बेसिक शिक्षा पद्धति का सविस्तार वर्णन कीजिए।
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गाँधी जी का शिक्षा क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान
राजनीतिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में महात्मा गाँधी का योगदान इतना महत्वपूर्ण रहा है कि शिक्षा दर्शन एवं शिक्षा के क्षेत्र में किए गए उनके कार्य पर संसार का ध्यान उतना नहीं गया जितना जाना चाहिए था। केवल वर्षा शिक्षा योजना अर्थात् नई तालीम अथवा बुनियादी तालीम या बेसिक शिक्षा को ही उनका शिक्षा सम्बन्धी दर्शन मान लेना उचित नहीं होगा, क्योंकि उन्होंने अपने शिक्षा सम्बन्धी विचारों में उन सब शाश्वत जीवन मूल्यों पर विचार किया है, जो जीवन के घटक हैं तथा उसको महत्वशाली बनाते हैं। महात्मा गाँधी भावी सन्तानों के लिए जो बपौती छोड़ गए हैं, वह उनकी यह शिक्षा है कि यदि सत्य और अहिंसा के माध्यम से जीवन को नियमित कर लिया जाए तो संसार से आपसी अविश्वास और विनाश की सम्भावना मिट सकती है।
गाँधी जी का जीवन-दर्शन-गाँधी जी के जीवन दर्शन का विश्लेषण करने पर हमें चार महत्वपूर्ण तत्व मिलते हैं— सत्य, अहिंसा, निर्भयता तथा सत्याग्रह। हम इन पर यहाँ प्रकाश डाल रहे हैं-
सत्य (Truth) – गाँधी जी के लिए ‘सत्य’ सर्वश्रेष्ठ सिद्धान्त है। गाँधी जी का सम्पूर्ण जीवन सत्य के लिए एक प्रयोग था। साधारणतः सत्य का अर्थ समझा जाता है-सत्य बोलना। गाँधी जी के लिए इसका अर्थ अति विस्तृत है। उन्होंने लिखा है-“विचार में सत्य, भाषण में सत्य तथा कार्य में सत्य होना चाहिए।”
अहिंसा (Non-Violence) – गाँधी जी का कहना है-“अहिंसा समस्त जीवधारियों के प्रति बुरी भावना का त्याग है। अपनी गतिशील अवस्था में इसका अर्थ है-जानबूझकर कष्ट सहन करना। अपने क्रियाशील रूप में यह सभी जीवधारियों के प्रति अच्छी भावना है। यह शुद्ध प्रेम है।”
निर्भयता (Fearlessness)– ‘निर्भयता’ के अर्थ को गाँधी जी ने इस प्रकार स्पष्ट किया है-“निर्भयता का अर्थ है। समस्त बाह्य भयों से मुक्ति, बीमारी का भय, शारीरिक चोट और मृत्यु का भय, सम्पत्तिविहीन होने का भय, अपने प्रियजन की मृत्यु का भय, प्रतिष्ठा खोने का भय तथा अनुचित कार्य करने का भय, इत्यादि।”
सत्याग्रह (Satyagraha) – गाँधी जी ने ‘सत्याग्रह’ के अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखा है-“इसका मूल अर्थ है ‘सत्य-बल’ का दृढ़ अवलम्बन। मैंने इसको ‘आत्म-बल’ के नाम से भी पुकारा है। सत्याग्रह के प्रयोग के प्रारम्भिक स्तरों पर मैंने यह खोज की, कि सत्य का अनुसरण इस बात की आज्ञा नहीं देता है कि कोई व्यक्ति अपने विरोधी पर बल का प्रयोग करे। इसके विपरीत, धैर्य तथा सहानुभूति से उसको गलत मार्ग से हटाना चाहिए। कारण यह है कि जो बात एक व्यक्ति को सत्य मालूम होती है, वह दूसरे को असत्य मालूम हो सकती है। इस प्रकार इस सिद्धान्त (सत्याग्रह) का अर्थ है-विरोधी को कष्ट देकर नहीं, वरन् अपने को कष्ट देकर सत्य का समर्थन करना।”
गाँधी जी का शिक्षा दर्शन
आधुनिक परिस्थितियों के अनुसार शिक्षा-गाँधी जी के शिक्षा सम्बन्धी विचार मूल रूप से प्राचीन भारतीय विचारों पर आधारित थे, किन्तु वे पाश्चात्य शिक्षा दार्शनिकों के आधुनिक सिद्धान्तों से भी प्रभावित हुए थे। इस कारण उनके शिक्षा दर्शन में प्राचीन भारतीय विचारों तथा आधुनिक पाश्चात्य शिक्षा सिद्धान्तों का अनुपम सामंजस्य है। उनके शिक्षा दर्शन में प्रकृतिवाद, प्रयोजनवाद एवं आदर्शवाद का अनोखा समन्वय है।
गाँधी जी ने अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था का घोर विरोध किया और शिक्षा को व्यावहारिक रूप देने की योजना बनाई।
गाँधी जी के शिक्षा दर्शन पर विशेष प्रभाव डालने वाले व्यक्ति-गाँधी जी के शिक्षा सम्बन्धी विचारों निम्नलिखित व्यक्तियों ने बहुत प्रभाव डाला-
1. रस्किन का प्रभाव- रस्किन की पुस्तक ‘Unto This Last’ पढ़कर गाँधी जी ने श्रम के महत्व पर विशेष बल दिया। शिक्षा में आत्म-निर्भरता के विचारों से भी गाँधी जी प्रभावित हुए।
2. टॉलस्टाय का प्रभाव-गाँधी जी टॉलस्टाय की पुस्तक “The Kingdom of God is Within You’ से बहुत प्रभावित हुए। टॉलस्टाय के ग्रन्थ पढ़कर गाँधी जी ने शिक्षा में प्रेम का महत्व समझा। गाँधी जी की शिक्षा योजना में हस्तकला के महत्व का मूल रूप भी टॉलस्टाय के विचारों में ढूंढ़ा जा सकता है।
3. रेचन्द भाई का प्रभाव रेचन्द भाई अत्यन्त उच्च चरित्र के विद्वान् व्यक्ति थे। गाँधी जी एक प्रकार से उन्हें अपना धार्मिक गुरु मानते थे। गाँधी जी ने उनसे सत्य तथा अहिंसा का पाठ सीखा।
फोनिक्स आवास और टॉलस्टाय फार्म पर शैक्षिक कार्य- गाँधी जी ने अफ्रीका में फोनिक्स आवास एवं टॉलस्टाय फार्म पर अपने विचारों को प्रयोगात्मक रूप देने का प्रयास किया। फोनिक्स आवास में रहने वाले तीस बालकों को गाँधी जी स्वयं पढ़ाते थे। ये बालक तीन घण्टे पढ़ते थे, दो घण्टे कृषि कार्य एवं दो घण्टे छापेखाने में कार्य करते थे। टॉलस्टाय फार्म में गाँधी जी ने साहित्यिक शिक्षा के साथ-साथ नैतिक शिक्षा पर बल दिया। बच्चों को अध्ययन मातृभाषा द्वारा कराया जाता था। गाँधी जी शारीरिक दण्ड के विरुद्ध थे।
गाँधी जी के शैक्षिक विचार
1. गाँधी जी के विचार में शिक्षा का अर्थ-
