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बाल्यावस्था क्या है? What is childhood? in Hindi

बाल्यावस्था क्या है? What is childhood? in Hindi
बाल्यावस्था क्या है? What is childhood? in Hindi

बाल्यावस्था क्या है? बाल्यावस्था में शिक्षा के स्वरूप का वर्णन कीजिये। 

बाल्यावस्था : जीवन का अनोखा काल

शैशवावस्था के बाद की अवस्था को बाल्यावस्था कहा जाता है। इस अवस्था का उद्देश्य बालक का विकास करना है। बाल्यावस्था में बालक की विभिन्न आदतों, व्यवहार, रुचि एवं इच्छाओं का निर्माण किया जाता है। इस अवस्था में बालक विभिन्न बातें करना सीखता है। बाल्यावस्था में बालक में बहुत ही विचित्र परिवर्तन होते हैं, उदाहरण के लिए 6 वर्ष की आयु में बालक का स्वभाव बहुत क्रोधी होता है, वह सभी बातों का उत्तर हां या सिफ न में देता है। 7 वर्ष की आयु में वह उदासीन होता है और शान्त रहने लगता है। वह अकेले रहना ही पसन्द करता है। जरा-जरा सी बातों में वह क्रोधित हो जाता है। 8 वर्ष की आयु में बालक के अन्दर सामाजिक भावना का विकास होता है। 9 से 12 वर्ष की आयु में वह विद्यालय जाने के लिए प्रोत्साहित होता है। विद्यालय से वह बहुत-सी ज्ञान की बातें सीखने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार बाल्यावस्था जीवन की बहुत महत्वपूर्ण अवस्था है।

बाल्यावस्था को जीवन का ‘महत्वपूर्ण’ तथा ‘अनोखा काल’ बताते हुए कोल व बूस ने लिखा गया है-“वास्तव में माता-पिता के लिए बाल-विकास की इस अवस्था को समझना कठिन है।”

ब्लेयर, जोन्स एवं सिम्पसन के अनुसार- “शैक्षिक दृष्टिकोण से जीवन चक्र में बाल्यावस्था से अधिक कोई महत्वपूर्ण अवस्था नहीं है। जो शिक्षक इस अवस्था के बालकों को शिक्षा देते हैं, उन्हें बालकों का, उनकी आधारभूत आवश्यकताओं का, उनकी समस्याओं एवं उनकी परिस्थितियों की पूर्ण जानकारी होनी चाहिए जो उनके व्यवहार को रूपान्तरित और परिवर्तित करती है।”

बाल्यावस्था में बालक की शिक्षा का स्वरूप

बाल्यावस्था शैक्षिक दृष्टि से बालक के निर्माण की अवस्था है। इस अवस्था में बालक अपना समूह अलग बनाने लगते हैं। इसे चुस्ती की आयु भी कहा गया है। इस अवस्था में शिक्षा का स्वरूप इस प्रकार होता है-

ब्लेयर, जोन्स व सिम्पसन ने लिखा है- “बाल्यावस्था वह समय है, जब व्यक्ति के आधारभूत दृष्टिकोणों, मूल्यों और आदर्शों का बहुत सीमा तक निर्माण होता है।”

इस निर्माण का उत्तरदायित्व बालक के शिक्षक, माता-पिता और समाज पर है। अतः उसकी शिक्षा का स्वरूप निश्चित करते समय, उन्हें निस्नांकित बातों को ध्यान में रखना चाहिए-

1. भाषा के ज्ञान पर बल-स्ट्रंग के अनुसार, “इस अवस्था में बालकों की भाषा में बहुत रुचि होती है।” अतः इस बात पर बल दिया जाना आवश्यक है कि बालक, भाषा का अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त करे।

