति का है जो समूह वित्तीय विवरण तैयार करती हैं। समूह वित्तीय विवरण बनाने में सूत्रधारी कम्पनी का वित्तीय विवरण और इसकी सहायक कम्पनियों का वित्तीय विवरण पंक्तिबद्ध तरीके से समान मदों (सम्पत्ति, दायित्व, आय व व्यय के मदों) में जोड़ देना चाहिए।
(22) लेखांकन प्रमाप – 22 आय पर कर सम्बन्धी लेखांकन (Accounting for ‘Taxes on Income) – इसे 1 अप्रैल 2001 से या इससे शुरू होने वाली अवधि के सम्बन्ध में लागू किया गया है। यह प्रमाप निम्न उपक्रमों के लिए अनिवार्य स्वभाव का है-
(i) उपक्रम जिनकी प्रतिभूतियाँ भारत के किसी मान्यता प्राप्त स्कंध विपणी में सूचीबद्ध हैं एवं उपक्रम जो प्रतिभूतियों को जारी करने की प्रक्रिया में हैं, भारत में सूचीबद्ध होंगी।
(ii) सूत्रधारी कम्पनी द्वारा एक समूह के सम्बन्ध में प्रस्तुत किये गये एकीकृत वित्तीय विवरण में समूह के संस्थानों पर उपरोक्त (i) लागू होना। नोट — (i) उपरोक्त (i) में न आई कम्पनियों के सम्बन्ध में 1 अप्रैल 2002 को या उसके बाद शुरू होने वाली सभी लेखांकन अवधियों के लिए।
(iii) अन्य सभी संस्थानों के लिए 1 अप्रैल 2003 को या उसके बाद शुरू होने वाली सभी लेखा अवधियों के लिए AS 22 लागू होगा।
(23) लेखांकन प्रमाप-23 : समूह वित्तीय विवरणों में सम्बद्ध प्रतिष्ठानों में विनियोग सम्बन्धी लेखांकन (Accounting for Investments in Associates in Consolidated Financial Statements) – यह प्रमाप 1 अप्रैल 2002 से प्रभावी है। सम्बद्ध प्रतिष्ठान को उस उपक्रम के रूप में परिभाषित किया गया है जिससे उपक्रम में विनियोक्ता महत्त्वपूर्ण प्रभाव रखता हो और जो विनियोक्ता की सहायक कम्पनी या संयुक्त साहसी न हो । महत्त्वपूर्ण प्रभाव से आशय विनियोगी के वित्तीय व संचालन नीतियों में भाग लेने के अधिकार से है, परन्तु उन नीतियों पर नियन्त्रण से नहीं।
(24) लेखांकन प्रमाप-24 असंतत संचालन (Discontinuing Operations) – आई० सी० ए० आई०. द्वारा निर्गमित यह प्रमाप जो एक उपक्रम के असंतत संचालन पर लागू होता है, केवल संस्तुति स्वभाव का है, अभी आदेशात्मक नहीं है।
(25) लेखांकन प्रमाप-25 : अन्तरिम वित्तीय रिपोर्टिंग (Interim Financial Reporting)— यह प्रमाप 1 अप्रैल, 2002 से प्रारम्भ होने वाले या उसके बाद के लेखांकन वर्ष से प्रभावी है। यह प्रमाप भी आदेशात्मक नहीं है; परन्तु यदि कोई उपक्रम एक अन्तरिम वित्तीय रिपोर्ट तैयार करने व प्रस्तुत करने का संकल्प लेता है तो उसे इस प्रमाप का अनुपालन करना चाहिये।
(26) लेखांकन प्रमाप-26 : अमूर्त सम्पत्तियाँ (Intangible Assets)— यह प्रमाप 1 अप्रैल, 2003 से या उसके बाद के अमूर्त मदों पर किये गये व्ययों पर प्रभावी हुआ है तथा पूर्ण रूप से यह प्रमाप 1 अप्रैल, 2004 से प्रभावी तथा आदेशात्मक होगा।
(27) लेखांकन प्रमाप-27 : संयुक्त उपक्रम में हित की वित्तीय रिपोर्टिंग (Financial Reporting of Interests in Joint Venture) – यह प्रमाप 1 अप्रैल 2002 से प्रभावी है। यह प्रमाप संयुक्त उपक्रम में हित के लेखांकन में तथा साहसी व विनियोक्ता के वित्तीय विवरणों में संयुक्त उपक्रम के सम्पत्तियों, दायित्वों, आय व व्यय के रिपोर्टिंग में प्रयोग किया जाना चाहिए, चाहे संयुक्त उपक्रम क्रियाओं को संचालित करने हेतु किसी भी रूप का या संरचना का क्यों न प्रयोग किया हो।
