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पूँजी एवं आयगत का अर्थ तथा परिभाषाएँ | Meaning and Definitions of Capital and Revenue in Hindi

पूँजी एवं आयगत का अर्थ तथा परिभाषाएँ | Meaning and Definitions of Capital and Revenue in Hindi
पूँजी एवं आयगत का अर्थ तथा परिभाषाएँ | Meaning and Definitions of Capital and Revenue in Hindi

पूँजी एवं आगम से क्या अभिप्राय है? पूँजीगत तथा आयगत मदों का वर्गीकरण स्पष्ट कीजिए। What is meant by Capital and Revenue? Explain the classification of Capital and Revenue Items. 

पूँजी एवं आयगत का अर्थ तथा परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Capital and Revenue)

पूँजी का अर्थ (Meaning of Capital)

पूँजी से आशय सम्पत्ति में विनियोजित धन के उस भाग से है जो कि अतिरिक्त धन कमाने के लिए अथवा उत्पादन करने के लिए व्यवसाय में विनियोजित होता है। दूसरे शब्दों में समस्त सम्पत्तियाँ जो व्यवसाय में उत्पादन करने अथवा आय कमाने में प्रयुक्त होती हैं, पूँजी कहलाती है; जैसे- भवन, मशीन, फर्नीचर, मोटर आदि । पूँजी के स्वभाव वाले व्यय से व्यवसाय में स्थायित्व आता है तथा लाभ कमाने की शक्ति में वृद्धि होती है ।

आय का अर्थ (Meaning of Revenue)

आय से आशय उस आय से है जोकि प्रत्येक लेखा वर्ष में व्यवसाय में प्रयुक्त सम्पत्तियों से प्राप्त होती हैं किन्तु यह आय अस्थायी होती है। आय मदें व्यापार को चालू रखन में सहायक होती हैं। यही कारण है कि लेख-वर्ष के अन्त में इन मदों को लाभ-हानि खाते में डालकर अपलिखित कर समाप्त कर दिया जाता है। इसके विपरीत, पूँजी व्ययों को सम्पत्ति के रूप में आर्थिक चिट्टे में प्रदर्शित किया जाता है।

श्री कार्टर के अनुसार, “पूँजी मदें वे हैं जिनका लाभ अनेक लेखा वर्षों में प्राप्त होता है, जबकि आगम मदें वे हैं जिनका पूर्ण लाभ सम्बन्धित लेखाविधि में ही प्राप्त हो जाता है। “

पूँजी मदों का सम्बन्ध व्यापार के चिट्ठे से होता है, जबकि आगम मदों का सम्बन्ध व्यापार के लाभ व हानि से होता है। आगम स्वभाव के व्ययों को अन्तिम खाते बनाते समय लाभ-हानि खाते में ले जाकर अपलिखित कर दिया जाता है, जबकि पूँजी स्वाभाव के व्ययों को चिट्ठे में सम्पत्ति अथवा दायित्व के रूप में दर्शाया जाता है। अतः बहीखातें के सिद्धान्तों के अनुसार प्रविष्टि करते समय व्ययों तथा प्राप्तियों की प्रकृति जानना आवश्यक है अर्थात सम्बन्धित मद पूँजी की प्रकृति की है अथवा लाभ की प्रकृति की है।

 पूँजी एवं आगम में अन्तर करने की आवश्यकता (Need or Necessity of Differentiation Between Capital and Revenue)

पूँजी एवं आगम में अन्तर करने की निम्नलिखित कारणों से आवश्यकता है-

(1) सही एवं शुद्ध लाभ ज्ञात करने के लिए— व्यापार करने एवं हिसाब-किताब रखने के मुख्य उद्देश्य व्यापारिक वर्ष के अन्त में व्यापार का वास्तविक लाभ-हानि ज्ञात करना है। आगम मर्दों का सम्बन्ध लाभ-हानि खाते से होता है तथा पूँजीगत मदों का सम्बन्ध चिट्ठे से होता है। यदि आगम एवं पूँजीगत मदों में भेद नहीं किया गया तो लाभ-हानि खाता वास्तविक लाभ या हानि प्रकट नहीं करेगा। उदाहरणार्थ-एक व्यापारी ने पुरानी मशीन बेची और उसे विक्रय खाते में लिख दिया। इससे उसका विक्रय बढ़ जायेगा व लाभ भी, जो अशुद्ध होगा।