“शिक्षा से मेरा तात्पर्य, बालक तथा मनुष्य के तन, मन और आत्मा में से सर्वोत्तम को चारों ओर से बाहर निकाल लेना है।” गाँधी जी ने अपनी शिक्षा सम्बन्धी विचारधारा का सार यही बताया है। ‘चारों ओर से’ ऐक्यपूर्ण सुसंगत विकास को सूचित करता है। ‘बालक में से सर्वोत्तम को निकाल लेना’ यह कहना इस बात को मान लेने का सूचक है कि बालक के अन्दर एक महत्वपूर्ण क्षमता सिमटी पड़ी है, जिसको मुक्त किया जा सकता है और विकसित करके उसको पूर्ण बनाया जा सकता है। तन, मन तथा आत्मा इन शब्दों में से समष्टि या समग्र मनुष्य का दर्शन सूचित होता है। आरम्भ तन-शरीर से किया गया है और अन्तिम बिन्दु आत्मा है। व्यावहारिक कार्य के द्वारा मनुष्य की बुद्धि का विकास होता है। किन्तु बौद्धिक उपलब्धि-बुद्धि का विकास-शिक्षा का न तो आरम्भिक कार्य है, न ही अन्तिम यह एक मध्य बिन्दु है। बुद्धि के विकसित हो जाने पर भी मनुष्य को अभी अपने भीतर विद्यमान ‘सर्वोत्तम’ का पूरा विकास करके एक सुन्दर पुष्प बनना होता है। सम्पूर्ण विकास का अर्थात् सारी वैयक्तिक उन्नति का लक्ष्य सत्य की खोज है, मनुष्य के अन्दर विद्यमान सारे आत्मिक सार को निकाल लेना है। इस प्रकार शिक्षा केवल बचपन और युवावस्था तक ही सीमित नहीं रहती। शिक्षा को सारे जीवन का ध्यान रखना पड़ता है और यही ‘बालक और मनुष्य में विद्यमान सर्वोत्तम’ वाक्य खण्ड का महत्व है। अपने आप’ अर्थात् पूर्णता को प्रत्यक्ष करने में सफलता प्राप्त किए बिना, शिक्षा पूरी नहीं होगी। ‘शिक्षा जीवनभर जीवन के लिए होती है।’ शिक्षा वही है जो आवश्यक रूप से समग्र बालक पर, मानव के व्यक्तित्व के प्रत्येक पहलू पर अर्थात् इसके शारीरिक, बौद्धिक एवं आत्मिक पहलुओं पर ध्यान रखें, परन्तु शिक्षा का प्रयोजन क्या है ? शिक्षा का यह कार्य होना चाहिए कि वह मनुष्य के व्यक्तित्व के सभी पहलुओं का सुसंगत विकास सम्पन्न करे, जिससे कि वह स्वयं विकसित हो तथा समाज की सर्वोत्तम सेवा कर सके।
गाँधी जी ने इस बात को बलपूर्वक कहा था-“मैं वैयक्तिक स्वतन्त्रता का महत्व समझता हूँ, परन्तु यह बात भी नहीं भुलाई जा सकती कि मनुष्य वस्तुतः तो एक सामाजिक प्राणी है। सारे समाज की भलाई के लिए सामाजिक नियन्त्रण को इच्छा से मान लेना व्यक्ति तथा समाज दोनों को ही समृद्ध करता है।”
2. शिक्षा के उद्देश्य-
(i) मुक्ति का उद्देश्य इस सम्बन्ध में उन्होंने छात्रों से कहा- “आपके जीवन के समस्त कार्य तथा खेल के उद्देश्य एक महात्मा के उन्नतिशील जीवन के उद्देश्य एक समान होने चाहिएँ जो कि आपको ईश्वर के समीप ले चले। “
गाँधी जी ने अपनी आत्म कथा में लिखा है— आत्मा का विकास करना ही चरित्र का निर्माण करना है तथा व्यक्ति को ईश्वर तथा आत्मानुभूति के लिए प्रयास करने के योग्य बनाना है। “
(ii) शिक्षा का सांस्कृतिक उद्देश्य-गाँधी जी ने 22 अप्रैल सन् 1946 ई० में नई दिल्ली में कस्तूरबा बालिका आश्रम की बालिकाओं से वार्ता करते हुए कहा-“मैं शिक्षा के सांस्कृतिक पक्ष को उसके साहित्यिक पक्ष से अधिक महत्वपूर्ण समझता है। आपके आचरण तथा व्यवहार में, आपके उठने-बैठने, चलने-फिरने तथा वेशभूषा आदि की पूर्ण झलक मिलनी चाहिए—आन्तरिक संस्कृति की छाप आपकी वाणी पर पड़नी चाहिए।”
(iii) चरित्र निर्माण के लिए शिक्षा-जैसे स्वामी विवेकानन्द ने चरित्र-निर्माण करने वाली शिक्षा पर बल दिया था, वैसे ही गाँधी जी भी शिक्षा में चरित्र निर्माण पर बल देते थे। उनका कहना था कि हमारी सारी सीख तथा सारी विद्या निष्फल रहेंगी यदि ये हमारे हृदय में पवित्र भाव नहीं उपजाते। सारे ज्ञान का अंतिम लक्ष्य आवश्यक रूप से चरित्र-निर्माण ही है। वह शिक्षा ही क्या है, जिसमें चरित्र निर्माण न हो और वह चरित्र ही क्या है, जिसमें आरम्भिक वैयक्तिक पवित्रता न हो। व्यक्ति का चरित्र उसकी व्यक्तिगत शुचिता का परिणाम होता है।
(iv) पूर्ण विकास का उद्देश्य उन्होंने इस बात पर बल दिया कि शिक्षा को बालक की समस्त शक्तियों का सामंजस्यपूर्ण विकास करना चाहिए। उन्होंने 11 नवम्बर सन् 1937 हरिजन में लिखा- “सच्ची शिक्षा वह है, जिसके द्वारा बालकों, शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास को प्रोत्साहन मिले।”
(v) जीविका उपार्जन का उद्देश्य उन्होंने 11 सितम्बर 1937 ई० को हरिजन में लिखा- “शिक्षा को बेरोजगारी के विरुद्ध एक बीमा होना चाहिए।” बेसिक पद्धति में इस बात पर विशेष बल दिया जाता है कि छात्र किसी न किसी व्यवसाय के लिए तैयार हो सकें।
3. अध्यापक का महत्वपूर्ण स्थान-
गाँधी जी ने हमें याद दिलाया था कि “शिक्षा का मुख्य तथा पहला कर्त्तव्य यह है अथवा होना चाहिए कि उससे विद्यार्थियों के चरित्र का निर्माण हो और उन अध्यापकों को निराश होने की आवश्यकता नहीं है कि जो चरित्र का पालन करते हैं। वे भले ही अपने विद्यार्थियों को संसार भर की विद्याएँ प्रदान कर दें, किन्तु उनके मनों में शुचिता और सत्य की भावनाएँ नहीं बैठाते तो निस्संदेह वे उन्हें धोखा दे देंगे और उनको उन्नति के मार्ग पर डाल देने के स्थान पर विनाश के पथ पर लुढ़का देंगे। अध्यापक का कार्य बड़ा पुण्य कार्य है। उसको एक उच्च पद मिला हुआ है, जहाँ से वह अपने शिष्यों को बहुत अधिक प्रभावित कर सकता है। मैंने देखा है कि विद्यार्थी अध्यापकों के निजी जीवनों से जितना अधिक पा लेते हैं, उतना वे उनसे सुनी हुई बातों तथा पुस्तकों से ग्रहण नहीं करते।”
गाँधी की मान्यता यह थी कि “यह सर्वथा सम्भव है कि मीलों दूर बैठा अध्यापक भी अपनी जीवन पद्धति के द्वारा अपने विद्यार्थियों की आत्माओं को प्रभावित करता रहे। मैं स्वयं झूठ बोलूँ तथा लड़कों को सच बोलना सिखाऊँ तो मेरे लिए यह एक बेहूदी बात ही होगी। एक कायर अध्यापक अपने विद्यार्थियों को कभी शूरवीर बनाने में सफल नहीं हो सकता। इसलिए मैंने यह बात भली-भाँति समझी कि मुझे अपने साथ रहने वाले बालकों तथा बालिकाओं के सामने सदा आदर्श शिक्षक बना रहना होगा। “
टॉल्स्टाय फार्म के बच्चों का उनसे घनिष्ठ सम्पर्क स्थापित हो जाने पर उन्होंने अनुभव किया कि व्यक्ति एक आदर्श गुरु के आदर्श जीवन को देखकर जितना अधिक प्राप्त कर लेता है, उतना किताबों से नहीं प्राप्त करता। “मैंने सदा यह अनुभव किया है कि शिष्य की यथार्थ पाठ्यपुस्तक उसका अध्यापक है। उस अध्यापक को धिक्कार है, जो मुँह से तो कुछ पढ़ाता है तथा अपने हृदय में कुछ और रखता है।
