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बालक के मानसिक स्वास्थ्य में उन्नति करने वाले कारक
ऐसे अनेक कारक या उपाय हैं, जो बालक के स्वास्थ्य को बनाये रखने, अस्वस्थ न होने देने और उन्नति करने में सहायता दे सकते हैं। इस प्रकार ये कारक न केवल बालक की असमायोजन से रक्षा कर सकते हैं, वरन् उसकी समायोजन की क्षमता में वृद्धि भी कर सकते हैं। ये कारक अधोलिखित है-
1. समाज के कार्य- प्रत्येक बालक, समाज में जन्म लेता है और समाज में ही अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत करता है। अतः उसके मानसिक स्वास्थ्य को विकसित करने का उत्तरदायित्व समाज पर है। इस उत्तरदायित्व का निर्वाह करने के लिए समाज अनेक कार्य कर सकता है, जैसे-
- बालक की आधारभूत आवश्यकताओं को पूर्ण करना,
- उसे सुख और सुरक्षा प्रदान करना,
- उसे शारीरिक व्याधियों से मुक्त रखने के लिए चिकित्सकों की व्यवस्था करना,
- उसके सन्तुलित संवेगात्मक विकास के लिए साधन जुटाना,
- उसके लिए विभिन्न प्रकार के मनोरंजनों की समुचित व्यवस्था करना,
- उसके लिए सभी प्रकार की उत्तम शिक्षा-संस्थाओं का संचालन करना।
2. परिवार के कार्य- परिवार, बालक को मानसिक स्वास्थ्य की दिशा में किस प्रकार अग्रसर करता है, इसका वर्णन नीचे की पंक्तियों में पढ़िए-
(1) विकास की उत्तम दशाएं- फ्रेंडसन के मतानुसार-मानसिक रूप से स्वस्थ बालक में 6 वर्ष की आयु तक उत्तरदायित्व, स्वतन्त्रता और आत्मविश्वास की भावनाओं का विकास हो जाता है। यह तभी सम्भव है, जब परिवार उनके विकास के लिए उत्तम दशाएं प्रदान करे। ऐसा न करने से इनका विकास असम्भव हो जाता है और फलस्वरूप बालक के मानसिक स्वास्थ्य में उन्नति नहीं हो पाती है।
(2) परिवार का शान्तिपूर्ण वातावरण- जिस परिवार में शान्ति और सामंजस्य का वातावरण होता है, उसमें बालक के मानसिक स्वास्थ्य में निश्चित रूप से वृद्धि होती है। इस सम्बन्ध में कुप्पूस्वामी के ये शब्द मनन के योग्य हैं- “अच्छा परिवार, जिसमें माता-पिता में सामंजस्यपूर्ण सम्बन्ध होता है और जिसमें आनन्द एवं स्वतन्त्रता का वातावरण होता है, प्रत्येक बालक के मानसिक स्वास्थ्य की उन्नति में अतिशय योग देता है।”
(3) माता-पिता का मानसिक स्वास्थ्य- बालक के मानसिक विकास की वृद्धि तभी सम्भव है, जब उसके माता-पिता का मानसिक स्वास्थ्य उत्तम दशा में हो।
3. विद्यालय के कार्य- मानसिक स्वास्थ्य के महत्व से अवगत होने वाले शिक्षक, विद्यालय में उपलब्ध प्रत्येक साधन का प्रयोग, बालकों के मानसिक स्वास्थ्य में उन्नति करने के लिए करते हैं।
(1) शिक्षक का सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार- बालकों के प्रति शिक्षक का व्यवहार नम्र, शिष्ट और सहानुभूतिपूर्ण होना चाहिए। पक्षपात या भेदभाव किये बिना उसे सब बालकों के साथ समान और प्रेमपूर्ण व्यवहार करना चाहिए। इससे उनके मानसिक स्वास्थ्य पर अत्युत्तम प्रभाव पड़ता है।
(2) जनतन्त्रीय अनुशासन- विद्यालय का अनुशासन-भय, दण्ड, दमन और कठोरता पर आधारित न होकर जनतन्त्रीय सिद्धान्तों पर आधारित होना चाहिए। बालकों में आत्म-अनुशासन की भावना का विकास करने के लिए “छात्र-स्वशासन” को प्रोत्साहित करना चाहिए। इसके अलावा, बालकों को उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य सौंप कर विद्यालय के प्रशासन में साझीदार बनाना चाहिए। इन सब बातों के फलस्वरूप उनके मानसिक स्वास्थ्य में निरन्तर उन्नति होती चली जाती है।
