परिवर्तन के प्रबन्ध से क्या आशय है ? | यह कितने प्रकार का होता है ? | इसकी प्रकृति की विवेचना कीजिए। | What is meant by management of change? | What are its types and Nature of change?
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परिवर्तन के प्रबन्ध (Management of Change)
परिवर्तन प्रकृति नियम है। जो कल था, वह आज नहीं है, जो आज है वह कल नहीं होगा। क्षेत्र चाहे धार्मिक हो, राजनीतिक, सामाजिक हो, आर्थिक हो या व्यावसायिक सभी में निरन्तर हो रहे हैं और यह क्रम आगे भी जारी रहेगा। व्यवसाय के क्षेत्र में एक समय था, जब प्रबन्धक कर्मचारी को उत्पादन करने वाली मशीन मानते थे। उसमें परिवर्तन हुआ और कर्मचारी को उत्पादन का प्रमुख अंग माना गया और अब उसे उपक्रम का सहभागी माना जाता है। इसी प्रकार पुरानी व्यवस्था की कमियों को दूर करते हुए नई व्यवस्था को अपनाना ही परिवर्तन है। विभिन्न विद्वानों ने परिवर्तन को इस प्रकार परिभाषित किया है-
डी० पी० सियालमी के अनुसार, “परिवर्तन प्रबन्ध वह व्यवस्थित या नियोजित प्रक्रिया है, जिसके द्वारा संस्था के आन्तरिक एवं बाह्य वातावरण के परिवर्तनों का अध्ययन करके संस्था की संरचना, तकनीकी कार्यों तथा कर्मचारियों के व्यवहार तथा मूल्यों में आवश्यक परिवर्तन करने का व्यवस्थित प्रयास किया जाता है ताकि संस्था को भावी आघातों या सदमों से बचाकर दीर्घकाल तक उसकी सफलता को सुनिश्चित किया जा सके।”
स्टोनर एवं फ्रीमैन के अनुसार, “किसी संगठन की पुनः रूपरेखा बनाने या एक ऐसा विधिवत प्रमाण को बाहरी पर्यावरण में हुए परिवर्तन के अनुरूप बनने अथवा नये लक्ष्य प्राप्त करने में सहायक सिद्ध हो परिवर्तन का प्रबन्ध है। “
उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि परिवर्तन प्रबन्ध की एक श्रृंखला है जो निरन्तर जारी रहती है। अन्य शब्दों में जिस प्रक्रिया द्वारा एक प्रस्तावित परिवर्तन सम्पन्न किये जाते हैं उसे ही परिवर्तन के प्रबन्ध की संज्ञा दी जाती है।
परिवर्तन के प्रकार (Types of Changes)
व्यावसायिक जगत में परिवर्तनों का क्षेत्र इतना व्यापक है कि उनकी सूची बनाना वास्तव में एकीकृत कार्य हैं। परिवर्तन की नीति, उद्देश्य, सिद्धान्त तथा कार्यप्रणाली से सम्बन्धित हो सकते हैं अथवा कम्पनी के उत्पाद, उत्पादन की विधियों, कच्चे माल के उपयोग, श्रम तथा विपणन आदि से सम्बन्धित हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त परिवर्तन का क्षेत्र कम्पनी के प्रबन्ध, दर्शन, संगठन कलेवर, संयंत्र अभिन्यास तथा ले-आउट आदि से सम्बन्धित हो सकता है। एडविन बी० फिलिप्पो ने परिवर्तन को तीन श्रेणियों में हेरोल्ड जेलोविट ने चार श्रेणियों तथा हेनरी एगर तथा हैकमैन ने पाँच श्रेणियों में विभक्त किया है, जिन्हें अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से निम्न दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है-
