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प्रचलित पाठ्यचर्या की समस्याएँ (Problems of Existing Curriculum)
प्रचलित पाठ्यचर्या की समस्याएँ निम्नलिखित हैं-
1) शैक्षिक पद्धति- हमारा शैक्षिक इतिहास बहुत ही समस्यात्मक रहा है। वर्तमान में भी शैक्षिक समस्याओं की कमी नहीं है। यद्यपि हमारी शिक्षा में पाठ्यचर्या का स्वरूप सदैव लचीला ही रहा है किन्तु हमारी शिक्षा पद्धति आवश्यकतानुसार नहीं रह पाती है। हमारी शिक्षा पद्धतियों में सुधार की आवश्यकता है। यदि हमारी शिक्षण पद्धतियाँ ऊपर उठेंगी तो पाठ्यचर्या का क्रियान्वयन सहजता से होता रहेगा तथा बालकों को स्वतः ही लाभ प्राप्त होगा।
2) सामाजिक परिवर्तन- हमारा समाज सदैव ही परिवर्तनशील रहा है और समय के साथ होने वाले परिवर्तनों के साथ-साथ शिक्षा के अन्तर्गत पाठ्यचर्या में भी परिवर्तन होते रहे हैं। वर्तमान में आधुनिकता, विज्ञान, तकनीकी और पाश्चात्य प्रभाव के कारण समाज में बहुत जल्दी-जल्दी परिवर्तन हो रहे हैं जिसके कारण नित्य नई पाठ्यचर्या की आवश्यकता पड़ती है। व्यावसायिक पाठ्यचर्या के साथ-साथ तकनीकी के प्रशिक्षण की आवश्यकता अनुभव हो रही है तथा दूरवर्ती शिक्षा में तकनीकी के महत्त्व को नकार नहीं सकते। इस प्रकार की शिक्षा में संप्रेषण के माध्यम की आवश्यकता होती है। ज्ञान के अभाव में इस प्रकार की पाठ्यचर्या सुचारू रूप से क्रियान्वित नहीं हो पाती हैं अतः यह एक समस्या है।
3) संकुचित स्वरूप- पाठ्यचर्या में प्रचलित पाठ्यवस्तु में पूर्णतः मनोवैज्ञानिक, सामाजिक आवश्यकताओं, बालक की क्षमताओं, योग्यताओं तथा रुचियों पर ध्यान नहीं दिया गया है। विद्यालयी शिक्षा पर प्रशासन द्वारा भी अधिक विचार नहीं किया जाता है। वह केवल उच्च शिक्षा को ही दृष्टिगत करते हुए विकास के कार्य करती है। अतः पाठ्यचर्या का यह एक संकुचित स्वरूप है जिसे व्यापक बनाने की अति आवश्यकता है।
4) व्यावहारिकता की अवहेलना- प्रचलित शिक्षा पुस्तकीय तथा सैद्धान्तिक ज्ञान अवश्य देती है किन्तु पाठ्यचर्या में व्यावहारिक पक्षों की पूर्णतः अवहेलना की गई है जबकि बालक के लिए पुस्तकीय ज्ञान के साथ-साथ व्यावहारिक ज्ञान भी जीवन में अति आवश्यक है। व्यावहारिक ज्ञान के द्वारा ही बालक जीवन की वास्तविकताओं को समझ सकेगा तथा उसके लाभों से सुख प्राप्त कर सकेगा एवं समस्या समाधान कर पाने में सक्षम बनेगा।
5) लोकतन्त्रात्मकता की अवहेलना- इस पाठ्यचर्या में लोकतन्त्र की शिक्षा की कमी है। बालक केवल आवश्यक वस्तु के समान ज्ञान प्राप्त करने में लगा है तथा शिक्षक आवश्यक वस्तु के समान ज्ञान दे रहा है क्योंकि पाठ्यचर्या की पाठ्यवस्तु ऐसी ही है अतः बालकों में लोकतन्त्र के मूल्यों, आदर्शों की कमी होती जा रही है। वे लोकतन्त्र में रहते तो हैं मगर उन्हें लोकतन्त्र के महत्त्व की समझ नहीं होती है। भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश में इसकी अति आवश्यकता है।
6) चारित्रिक शिक्षा का अभाव- शिक्षा की पाठ्यचर्या में एक अच्छे चरित्र को गौण स्थान प्राप्त है। पाठ्यचर्या में नैतिकता, चारित्रिक महत्त्व, योग शिक्षा तथा सांख्य आदि को बहुत ही कम स्थान प्राप्त है जिससे इन विषय-वस्तुओं की अवहेलना होती आयी है जबकि ये हमारी भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति के मजबूत स्तम्भ हैं। परिणामस्वरूप बालकों में चारित्रिक हीनता तथा अनुशासनहीनता की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है जिसे रोकना समय की माँग है। इससे सम्पूर्ण राष्ट्र का चरित्र प्रदर्शित होता है।
7) परीक्षा का महत्त्व- पाठ्यचर्या इस प्रकार की हो गई है जिसमें बालक को केवल परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए ही परिश्रम करना पड़ता है। वह शिक्षा के अन्य पक्षों पर ध्यान नहीं देता हैं। बालक विषय-वस्तु को केवल रटकर परीक्षा में पृष्ठ भर कर अच्छे अंक प्राप्त करने के प्रयास में लगे रहते हैं और इसीलिए बालकों को वास्तविक ज्ञान प्राप्त नहीं हो पाता है। शिक्षक भी केवल उन्हीं तत्त्वों पर अधिक ध्यान देता है जो परीक्षा के प्रश्नपत्रों में पूछे जा सकते हैं।
8) विषयों की अधिकता- पाठ्यचर्या में इतने अधिक विषय हो गए हैं कि बालक को सदैव संशय बना रहता है। वह रुचियों तथा योग्यताओं पर विश्वास नहीं कर पाता है तथा असमंजस की स्थिति में शिक्षा ग्रहण करता है। बालकों की रुचियों तथा योग्यताओं पर आधारित पाठ्यचर्या का निर्माण नहीं किया जा रहा हैं बल्कि सभी विषयों को एक दूसरे से सम्बन्धित करके ज्ञान देने का प्रयास किया जा रहा है। किन्तु सभी बालकों के लिए सभी विषयों की शिक्षा लेना सम्भव नहीं होता है। उनका मानसिक स्तर इसके योग्य नहीं होता है और परिणामस्वरूप वे अपनी रुचि के विषयों पर भी ध्यान नहीं दे पाते हैं।
9) आध्यात्म की कमी- पाठ्यचर्या में आध्यात्मिक विषयों को महत्त्व नहीं दिया जाता है जबकि आध्यात्म तथा दर्शन हमारी शिक्षा की नींव है और इनके ज्ञान के अभाव में पूर्ण ज्ञान प्राप्त नहीं हो पा रहा है जिससे बालक हमारी धर्म, संस्कृति और सभ्यता से दूर होते जा रहे हैं तथा पाश्चात्य प्रभाव उन पर बढ़ता ही जा रहा है। वे स्वयं के लिए भी सरल राह नहीं ढूंढ़ पाते हैं। पश्चिमी संस्कृति एवं सभ्यता के प्रभाव से वास्तविक भारत को एवं उसके महत्त्व को पहचानने में त्रुटि करते हैं जो कि औचित्यपूर्ण नहीं है।
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