(2) सही आर्थिक स्थिति की जानकारी प्राप्त करने के लिए— प्रत्येक व्यापारी वर्ष के अन्त में चिट्ठा सही आर्थिक स्थिति ज्ञान करने के उद्देश्य से बनाता है। चिट्ठा सही स्थिति उसी समय प्रकट करेगा जबकि सम्पत्तियों से सम्बन्धित समस्त मदों को चिट्ठे में सम्मिलित कर लिया गया हो। अतः पूँजीगत मदों एवं आगम मदों में अन्तर करना आवश्यक होता है।

(3) मूल्य ह्रास की व्यवस्था करने के लिए- वर्ष के अन्त में चिट्ठे में सम्पत्तियों उनके वास्तविक मूल्य पर दर्शाने एवं ह्रास की उचित व्यवस्था करने के लिए पूँजीगत एवं आगम मदों में अन्तर करने की आवश्यकता रहती है।

(4) आयकर का भुगतान करने हेतु— बड़े व्यापारियों को प्रतिवर्ष आयकर देना होता है। आयकर पूँजीगत मदों व आगम मदों पर भिन्न दरों से निर्धारित होता है। अतः आयकर का उचित रूप में भार पड़े, इस दृष्टि से भी पूँजीगत एवं आगम मदों में भेद करना नितान्त आवश्यक है।

(5) न्यायिक दृष्टि से – लेखांकन के सिद्धान्तों एवं नियमों के अनुसार प्रत्येक लेनदेन का सही लेखा करने के लिए पूँजीगत एवं आयगत मदों में अन्तर करना आवश्यक है।

पूँजीगत तथा आयगत मदों का वर्गीकरण (Classification of Capital and Revenue Items)

अध्ययन में सुविधा की दृष्टि से पूँजीगत तथा आयगत मदों का वर्गीकरण निम्नलिखित पाँच शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है-

  1. पूँजीगत तथा आयगत व्यय (Capital and Revenue Expenditure)
  2. पूँजीगत तथा आयगत प्राप्तियाँ (Capital and Revenue Receipts)
  3. पूँजीगत तथा आयगत भुगतान (Capital and Revenue Payments)
  4. पूँजीगत तथा आयगत लाभ (Capital and Revenue Profits) तथा
  5. पूँजीगत तथा आयगत हानियाँ (Capital and Revenue Losses)।

पूँजीगत तथा आयगत व्यय (Capital and Revenue Expenditure)

पूँजीगत व्यय (Capital Expenditure)

पूँजीगत व्यय से आशय– पूँजीगत व्यय से आशय ऐसे व्यर्यों से हैं। जो व्यवसाय के लिए स्थायी सम्पत्तियाँ (मूर्त हो, अथवा अमूर्त) प्राप्त करने, खरीदने, बनाने, प्रयोग में लाने, विस्तार एवं वृद्धि करने, लाभार्जन क्षमता में वृद्धि करने, पूँजी प्राप्त करने आदि के उद्देश्य से किए जाते हैं।

पूँजीगत व्यय के उद्देश्य

निम्नलिखित उद्देश्यों के लिए किए गए व्यय पूँजीगत व्यय माने जाते हैं-

(1) व्यवसाय के लिए किसी स्थायी सम्पत्ति को क्रय करने, प्राप्त करने अथवा प्रयोग में लाने के उद्देश्य से किए गए व्यय ।

(2) व्यवसाय की स्थायी उन्नति करने अथवा वृद्धि करने के उद्देश्य से किये गये व्यय ।

(3) व्यवसाय की लाभार्जन क्षमता बढ़ाने के उद्देश्य से किए गए व्यय जिससे उसकी उत्पादन शक्ति बढ़ है जाती है अथवा लाभ कमाने की शक्ति बढ़ जाती है।

(4) व्यवसाय के लिए पूँजी प्राप्त करने के उद्देश्य से किए गए व्यय।

(5) किसी नये उत्पाद अथवा व्यवसाय को लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य के किए गए व्यय ।

(6) किसी पुरानी स्थायी सम्पत्ति को क्रय करके कार्य योग्य बनाने के उद्देश्य से किए गए व्यय।

(7) प्रारम्भ में किसी व्यवसाय या व्यापार की स्थापना करने के उद्देश्य से किए गए व्यय।