(28) लेखांकन प्रमाप-28 : सम्पत्तियों की हानि ( Impairment of Assets) – यह प्रमाप 1 अप्रैल, 2004 या उसके बाद से प्रारम्भ होने वाली लेखांकन अवधि से प्रभावी होगा।
चिट्ठे में स्थायी सम्पत्तियों को प्रायः लागत में से ह्रास घटाने के बाद बचे हुए मूल्य पर दर्शाया जाता है, परन्तु कभी-कभी इनका पुनर्मूल्यांकन करना आवश्यक हो जाता है। जब सम्पत्तियों का पुनर्मूल्यांकन मूल्य उनके पुस्तक मूल्य से कम पर हो जाता है तो ऐसी हानि को सम्पत्तियों की हानि कहा जाता है। इस प्रमाप में ऐसी ही हानि के लेखांकन व्यवहार पर प्रकाश डाला गया है। इस प्रकार, यह प्रमाप उन सभी सम्पत्तियों पर लागू होता है जिन्हें लागत मूल्य या पुनर्मूल्यांकित मूल्य पर दर्शाया जाता है। यह निम्न सम्पत्तियों पर लागू नहीं होता : (i) स्कन्ध, (ii) निर्माणी ठेकों से उत्पन्न होने वाली सम्पत्तियाँ, (iii) वित्तीय सम्पत्तियाँ, तथा (iv) स्थगित कर सम्पत्तियाँ ।
लेखांकन प्रमाप-29: प्रावधान संयोगिक दायित्व एवं संयोगिक सम्पत्तियाँ (As-29 Provisions, Contingent Liabilities and Contingent Assets) – इस प्रमाप का उद्देश्य प्रावधानों, संयोगिक दार्थियों एवं संयोगिक सम्पत्तियों के मापन, मान्यता एवं प्रकटीकरण के सम्बन्ध में दिशा निर्देश प्रदान करना है। प्रावधान से आशय ऐसे दायित्व से है जिसे केवल अनुमानों के आधार पर ही मापा जा सकता है प्रावधान को दायित्व के रूप में केवल सभी मान्यता प्रदान की जानी चाहिए जबकि : (i) किसी पूर्व घटना के परिणामस्वरूप वर्तमान में दायित्व विद्यमान हो, (ii) किसी दायित्व को पूरा करने के लिए संसाधनों का बाह्यगमन लगभग निश्चित हो, तथा (iii) दायित्व की राशि का विश्वसनीय निर्धारण सम्भव हो। प्रावधान की राशि का निर्धारण सभी संभावित जोखिमों एवं अनिश्चितताओं को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए। भावी घटनाओं के लिए प्रावधान केवल तभी किया जाना चाहिए जब इनका घटित होना लगभग निश्चित हो। ऐसी घटना से सम्भावित लाभ को छोड़ दिया जाना चाहिए। आवश्यक होने पर प्रावधान को अपलिखित भी किया जा सकता है ।
संयोगिक दायित्व से आशय ऐसे सम्भावित दायित्व से है जो किसी पूर्व घटना से सम्बन्धित होता है; परन्तु जिसका उत्पन्न होना या न होना किसी भावी अनियन्त्रणीय घटना पर निर्भर होता है। ऐसे दायित्व को प्रायः मान्यता प्रदान नहीं की जाती है और इसे आर्थिक चिट्ठे में दायित्व के रूप में नहीं दिखाया जाता है। (इसे चिट्ठे में केवल एक आन्तरिक टिप्पणी के रूप में दिखाया जाता है)। यदि भविष्य में यह निश्चित हो जाता है कि इसका भुगतान करना ही होगा तो इसे प्रावधान के रूप में मान्यता प्रदान की जाती है।
