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जॉन डीवी के शैक्षिक विचारों का शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम और शिक्षण पद्धतियाँ

जॉन डीवी के शैक्षिक विचारों का शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम और शिक्षण पद्धतियाँ
जॉन डीवी के शैक्षिक विचारों का शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम और शिक्षण पद्धतियाँ

जॉन डीवी के शैक्षिक विचारों का शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम और शिक्षण पद्धतियों के विशेष सन्दर्भ में वर्णन कीजिए। अथवा जॉन डीवी के प्रमुख शैक्षिक विचारों की विवेचना कीजिए तथा वर्तमान शिक्षा पर उसके प्रभाव बताइए।

जॉन डीवी का जीवन तथा शिक्षा (John Dewey’s Life and Education)

1856 ई० में महान शिक्षाशास्त्री और प्रसिद्ध प्रयोजनवादी दार्शनिक जॉन डीवी का जन्म अमेरिका के न्यू इंग्लैंड स्थित वरमाण्ट (Vermont) नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम आर्चवाल्ड डीवी (Archwald Dewey) था जो वरमाण्ट ग्राम में एक दुकानदार थे। इनकी माता एक आशावादी महिला थीं जिनके प्रभाव से ही डीवी ने कॉलेज की शिक्षा प्राप्त की थी। 1876 ई० में आपने वरमाण्ट विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की थी। इन्होंने इसके बाद ‘जान हापकिन्स विश्वविद्यालय से पी-एच० डी० की उपाधि प्राप्ति की थी। आपने मनोविज्ञान का अध्ययन जी स्टैनली हाल (G. Stanely Hall), दर्शनशास्त्र का अध्ययन जार्ज एस० मोरिस (George S. Morris) और चार्ल्स एस. टी. पीयर्स (Charles S.T. Pierce) और राजनीति और संस्थागत इतिहास का अध्ययन हरबर्ट बी० एडम्स (Herbert B. Adams) से प्राप्त किया था।

डीवी ने अध्ययन समाप्त करने के बाद मिशीगन विश्वविद्यालय (Michigan University) में 1896 ई० तक प्रवक्ता पद पर कार्य किया। 1894 ई० में आप शिकागो विश्वविद्यालय (Chicago University) में दर्शनशास्त्र के अध्यापक बनाये गये। यहाँ पर आप 1902 ई० तक कार्य करते रहे। 1902 ई० में आप शिक्षा विभाग के निदेशक बनाये गये। 1904 ई० से 1930 ई० तक आप कोलम्बिया विश्वविद्यालय (Columbia University) में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर रहे। आपने अनेक देशों का भ्रमण करके अपने विचारों को व्यक्त किया। 1952 ई० में इस महान् दार्शनिक और शिक्षाशास्त्री का स्वर्गवास हुआ था।

डीवी के शैक्षिक विचार (Educational Ideas of Dewey)

डीवी शिक्षा और दर्शन में कोई अन्तर नहीं मानते हैं।

डीवी के अनुसार “अपनी सामान्य अवस्थाओं में शिक्षा सिद्धान्त ही दर्शन कहलाती है।”

डीवी के अनुसार दर्शन “सामाजिक न्याय” का साधन है और वे शिक्षा दर्शन को विचारों में स्पष्टता लाने का साधन मानता है जिससे व्यक्ति अपनी सामाजिक समस्याओं को हल कर सकता है। डीवी ने अपने शिक्षा दर्शन में सामाजिक पक्ष की प्रधानता दी है। डीवी के शैक्षिक विचारों को हम शिक्षा के प्रमुख अंगों के अन्तर्गत प्रस्तुत करेंगे।

शिक्षा का अर्थ (Meaning of Education)

डीवी की शिक्षा दर्शन में ‘अनुभव’ (Experience) को प्रधानता दी गई है। इनके अनुसार- केवल मात्र क्रिया ही अनुभव नहीं है परन्तु अनुभव के लिए क्रिया में तर्क की अवधारणा का समावेश करके उसके स्वरूप को परिवर्तित करना चाहिए, तभी हम अनुभव की प्राप्ति कर सकते हैं।