(I) बाहरी परिवर्तन— जो परिवर्तन उपक्रम के साथ व्यवहार करने वालों के कारण होते हैं उन्हें बाहरी परिवर्तन कहते हैं। जो निम्नलिखित हैं-
(1) आर्थिक परिवर्तन- आर्थिक परिवर्तनों में, आर्थिक नियोजन में परिवर्तन, चलन की मुद्रा की मात्रा में परिवर्तन, औद्योगिक नीति में परिवर्तन, पूँजी बाजार, कच्चे माल और माँग आदि में परिवर्तन तथा देश की आयात-निर्यात नीति में परिवर्तनों को शामिल करते हैं अतः यह जरूरी है कि उपक्रम को अपनी नीतियाँ इन परिवर्तनों को ध्यान में रखकर बनानी चाहिए।
(2) स्थिति सम्बन्धी परिवर्तन- ऐसे परिवर्तनों से आशय औद्योगिक अथवा व्यावसायिक इकाई की स्थापना से सम्बन्धित परिवर्तनों से है। इसमें बाजार क्षेत्र, संचार के साधन, कच्चे माल के स्रोत शक्ति के स्रोत, आवास सुविधाएँ आदि को सम्मिलित करते हैं। प्रबन्धकों की ऐसे परिवर्तनों के प्रति भी सदैव सतर्कता से काम लेना चाहिए।
(3) तकनीकी एवं औद्योगिक परिवर्तन— ऐसे परिवर्तन जो विज्ञान की प्रगति के साथ साथ जन्म लेते हैं उन्हें तकनीकी एवं औद्योगिक परिवर्तन कहते हैं। तकनीकी परिवर्तन उत्पादन प्रक्रिया को जहाँ उन्नतिशील बनाते हैं, वहीं प्रौद्योगिकी परिवर्तन संगठन के कार्यों को कुशलतापूर्वक संचालित करने में सहायक होते हैं।
(4) सरकार सम्बन्धी परिवर्तन- सरकार का परिवर्तन भी प्रबन्ध को प्रभावित करता है सरकारी परिवर्तनों में औद्योगिक नीति, प्रशुल्क नीति, मौद्रिक नीति, आयात-निर्यात नीति, लाइसेन्सिंग नीति, श्रम नीति, कराधान नीति आदि को सम्मिलित किया जाता है। अतः यह आवश्यक है कि प्रबन्ध को इन नीतियों का अध्ययन करने के पश्चात् ही नीतियाँ बनानी चाहिए।
(5) समाजशास्त्रीय परिवर्तन- औद्योगिक जगत में जहाँ तकनीकी व प्रौद्योगिक परिवर्तन तीव्र गति से हो रहे हैं वहीं उपक्रम को समाजशास्त्रीय परिवर्तन भी प्रभावित करते हैं।
(II) आन्तरिक परिवर्तन- ऐसे परिवर्तन जो उपक्रम के अन्दर होते हैं उन्हें इस वर्ग में रखते हैं ऐसे परिवर्तनों का उद्देश्य उपक्रम की आर्थिक स्थिति को और अधिक सरल बनाना है जो निम्नलिखित है—
(1) प्रबन्धकीय परिवर्तन— उपक्रम के प्रबन्धकीय ढाँचे में होने वाले परिवर्तन जैसे— प्रबन्ध के स्वरूप में परिवर्तन, संगठन तालिका में परिवर्तन, शीर्ष प्रबन्ध में परिवर्तन, सेविवर्गीय नीति में परिवर्तन आदि को इस वर्ग में रखा जाता है। इन परिवर्तनों का प्रभाव प्रबन्ध के भावी विकास, चिन्तन कार्यक्षेत्र तथा उसकी भावी क्रियाओं पर पड़ता है।
(2) विकास सम्बन्धी परिवर्तन – इन परिवर्तनों में प्रबन्धकीय चातुर्य, वित्त, बाजार का स्थायित्व, विनियोजन सम्बन्धी निर्णय,उत्पाद की किस्म एवं माँग, विदेशी विनिमय स्थिति, सामाजिक, आर्थिक पूर्वानुमान एवं सर्वेक्षण को शामिल करते हैं। प्रबन्धक को योजनाओं को बनाने एवं उसका क्रियान्वयन करते समय इन परिवर्तनों को ध्यान में रखना चाहिए।