शिक्षा के सम्बन्ध में किए गए प्रत्येक प्रयोग की सफलता अध्यापकों पर निर्भर रहती है। गाँधी जी ने इस बात को स्वीकार करते हुए कहा था कि यदि अध्यापक उनकी आशा के अनुरूप नहीं मिले तो योजना सफल नहीं हो सकेगी। इसलिए वे सदा इस बात पर बल देते रहे कि, “हमें अपने बालकों के लिए सर्वोत्तम शिक्षक खोजने चाहिएँ, भले ही यह खोज कितनी ही महँगी क्यों न पड़े।” विद्यार्थी को पुस्तक की अपेक्षा अध्यापक से अधिक सीखना है।
4. धार्मिक शिक्षा कैसे दी जाए-
“मैं मानता हूँ कि धर्मविहीन जीवन सिद्धान्तरहित जीवन होता है तथा सिद्धान्त-विहीन जीवन ऐसा ही होता है, जैसा कि पतवाररहित जहाज।” जैसे कि पतवाररहित जहाज अपने गन्तव्य स्थान पर कभी नहीं पहुँचेगा, ऐसे ही धर्मविहीन मनुष्य अपने पूर्व नियत स्थिर किए हुए लक्ष्य को कभी प्राप्त नहीं करेगा। यहाँ धर्म से गाँधी जी का अभिप्राय रूढ़ियों से नहीं है। उनके कथनानुसार ‘सत्य तथा न्यायपरायणता ही सबसे बड़े धर्म हैं।’ धर्म की व्याख्या करते हुए उन्होंने बताया था कि यह वह वस्तु है, जो बढ़-चढ़ कर हो, अत्युत्कृष्ट हो, जो मनुष्य की प्रकृति को ही परिवर्तित कर दे, जो मनुष्य का उसके भीतर विद्यमान सत्य से अटूट सम्बन्ध जोड़ दे और जो सदा पवित्र करती रहे। गाँधी जी ने इस बात पर बल दिया है कि, “धर्म का आधार नैतिकता होनी चाहिए। सच्चे धर्म तथा सच्ची नैतिकता को एक-दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता।” स्वामी विवेकानन्द ने विश्व धर्म परिषद् में जिस विश्व धर्म का प्रचार किया था, गाँधी जो को भी वही मान्य है। उसी स्वर में गाँधी जी कहते हैं कि जिस प्रकार वृक्ष का एक अकेला तना होता है, फिर भी उसकी बहुत-सी शाखाएँ तथा पत्ते होते हैं, इसी प्रकार सच्चा और पूर्ण धर्म तो एक ही है, परन्तु यह विभिन्न मनुष्यों में से गुजर कर बहुत से रूप धारण कर लेता है। उन्होंने कहा कि हम अपने धर्म के अतिरिक्त दूसरे धर्मों का अध्ययन करें, क्योंकि “इससे व्यक्ति को यह बात भली-भाँति समझ में आ जाएगी कि सब धर्म मूल में एक पक्की चट्टान की भाँति एक हैं और इससे व्यक्ति को मतों तथा सम्प्रदायों की धूल से परे विद्यमान सार्वभौम तथा परम, निरपेक्ष, सत्य की झांकी भी मिल जाती है।” हमें सभी धर्मों के प्रति आदर तथा पूजनीयता की भावना रखनी चाहिए। दूसरे धर्मों का व्यक्ति द्वारा अध्ययन तथा उनकी प्रशंसा एवं मूल्यांकन का अर्थ यह नहीं है कि व्यक्ति की अपने निजी धर्म के प्रति निष्ठा घट जाए। इसका इतना ही अभिप्राय है कि मनुष्य की आदर भावना दूसरे धर्मों में भी पहुंच जाए गाँधी जी को वे कठिनाइयाँ ज्ञात हैं कि जो भारत में धार्मिक शिक्षण के मार्ग में आती हैं, तो भी उनका विश्वास है कि धार्मिक शिक्षा की अपेक्षा समाज की नैतिक रचना को खोखला कर देगी। इसलिए गाँधी जी का कहना यह है कि, “धार्मिक शिक्षा का मूल आधार धर्म के सार्वभौम आवश्यक तत्वों की शिक्षा देना और सत्य तथा अहिंसा के मुख्य मुख्य सद्गुणों का अभ्यास कराना होना चाहिए। इससे मनुष्य का हृदय स्वच्छ होता है और उसका जीवन पवित्र हो जाता है।” प्रश्न यह है कि ऐसा प्रशिक्षण कैसे दिया जाए। गाँधी जी पहले ही यह अनुभव कर चुके थे कि मंत्रों को कंठस्थ कराना तथा उनका पाठ कराना व्यर्थ है या नैतिक शिक्षा के प्रयोजन से लिखी गई पुस्तकों को पढ़ना-पढ़ाना निष्फल है। गाँधी जी के अनुसार धार्मिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में विश्व के सभी धर्मों का अध्ययन होना चाहिए।
5. पाठ्यविधि-
छात्रों को ग्रहण करने योग्य तथा छोड़ने योग्य बातों में विवेक करना भी आना चाहिए। अध्यापक का यह कर्तव्य है कि वह छात्रों को विवेक करना सिखाए। जिस संस्कृति में अनुसरण वृत्ति पर बल दिया जाता हो, उसमें आलोचना का अभ्यास स्कूल में ही करवाना चाहिए। गाँधी जी ने कहा था कि, “हम विचारशील तथा ज्ञानवान प्राणी है और हमें इस अवधि में सत्य और असत्य में, मीठी और कटुभाषा में, पवित्र तथा अपवित्र वस्तुओं इत्यादि में भेद कर लेना होगा।”
6. हस्तशिल्प शिक्षा का केन्द्रीय अंग-
गाँधी जी ने श्रम को घृणा की दृष्टि से देखने की प्रवृत्ति पर खेद प्रकट किया था। उन्होंने लिखा था कि जिस देश की 80 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या कृषि कर्म करती हो तथा 10 प्रतिशत औद्योगिक हो, “उसमें शिक्षा को, केवल अक्षरों तक सीमित रखना और बालकों तथा बालिकाओं के उनके आगामी जीवनों में शारीरिक श्रम के अयोग्य बना देना एक अपराध है।” उनकी सम्मति के अनुसार बालकों को उनके शैशव से ही हस्त-शिल्प सिखाकर तथा प्रशिक्षण के शुरू के क्षण से ही कुछ उत्पादन करने योग्य बनाकर श्रम का गौरव अवश्य सिखाना चाहिए। इसीलिए शिक्षा की उनकी योजना में हस्तशिल्प एक केन्द्रीय अंग है। हस्तशिल्प एक अकेले पृथक विषय के रूप में नहीं सिखाया जाना चाहिए वरन् “शिक्षा की सारी प्रक्रिया ही इसके माध्यम से दी जानी चाहिए।” “केवल प्रत्येक हस्तशिल्प को जैसा कि किया जाता है निरी यांत्रिक विधि से नहीं सिखाया जाना चाहिए, परन्तु वैज्ञानिक ढंग से सिखाया जाना चाहिए अर्थात् बालक यह जान जाए कि प्रत्येक प्रक्रिया क्यों और किसलिए की जाती है।” “मुख्य विचारधारा यह है कि बालक को तन, मन तथा आत्मा की पूरी शिक्षा उस हस्तशिल्प के माध्यम से दी जाए, जो उसको सिखाया जा रहा है। परन्तु सारी की सारी शिक्षा पाँच अंगुलियों की अपेक्षा हाथ से शुरू होनी चाहिए। “मस्तिष्क को भी हाथ के माध्यम से शिक्षा देनी होगी।” हस्तशिल्प केन्द्रीय शिक्षा की मनोवैज्ञानिक बात यह है कि इसमें अनुभव के व्यावहारिक एवं बौद्धिक तत्वों का सन्तुलन हो जाता है, सामाजिक लाभ यह है कि यह श्रम के गौरव की सच्ची भावना को बढ़ाती है और सहयोग तथा प्रातृभाव के गुणों का विकास करती है। आर्थिक लाभ यह है कि यह शिक्षा को पारितोषिक देने वाली बनाती है और सामाजिक शोषण के विरुद्ध एक बाँध बनाने की कोशिश करती है