(3) विभिन्न व उपयुक्त पाठ्यक्रम – विद्यालय का पाठ्यक्रम सभी बालकों के लिए उपयुक्त होना चाहिए। अतः वह सब के लिए समान न होकर विभिन्न वयवर्ग के बालकों के लिए विभिन्न होना चाहिए। इसके अतिरिक्त, पाठ्यक्रम लचीला होना चाहिए और उसे सब बालकों की रुचियों एवं आवश्यकताओं को पूर्ण करना चाहिए। इस प्रकार पाठ्यक्रम बालकों के मानसिक स्वास्थ्य को शक्ति प्रदान करता है।
(4) अल्प गृह-कार्य- शिक्षक बहुधा बालकों को इतना अधिक गृह-कार्य दे देते हैं कि उसे पूर्ण करना उनके सामर्थ्य से परे की बात होती है। पूर्ण न कर सकने के कारण वे दण्ड का विचार करके भय और चिन्ता में ग्रस्त हो जाते हैं। इससे उनमें मानसिक तनाव उत्पन्न हो जाता है। अतः शिक्षक को केवल इतना ही गृह-कार्य देना चाहिए जिसे बालक सरलता से पूर्ण करे, चिन्तामुक्त रह सकें। ऐसी मानसिक दशा उनके मानसिक स्वास्थ्य के लिए निश्चित रूप से हितकर सिद्ध हो सकती है।
बालक के मानसिक स्वास्थ्य में बाधा डालने वाले कारक
ऐसे अनेक कारक या कारण हैं, जो बालक के मानसिक स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव डालते हैं और उसकी समायोजन की शक्ति को क्षीण कर देते हैं। ये कारक निस्नांकित हैं-
1. वंशानुक्रम का प्रभाव- कुप्पूस्वामी के अनुसार-बालक दोषपूर्ण वंशानुक्रम से मानसिक निर्बलता, एक विशेष प्रकार का मानसिक अस्वास्थ्य और कुछ मानसिक एवं स्नायु-सम्बन्धी रोग प्राप्त करता है। फलस्वरूप, वह समायोजन करने में कठिनाई का अनुभव करता है।
2. शारीरिक स्वास्थ्य का प्रभाव- शारीरिक स्वास्थ्य मानसिक स्वास्थ्य का आधार माना जाता है। यदि बालक का शारीरिक स्वास्थ्य अच्छा नहीं है तो उसके मानसिक स्वास्थ्य का अच्छा न होना स्वाभाविक है। कुप्पूस्वामी के अनुसार “स्वस्थ व्यक्तियों की अपेक्षा रोगी व्यक्ति नयी परिस्थितियों से सामंजस्य करने में अधिक कठिन श्रम करते हैं। कुप्पूस्वामी का मत है- “गम्भीर शारीरिक दोष बालक में हीनता की भावनाएं उत्पन्न करके समायोजन की समस्याएं उपस्थित कर सकते हैं।”
3. शारीरिक दोषों का प्रभाव- शारीरिक दोष असमायोजन के लिए उत्तरदायी होते हैं। कुप्पूस्वामी का मत है- “गम्भीर शारीरिक दोष बालक में हीनता की भावनाएं उत्पन्न करके समायोजन की समस्याएं उपस्थित कर सकते हैं।”
4. समाज का प्रभाव- समाज का अभिन्न अंग होने के कारण बालक पर उसका व्यापक प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। यदि समाज का संगठन दोषपूर्ण है, तो बालक के मानसिक स्वास्थ्य पर उसका विपरीत प्रभाव पड़ना आवश्यक है। समाज के आन्तरिक झगड़े धार्मिक और जातीय संघर्ष, विभिन्न समूहों के राजनीतिक दांवपेच, धनी वर्गों के संकीर्ण स्वार्थ, निर्धन वर्गों का आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति की मांग, ऊंच-नीच और अस्पृश्यता की भावनाएं, व्यक्तिगत सुरक्षा और स्वतन्त्रता का अभाव-ये सभी बातें बालक में मानसिक तनाव उत्पन्न कर देती है। परिणामतः उसके मानसिक स्वास्थ्य का विकास अवरुद्ध हो जाता है।
5. परिवार का प्रभाव- परिवार, बालक के मानसिक स्वास्थ्य पर बहुमुखी प्रभाव डालता है, यथा-
