शिक्षाशास्त्र / Education

राधाकृष्णन आयोग के गुण-दोष | Merits and demerits of Radhakrishnan Commission in Hindi

राधाकृष्णन आयोग द्वारा दिये गये सुझावों के गुण-दोषों की विवेचना कीजिए।

राधाकृष्णन आयोग के गुण

1. विश्वविद्यालयों और उससे महाविद्यालयों पर अंकश- इस आयोन ने विश्वविद्यालयों और उनसे सम्बद्ध महाविद्यालयों के कार्य दिवस (परीक्षा दिवसों के अतिरिक्त 180 के कार्य दिवस) निश्चित किये, उनमें प्रवेश के लिए शैक्षिक योग्यता (इण्टरमीडिएट पास) और आयु (कम से कम 18 वर्ष) निश्चित की और केवल योग्य छात्रों को प्रवेश देने की सिफारिश की। साथ ही किसी सम्बद्ध महाविद्यालय में अधिक से अधिक 1500 और विश्वविद्यालयों में अधिक से अधिक 300 छात्र संख्या निश्चित की। यह सुझाव बड़ा उत्तम सुझाव था। विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में छात्रों की बढ़ती हुई भीड़ ही उच्च शिक्षा की समस्त समस्याओं का मूल कारण है। हमें इस ओर ध्यान देना चाहिए।

2. तीन वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम और सामान्य शिक्षा अनिवार्य- यूं तो स्नातक पाठ्यक्रम को तीन वर्षीय करने का सुझाव पहले विश्वविद्यालय आयोगों ने भी दिया था परन्तु इस स्तर के किसी भी वर्ग कला, विज्ञान एवं व्यावसायिक पाठ्यक्रम में सामान्य शिक्षा को अनिवार्य करने का सुझाव सर्वप्रथम इसी आयोग ने दिया। इसे लागू करने से दो लाभ होते-पहला यह कि समाज में बहुज्ञानी व्यक्तियों का निर्माण होता और दूसरा यह कि सभी प्रकार की शिक्षा में समन्वय होता पर हुआ यह कि अधिकतर विश्वविद्यालयों ने इसे अपने-अपने रूप में लागू किया, कुछ ने भाषा की शिक्षा अनिवार्य की और कुछ ने और किसी प्रकार की शिक्षा अनिवार्य की।

3. विश्वविद्यालयी शिक्षा को समवर्ती सूची में रखना- आयोग ने विश्वविद्यालयी शिक्षा को समवर्ती सूची में रखने का सुझाव दिया, उसकी व्यवस्था करना केन्द्र और प्रान्तीय सरकारों का संयुक्त उत्तरदायित्व बनाने का सुझाव दिया। किसी भी देश में उच्च शिक्षा राष्ट्रीय महत्व की शिक्षा होती है। उसकी व्यवस्था में केन्द्र सरकार की अहम भूमिका होनी चाहिए। सरकार ने आयोग के इस प्रस्ताव को 1976 में स्वीकार किया।

4. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का गठन- आयोग ने विश्वविद्यालयी शिक्षा के स्तर को बनाए रखने और विश्वविद्यालयों एवं उनसे सम्बद्ध महाविद्यालयों को आवश्यकतानुसार अनुदान देने के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के रूप में बदल दिया और 1956 में एक कानून द्वारा इसे एक स्वतन्त्र संस्था का दर्जा दिया। यह संस्था उच्च शिक्षा सेस्थाओं के उन्नयन, उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम के उन्नयन और शोध को बढ़ावा देने में बड़ी सफल रही है।

5. शिक्षण स्तर में सुधार- इस आयोग ने विश्वविद्यालयों और सम्बद्ध महाविद्यालयों की दशा सुधारने का सुझाव दिया, उनमें योग्य प्राध्यापकों की नियुक्ति का सुझाव दिया, योग्य छात्रों को प्रवेश देने का सुझाव दिया, कार्य दिवस बढ़ाने का सुझाव दिया, ट्यूटोरिटल सिस्टम लागू करने का सुझाव दिया और विचार गोष्ठियों के आयोजन का सुझाव दिया। इन सबसे शिक्षण का प्रभावशाली होना निश्चित है।

6. शिक्षकों के वेतनमान और सेवा शर्तों में सुधार- आयोग ने उच्च शिक्षा शिक्षकों के वेतनमान बढ़ाने और उनकी सेवा शर्तों में सुधार के सुझाव दिये, इससे योग्य व्यक्ति इस पेशे के लिए आकर्षित हुए।

7. पदोन्नति के लिए योग्यता एवं शोध कार्य को महत्व- अब तक विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की पदोन्नति केवल वरिष्ठता के आधार पर होती थी, आयोग ने इसे वरिष्ठता के साथ-साथ योग्यता और शोध कार्य के आधार पर देने की सिफारिश की पर सरकार ऐसा नहीं कर सकी अन्यथा इससे उच्च शिक्षा शिक्षक अपनी योग्यता और शोध क्षमता में विकास करते।