डीवी के अनुसार यदि अनुभव को वैज्ञानिक विधियों की सहायता से या संशोधित कर दिया जाये तो वे शिक्षा बन जाते हैं। इन अनुभवों को सामाजिक गुण से यदि मुक्त करा दिया जाये तो उनका महत्त्व और बढ़ जाता है। डीवी ने शिक्षा की परिभाषा देते हुए लिखा है। शिक्षा अनुभवों के सतत् पुनर्निर्माण के द्वारा जीवन की प्रक्रिया है। यह व्यक्ति में उन समस्त क्षमताओं का विकास है जो उसको अपने वातावरण को नियंत्रित एवं अपनी सम्भावनाओं को पूर्ण करने योग्य बनायेगी।

 शिक्षा के उद्देश्य (Aims of Education)

डीवी में पूर्व निश्चित उद्देश्यों का विरोध करता है। उनके अनुसार शिक्षा के उद्देश्य परिस्थिति, समय और समस्याओं के अनुसार बदलते रहने चाहिए। उनके अनुसार- “शिक्षा का सदैव तात्कालिक उद्देश्य होता है और जहाँ तक क्रिया शिक्षाप्रद होगी वहाँ तक शिक्षा उस साध्य को प्राप्त करेगी।”

डीवी ने परम्परागत शिक्षा के उद्देश्यों का विरोध किया है। उसने प्रयोजनवादी शिक्षा के उद्देश्यों का समर्थन किया है-

1. अनुभवों का सतत् पुनर्निर्माण (Continuous Reconstruction of Experience)- डीवी के अनुसार शिक्षा का एक उद्देश्य अनुभवों का सतत् पुनर्निर्माण है। जब शिक्षा के पूर्व निश्चित उद्देश्यों को स्वीकार नहीं किया जायेगा तो आवश्यक हो जाता है कि अनुभवों का सतत् पुनर्निर्माण किया जाये।

2. सामाजिक कुशलता का विकास (Development of Social Efficiency)- डीवी ने सामाजिक दृष्टि से शिक्षा का उद्देश्य सामाजिक कुशलता का विकास करना बताया है एक सामाजिक रूप से कुशल व्यक्ति में निम्नलिखित गुण होने चाहिए-

(क) आर्थिक कुशलता (Economic Efficiency)- आर्थिक कुशलता प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को समाज पर आर्थिक बोझ नहीं डालना चाहिए। उसे अपनी जीविका चलाने योग्य बनाना चाहिए।

(ख) निषेधात्मक नैतिकता (Negative Morality)- डीवी के अनुसार निषेधात्मक नैतिकता उसे कहेंगे जिसके द्वारा व्यक्ति उन आकांक्षाओं का त्याग करता है जिससे दूसरों की आर्थिक कुशलता में बाधा उत्पन्न होती हो।

(ग) स्वीकारात्मक नैतिकता (Positive Morality)- स्वीकारात्मक नैतिकता का अर्थ उन आकांक्षाओं को त्यागने की क्षमता का विकास करना है जिनके सन्तुष्ट होने से सामाजिक प्रगति के लिए प्रत्यक्ष रूप से कोई योग न दिया जा सकता है। डीवी के अनुसार- “शिक्षा का कार्य असहाय प्राणी की सुखी नैतिकता एवं कार्य कुशल बनाने में सहायता देना है।”

डीवी का शैक्षिक पाठ्यक्रम (Educational Curriculum of Dewey)

डीवी अपने समय के प्रचलित पाठ्यक्रम का विरोधी था। उसने पाठ्यक्रम निर्धारित करने के लिए निम्नलिखित सिद्धान्त बताये हैं-

1. रुचि का सिद्धान्त (Principle of Interest ) – डीजी के अनुसार पाठ्यक्रम का निर्माण बालकों की रुचियों के अनुसार किया जाना चाहिए। उसके अनुसार बालकों में चार प्रकार की रुचियाँ पाई जाती हैं- (अ) बातचीत करने की रुचि। (ब) खोज करने की रुचि । (स) रचना करने की रुचि। (द) कलात्मक अभिव्यक्ति की रुचि ।

उसने इन्हीं रुचियों के आधार पर पाठ्यक्रम का निर्माण करने को कहा है उसने पाठ्यक्रम भाषा, गणित, विज्ञान, इतिहास, भूगोल, पाक विज्ञान, सिलाई, बागवानी, कला संगीत और सहयोगी क्रियाओं को पाठ्यक्रम में स्थान दिया है।