(1) परिवार का विघटन- आधुनिक समय में औद्योगीकरण के कारण परिवार का अति तीव्र गति से विघटन हो रहा है। बालक, परिवार के सदस्यों में अलगाव की प्रबल भावना देखता है फलस्वरूप, उसमें भी अलगाव की भावना उत्पन्न होती है, जिससे वह असमायोजन की ओर अग्रसर होता है।
(2) परिवार का अनुशासन- यदि परिवार में बालक पर कठोर अनुशासन रखा जाता है और उसे छोटी-छोटी बातों पर डांटा-डपटा जाता है, तो उसमें आत्महीनता की भावना घर कर लेती है। ऐसी स्थिति में उसका मानसिक रूप से अस्वस्थ हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
(3) परिवार की निर्धनता- प्लांट ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि परिवार की. निर्धनता के कारण बालक का व्यक्तित्व उम्र और कठोर हो जाता है, उसमें हीनता और असुरक्षा की भावना विकसित हो जाती है एवं उसमें आत्मविश्वास का स्थायी अभाव हो जाता है। ये सब बातें उसके मानसिक स्वास्थ्य को खराब कर देती हैं।
(4) पारिवारिक संघर्ष- परिवार के सदस्यों, विशेष रूप से बालक के माता-पिता के पारस्परिक संघर्ष उसके मानसिक स्वास्थ्य पर इतना दूषित प्रभाव डालते हैं कि वह समायोजन करने में असमर्थ होता है। कुप्पूस्वामी के शब्दों में- “जिन माता-पिता में निरन्तर संघर्ष होता रहता है, वे समायोजन की समस्याओं वाले बालकों में अत्यधिक प्रतिशत का कारण होते हैं।”
6. विद्यालय का प्रभाव – परिवार के समान विद्यालय भी बालक के मानसिक स्वास्थ्य पर अनेक प्रकार के अवांछनीय प्रभाव डालता है, यथा-
(1) विद्यालय का वातावरण – यदि विद्यालय में बालक के व्यक्तित्व का सम्मान नहीं किया जाता है, यदि उसकी इच्छाओं का दमन किया जाता है, यदि उसे अपने विचारों को व्यक्त करने का अवसर नहीं दिया जाता है और यदि उसकी विशिष्ट रुचियों का विकास करने के लिए पाठ्यक्रम सहयोगी क्रियाओं का आयोजन नहीं किया जाता है, तो उसके मानसिक स्वास्थ्य की उन्नति का स्पष्ट रूप से विरोध किया जाता है।
(2) पाठ्यक्रम- यदि पाठ्यक्रम सब बालकों के लिए समान होता है, यदि वह अत्यधिक बोझिल होता है, यदि वह बालकों की मांगों और आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं करता है, यदि वह उनकी रुचियों और क्षमताओं के प्रतिकूल होता है, तो वह उनके मानसिक स्वास्थ्य का विकास करने में पूर्णतया असफल होता है।
(3) शिक्षण- विधियां परम्परागत और अमनोवैज्ञानिक शिक्षण-विधियां बालक की ज्ञान-प्राप्ति के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करती हैं। अतः वह हतोत्साहित होकर अपना मानसिक स्वास्थ्य खो बैठता है।
(4) परीक्षा प्रणाली- अधिकांश विद्यालयों में आत्मनिष्ठ परीक्षाओं की प्रधानता है। ये परीक्षाएं बालकों की वास्तविक प्रगति का मूल्यांकन नहीं कर पाती हैं। इन परीक्षाओं के प्रचलन के कारण कुछ योग्य बालकों को कक्षोन्नति नहीं दी जाती और कुछ अयोग्य बालकों को दे दी जाती है। पहली प्रकार के बालक निराश और निरुत्साहित होकर अपने को वास्तव में अयोग्य समझने लगते हैं। दूसरे प्रकार के बालक अयोग्य होने के कारण अपने को अगली कक्षा में अयोग्य पाकर विद्यालय कार्य से मुख मोड़ लेते हैं। इस तरह, दोनों प्रकार के बालक असमायोजित हो जाते हैं।
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