7. शिक्षा का माध्यम मातृभाषा पर अन्य भाषाओं के महत्व को समझना-
शिक्षण के विदेशी माध्यम के विषय में गाँधी जी ने कहा था कि इसने बच्चों को अपने देश में विदेशी तथा अपने ही घरों में अजनबी अथवा अपरिचित बना दिया है। “विदेशी माध्यम ने मस्तिष्क को थका दिया है, हमारे बच्चों के स्नायुतन्त्र पर अत्यधिक दबाव डाल दिया है, उनको रट्टू तथा नकलची बना दिया है, वे अब मौलिक विचार तथा कार्य कर ही नहीं सकते और न वे अपने ज्ञान का जनता में प्रसार कर सकते हैं।” इसलिए उन्होंने यह सलाह दी थी कि चाहे कितनी ही हानि क्यों न उठानी पड़े, शिक्षा के विदेशी माध्यम का स्थान तत्काल ही प्रान्तीय (राज्यीय) भाषाओं को दे देना चाहिए। प्रान्तीय (राज्यीय) भाषाओं को उनका अधिकारपूर्ण, उचित स्थान देना होगा। उनको सरकारी दफ्तरों, कचहरियों तथा विधान सभाओं की भाषा बनाने से उनकी स्थिति, उनका पद और उनका बाजार भाव सब ऊंचे हो जाएँगे।
8. स्त्री शिक्षा पर बल-
गाँधी जी ने नारी को “माता, मनुष्य को बनाने वाली और उसकी मौन नेत्री” घोषित किया था। उनके विचार में “नारी बलिदान और सहनशीलता की प्रतिमूर्ति हैं इसलिए यदि वह सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करेगी तो वह इसको पवित्र कर देगी।” उसके पुनरुत्थान का सबसे अधिक सशक्त साधन शिक्षा है। नर तथा नारी का एक अनुपम जोड़ा है, जो एक-दूसरे का पूरक है। प्रत्येक दूसरे की मदद करता है और कोई बात जो उनमें से किसी की पदस्थिति को हानि पहुँचाएगी वह उन दोनों के लिए एक जितनी हानिकारक सिद्ध होगी। इसलिए स्त्रियों की शिक्षा के लिए योजनाएं बनाते समय यह मूलभूत सिद्धान्त सदा ध्यान में रखना चाहिए। मनुष्य बाहरी कार्यकलाप में सर्वोच्च है, इसलिए इसके लिए बाह्य संसार का ज्ञान अधिक मात्रा में अपेक्षित है। “इसके विपरीत, गृहजीवन का पूरा का पूरा ही नारी का क्षेत्र है, इसलिए घरेलू मामलों का बच्चों के पालन-पोषण तथा उनके शिक्षण का ज्ञान नारी को अधिक होना चाहिए।
सहशिक्षा का पक्ष-गाँधी जी ने सहशिक्षा की कठिन समस्या का विचार खुले मन से किया। “व्यक्तिगत रूप से मेरा मन खुला है। मैं समझता हूँ कि सहशिक्षा के पक्ष तथा विपक्ष में एक जितने उचित तर्क दिए जा सकते हैं और यदि कहीं इसका प्रयोग किया जाएगा तो मैं इसका विरोध नहीं करूंगा, क्योंकि यह समस्या अभी तक एक प्रयोग की अवस्था में थी, इसलिए इसके परिणामों की प्रतीक्षा की जाती है। “
वयस्क शिक्षा- इस देश में वयस्क शिक्षा के लिए सम्भवतः गाँधी जी ने सबसे अधिक कार्य किया। उन्होंने अपनी पत्नी को दक्षिण अफ्रीका और भारत में अपने आश्रम के साथियों को तथा भारतीय गाँवों में बहुत से लोगों को पढ़ाया था। उनकी ऐतिहासिक डांडी यात्रा ने एक महत्वपूर्ण जागृति उत्पन्न की थी और जन-साधारण को शिक्षित करने की दिशा में उनका एक बहुत महत्वपूर्ण प्रयोग था। उन्होंने छात्रों को सलाह दी थी कि वे अपने प्रीष्मावकाश के दिनों में गाँवों में जाकर सेवा कार्य करें। उनको ऐसा विश्वास था कि शक्ति स्फूर्ति का वास्तविक स्रोत तो देहाती जनता है। वे जानते थे कि निरक्षरता स्वतन्त्रता तथा उन्नति में बड़ी भारी रुकावट होती है और यह केवल वर्तमान लोगों के ही नहीं, अपितु उनकी सन्तान के भी मानसिक क्षितिज को संकुचित कर देती है। उन्होंने कहा—”मैं वयस्क शिक्षा को उनके सामान्यतया समझे जाने वाले अर्थों में नहीं लूंगा, अपितु माता-पिताओं की शिक्षा के अर्थ में लूँगा, ताकि वे अपने बच्चों को उचित रूप से ढाल सकें। उनका विचार था कि वयस्कों की विचारधारा को पूर्व जागृत करके और उसका परिष्कार करके ही समाज का भौतिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक संगठन किया जा सकता है।”
शिक्षा की वर्धा योजना (Wardha Education Scheme)
गाँधी जी के विचारों ने प्रचलित शिक्षा विचारधारा में क्रान्ति उत्पन्न कर दी। 1937 में वर्धा में अखिल भारतीय राष्ट्रीय शिक्षा सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन ने सर्वसम्मति से गाँधी जी की विचारधारा का समर्थन किया तथा इस योजना का रूप निश्चित करने के लिए डॉ० जाकिर हुसैन के सभापतित्व में प्रमुख शिक्षाशास्त्रियों की एक समिति नियुक्त की। इस समिति की रिपोर्ट ही वर्धा योजना या बेसिक राष्ट्रीय शिक्षा के नाम से प्रसिद्ध है।
प्रणाली का वर्तमान रूप
जब से डॉ० जाकिर हुसैन समिति की रिपोर्ट प्रकाशित हुई है, तब से ही बुनियादी तालीम प्रणाली की उपयोगिता, रूपरेखा तथा पाठ्यक्रम पर विवाद चलता रहा है। अन्त में, यह निश्चित हुआ कि समस्त देश के लिए बुनियादी तालीम उपयुक्त है।
निरन्तर परिवर्तनों के बाद इस प्रणाली के निम्न तत्व हैं-
1. साढ़े पाँच घण्टे के स्कूल समय का निम्न वितरण किया जाए-
- शारीरिक क्रियाएँ – 20 मिनट
- मातृभाषा – 40 मिनट
- सामाजिक ज्ञान और सामाजिक विज्ञान – 60 मिनट
- कला – 40 मिनट
- गणित – 20 मिनट
- हस्तकला और उससे सम्बन्धित विषय – 2 1/2 घण्टे
2. शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होगा।
3. आत्मनिर्भरता को विशेष बल न दिया जाए। बनी चीजों की बिक्री से शिक्षा-व्यय का कुछ भाग पूरा किया जाएँ।
4. यथासम्भव पाठ्य पुस्तकों के प्रयोग को समाप्त किया जाए।
5. 8 वर्ष की अनिवार्य निःशुल्क शिक्षा के दो स्तर होंगे- प्राथमिक स्तर 5 वर्ष और माध्यमिक स्तर 3 वर्ष का होगा।
6. हस्तकला शिक्षा का आधार होगा। हस्तकला के अतिरिक्त बालक के सामाजिक और भौतिक वातावरण का शिक्षा सम्बन्ध स्थापित करना होगा।
7. सफाई, स्वास्थ्य, नागरिकता, खेल और मनोरंजन को शिक्षा में पर्याप्त स्थान दिया जाए।
8. परीक्षा का आधार दैनिक कार्य बनाया जाए।
गाँधी जी ने इस प्रणाली को क्यों अपनाया ?