8. शिक्षार्थियों के लिए कल्याण योजनाएँ- इस आयोग ने विश्वविद्यालयों और सम्बद्ध महाविद्यालयों में अनेक छात्र कल्याणकारी योजनाओं, जैसे- छात्रों के कल्याण हेतु “छात्र कल्याण बोर्ड’ का गठन, खेल कूद एवं शारीरिक शिक्षा की उचित व्यवस्था के लिए “शारीरिक शिक्षा निदेशकों’ की नियुक्ति, छात्रों की समस्याओं के समाधान हेतु “छात्र अधिष्ठाताओं की नियुक्ति, छात्रों के लिए उचित मूल्य पर मध्यान्ह भोजन की व्यवस्था और उनके आवास के लिए छात्रवासों की व्यवस्था आदि का सुझाव दिया। इनसे छात्रों के हितों की रक्षा होना निश्चित हुआ।

9. विभिन्न प्रकार की व्यावसायिक एवं तकनीकी की उचित शिक्षा – इस आयोग ने विभिन्न प्रकार की औद्योगिक एवं तकनीकी शिक्षा – कृषि, वाणिज्य, इंजीनियरिंग, चिकित्सा, विधि और शिक्षक प्रशिक्षण के सुधार के लिए उपयुक्त सुझाव दिये। इस सन्दर्भ में उसका सबसे अधिक महत्व का सुझाव सभी क्षेत्रों में शोध को बढ़ावा देने सम्बन्धी था ।

10. विश्वविद्यालयी परीक्षाओं में सुधार के रचनात्मक सुझाव- इस आयोग ने विश्वविद्यालयी निबन्धात्मक परीक्षाओं में सुधार का सुझाव इतने पहले (1949) में दिया था और साथ ही वस्तुनिष्ठ परीक्षा शुरू करने का सुझाव दिया था। यदि हमने इस दिशा में ईमानदारी से प्रयत्न किया होता तो विश्वविद्यालयी परीक्षाओं को उपयोगी बनाया जा सकता था, विश्वसनीय बनाया जा सकता था।

राधाकृष्णन कमीशन के दोष

1. शिक्षा के माध्यम के बारे में अस्पष्ट सुझाव- आयोग ने एक ओर यह स्वीकार किया है कि भारत में उच्च शिक्षा का माध्यम स्वीकृत क्षेत्रीय भाषाएँ होनी चाहिए, दूसरी ओर यह सुझाव दिया कि जब तक क्षेत्रीय भाषाओं को इस योग्य नहीं बनाया जाता तब तक अंग्रेजी को ही शिक्षा का माध्यम बनाए रखा जाये और तीसरी ओर यह सुझाव दिया कि किसी भी क्षेत्र में राष्ट्रभाषा हिन्दी के माध्यम से शिक्षा की सुविधा की छूट दी जाये।

2. शिक्षकों के वेतनमान में भेदभाव- आयोग का यह सुझाव तर्कहीन था कि विश्वविद्यालयों में पाँच श्रेणियों (रिसर्च फेलो, इन्स्ट्रक्टर, लेक्चरर, रीडर और प्रोफेसर) के शिक्षक हों और सम्बद्ध महाविद्यालयों में केवल एक श्रेणी (लेक्चरर) के शिक्षक हों। सम्बद्ध महाविद्यालयों के लेक्चररों का वेतनमान विश्वविद्यालयी लेक्चररों से कम निश्चित करना तो समान कार्य के लिए समान वेतन के सिद्धान्त के एकदम विरुद्ध था।

3. उच्च शिक्षा के उद्देश्यों की व्यापकता- आयोग ने उच्च शिक्षा द्वारा व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, चारित्रिक, राजनैतिक, आर्थिक और आध्यात्मिक सभी प्रकार के विकास की बात कही है। वास्तव में ये तो किसी भी समाज की सामान्य, अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा के उद्देश्य होते हैं। इनकी प्राप्ति के लिए तो प्रारम्भ से ही प्रयत्न किया जाता है। उच्च शिक्षा के उद्देश्य तो सीमित एवं विशिष्ट होने चाहिए। विशिष्ट कार्यों के सम्पादन के लिए विशिष्ट व्यक्ति तैयार करना।

4. धार्मिक शिक्षा अनिवार्य- धार्मिक और नैतिक शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए, पर बड़ी सावधानी के साथ, परन्तु स्नातक स्तर पर इसकी शिक्षा की व्यवस्था का कोई औचित्य नहीं है।

5. ग्रामीण विश्वविद्यालयों का सुझाव अव्यावहारिक- यह बात अपने आप में सत्य है कि भारत ग्रामों का देश है और इसके विकास के लिए ग्रामों का पुनर्निर्माण आवश्यक है, पर इसके लिए ग्रामीण विश्वविद्यालय और उनसे सम्बद्ध छोटे-छोटे (300 तक छात्र संख्या वाले) ग्रामीण महाविद्यालयों की स्थापना की योजना सरकार पूरी नहीं कर सकती थी। यह सुझाव अपने में एकदम अव्यावहारिक था।

6. स्त्री शिक्षा के सन्दर्भ में संकुचित दृष्टिकोण- आयोग ने शिक्षा द्वारा स्त्रियों को सुमाता और सुगृहिणी बनाने की बात कही है। आज के प्रजातन्त्रीय युग में पुरुष और स्त्री की शिक्षा में किसी भी प्रकार का भेद नहीं होना चाहिए।

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Anjali Yadav

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