2. लचीलेपन का सिद्धान्त (Principle of Flexibility) – डीवी ने पाठ्यक्रम निर्माण में लचीलेपन के सिद्धान्त को महत्त्व प्रदान किया है। उनके अनुसार पाठ्यक्रम में दृढ़ता नहीं होनी चाहिए। उसमें आवश्यकतानुसार परिवर्तन कर लेना चाहिए तभी बालकों की रुचियों और योग्यताओं का विकास हो सकता है।

3. एकीकरण का सिद्धान्त (Principle of Integration) – डीवी पाठ्यक्रम को विभिन्न विषयों में विभाजित करना उचित नहीं है। उसने विभिन्न विषयों का एकीकरण या समन्वय करने को कहा है। उसके अनुसार बालक का विकास अर्थपूर्ण तथा सामूहिक क्रियाओं में भाग लेने से होता है।

4. क्रियाशीलता का सिद्धान्त (Principle of Activity)- डीवी ने पाठ्यक्रम में क्रियाशीलता के सिद्धान्त को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। उनके अनुसार पाठ्यक्रम में उन क्रियाओं को स्थान देना चाहिए जिससे बालक अपने जीवन के मूल्यों का निर्माण कर सके। पाठ्यक्रम में वैयक्तिक और सहयोगी दोनों प्रकार की क्रियाओं को स्थान देना चाहिए।

5. उपयोगिता का सिद्धान्त (Principle of Utility)— डीवी पाठ्यक्रम में उन विषयों को स्थान देना चाहता है जिसकी मनुष्य के जीवन में उपयोगिता हो। मनुष्य के जीवन की मूलभूत के समस्याओं को हल करने में सहायक विषयों को पाठ्यक्रम में स्थान मिलना चाहिए। डीवी ने मूलभूत समस्याओं के विषय में लिखा है- “मनुष्य की मूलभूत समस्या सामान्य भोजन, निवास, वस्त्र, घर की सजावट और आर्थिक उत्पादन, विनिमय तथा उपभोग से सम्बन्धित है।”

6. बालकेन्द्रित पाठ्यक्रम (Child centred Curriculum) डीवी पाठ्यक्रम को बालकेन्द्रित रखने के लिए कहता है। उसके अनुसार पाठ्क्रम का निर्माण बालक की योग्यताओं, रुचियों और आवश्यकताओं के अनुसार होना चाहिए। इस प्रकार के पाठ्यक्रम में बालक रुचि लेता है और सीखने के लिए सदा तत्पर रहता है। पाठ्यक्रम में उद्देश्यपूर्ण सामाजिक क्रियाओं का भी स्थान दिया जाना चाहिए जिससे बालक को नागरिकता का प्रशिक्षण मिले और उनमें आत्मानुशासन उत्पन्न हो ।

7. सामाजिक अनुभव का सिद्धान्त (Principle of Social Experience) डीवी का कहना है कि पाठ्यक्रम में सामाजिक अनुभवों को स्थान दिया जाना चाहिए। इसके लिए विद्यालयों में सामाजिक वातावरण बनाये रखना चाहिए। बालकों को सहयोगी क्रियाओं में भी भाग लेना चाहिए। डीवी के अनुसार, “सामाजिक चातावरण में उसके किसी भी सदस्य की सभी क्रियायें आ जाती हैं। इसका प्रभाव उतनी ही मात्रा में वास्तविक रूप में शिक्षाप्रद होता है जितनी मात्रा में एक व्यक्ति समाज की सहयोगी क्रियाओं में भाग लेता है।”

शिक्षण विधि (Method of Teaching)

डीवी ने अपने समय की प्रचलित परम्परागत शिक्षण विधियों का विरोध किया है। उन्होंने शिक्षण विधि का अर्थ बताते हुए कहा है- “विधि का अर्थ पाठ्य-वस्तु की उस व्यवस्था से है जो उसको सर्वाधिक उपयोग के लिए व्यवस्थित करती हैं- विधि पाठ्य-वस्तु के विरुद्ध नहीं होती वरन् यह तो वांछित परिणामों की ओर पाठ्य-वस्तु का प्रभावशाली निर्देशन है।”

शिक्षण विधि के सिद्धान्त (Principle of Teaching Method)

डीवी ने शिक्षण विधि के निम्नलिखित सिद्धान्त बताये हैं-

  1. करके सीखना,
  2. स्वानुभव द्वारा सीखना,
  3. प्रयोग द्वारा सीखना,
  4. रुचि का सिद्धान्त,
  5. एकीकरण का सिद्धान्त।