यह सर्वमान्य है कि मैकाले द्वारा प्रारम्भ की गई शिक्षा प्रणाली समयानुरूप नहीं है। गाँधी जी ने अनुभव किया कि प्राचीन शिक्षा प्रणाली वास्तविकता से दूर है। उन्होंने कहा कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली बेकार ही नहीं, बल्कि हानिकारक भी है। अधिकांश लड़के अपने परिवार के लिए निरर्थक सिद्ध होते हैं तथा वे उस व्यवसाय का भी लाभ नहीं उठा पाते, जिसके लिए वे उपयुक्त हो सकते थे। उनमें बुरी आदतें विकसित होती हैं और वे नागरिक जीवन अपनाते हैं, जिसमें शिक्षा का नितान्त अभाव होता है। गाँधी जी का विचार है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली किसी भी प्रकार देश की आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं है। अंग्रेजी उच्च शिक्षा का माध्यम है, जिससे थोड़े-से शिक्षित तथा असंख्य अशिक्षित लोगों में भारी अन्तर आ गया है। उनका विचार है कि हम बच्चों के मस्तिष्क को विभिन्न जानकारियों के बोझ से भर देते हैं और कभी नहीं सोचते कि इसका उनके विकास से कोई सम्बन्ध है अथवा नहीं। अब हमें इसे समाप्त कर देना चाहिए और उनकी शिक्षा मूल रूप में क्रियात्मक ढंग की देने की व्यवस्था करनी चाहिए।
बुनियादी तालीम के कुछ मुख्य गुण
बुनियादी तालीम बहुत महत्वपूर्ण है तथा इस पर व्यय भी कम होता है, परन्तु इसमें शिक्षा के मुख्य विचार और सिद्धान्त हैं, जिनके कारण देश-विदेश के शिक्षाशास्त्रियों ने इसका आदर किया तथा इसे महत्वपूर्ण बताया है। डॉ० जाकिर हुसैन समिति के अनुसार यदि उसे उचित रूप से कार्य रूप दिया जाए तो आर्थिक दृष्टि से राष्ट्र की उत्पादन क्षमता बढ़ेगी से और लोग अपने अवकाश का लाभपूर्ण कर सकेंगे।
बुनियादी तालीम के निम्न प्रमुख गुण हैं—
1. शिक्षा का आधार बालक- एक प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री के मतानुसार बुनियादी तालीम बालक की शिक्षा के लिए बहुत उपयोगी है। इसलिए उसकी आवश्यकताओं का अध्ययन करना तथा उसे उन्हें उपलब्ध कराना स्वीकार किया है। रूसो, पैस्टोलॉजी, फ्रोबेल, हरबर्द, ड्यूवी जैसे महान् शिक्षाशास्त्रियों भी शिक्षा में इस बात पर बल दिया है कि बच्चों की आवश्यकताओं तथा रुचियों को विशेष महत्व दिया जाए।
2. क्रिया द्वारा शिक्षा– क्रिया द्वारा शिक्षा बुनियादी तालीम का आधार है। यह सोचना भारी भूल है कि पुस्तकों से ही शिक्षा प्राप्त होती है। ज्ञान प्राप्ति में दूसरी प्रणालियाँ और साधन अधिक सहायक होते हैं। ‘बातचीत’ तथा ‘चाक’ भी शिक्षा में बहुत लाभदायक नहीं हैं। सभी शिक्षाशास्त्रियों ने निरे पुस्तकीय ज्ञान का विरोध किया है। गाँधी जी का विश्वास था कि स्कूल क्रियात्मक होना चाहिए। बुनियादी तालीम में बच्चे एक महत्वपूर्ण और उद्देश्यपूर्ण क्रिया के साथ औपचारिक विषयों का ज्ञान भी प्राप्त करते हैं।
3. आत्मनिर्भरता- इस योजना का एक गुण सीखने के साथ आय प्राप्त करना है। भारत जैसे निर्धन देश में बुनियादी तालीम के ‘आत्मनिर्भर’ तत्व का स्कूलों में एक महत्व है। स्कूलों को बिना आत्मनिर्भर बनाए संविधान में प्रस्तावित अनिवार्य और निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करना कठिन प्रतीत होता है। इसके अभाव में स्कूल जाने वाले बालकों को शिक्षा देने के लिए बहुत समय तक प्रतीक्षा करनी होगी।
4. शिक्षा का जीवन से सम्बन्ध – एक बुनियादी स्कूल का वातावरण सामाजिक जीवन के वातावरण से भिन्न नहीं. होना चाहिए। स्कूल, जो कि का एक छोटा रूप है, उसका समाज से सम्बन्ध रहना चाहिए। शिक्षा का सम्बन्ध जीवन की आवश्यकताओं से होना चाहिए।
5. सात वर्ष की अनिवार्य और निःशुल्क शिक्षा – अनिवार्य और निःशुल्क शिक्षा का अर्थ यह है कि माता-पिता को कोई शुल्क नहीं देना होगा और वे बच्चों को स्कूल भेजेंगे।
गांधीजी ने लिखा है कि प्राथमिक शिक्षा का समय सात वर्ष होगा और इसका स्तर अंग्रेजी को छोड़कर मैट्रिक के बराबर होगा। इस शिक्षा का माध्यम व्यवसाय होगा और इसके ही द्वारा वर्तमान प्राथमिक, माध्यमिक और उच्चस्तरीय शिक्षा दी जाएगी।
6. अध्यापक और बालक को अधिक स्वतन्त्रता- बुनियादी तालीम में अनुशासन का अर्थ भय नहीं है वरन् स्वतन्त्रता का उचित प्रयोग करना है। अध्यापक को स्वयं सोचने और प्रयोग करने के अधिक अवसर मिलते हैं और इस प्रकार वह अपने विचारों और योजनाओं को क्रियात्मक रूप दे सकता है
7. बुनियादी तालीम में हस्तकला शिक्षा का आधार है- हस्तकला बुनियादी तालीम का माध्यम है। गाँधी जी ने कहा है कि मेरा हस्तकला सिखाने का सुझाव केवल उत्पादकता बढ़ाने के लिए नहीं है वरन् इसके द्वारा बालकों की अभिरुचियों को विकसित करना है। उनके विचारानुसार शिक्षा में योजना, सामूहिक कार्य और उत्तरदायित्व समझने के भाव जायत करना है। उनके विचारानुसार समस्त शिक्षा का आधार हस्तकला अथवा उद्योग होना चाहिए।
8. सम्पूर्ण शिक्षा- बुनियादी तालीम में शिक्षा को सम्पूर्ण ज्ञान माना गया है। समस्त शिक्षा का पाठ्यक्रम तीन पहलुओं पर आधारित है— भौतिक वातावरण, सामाजिक वातावरण और हस्तकला कार्य ।