(8) किसी चालू व्यवसाय अथवा व्यापार को किसी नये तथा अधिक लाभप्रद स्थान पर स्थानान्तरित करने के उद्देश्य से किये गये व्यय ।

(9) किसी अनुसन्धान मात्रा में अधिक समय तक बनाए रखने हेतु किए गए व्यय ।

पूँजीगत व्ययों की विशेषताएँ

पूँजीगत व्ययों की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

(1) स्थायी प्रकृति — पूँजीगत व्यय स्थायी प्रकृति के होते हैं। इन्हें बार-बार नहीं करना पड़ता है।

(2) दीर्घकालीन उपयोगिता- पूँजीगत व्ययों की उपयोगिता दीर्घकालीन होती है अर्थात यह 10-15 वर्षो  तक प्राप्त होती रहती है।

(3) अनावर्तन प्रवृत्ति — पूँजीगत व्यय अनावर्तन प्रवृत्ति के होते हैं। अर्थात बार-बार नहीं होते हैं।

(4) स्पष्ट दृष्टिगोचर- अधिकांश पूँजीगत व्यय स्पष्ट दृष्टिगोचर अर्थात स्पष्ट रूप में दिखायी देते हैं, जैसे— स्थायी सम्पत्तियों को प्राप्त करने सम्बन्धी व्यय ।

(5) बड़ी धनराशि— पूँजीगत व्यय प्रायः बड़ी धनराशि वाले होते हैं। जैसे—विज्ञापन पर एक साथ किया गया भारी व्यय ।

(6) सम्पत्ति पक्ष में लेखा – पूँजीगत व्ययों का लेखा चिट्ठे में सम्पत्ति पक्ष की ओर किया जाता है।

(7) कभी-कभी होना— पूँजीगत व्यय वर्ष पर्यन्त न होकर कभी-कभी होते हैं।

आयगत अथवा आगमगत व्यय ( Revenue Expenditure )

आयगत व्यय से आशय – आयगत व्यय से आशय ऐसे व्ययों से है जो किसी व्यवसाय अथवा व्यापार के सामान्य संचालन के सम्बन्ध में किए जाते हैं, अथवा स्थायी सम्पत्तियों की कार्यक्षमता बनाए रखने के लिए किए जाते हैं अथवा व्यवसाय हेतु कच्चा माल क्रय या उसके रूप में परिवर्तन करने के लिए किए जाते हैं। ऐसे व्यय निरन्तर होते रहते हैं अर्थात साल भर में कई बार किए जाते हैं। ऐसे व्ययों से दीर्घकाल में कोई सम्पत्ति अर्जित नहीं होती है।

आयगत व्यय के उद्देश्य – आयगत व्यय के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

(1) उस माल को क्रय करने सम्बन्धी व्यय जिसे रूप में अथवा रूप परिवर्तन करके बेचा जाता है।

(2) वे व्यय जो वर्तमान सम्पत्तियों की कार्यक्षमता बनाए रखने के लिए किए जाते हैं, मरम्मत तथा नवीनीकरण (Repairs and Renewals) सम्बन्धी व्यय ।

(3) स्थायी सम्पत्तियों पर मूल्य-हास (Depreciation) पूँजी पर ब्याज आदि ।

(4) व्यापार के प्रतिदिन होने वाले सामान्य व्यय, जैसे-मजदूरी एवं वेतन, बीमा, बट्टा, ब्याज, डाक-तार व्यय आदि ।

आयगत व्ययों की विशेषताएँ

आयगत व्ययों की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(1) अस्थायी प्रकृति — आयगत व्यय अस्थायी प्रकृति के होते हैं अर्थात एक ही मद पर बार-बार व्यय करना पड़ता है, जैसे—कार चलाने में प्रयुक्त पेट्रोल ।

(2) अल्पकालीन उपयोगिता- आयगत व्ययों से अल्पकालीन उपयोगिता प्राप्त होती है। एक बार व्यय करने के पश्चात पुनः वह व्यय करना पड़ता है।

(3) अल्प धनराशि – आयगत व्ययों पर खर्च होने वाली धनराशि सामान्यतः कम मात्रा में होती है।

(4) आवर्तक अथात दैनिक स्वभाव- आयगत व्यय आवर्तक स्वभाव वाले होते हैं। ये व्यय बार-बार (जैसे-प्रतिदिन या प्रतिसप्ताह) होते हैं।

