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धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा आप विद्यार्थियों में किस प्रकार विकसित करेंगे?

धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा आप विद्यार्थियों में किस प्रकार विकसित करेंगे?
धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा आप विद्यार्थियों में किस प्रकार विकसित करेंगे?
धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा आप विद्यार्थियों में किस प्रकार विकसित करेंगे? इसके लिए अधिगम सामग्री की व्यवस्था कीजिए?

धर्म-निरपेक्षता :- प्राचीन काल में संसार भर में मानव पर धर्म का अबाध अधिकार था। जीवन का कोई भी कार्य ऐसा नहीं था जिसमें धर्म का बोलबाला न हो। प्रत्येक देश और उसकी राजनीति पर धर्म का पूरा पूरा प्रभाव था। संसार में अनेक धर्म राज्य थे। यूरोप में रोम का पोप सबसे बड़ा धर्माधिकारी होता था। वह अपनी इच्छा जिस मनुष्य को चाहता, सिंहासन पर बैठा देता अथवा गद्दी से हटा देता था। यूरोप में कैथोलिक और प्रोटेस्टेन्ट धर्मावलम्बियों में बहुत समय तक भीषण संघर्ष चलता रहा।

इसी प्रकार ईसाई धर्म और मुसलमान धर्म वालों में कई शताब्दियों तक भंयकर युद्ध चलते रहे। प्रजा के अधिकांश निवासी या तो राजा के प्रति भक्ति-भाव के कारण राजधर्म स्वीकार कर लेते थे अथवा डरवश उनको यह धर्म स्वीकार करने को विवश किया जाता था। इसमें हिचकिचाहट करने पर अथवा स्वतंत्र विचार प्रकट करने वाले को राजद्रोही घोषित करके अनेक प्रकार की भीषण यातनाऐं दी जाती थी। इस प्रकार जब तक विश्व में राजाओं सामन्तों, पोप-पुजारियों और धर्म-गुरूओं का प्रभुत्व रहा, तब तक राजनीति पर धर्म का अधिपत्य बना रहा। धर्म की सहायता से राज्य की सीमा वृद्धि होती रही और राज्य की सहायता से धर्म का प्रचार भी होता रहा।

“सबै दिन जात न एक समान” युग बदला, चारों और परिवर्तन की पुकार सुनाई पड़ने लगी। व्यक्तिगत, निरंकुशता के स्थान पर समाज तथा समष्टिवाद की गूंज उठने लगी। भीषण क्रान्तियों ने अपनी भीषण ज्वाला में निरंकुशवाद, सामान्तवाद, कुलीनतन्त्र तथा धर्मतन्त्र को आत्मसात् कर लिया। सर्वत्र प्रजातन्त्र और लोकतन्त्र की भावना सबके हृदयों पर शासन करने लगी। राजनीति और धर्म का सम्बन्ध धीरे धीरे अलग होने लगा।

धर्म-निरपेक्षता एक नारा नहीं, कुछ मूल्यों का नाम है, एक जीवन पद्धति का नाम है। वर्तमान साम्प्रदायिक दंगों की प्रतिक्रिया नहीं, ऐतिहासिक एवं शाश्वत प्रक्रिया है। सर्वधर्म समभाव का पर्याय है, जिसमें सभी धर्मों की समानता के प्रति समझ और सहिष्णुता का दृष्टिकोण हैं।

विभिन्न धर्मों में पारस्परिक सहिष्णुता धर्म-निरपेक्षता है। धार्मिक-उन्माद को रोकने का नाम धर्म-निरपेक्षता है। यह कार्य अनादिकाल से चल रहा है और यह यज्ञ अनन्तकाल तक चलता रहेगा। धर्म-निरपेक्षता का नारा भारतीय संस्कृति में विद्यमान मन्त्र है। अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में कहा है – “जंन विभ्रति बहुधा विवाचसम् । नानाधर्माणं पृथिवी यथौकसम् ।” (यह पृथ्वी जो विभिन्न मतों और भाषाओं के लोगों को आश्रय देती है, हम सबका कल्याण करे)। इसमें आगे कहा गया है कि हे माँ पृथ्वी! हमें अपने पुत्रों के रूप में ऐसी शक्ति दो कि हम आपस में सद्भावनापूर्वक बातचीत करें। ऋग्वेद को ‘एकैव मानुषी जाति: ‘(सभी प्राणी एक ही जाति के हैं) पर बल देता है।