9. नागरिकता में प्रशिक्षण- बुनियादी तालीम का उद्देश्य अपनी क्रियात्मक क्रियाओं द्वारा बालकों में आपसी सद्भावना और सहयोग उत्पन्न करना है। इस नई शिक्षा का उद्देश्य नागरिकता के गुण, व्यक्तिगत उत्तरदायित्व और निपुणता उत्पन्न करना है। इसके द्वारा उनमें अपनी उन्नति और सहयोग तथा सेवा द्वारा समाज को उन्नत बनाने की भावना को बल मिलेगा।
10. बुनियादी तालीम किसी एक वर्ग के लिए नहीं है- बुनियादी तालीम का उद्देश्य एक ऐसे समाज का निर्माण जिसमें गरीब-अमीर का अन्तर नहीं होगा और प्रत्येक को जीविका उपार्जन, वेतन और स्वतन्त्रता का अधिकार करना होगा।
11. मातृभाषा का महत्व-गाँधी जी ने कहा कि मातृभाषा द्वारा ही उचित शिक्षा दी जा सकती है। विदेशी भाषा के माध्यम द्वारा हम मौलिक कार्यों के अयोग्य हो जाते हैं। इससे केवल हम रटना और अंकगणित ही सीखते हैं। जब तक मनुष्य मातृभाषा में प्रभावपूर्ण लिखना तथा बोलना नहीं सीखता, उसके विचारों में स्पष्टता नहीं आती। इसके द्वारा ही बालक को गौरवपूर्ण अतीत की जानकारी कराई जाती है। इस प्रकार उसे सामाजिक शिक्षा मिलती है, जिसके द्वारा नैतिक गुणों का विकास होता है। इतना ही नहीं, मातृभाषा अपने भावों को व्यक्त करने का एक अच्छा साधन है और यदि इसका उचित प्रयोग किया जाए तो साहित्य का अध्ययन महत्वपूर्ण बनाया जा सकता है।
12. ग्रामीण और नगर क्षेत्रों में बुनियादी तालीम- यह सोचना भूल है कि बुनियादी तालीम गाँव के लिए है। वास्तव में, एक दृष्टिकोण से गाँव की अपेक्षा नगरों में बुनियादी तालीम की अधिक आवश्यकता है। गाँव में बालक अपने माता-पिता के साथ खेत और परिवार के व्यवसाय में कार्य करते हैं तथा उससे ही सम्बन्धित शिक्षा पाते हैं। बच्चों को कार्य करते समय वास्तविक जीवन का ज्ञान प्राप्त होता है और जो अनुभव वे प्राप्त करते हैं, वे उनकी शिक्षा द्वारा और भी विकसित होते हैं। तालीम राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली है। इसके अन्तर्गत गाँव और नगर दोनों ही आते हैं। स्थानीय परिस्थितियों तथा आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर हस्तकला निश्चित की जा सकती है और इसके ही कारण विभिन्न क्षेत्रों का पाठ्यक्रम भिन्न हो सकता हैं।
बुनियादी शब्द का महत्व
बुनियादी शब्द का आधार नींव है, जिसका अर्थ नींव अथवा बुनियाद है, जिस पर किसी चीज का निर्माण किया जाता है।
- यह बुनियादी है, क्योंकि यह शिक्षा का न्यूनतम स्तर निश्चित करती है, जिसे प्राप्त करने का अधिकार प्रत्येक भारतीय बालक को है।
- यह बुनियादी है, क्योंकि यह स्थानीय साधनों का प्रयोग करती है।
- यह बुनियादी है, क्योंकि इसका सम्बन्ध देश के साधारण लोगों से है, जो राष्ट्रीय जीवन का आधार है।
- यह बुनियादी है, क्योंकि इसका आधार प्राचीन भारतीय सभ्यता है।
- यह बुनियादी है, क्योंकि इसका सम्बन्ध बालक की मूल आवश्यकताओं तथा अभिरुथियों से है।
- यह बुनियादी है, क्योंकि इसका प्रथम स्थान है। इसका अर्थ प्राथमिक शिक्षा अर्थात् शिक्षा क्षेत्र का प्रथम चरण है।
- यह बुनियादी है, क्योंकि इसका सम्बन्ध देश के साधारण लोगों से है, जो राष्ट्रीय जीवन का आधार है।
बुनियादी तालीम की आलोचना
1. समन्वय का आधार हस्तकला एक अस्वाभाविक कार्य- किसी भी मुदद शिक्षा प्रणाली में हस्तकला द्वारा पाठ्यक्रम के सभी विषयों का सम्बन्ध स्थापित करना एक अस्वाभाविक कार्य है। अध्यापन प्रभावपूर्ण होना चाहिए। इसलिए इसका है सम्बन्ध बालक के निजी अनुभवों से होना चाहिए। अतः यह भारी भूल है कि समस्त ज्ञान का केन्द्र हस्तकला रखा जाए।
2. औद्योगिक समय में बुनियादी तालीम उपयुक्त नहीं है –पंचवर्षीय योजना और सरकार की समस्त नीतियाँ औद्योगीकरण की हैं। ऐसी नीति में बुनियादी तालीम विचारधारा के लिए प्रयत्न करना आवश्यक नहीं है। हमारी शिक्षा प्रणाली का उद्देश्य मनुष्य का सामूहिक विकास करना है। अतः ऐसे देश में जहाँ सामूहिक आर्थिक विकास करना है, वहाँ हस्तकला पर जोर देना आवश्यक नहीं है। अभी तक बुनियादी तालीम राज्य की आर्थिक नीति से समन्वय स्थापित नहीं कर पाई है।
3. दोषयुक्त मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित- इसमें बालक के मानसिक विकास से सम्बन्धित कोमल तथा महत्वपूर्ण सिद्धान्तों की अवहेलना की गई है। बालक को एक सिपाही अथवा सैनिक रूप में अन्य साधारण लोगों के रूप में समझा गया है। उसके महत्वपूर्ण व्यक्तित्व की अवहेलना की गई है। उसे एक उद्देश्य की पूर्ति में साधन समझा गया है। वह उद्देश्य जीविका कमाना है।
अध्यापकों के प्रशिक्षण की वर्धा योजना में बाल मनोविज्ञान की अवहेलना स्पष्ट है। सभ्य संसार में उदार शिक्षित लोगों का विश्वास है कि बारह वर्ष की आयु से पूर्व बालक को हस्तकला सीखने के लिए बाध्य नहीं करना चाहिए। जिस आयु में बच्चे को खेलना तथा मनोरंजन करना चाहिए, उस आयु में उसे एक-आघ रुपया प्रति घण्टे की आय करने के लिए बाध्य करना उसके प्रति एक प्रकार का अन्याय है।
4. राष्ट्रीय गुणों की अवहेलना – हमारे राष्ट्रीय गुणों के अनुसार शिक्षा का आधार धर्म होना चाहिए और इसे ही प्राप्त करना उद्देश्य होना चाहिए। हस्तकला पर आधारित शिक्षा हमारे प्राचीन आदर्शों के विपरीत है। 5. बुनियादी स्कूलों का असफल कार्य-यान्त्रिक गणित और शब्द अभ्यास की हानि हो रही है।