(5) लेखा— आयगत व्ययों का लेखा लाभ-हानि खाते के डेबिट पक्ष में किया जाता है।

(6) कार्यक्षमता बनाए रखना – आयगत व्यय व्यवसाय की स्थायी सम्पत्तियों की कार्यक्षमता निरन्तर बनाये रखने के उद्देश्य से होते हैं, सम्पत्तियों में वृद्धि करने के लिए नहीं।

(7) दृष्टिगोचर नहीं – आयगत व्यय दृष्टिगोचर नहीं होते हैं अर्थात ये दिखाई नहीं देते हैं। इनमें कोई सम्पत्ति प्राप्त नहीं होती है।

पूँजीगत तथा आयगत व्ययों में अन्तर का आधार (Basis for Differentiation Between Capital and Revenue Expenditure)

पूँजीगत तथा आयगत व्ययों में उपर्युक्त विभाजन के पश्चात भी यह निश्चित करना कि अमुक व्यय पूँजीगत व्यय है अथवा लाभगत, कोई सरल कार्य नहीं है। यह तो व्यय के स्वभाव तथा परिस्थितियों पर निर्भर करता है। इसका कारण यह है कि एक ही व्यय एक व्यवसाय के लिए पूँजीगत व्यय हो सकता है तथा दूसरे व्यवसाय के लिए आयगत । उदाहरण के लिए यदि एक कपड़े का व्यापारी दुकान के लिए फर्नीचर खरीदता है तो उसके लिए वह पूँजीगत व्यय है, जबकि फर्नीचर के व्यापारी के लिए फर्नीचर खरीदना एक आगयत व्यय है। इसी प्रकार एक ही व्यापारी के लिए एक व्यय एक समय पूँजीगत व्यय हो सकता है और वही व्यय दूसरे समय आयगत हो सकता है। उदाहरण के लिए, एक व्यापारी द्वारा पुरानी मशीन खरीदकर उसकी मरम्मत कराना पूँजीगत व्यय माना जायेगा। क्योंकि उस व्यय को मशीन की लागत में जोड़ा जायेगा जबकि उसी व्यापारी द्वारा अपने प्रयोग में आने वाली उसी मशीन की साधारण मरम्मत कराने पर किया गया व्यय आयगत व्यय माना जायेगा। अतएव पूँजीगत व्यय तथा आयगत व्यय में अन्तर करने के लिए कोई ऐसी विभाजन रेखा नहीं है जो दोनों व्ययों को अलग-अलग करती हो, फिर भी कुछ ऐसे सिद्धान्त अथवा नियम अथवा आधार अवश्य है जिनके आधार पर व्ययों को पूँजीगत अथवा आयगत माना जा सकता है। पूँजीगत व्यय तथा आयगत व्यय दोनों में अन्तर करते समय निम्न बार्तो पर ध्यान देना आवश्यक है।

(i) व्यवसाय का स्वभाव अथवा प्रकृति

(ii) व्यय करने के उद्देश्य

(iii) व्यय किए गए धन की मात्रा, तथा

(iv) व्ययों से सम्बन्धित न्यायालयों का निर्णय यदि कोई हो ।

सिद्धान्त, नियम, आधार अथवा परीक्षण

निष्कर्ष रूप में, कोई व्यय पूँजीगत व्यय है या आयगत, इसका निर्धारण करते समय निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर ढूढ़ना होगा-

(1) क्या उस व्यय से फर्म को कोई स्थायी सम्पत्ति प्राप्त हुई है ?

(2) क्या उस व्यय से फर्म की स्थायी सम्पत्ति में कोई वृद्धि हुई है ?

(3) क्या उस व्यय से क्रय की गयी पुरानी सम्पत्तियों को कार्य-योग्य बनाया गया है ?

(4) क्या उस व्यय से व्यवसाय की लाभार्जन क्षमता (लाभ कमाने की क्षमता) में कोई वृद्धि हुई है?

(5) क्या उस व्यय से व्यवसाय का धन (ऋण अथवा पूँजी) की प्राप्ति हुई है ?

(6) क्या वह व्यय कोई विकास व्यय है ?

(7) क्या वह व्यय व्यवसाय की स्थापना से सम्बन्धित है ?

(8) क्या उस व्यय से दीर्घकालीन अवधि तक लाभ मिलता रहेगा ?

(9) क्या उस व्यय से कोई विद्यमान व्यवसाय क्रय किया गया है ?

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Anjali Yadav

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