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रवीन्द्र नाथ टैगोर (RAVINDRA NATH TAGORE)
जीवन वृत्त (Life Sketch)
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में 6 मई सन् 1861 ई. को जोड़ासांको (कलकत्ता) के सम्मानित परिवार में रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म हुआ था। उनकी माता का नाम शारदा देवी तथा पिता का नाम देवेन्द्रनाथ टैगोर था। रवीन्द्रनाथ जी की माता का देहान्त बचपन में ही हो गया था जिस कारण उनका पालन-पोषण उनके पिता के संरक्षण में हुआ। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा विद्यालय से अधिक घर पर हुई थी। सन् 1878 ई. में टैगोर उच्च शिक्षा प्राप्त करने इंग्लैण्ड गए। सन् 1880 ई. में ये स्वदेश लौट आए। सन् 1884 ई. में रवीन्द्रनाथ का विवाह मृणालिनी देवी के साथ हुआ किन्तु सन् 1920 ई. में इनकी पत्नी का देहान्त हो गया जिसके कारण इनका जीवन अस्त-व्यस्त हो गया। सन् 1901 ई. में टैगोर ने बोलपुर के निकट शान्ति निकेतन की स्थापना की, जो आज ‘विश्वभारती विश्वविद्यालय’ के नाम से प्रसिद्ध है। महान कवि एवं साहित्यकार के रूप में टैगोर की ख्याति देश की सीमाओं को पार कर गयी। सन् 1913 ई. में टैगोर को अपने काव्य संकलन ‘गीतांजलि’ के लिए ‘नोबेल पुरस्कार’ भी प्राप्त हुआ। इसके बाद टैगोर ने अनेक देशों का भ्रमण किया और सम्पूर्ण विश्व को भारतीय प्रेम तथा सौहार्द्र का संदेश दिया। 7 अगस्त 1941 ई. को जोड़ासांको के पैतृक आवास में इन महान कवि, साहित्यकार, समाज-सुधारक एवं शिक्षाशास्त्री का देहान्त हो गया।
रवीन्द्र नाथ टैगोर का जीवन दर्शन (Ravindra Nath Tagore’s Philosophy of Life)
रवीन्द्र नाथ टैगोर का जीवन दर्शन उच्च कोटि तथा मानवतावादी कहा जा सकता है। टैगोर जी का मानना था कि संवेगों एवं स्थायी भावों का दमन नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि व्यक्ति की समस्त शक्तियों का सामंजस्यपूर्ण विकास किया जाना चाहिए।
1) टैगोर जी के विश्वबोध दर्शन की तत्त्व मीमांसा- रवीन्द्र नाथ टैगोर जी के अनुसार इस सृष्टि का बीज रूप निराकर है और प्रकृति रूप में साकार है। इस सृष्टि को ईश्वर की अभिव्यक्ति मानते है और टैगोर जी का यह भी मानना है कि ईश्वर अपने आप में जितना सत्य एवं शाश्वत है उतना ही सत्य एवं शाश्वत् ईश्वर द्वारा निर्मित यह प्रकृति है। वे ईश्वर को कण-कण में देखते थे। आत्मा के तीन रूपों को टैगोर जी ने स्वीकार किया है।
- मनुष्य को आत्म रक्षा हेतु प्रवृत्त
- ज्ञान-विज्ञान की खोज एवं अनन्त ज्ञान की प्राप्ति
- स्वयं के अनन्त रूप को समझने हेतु प्रवृत्त
आत्मानुभूति एवं आत्म सन्तुष्टि को टैगोर जी जीवन का अन्तिम उद्देश्य मानते थे। टैगोर जी मानव जीवन के सिर्फ दो पक्षों को मानते थे।
- भौतिक पक्ष
- आध्यात्मिक पक्ष
2) टैगोर जी के विश्वबोध दर्शन की ज्ञान एवं तर्क मीमांसा- टैगोर जी भौतिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा दोनों को ही समान महत्त्व देते थे। उनका मानना था कि केवल भौतिक संसार के, उपासक अन्धकार में प्रवेश करते हैं उसी प्रकार जो सिर्फ ब्रह्म ज्ञान मे लीन रहते हैं वे भी अन्धकार में जीवन व्यतीत करते हैं। टैगोर जी का मानना था कि भौतिक ज्ञान उपयोगी ज्ञान है और आध्यात्मिक तत्त्व के ज्ञान के लिए सबसे सरल मार्ग, प्रेम मार्ग है। टैगोर जी के अनुसार संसार की समस्त वस्तुओं एवं जीवों में एकात्म भाव ही परम एवं अन्तिम सत्य है। प्रेम के माध्यम से ही मानव में संवेदना जागृत होती है और वह एकात्म भाव की अनुभूति करता है।
3) टैगोर जी के विश्वबोध दर्शन की मूल्य एवं आचार मीमांसा- रवीन्द्र नाथ टैगोर जी मानव सेवा को ईश्वर सेवा मानते थे। टैगोर जी मनुष्य में भौतिक एवं आध्यात्मिक गुणों की समान सहभागिता मानते थे। वे मनुष्य के भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों प्रकार के विकास पर बल देते थे। टैगोर जी का मानना था कि प्रेम ही यह भावना है जिससे मनुष्य के भौतिक जीवन को सुखमय एवं आध्यात्मिक जीवन में पूर्णता लायी जा सकती है। ये प्रेम के रहस्य को समझ कर इसे जीवन का मूल आधार बनाकर मानव की सेवा करना चाहते थे।
टैगोर का शैक्षिक दर्शन (Educational Philosophy of Tagore)
टैगोर के जीवन दर्शन के विकास में जिन तत्त्वों का प्रभाव पड़ा, उन्हीं तत्त्वों का प्रभाव उनके शिक्षा-दर्शन के विकास में भी पड़ा है। उनके शिक्षा-दर्शन का उनके जीवन-दर्शन से घनिष्ठ सम्बन्ध है। परिवार के प्रभाव के अतिरिक्त टैगोर के शिक्षा दर्शन पर पाश्चात्य शिक्षाशास्त्रियों रूसो, फ्रोबेल, ड्यूवी तथा पेस्टालॉजी आदि के विचारों का भी गहरा प्रभाव पड़ा है। इन्होंने अपनी तीव्र बुद्धि के द्वारा प्राकृतिक एवं सामाजिक विज्ञानों का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर लिया था, जिनका पर्याप्त प्रभाव इनके शिक्षा-दर्शन पर पड़ा। अनुभवों द्वारा उन्होंने शिक्षा के रहस्यों का ज्ञान प्राप्त किया और अपने समय की शिक्षा पद्धति के दोषों का अध्ययन किया। इस प्रकार स्वयं के प्रयत्नों के फलस्वरूप ही टैगोर विश्व के महान शिक्षाशास्त्री बने।
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