6. दूषित कार्य विवरण – बुनियादी स्कूलों में दो-तिहाई अथवा लगभग आधा समय विषय शिक्षण में लगता है और शेष समय हस्तकला को दिया जाता है। प्रायः कार्यपालिका में शिक्षण कार्य को समय हस्तकला के बाद दिया जाता है, जिसका परिणाम यह होता है कि खेती का कार्य करके बच्चे थक जाते हैं और वे शिक्षण कार्य में रुचि नहीं ले पाते हैं।
7. किसी भी हस्तकला में निपुणता नहीं- विद्यार्थी लगभग स्कूल कार्य का आधा समय हस्तकला सीखने में लगाते हैं, फिर भी वे किसी भी कला में निपुण नहीं होते हैं।
8. हानिकारक प्रतियोगिता- इस योजना की हानिकारक प्रतियोगिता द्वारा कुशल कलाकारों को हानि होगी।
9. बालक की अवहेलना – हस्तकला की ओर अधिक ध्यान देने के कारण बालक की अवहेलना की जाती है। बुनियादी तालीम को मनोरंजन की अपेक्षा एक सामाजिक और आर्थिक कार्य समझा जाता है। हस्तकला केवल एक आदर्श है। इसका प्रयोग केवल विशेष अवसरों पर किया जाता है।
10. साहित्य को दूसरा स्थान दिया जाता है- साहित्य और दूसरे महत्वपूर्ण ज्ञान के विषयों को दूसरा स्थान दे दिया जाता है।
बुनियादी तालीम से सम्बन्धित कुछ व्यंग्यात्मक विश्लेषण
- बुनियादी तालीम एक भुलावा है, इसके सिद्धान्त त्रुटिपूर्ण हैं और ठीक प्रकार से नहीं समझे गए हैं।
- बुनियादी तालीम एक धोखा है, इसे शक्तिशाली लोगों ने राष्ट्र पर थोपा है।
- बुनियादी तालीम एक भूल है, इसके कोई मनोवैज्ञानिक और अध्यापन सिद्धान्त नहीं हैं।
- यह एक राजनीतिक चाल है, जिसके द्वारा राष्ट्रीय भावों से खिलवाड़ किया गया है।
- बुनियादी तालीम एक तमाशा है, योजना प्रयोगात्मक नहीं है। हस्तकला का सामान एकत्र किया जाता है और जब अतिथि आते हैं तो उसका प्रदर्शन किया जाता है।
शिक्षा आयोग 1964-66 के बुनियादी शिक्षा सम्बन्धी विचार
नई पाठ्यचर्या और बुनियादी शिक्षा- शिक्षा आयोग ने बुनियादी शिक्षा का महत्व इस प्रकार प्रकट किया-
“महात्मा गाँधी ने बुनियादी शिक्षा का आन्दोलन शुरू किया था। उसमें उन्होंने राष्ट्र के लिए एक नए प्रकार की प्रारम्भिक शिक्षा का प्रस्ताव रखा था, जिसका केन्द्र शारीरिक श्रम तथा उत्पादक कार्य था और जिसका सामुदायिक जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध था। भारतीय शिक्षा के इतिहास में उसका महत्वपूर्ण स्थान था। वह एक ऐसी शिक्षा के प्रति क्रान्ति थी, जो भारत में दसियों सालों के अंग्रेजी शासन में परम्परागत प्रणाली पर बनी थी, जो अनुत्पादक तथा पुस्तकीय थी और जिसमें परीक्षाएँ बहुत मुख्य थीं। बुनियादी शिक्षा से राष्ट्रीय चेतना जाग्रत हुई; हो सकता है कि उससे प्राथमिक अवस्था पर शिक्षा के रूप में कोई आमूल परिवर्तन न आया हो, लेकिन इतना अवश्य है कि एक अधिक बड़े क्षेत्र में शिक्षा सम्बन्धी विचार और व्यवहार पर उसकी गहरी छाप पड़ी है। हमारा यह विश्वास है कि इस प्रणाली की मूल बातें तत्वतः ठीक हैं. तथा थोड़े संशोधन से उन्हें हमारी शिक्षा प्रणाली की न केवल प्राथमिक अवस्था पर अपितु सारी ही अवस्थाओं पर शिक्षा का अंग बनाया जा सकता है। ये मूल बातें इस प्रकार हैं-(1) शिक्षा के उत्पादक कार्यकलाप, (2) पाठ्यचर्या का उत्पादक कार्यकलापों और भौतिक तथा सामाजिक पर्यावरण से सह-सम्बन्ध और (3) स्कूल और स्थानीय समुदाय से घनिष्ठ सम्बन्ध “
1. उत्पादक कार्य-जहाँ तक उत्पादक कार्य का प्रश्न है, आयोग ने कार्य अनुभव (Work Experience) का प्रस्ताव रखा है, जो बुनियादी शिक्षा के उत्पादक कार्य के समान ही है। आयोग के विचार में प्राथमिक अवस्था पर दोनों का रूप लगभग एक-सा है। आयोग ने कार्य अनुभव को माध्यमिक स्कूलों में भी सम्मिलित करने की सिफारिश की है। उनके विचार से तो उच्चतर शिक्षा संस्थाओं तथा विश्वविद्यालयों में भी कार्य अनुभव को शिक्षा के अभिन्न अंग के रूप में विकसित करने का प्रयास करना चाहिए। ये संस्थाएँ ही शैक्षणिक क्षेत्र में आदर्श प्रस्तुत किया करती हैं और इस अवस्था पर कार्य अनुभव को प्रभावी रूप में तथा बड़े पैमाने पर शुरू करने से सफलता अवश्य मिलेंगी। इस दृष्टि से आयोग ने अनुभव किया कि विश्वविद्यालयों और अन्य उच्चतर शिक्षा संस्थाओं में कार्य अनुभव के विशेष कार्यक्रम संगठित करना उपयोगी होगा। उदाहरण के लिए-
(i) कुछ स्कूलों में स्कूल और कॉलेज में काम आने वाले वर्कशाप सम्बन्धी और उपस्करों को तैयार करने का काम शुरू करना चाहिए।
(ii) जहाँ तक चुनी हुई विज्ञान और शिल्पविज्ञान की संस्थाओं की बात है, उनमें खास-खास औद्योगिक और वैज्ञानिक परियोजनाओं पर काम शुरू करना प्रत्येक दृष्टि से बहुत उत्साहवर्धक और लाभकारी होगा। (संस्थाओं को परियोजना की। प्रत्येक अवस्था से गुजरते हुए पूर्ण उत्पादन की अवस्था तक पहुँचना चाहिए।)
(iii) कुछ संस्थाएँ अपने लिए और अपने आस-पास के लोगों के लिए आवश्यक फर्नीचर और शिक्षा-साधन आदि के निर्माण का काम हाथ में ले सकती हैं।
