निर्देशन की परामर्शात्मक विधि का उल्लेख कीजिए।
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परामर्शात्मक विधि (Consultative or Participative Technique)
इस विधि के अन्तर्गत अधिकारी और अधीनस्थ सूचनाओं का आदान-प्रदान करते हैं तथा विभिन्न वैकल्पिक साधनों पर परस्पर विचार विमर्श करते हैं। इस विधि का मुख्य लक्षण यह है कि अधिकारी अपने अधीनस्थों से समस्या के तथ्यों, कारणों, सम्भावनाओं और सुझावों के सम्बन्ध में विचार-विमर्श करके ही कोई निर्णय या निर्देश निर्गमित करते हैं। इसलिए इस प्रकार की निर्देशन विधि में यह आवश्यक होता है कि अधिकारी अपने अधीनस्थों के सुझावों और प्रतिक्रियाओं का स्वागत करने को तत्पर हो, जिससे कि अधीनस्थ से नए-नए सुझाव और विचार मिल सकें और उसकी निर्देश- प्रक्रिया में सहायक हो सकें। लेकिन यदि कोई अधिकारी परामर्शात्मक निर्देशक होने का बहाना तो करता है, किन्तु वास्तव में, अधीनस्थों के सुझावों, विचारों और प्रतिक्रियाओं को सुनने की उसकी कोई आन्तरिक इच्छा नहीं है तो इससे बड़ा धोखा और क्या हो सकता है। फिर इसके परिणाम भी गम्भीर निकलते हैं। इस विधि के प्रयोग से किसी भी प्रकार प्रबन्धक के अधिकार या प्रतिष्ठा में कमी नहीं आती, क्योंकि निर्णय लेने एवं निर्देश निर्गमित करने का अंतिम अधिकार तो उसी के हाथ में रहता है।
वास्तव में, निर्देशन में प्रबनध्क का मुख्य उद्देश्य अधीनस्थों को उचित दिशा में प्रेरित करना, उनका सहयोग और विश्वास प्राप्त करना, और उनका उचित विकास करना होता है, और परामर्शात्मक निर्देशन विधि इन्हीं सबके परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई है। अगर प्रबन्धक द्वारा अधीनस्थों के सुझावों, विचारों और प्रतिक्रियाओं को उचित सम्मान दिया जाता है, तो निश्चितरूप से सहयोग, विश्वास और अभिप्रेरण में सफलता मिलती है। लेकिन अधीनस्थों का सहयोग या परामर्श किस हद तक लिया जाय, यह बहुत सी बातों पर निर्भर करता है, जैसे, अधीनस्थों का पूर्व अनुभव और उनकी मनःस्थित, समस्या का स्वभाव, उपलब्ध समय, अधिकारी का प्रबन्ध दर्शन एवं स्वभाव, विद्यमान वातावरण, आदि। अगर अधीनस्थों को ऐसा विश्वास है कि अधिकारी ही सब कुछ जानता और समझता है और निर्णयन या निर्देशन से उनका कोई संबंध नहीं है, तो वास्तव में, इस बात की संभावना बहुत कम हो जाती है कि कोई प्रभावकारी सहयोग या परामर्श अधीनस्थों से मिल सकेगा, या परामर्श का कोई प्रभावकारी असर अधीनस्थों के मनोबल या अभिप्रेरण पर होगा। इसी प्रकार, यदि अधीनस्थ ऐसा विश्वास करते हैं कि प्रबन्धक अकुशल और अयोग्य हैं, या परामर्श का केवल बहाना मात्र है, और उसके पीछे सहयोग या परामर्श पाने की कोई इच्छा नहीं है, या अधीनस्थ पहले से ही पक्षपात की भावना के शिकार हैं, तो भी कोई प्रभावपूर्ण परामर्श सम्भव नहीं है। अगर इस विधि को सफल बनाना है तो यह आवश्यक है कि अधीनस्थ अधिकारी की बात सुनने एवं उचित परामर्श की मनःस्थिति में हों और अधिकारी उनके सहयोग और विचारों का स्वागत करने को तत्पर हों।
यदि अधिकारी उनको प्रशासनात्मक ढंग या आदेशों के माध्यम से ही निर्देशित करना चाहेगा तो अधीनस्थ अपना परामर्श, स्वतंत्र विचार और सुझाव देने से सदैव डरते रहेंगे और अधिकारी आवश्यक परामर्श से वंचित ही रहेगा। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि अधिकारी अधीनस्थों को विचार-विमर्श करने एवं परामर्श देने के लिए पर्याप्त अवसर प्रदान करे। यह भी श्रेयस्कर होगा कि समस्या एवं उससे सम्बन्धित सभी तथ्य अधीनस्थों को काफी पूर्व में बता दिए जाएं, जिससे कि वे उन पर सोच-विचार कर सकें और अपने रचनात्मक विचार एवं सुझाव समझ रख सकें। कभी-कभी कुछ प्रबन्धक या अधीनस्थ यह समझते हैं कि परामर्शात्मक निर्देशन से तात्पर्य मतों द्वारा प्रबन्धकीय निर्णय लेने से है तो यह धारणा गलत है और अधिकारी के निर्णयन एंव निर्देशन के अधिकार पर कुठाराघात करती है। यह विधि परामर्श लेने तक ही सीमित है, निर्णय और निर्देशन का अन्तिम अधिकार तो अधिकारी का ही होता है और होना भी चाहिए।
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