संयोगिक सम्पत्ति से आशय ऐसी सम्भावित सम्पत्ति से है जो किसी पूर्व घटना से सम्बन्धित होती है परन्तु जिसकी वसूली होना या न होना किसी भावी अनियन्त्रणीय घटना पर निर्भर करता । ऐसी सम्पत्ति को प्रायः मान्यता प्रदान नहीं की जाती है (इसे चिड़े में केवल एक आन्तरिक टिप्पणी के रूप में दिखाया जाता है)। यदि भविष्य में यह निश्चित हो जाता है कि इससे कुछ राशि अवश्य प्राप्त होगी तो इसे सम्पत्ति के रूप में मान्यता प्रदान की जाती है।
अन्तर्राष्ट्रीय लेखांकन मानकों की सूची [List of International Accounting Standards (IAS)]
अन्तर्राष्ट्रीय लेखा मानक समिति (LA.S.C.) द्वारा अब तक 41 अन्तर्राष्ट्रीय लेखांकन प्रमाप निर्गमित किये जा चुके हैं। इन 41 प्रमापों में से 7 प्रमापों के स्थान पर नये प्रमाप निर्गमित किये जा चुके हैं। इस प्रकार वर्तमान में कुल 34 अन्तर्राष्ट्रीय प्रमाप प्रभावी हैं। इन प्रमापों की सूची निम्न प्रकार हैं-
मानक संo | अन्तर्राष्ट्रीय लेखांकन मानक का नाम |
IAS-1 | लेखांकन नीतियों का प्रकटीकरण (Disclosure of Accounting Policies) |
IAS-2 | ऐतिहासिक लागत प्रणाली के संदर्भ में रहतिये का मूल्यांकन और प्रस्तुतीकरण (Valuation and Presentation of Inventories in the context of the Historical Cost System) |
IAS-3 | समेकित वित्तीय विवरण-पत्र (Consolidated Financial Statements) यह प्रमाप समाप्त हो चुका है और इसका स्थान IAS-27 तथा IAS-28 द्वारा ले लिया गया है। |
IAS-4 | मूल्य-हास लेखांकन (Depreciation Accounting) यह प्रमाप समाप्त हो चुका है और इसका स्थान IAS-16, IAS-22 तथा IAS-38 द्वारा ले लिया गया है। |
IAS-5 | वित्तीय विवरण-पत्रों में प्रकट की जाने वाली सूचना (Information to be Disclosed in Financial Statements) यह प्रमाप समाप्त हो चुका है और इसका स्थान IAS-15 द्वारा ले लिया गया है। |
IAS-6 | बदलते हुए मूल्यों को लेखांकन प्रत्युत्तर ( Accounting Responses to Changing Prices) – यह प्रमाप समाप्त हो चुका है एवं इसका स्थान IAS 15 द्वारा ले लिया गया है। |
IAS-7 | वित्तीय स्थिति में परिवर्तन का विवरण-पत्र (Statement of changes in Financial Position) |
IAS-8 | असाधारण एवं अवधि पूर्व की मदें तथा लेखांकन नीतियों में परिवर्तन (Unusual and Prior Period Items and Changes in Accounting Policies) |
IAS-9 | अनुसन्धान एवं विकास गतिविधियों के लिए लेखांकन (Accounting for Research and Development Activities) |
IAS-10 | चिट्ठे की तारीख के पश्चात की सम्भावनाएँ एवं घटित होने वाली घटनाएँ (Contingencies and Events Occurring after the Balance Sheet Date) |
IAS-11 | निर्माणी ठेकों के लिए लेखांकन (Accounting for Construction Contacts) |
IAS-12 | आय पर कर के लिए लेखांकन (Accounting for Taxes on Income) |
IAS-13 | चालू सम्पत्तियों और चालू दायित्वों का प्रस्तुतीकरण (Presentation of Current Assets and Current Liabilities) (यह प्रमाप समाप्त हो चुका है एवं इसका स्थान IAS-1 द्वारा ले लिया गया है।) |
IAS-14 | खण्ड द्वारा वित्तीय सूचना को रिपोर्ट करना (Reporting Financial Information by Segment) |