2. सह-सम्बन्ध- आयोग ने शिक्षा प्रणाली में यथासम्भव सब जगह सह-सम्बन्ध (जो कि बुनियादी शिक्षा का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू है) स्थापित करने का प्रयत्न किया है। “बुनियादी शिक्षा का विचार रहा है कि प्राथमिक स्तर पर पाठ्यचर्या की विषय-वस्तु का शिल्प कार्य तथा भौतिक एवं सामाजिक पर्यावरण से यथा सम्भव निकट सम्बन्ध होना चाहिए। प्राथमिक अवस्था से सम्बन्धित हमारे विचार इससे बहुत मिलते-जुलते हैं। हमने सुझाव दिया है कि माध्यमिक अवस्था पर कार्य अनुभव को पाठ्यचर्या और पर्यावरण में यथासम्भव निकट सह-सम्बन्ध स्थापित कर दिया जाए। उच्चतर शिक्षा की अवस्था पर हमने इस बात पर बल दिया है कि विषयों के चुनावों में अधिक छूट हो, विभिन्न विषयों के पढ़ने की सुविधा हो और शिक्षण तथा अनुसंधान का प्रयोजन स्थानीय, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय समस्या को समझना और उनका समाधान करना हो।”
3. स्कूल-समुदाय सम्बन्ध- बुनियादी शिक्षा की तीसरी विशेषता स्कूल- समुदाय सम्बन्ध हैं। बुनियादी शिक्षा इस बात पर बल देती है कि स्कूल को ऐसे सजीव और क्रियाशील समुदाय के रूप में संगठित करना चाहिए, जिसमें सामाजिक, सांस्कृतिक तथा मनोरंजक कार्यकलापों के सजीव कार्यक्रम हों। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि प्रत्येक अच्छे स्कूल को इसी रूप में अपने सामाजिक जीवन का संगठन करना चाहिए। स्थानीय सामुदायिक जीवन में स्कूल का सक्रिय रूप से भाग लेना बच्चों को सामाजिक विचार वाले तथा सहकारी छात्र बनाने में और भी महत्वपूर्ण होता है। अनेक विद्यमान बुनियादी स्कूलों ने आस-पास के इलाके के लोगों की सेवा करने के सम्बन्ध में अत्युत्तम उदाहरण सामने रखे हैं, और जैसा कि हमने बताया है सामुदायिक जीवन और सामाजिक सेवा में भाग लेने का यह कार्यक्रम अब सभी अवस्थाओं पर शिक्षा का अभिन्न अंग बन जाना चाहिए। हमारे माध्यमिक स्कूलों तथा कॉलेजों को तथा प्राथमिक स्कूलों को बाहर के सामुदायिक जीवन से निकट सम्बन्ध स्थापित करना चाहिए और सामाजिक कार्य तथा राष्ट्रीय पुनर्निर्माण में भाग लेना चाहिए ताकि छात्रों में अनुशासन की भावना जागे, वे शारीरिक श्रम का गौरव समझें और सारे समुदाय और राष्ट्र के प्रति आभारी और जिम्मेदार होना सीखें।
आयोग के विचार में, “बुनियादी शिक्षा के मूल सिद्धान्त इतने महत्वपूर्ण हैं कि उनसे सभी अवस्थाओं पर हमारी शिक्षा प्रणाली का मार्गदर्शन होना चाहिए। हमारे प्रस्ताव का सार यही है; और इस कारण हम शिक्षा की किसी एक अवस्था को बुनियादी शिक्षा कहने के पक्ष में नहीं हैं।”
उपसंहार – गाँधी ने कभी भी यह नहीं सोचा होगा कि लोग उनकी योजना को बिना विचारे स्वीकार कर लेंगे। वे स्वयं ही अपनी निजी विचारधारा के कटु समालोचक थे। उन्होंने लिखा था कि, “तुम मेरी योजना को मेरे प्रति केवल अपनी श्रद्धा के कारण ही मत स्वीकार करो। पूर्ण एवं परिपक्व विचार के पश्चात् ही योजना को स्वीकार किया जाना चाहिए, जिससे कि कुछ समय बाद इसे छोड़ न दिया जाए।” यद्यपि गाँधी जी चाहते थे कि सारे विषय किसी हस्तशिल्प के माध्यम से पढ़ाए जाएँ, परन्तु वे यह महसूस करते थे कि ये सभी विषय इसी प्रकार नहीं पढ़ाये जा सकते। इसीलिए उन्होंने लिखा था कि, “हम यथासम्भव अधिक से अधिक विषयों की शिक्षा तकली के माध्यम से देंगे।” इस योजना में शिल्प, शिल्प के लिए नहीं सिखाया जाता, उसका प्रयोजन यह है कि रचनात्मक आत्माभिव्यक्ति (कुछ निर्माण करते हुए अपने व्यक्तित्व का विकास करना), व्यावहारिक कार्य तथा ‘करते हुए सीखने’ के मार्ग बालक के लिए खुल जाएँ। यह प्रणाली औद्योगिक उन्नति में रुकावट नहीं डालती है, क्योंकि व्यावहारिक दक्षता, अवलोकन और रचनात्मक कार्य के अभ्यास से औद्योगिक प्रशिक्षण अथवा इंजीनियरी कॉलेज के लिए बालक की जैसी तैयारी होगी, वैसी किसी दूसरे ढंग से नहीं हो सकती।
गाँधी जी विद्या की मशाल को देश के दूर से दूरस्थ भागों में ले गए। उन्होंने निर्धन ग्रामवासियों को धीरज बंधाया तथा आत्मसम्मान की भावना जाग्रत की और उनको जंग खाई हुई सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक बेड़ियों के बंधन से मुक्त किया।
गाँधी जी ने अपनी शिक्षाओं के द्वारा इस आलोकित लौ को न केवल भारत के लिए ही अपितु सारे संसार के लिए ही जगमगा दिया है। हमारे हृदयों में एक अमूल्य बपौती के रूप में सुरक्षित रहेगी तथा हमारे अध्यापक एवं विद्यार्थी उनके संदेश को सारे संसार में फैलाने की कोशिश करेंगे।
प्रो० हुमायूँ कबीर के अनुसार, “राष्ट्र के लिए गाँधी जी की अनेक देनों में से नवीन शिक्षा के प्रयोग की देन सबसे महान् है। यह तरुण व्यक्तियों को सहयोग, प्रेम और सत्य के आधार पर एक समुदाय के रूप में रहने की शिक्षा देकर नए समाज के लिए नागरिकों को तैयार करने का प्रयत्न करती है।”
जाकिर हुसैन समिति के अनुसार, “गाँधी जी ने अपनी शिक्षण विधि में सहयोगी क्रिया, नियोजन, यथार्थता, पहलकदमी तथा व्यक्तिगत उत्तरदायित्व पर बल दिया है।”
डॉ० एम० एस० पटेल ने गाँधी जी की शिक्षा क्षेत्र में देन के बारे में लिखा, “गाँधी जी ने उन महान् शिक्षकों तथा उपदेशकों की गौरवपूर्ण मण्डली में अनोखा स्थान प्राप्त किया है, जिन्होंने शिक्षा के क्षेत्र को नई ज्योति प्रदान की है। “
ग्रीन का कथन था, “पैस्टोलॉजी वर्तमान शिक्षा सिद्धान्त एवं व्यवहार का प्रारम्भिक विन्दु था। यह बात पाश्चात्य शिक्षा के क्षेत्र में सत्य हो सकती है। गाँधी जी के शिक्षा सम्बन्धी विचारों का निष्पक्ष अध्ययन इस बात को सिद्ध करता है कि वे पूर्व में शिक्षा सिद्धान्त और व्यवहार के प्रारम्भिक बिन्दु हैं।”
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