त्रि-भाषा सूत्र किसे कहते हैं ? विवेचना कीजिए।
त्रिभाषा सूत्र
मुदालियर शिक्षा आयोग (1952-53) द्वारा प्रस्तुत ‘द्विभाषा सूत्र’ में अंग्रेजी भाषा की उपेक्षा किये जाने के कारण उसका विरोध किया गया। अंग्रेजी भाषा के समर्थकों ने अंग्रेजी का पक्ष लेकर हिन्दी का विरोध किया तथा 15 वर्ष तक अंग्रेजी भाषा चलती रहने की बात को लेकर हिन्दी के समर्थकों ने अंग्रेजी का विरोध किया। इन परिस्थितियों में भाषा सम्बन्धी विवाद को अन्तिम रूप से हल करने के लिए सन् 1956 में ‘केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार परिषद ने त्रिभाषा-सूत्र को प्रस्तुत किया, जिसे राधाकृष्णन शिक्षा आयोग (1948-49) ने कुछ परिवर्तित रूप में प्रतिपादित किया था। त्रिभाषा सूत्र की मुख्य बातें निम्नलिखित थीं-
- प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर पर शिक्षा का माध्यम मातृभाषा अथवा क्षेत्रीय भाषा हो
- अंग्रेजी या अन्य कोई आधुनिक यूरोपीय भाषा हो ।
- हिन्दी (अहिन्दी भाषी क्षेत्रों के लिए) एवं अन्य कोई आधुनिक भारतीय भाषा (हिन्दी भाषी क्षेत्रों के लिए)।
इस सूत्र के अनुसार बालक-बालिकाओं को तीन भाषाएँ पढ़नी पड़ेंगी। इसीलिए इसे सूत्र कहते हैं। यद्यपि इस सूत्र में अनेक गुण थे, फिर भी इसे विशेष सफलता नहीं प्राप्त त्रिभाषा हुई। इस सूत्र को लेकर संसद और देश में काफी वाद-विवाद हुआ। कारण यह था कि हिन्दी भाषी क्षेत्रों में अन्य किसी भारतीय भाषा की व्यवस्था के स्थान पर केवल संस्कृत भाषा को ही पढ़ाने की व्यवस्था की गई तथा अहिन्दी भाषी प्रदेशों द्वारा हिन्दी का विरोध किया गया।
सन् 1961 में मुख्यमंत्रियों की एक कान्फ्रेन्स में इस सूत्र का एक सरल रूप स्वीकार किया गया, जिसका कारण सामाजिक एवं राजनीतिक था, न कि शैक्षिक। इस सूत्र द्वारा अहिन्दी भाषी राज्यों के छात्र अपनी मातृभाषा अथवा क्षेत्रीय भाषा के अतिरिक्त एक राष्ट्र भाषा तथा अंग्रेजी भाषा का भी अध्ययन कर सकेंगे ताकि वे राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में भी सुविधानुसार कार्य कर सकें। त्रिभाषा सूत्र में निम्नलिखित दोष भी पाये जाते हैं-
- माध्यमिक स्तर पर बालक का पाठ्यक्रम अत्यन्त बोझिल हो जाता है, क्योंकि उसे अनिवार्य तथा वैकल्पिक विषयों के साथ-साथ तीन भाषाएँ भी पढ़नी पड़ेंगी।
- विद्यालयों में यदि छात्र विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं को वैकल्पिक विषय के रूप में स्वीकार करें, तो विद्यालय के लिए विभिन्न भाषाओं के अध्ययन कराने की व्यवस्था करना सम्भव न होगा।
- यदि सभी भाषाओं के पठन-पाठन की योजना तैयार की जाए, तो बहुत बड़ी संख्या में प्रशिक्षित शिक्षकों को उपलब्ध करना एक कठिन कार्य है।
- त्रिभाषा सूत्र के कार्यान्वयन में विशाल धनराशि की आवश्यकता होगी।
सन् 1961 में डॉ० सम्पूर्णानन्द की अध्यक्षता में भावात्मक एकता समिति का गठन किया गया, जिसने त्रिभाषा-सूत्र को निर्मित और कार्यान्वित करने के लिए सुझाव दिए। सन् 1962 में स्व. श्रीमती इन्दिरा गांधी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय एकता परिषद गठित की गई। इसने भी त्रिभाषा – सूत्र का समर्थन किया। सन् 1964 में गठित कोठारी आयोग ने एक संशोधित त्रिभाषा – सूत्र प्रस्तुत किया और इसमें कुछ परिवर्तन करने का सुझाव दिया। इस संशोधन के अनुसार हिन्दी को ‘राजभाषा’ के रूप में मान्यता दी गई, किन्तु यह भी स्पष्ट कर दिया गया कि अनिच्छुक राज्यों/प्रदेशों पर इसे लादा न जाए। संशोधित त्रिभाषा – सूत्र का मूल उद्देश्य यह है कि मातृभाषा अथवा क्षेत्रीय भाषा का अध्ययन प्राथमिक से माध्यमिक स्तर तक सभी छात्र निश्चित रूप से करें। संघीय भाषा का अध्ययन सम्पूर्ण देश में किया जाए यानी हिन्दी और अंग्रेजी। तीसरा भाषा (एक आधुनिक भारतीय या विदेशी) भाषा का अध्ययन शैक्षिक और राष्ट्रीय दृष्टिकोण से कराया जाए।
विभिन्न शिक्षा आयोगों ने भाषा के माध्यम की समस्या को हल करने के लिए जो सुझाव दिए हैं, वे उपयोगी होते हुए भी अन्तिम रूप से समस्या का समाधान करने में समर्थ नहीं प्रतीत होते हैं।
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