IAS-15 | बदलते हुए मूल्यों के प्रभाव को प्रतिबिम्बित करती हुई सूचना (Information Reflecting the Effects of Changing Prices) |
IAS-16 | परिसम्पत्ति, प्लाण्ट और उपकरण के लिए लेखांकन (Accounting for Property, Plant and Equipment) |
IAS-17 | पट्टों के लिए लेखांकन (Accounting for Leases) |
IAS-18 | आय पहचान ( Revenue Recognition) |
IAS-19 | नियोक्ताओं के वित्तीय विवरण-पत्रों में निवृत्ति-लाभ के लिए लेखांकन (Accounting for Retirement Benefits in the Financial Statements of Employers) |
IAS-20 | सरकारी अनुदान तथा सरकारी सहायता के उद्देश्यों और प्रक्रियाओं के प्रकटीकरण के लिए लेखांकन (Accounting for Government Grants and Disclosures of Government Assistance Objectives and Procedure) |
IAS-21 | विदेशी विनिमय दरों में परिवर्तन के प्रभाव के लिए लेखांकन (Accounting for the Effects of Changes in Foreign Exchange Rates) |
IAS-22 | व्यावसायिक संयोजनों के लिए लेखांकन (Accounting for Business Combinations) |
IAS-23 | उधार लागतों का पूँजीकरण (Capitalisation of Borrowing Costs) |
IAS-24 | सम्बन्धित पक्षों के प्रकटीकरण (Related Party Disclosure) |
IAS-25 | विनियोगों के लिए लेखांकन (Accounting for Investments) |
IAS-26 | लाभ योजनाओं के अनुसार प्रतिवेदन के लिए लेखांकन (Accounting for Reporting by Benefit Plans) |
IAS-27 | समेकित वित्तीय विवरण-पत्र तथा सहायक कम्पनियों में विनियोगों के लिए लेखांकन (Consolidated Financial Statements and Accounting for Investments in Subsidiaries) |
IAS-28 | सम्बद्ध कम्पनियों में विनियोगों के लिए लेखांकन (Accounting for Investments in Associates) |
IAS-29 | अति-स्फीति अर्थव्यवस्थाओं में वित्तीय प्रतिवेदन (Financial Reporting in Hyper-inflationary Economics) |
IAS-30 | बैंकों तथा ऐसी ही वित्तीय संस्थाओं द्वारा वित्तीय विवरण-पत्रों में प्रकटीकरण (Disclosures in Financial Statements by Banks and Similar Financial Institutions) |
IAS-31 | संयुक्त साहसों में हितों का वित्तीय प्रतिवेदन (Financial Reporting of Interest in Joint Ventures) |
IAS-32 | वित्तीय उपकरण: प्रकटीकरण और प्रस्तुतीकरण (Financial Instruments: Disclosure and Presentation) |
IAS-33 | प्रति अंश आय (Earning per share) |
IAS-34 | अन्तरिम वित्तीय प्रतिवेदन (Interim Financial Reporting) |
IAS-35 | क्रियाओं को बंद करना तथा संदिग्ध सम्पत्तियाँ (Discontinuing Operations and Contingent Assets) |
IAS-36 | सम्पत्तियों की क्षति (Impairment of Assets) |
IAS-37 | आयोजन, संदिग्ध दायित्व (Provisions, Contingent Liabilities) |
IAS-38 | अमूर्तवान सम्पत्तियाँ (Intangible Assets) |
IAS-39 | वित्तीय उपकरण पहचान तथा मूल्य (Financial Instruments: Recognition and Value) |
IAS-40 | विनियोग सम्पत्ति(Investment property) |
IAS-41 | कृषि (Agriculture) |
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