(3) परिचालन सम्बन्धी परिवर्तन – इन परिवर्तनों में भरती, चयन एवं प्रशिक्षण नीति, मजदूरी भुगतान पद्धति, बाजार सर्वेक्षण, प्रबन्धकीय चातुर्य, विकास एवं मानव शक्ति, नियोजन, शक्ति के साधन, विनियोजन नीति, लाभदायकता अनुपात आदि को सम्मिलित करते हैं। इन परिवर्तनों के संदर्भ में प्रबन्ध को अपने भावी विकास के कार्यक्रमों पर विचार करना चाहिए एवं उनमें आवश्यक समायोजन करते रहना चाहिए।
(4) संरचनात्मक परितर्वन— उपक्रम की संगठन संरचना को प्रभावित करने वाले परिवर्तनों को इस वर्ग में रखा जाता है। इन परिवर्तनों में संगठन के प्रारूप में परिवर्तन, अधिकार सत्ता का केन्द्रीयकरण व विकेन्द्रीयकरण, कार्य प्रवाह में परिवर्तन, संचार प्रणालियों में परिवर्तन आदि को सम्मिलित करते हैं। इन परिवर्तनों का प्रभाव प्रबन्ध की गतिशीलता एवं प्रभावशीलता पर पड़ता है।
(5) रूपांकन सम्बन्धी परिवर्तन- इसमें उत्पादित वस्तु के रंग-रूप व डिजाइन में होने वाले परिवर्तन शामिल किये जाते हैं।
(6) विधियों एवं प्रक्रियाओं सम्बन्धी परिवर्तन – इन परिवर्तनों में उपक्रम की उत्पादन पद्धतियों में होने वाले परिवर्तनों को शामिल करते हैं।
(7) संयन्त्र सम्बन्धी परिवर्तन – उपक्रम में संलग्न संयंत्रों में होने वाले परिवर्तन को इस वर्ग में रखते हैं।
परिवर्तन की प्रकृति (Nature of Change)
परिवर्तन की प्रकृति को इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है-
(1) व्यक्तिगत बनाम संगठनात्मक परिवर्तन- कर्मचारी की व्यक्तिगत विशेषताएँ, जैसे उसकी प्रवृत्ति, विश्वास अवधारणा, मूल्य व में होने वाला परिवर्तन व्यक्तिगत कहलाता है जबकि समूह के व्यवहार में लाया जाने वाला परिवर्तन संगठनात्मक कहलाता है ।
(2) प्रमुख बनाम गौण परिवर्तन- ऐसा परिवर्तन, जो संगठन के सभी अवयवों को प्रभावित करता हो तथा अभिनव तरीके से आया है। उसे प्रमुख परिवर्तन कहते हैं जैसे आर्थिक एवं तकनीकी परिवर्तन इसके विपरीत जो परिवर्तन निरन्तर आते हैं कुछ व्यक्तियों को ही प्रभावित करते हैं, उन्हें गौण परिवर्तन कहते हैं। गौण परिवर्तनों की भविष्यवाणी आसानी से की जा सकती है।
(3) विकासात्मक बनाम क्रान्तिकारी परिवर्तन- उपक्रम को विकास की विभिन्न अवस्थाओं से होकर गुजरना पड़ता है । यदि एक अवस्था से दूसरी अवस्था में पहुँचने की गति धीमी है तो इसे विकासात्मक परिवर्तन कहते हैं । इस परिवर्तन का विरोध कम होता है और इसमें जोखिम भी नहीं होता इसके विपरीत तेज गति से होने वाला परिवर्तन क्रान्तिकारी परिवर्तन कहलाता है। इसमें जोखिम अधिक होता है और इसका विरोध भी अधिक होता है।
(4) निष्क्रिय बनाम सक्रिय परिवर्तन- ऐसा परिवर्तन जिसके लिए उपक्रम को कोई विशेष तैयारी न करनी पड़े निष्क्रिय परिवर्तन कहलाता है और जहाँ विशिष्ट व्यवस्था की जाये वह सक्रिय परिवर्तन कहलाता है।
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