धर्म-निरपेक्षता कोई नकारात्मक अवधारणा नहीं, सकारात्मक अवधारणा है। इसका अर्थ धर्म-विरोधी या अधार्मिक होना भी नहीं। सीधे-सादे रूप में इसका अर्थ है, सभी धर्मों, आस्थाओं और विश्वासों के प्रति सम्मान तथा नास्तिकवाद सहित किसी भी धर्म को चुनने और पालन करने के अधिकार का प्रयोग। इस अधिकार का प्रयोग इस प्रकार होना चाहिए कि वह दूसरे व्यक्ति द्वारा इस अधिकार के प्रयोग के रास्ते में आड़े न आए। धर्म पालन सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अनुरूप हों।

धर्म निरपेक्ष राज्य भले ही स्वयं को किसी विशेष धर्म के साथ न जोड़ें, किन्तु उसे वह वातावरण उपलब्ध कराना होगा, जिसमें सभी नागरिक इच्छानुकूल उपासना पद्धति के अधिकार का प्रयोग कर सकें। लोकतन्त्र में धर्मतन्त्र का कोई मूल्य नहीं। लोकतान्त्रिक और धर्मातांत्रिक राज्य साथ साथ नहीं चल सकते। भारतीय संविधान ने विशेष रूप से धर्म-निरपेक्षता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को व्यक्ति तथा धर्म, एक धर्म तथा दूसरे धर्म, धर्म एवं राज्य तथा राज्य और व्यक्ति के बीच वांछनीय सम्बन्धों की सुस्पष्ट समझ के आधार पर मुखरित किया है। अनुच्छेद 51 अ” इंगित करता है कि भारत के हर नागरिक का कर्त्तव्य होगा कि वह भारत के सभी लोगों में धार्मिक, भाषाई, क्षेत्रीय या प्रभागीय विविधताओं से आगे जाकर सामंजस्य तथा भाई चारे की भावना को प्रोत्साहित करे, महिलाओं की गरिमा के विरूद्ध हर रिवाज को छोड़ दे, हमारी सामाजिक संस्कृति की समृद्ध विरासत की कद्र और रक्षा करे, वैज्ञानिक मिजाज, मानवतावाद तथा अन्वेषण एवं सुधार की भावना का विकास करे। जनवरी 1977 में भारतीय संविधान के प्राक्कथन को संशोधित कर उसमें भारत को संप्रभुता सम्पन्न समाजवादी धर्म-निरपेक्ष लोकतान्त्रिक गणराज्य घोषित किया गया। इस प्रकार मूल पाठ में ‘समाजवादी’ तथा ‘धर्म-निरपेक्ष’ शब्द जोड़े गए।

भारत एक विशाल राष्ट्र है। यहां धर्म की विविधता और उपासना-पद्धतियों की विभिन्नता है। भाषा और वेश-भूषा की अनेकता है, जीवन पद्धति और जीवन स्तर की बहुरूपता है। अतः यहाँ धर्म-निरपेक्षता ही सुख-शान्ति और समृद्धि का मूल है इसके लिए आवश्यकता है भारतीयकरण की। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में, जन जन के हृदय में भारतीयता का साक्षात्कार और उसके साथ स्वयं को एकाकार करना, यही आज की आवश्यकता है। इस एकता को बलशाली बनाने का नाम है भारतीयकरण। यही धर्म निरपेक्षता की रीढ़ की हड्डी है। धर्म-निरपेक्षता का पाठ भारत के शिशु को प्राथमिक शाला से आरम्भ करना होगा। शिक्षा में नैतिकता का विषय अनिवार्य करना होगा। सब धर्मों के समान सूत्रों सभी धर्म-गुरूओं की आप्तवाणी तथा एकेश्वरवाद के सिद्धांतों को नैतिकता के पाठ्यक्रम के अन्तर्गत लाना होगा तभी भारत का युवक सच्चे अर्थों में धर्म निरपेक्ष होगा, सभी धर्मों के प्रति सहिष्णु होगा। भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. शंकार दयाल शर्मा जी के शब्दों में – भारतीय स्वभाव में धर्म-निरपेक्षता एक ऐसा तत्व है, जिसे सभी नागरिकों को अपने सभी कार्यों से परिपुष्ट करना चाहिए। हमारी राष्ट्रीय राजनीति का यह तथ्य सिर्फ हमारे राष्ट्र तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसमें विश्व के सभी लोगों और देशों के लिए एक संदेश निहित है, जो मानवता के भविष्य का पथ प्रशस्त करता है।” अतएव धर्म निरपेक्षता गतिशीलता और विकास का द्योतक है।

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Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

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