डीवी के इन सिद्धान्तों को आधार मानकर किलपैट्रिक (Kilpatrick) ने योजना विधि (Project Method) का निर्माण किया था।

अनुशासन (Discipline )

डीवी प्रचलित अनुशासन का विरोधी है। उसने “सामाजिक अनुशासन” की स्थापना करने को कहा है। विद्यालयों में बालकों को सहयोगी क्रियायें कराई जानी चाहिए। इससे बालकों के प्राकृतिक आवेगों का सुधार अथवा शोधन (Sublimation) होता है। सामाजिक अनुशासन की स्थापना से बालक का नैतिक और चारित्रिक विकास होता है। डीवी ने कहा है कि यदि बालकों को उनकी रुचियों के अनुसार कार्य करने दिया जाता है तो वे स्वयं अनुशासन में रहते हैं। शान्तिपूर्ण वातावरण बना रहता हैं।

डीवी के अनुसार, “कार्य को करने से कुछ परिणाम निकलते हैं। यदि इन कार्यों को सामाजिक तथा सहकारी ढंग से किया जाये तो उनमें एक अपने प्रकार का अनुशासन उत्पन्न होगा।”

शिक्षार्थी (Student)

डीवी शिक्षक प्रक्रिया में बालक को केन्द्रीय स्थान देता है उसने शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम और शिक्षण विधि में बालक को केन्द्र बिन्दु माना है। वह बालक की रुचियों और आवश्यकताओं को महत्त्व देता है। वह बालक को स्वतन्त्रता देने के पक्ष में है। उनके अनुसार बालक को उसकी रुचि और क्षमता के अनुसार कार्य कराया जाना चाहिए। वह अपने मूल्यों व आदर्शों का स्वयं निर्माता है।

शिक्षक (Teacher)

डीवी ने शिक्षक के महत्त्व को कम नहीं किया है। उन्होंने उसके महत्त्व को कम करके बढ़ाया है। उन्होंने उसके महत्त्व को स्पष्ट करते हुए लिखा है, “शिक्षक सदैव परमात्मा का सच्चा पैगम्बर होता है। वह परमात्मा के राज्य में प्रवेश करने वाला है।”

डीवी शिक्षक से यह आशा करता है कि वह बालक के लिए सामाजिक वातावरण का निर्माण करेगा, जिससे उनका सामाजिक विकास हो सकेगा। शिक्षक को विद्यालय में ऐसा वातावरण रखना चाहिए जिससे बालक अपने मूल्यों और आदर्शों का निर्माण कर सकें। शिक्षक को बालक का मित्र और और मार्गदर्शक होना चाहिए।

विद्यालय (School)

डीवी के समय पर विद्यालयों में पुस्तकीय शिक्षा पर बल दिया जाता था और शारीरिक दण्ड द्वारा अनुशासन स्थापित किया जाता था। उसने इन विद्यालयों का घोर विरोध किया। उसने क्रियात्मक और प्रयोगात्मक विद्यालयों की स्थापना पर बल दिया। इन विद्यालयों में स्वतन्त्रता का वातावरण रहता है। बालक अपनी रुचि, योग्यता और क्षमता के अनुसार कार्य करता है। विद्यालयों में क्रियाओं और व्यवसायों; जैसे- सिलाई, बुनाई, बढ़ईगीरी, लुहारगीरी आदि को स्थान दिया जाता है। विद्यालयों में परिवार जैसा स्नेह और सहानुभूति का वातावरण होना चाहिए। डीवी विद्यालय को समाज का लघुरूप मानता है। उसने लिखा है- “विद्यालय अपनी चहारदीवारी के बाहर के वृहत् समाज की प्रतिच्छाया है जिसमें जीवन व्यतीत करके सीखा जा सकता है, परन्तु यह एक शुद्ध, सरलीकृत तथा उत्तम रूप से जीवन से सन्तुलित समाज होगा।” डीवी के अनुसार विद्यालय एक सामाजिक प्रयोगों की प्रयोगशाला है जहाँ विभिन्न क्रियायें कराई जाती हैं। डीवी के अनुसार- “विद्यालय को सामजिक प्रयोगों की प्रयोगशाला होना चाहिए जिसमें बालक एक-दूसरे के साथ रहकर जीवनयापन के सर्वोत्तम ढंगों को सीख सकें।”

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Anjali Yadav

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