2. उपयुक्त विषयों का चुनाव- बालक के लिए कुछ ऐसे विषयों का अध्ययन आवश्यक है जो उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें और उसके लिए लाभप्रद भी हों। इस विचार से अग्रलिखित विषयों का चुनाव किया जाना चाहिए-भाषा, अंकगणित, विज्ञान, सामाजिक अध्ययन, ड्राइंग, चित्रकला, सुलेख, पत्र लेखन और निबन्ध रचना।

3. रोचक विषय- सामग्री-बालकों की रुचियों में विभिन्नता और परिवर्तनशीलता होती है। अतः उसकी पुस्तकों की विषय सामग्री में रोचकता और विभिन्नता होनी चाहिए। इस दृष्टिकोण से विषय सामग्री का सम्बन्ध अग्रलिखित रूप से होना चाहिए-पशु, हास्य, विनोद, नाटक, वार्तालाप, वीर पुरुष, साहसी कार्य और आश्चर्यजनक बातें।

4. पाठ्य विषय व शिक्षण विधि में परिवर्तन- इस अवस्था में बालक की रुचियों में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। अतः पाठ्य-विषय और शिक्षण विधि में उसकी रुचियों के अनुसार परिवर्तन किया जाना आवश्यक है। ऐसा न करने से उसमें शिक्षण के प्रति कोई आकर्षण नहीं रह जाता है, फलस्वरूप उसकी मानसिक प्रगति रुक जाती है।

5. जिज्ञासा की सन्तुष्टि- बालक में जिज्ञासा की प्रवृत्ति होती है अतः उसे दी जाने वाली शिक्षा का स्वरूप ऐसा होना चाहिए, जिससे उसकी इस प्रवृत्ति की तुष्टि हो।

6. सामूहिक प्रवृत्ति की तुष्टि- बालक में समूह में रहने की प्रबल प्रवृत्ति होती है। वह अन्य बालकों से मिलना-जुलना और उनके साथ कार्य करना या खेलना चाहता है। उसे इन सब बातों का अवसर देने के लिए विद्यालय में सामूहिक कार्यों और सामूहिक खेलों का उचित आयोजन किया जाना चाहिए। कोलेसनिक के अनुसार, “सामूहिक खेल और शारीरिक व्यायाम प्राथमिक विद्यालय के पाठ्यक्रम के अभिन्न अंग होने चाहिए।”

7. रचनात्मक कार्यों की व्यवस्था- बालक की रचनात्मक कार्यों में विशेष रुचि होती है। अतः विद्यालय में विभिन्न प्रकार के रचनात्मक कार्यों की व्यवस्था की जानी चाहिए।

8. पाठ्यक्रम- सहगामी क्रियाओं की व्यवस्था-बालक की विभिन्न रुचियों को सन्तुष्ट करके उसकी सुप्त शक्तियों का अधिकतम विकास किया जा सकता है। इस कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए विद्यालय में अधिक से अधिक पाठ्यक्रम-सहगामी कियाओं का संचालन किया जाना चाहिए।

9. पर्यटन व स्काउटिंग की व्यवस्था – लगभग 9 वर्ष की आयु में बालक में निरुद्देश्य इधर-उधर घूमने की प्रवृत्ति होती है। उसकी इस प्रवृत्ति को सन्तुष्ट करने के लिए पर्यटन और स्काउटिंग को उसकी शिक्षा का अभिन्न अंग बनाया जाना चाहिए।

10. संवेगों के प्रदर्शन का अवसर- कोल एवं ब्रूस ने बाल्यावस्था को “संवेगात्मक विकास का अनोखा काल” माना है। यह विकास तभी सम्भव है, जब बालक के संवेगों का दमन न किया जाये, क्योंकि ऐसा करने से उसमें भावना ग्रन्थियों का निर्माण हो जाता है। अतः स्ट्रेंग का परामर्श है-“बालकों को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त अपने संवेगों का दमन करने के बजाय तृप्त करने में सहायता दी जानी चाहिए, क्योंकि संवेगात्मक भावना और प्रदर्शन उनके सम्पूर्ण जीवन का आधार होता है।”

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Anjali Yadav

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