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विद्यालय प्रबन्ध की अवधारणा [CONCEPT OF SCHOOL MANAGEMENT]
विद्यालय प्रबन्ध की अवधारणा: उद्योग, व्यापार तथा शिक्षा जैसे क्षेत्रों में प्रबन्धन का अपना महत्त्व है। प्रबन्धन के द्वारा समस्त मानवीय एवं भौतिक संसाधनों की व्यवस्था तथा उनका अधिकतम उपयोग किया जाता है। इससे कार्य प्रणाली में गति आती है, संसाधनों का मितव्ययतापूर्ण उपयोग होता है तथा उद्देश्यों की पूर्ति सहजता के साथ हो जाती है। प्रबन्धन ही वह तत्त्व है जिसके द्वारा हम पूर्व निर्धारित लक्ष्यों को कम-से-कम समय तथा परिश्रम के साथ प्राप्त कर सकते हैं। उद्योगों में प्रबन्धन को इसी अर्थ में लिया जाता है किन्तु डेविस ने इसका प्रयोग उद्योगों से लेकर शिक्षण तथा अधिगम के क्षेत्र में भी किया। इस प्रकार प्रबन्धन या व्यवस्था प्रत्यय का प्रयोग शिक्षा के क्षेत्र में प्रारम्भ हुआ प्रबन्धन के द्वारा शिक्षण तथा अधिगम के लिए न केवल मानवीय तथा भौतिक संसाधनों की व्यवस्था ही की जाती है अपितु उनमें इस प्रकार परस्पर समन्वय किया है जिससे वांछित उद्देश्यों की सहज ही प्राप्ति हो सके।
प्रबन्धन के द्वारा ही हम विभिन्न अधिकारियों तथा व्यक्तियों के उत्तरदायित्व तथा उनके स्थिति क्रम (Hierarchy) का निर्धारण भी करते हैं। प्रबन्ध किसी भी संगठन-चाहे वह औद्योगिक जगत से सम्बन्धित हो या शिक्षा जगत से का मस्तिष्क कहलाता है। यही नीति निर्धारण का कार्य करता है तथा उनके क्रियान्वयन की व्यवस्था करता है। यही भविष्य के लिए योजना निर्माण का भी कार्य करता है। कहा भी गया है, “प्रबन्धन सतत निर्णय निर्माण में लगा रहता है तथा उनके क्रियान्वयन के प्रयास करता है।”
“Management of any organisation takes decisions continuously and seeks to it that the decisions are implemented to achieve the goals.”
शिक्षा के क्षेत्र में जब से तकनीकी (Technology) का प्रवेश हुआ है तब से शिक्षा तथा शिक्षण के क्षेत्र में प्रबन्धन का महत्त्व और भी अधिक बढ़ गया है। फलतः प्रबन्धन में अब शिक्षण से सम्बन्धित कार्यों तथा क्रियाओं को भी सम्मिलित किया जाने लगा है। स्कॉट के अनुसार, विवादों को न्यूनतम करना (To minimise the conflict) ही प्रबन्धन का अन्तिम उद्देश्य है। प्रबन्धन के द्वारा नियोजन का कार्य किया जाता है। नियोजन के कारण हम शिक्षण में अनिश्चितता तथा अस्पष्टता को दूर कर अपने कार्यों तथा उद्देश्यों में स्पष्टता तथा सोद्देश्यता लाते हैं। इससे शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया अधिक प्रभावी तथा उद्देश्यपरक बनती है। शिक्षक एक नेता होता है। प्रबन्धन हमें नेता के कार्य, गुण तथा दायित्वों से अवगत कराता है। प्रबन्धन से नेता की कार्य-दक्षता में वृद्धि होती है। “प्रबन्धन में केवल अधिकारत्व ही शामिल नहीं है अपितु इसमें वैज्ञानिक चिन्तन, व्यवस्थापन, दिशा-निर्देशन तथा नियन्त्रण, आदि भी शामिल होते हैं।”
“Managing is no more restricted to the more exercise of authority, but it also involves scientific thinking and deciding and thoughful organisation, direction and control to ensure better results.”
संक्षेप में, इस प्रकार हम कह सकते हैं, प्रबन्धन नियोजन, क्रियान्वयन तथा पुनर्चिन्तन से सम्बन्धित होता है।
“Management is mainly concerned with planning, execution and reviewing.”
कुछ परिभाषाएँ (Some Definitions)
कुछ विद्वान् प्रबन्धन को दूसरों से कार्य कराने की कला (The art of getting things done through others) मानते हैं। यह प्रबन्धन की अत्यन्त संकीर्ण एवं अपर्याप्त परिभाषा है।
(1) हेरोल्ड कून्ज (Harold Koontz) के अनुसार, “प्रबन्धन औपचारिक रूप से गठित व्यक्तियों के समूहों से कार्य कराने की कला है। यह ऐसा वातावरण निर्मित करने की कला है जिसमें व्यक्ति समूह भावना के साथ व्यक्तिगत स्तर पर उत्तम कार्य सम्पादित करता है। यह कार्य प्रणाली में व्यवधान को हटाकर उद्देश्य प्राप्ति के लिए अधिकतम दक्षता वृद्धि करने की कला है।”
“Management is the art of getting things done through and with people in formally organised groups. It is the art of creating an environment in which people can perform as individuals and yet cooperate towards attainment of group goals. It is the art of removing blocks to such performance, a way of optimizing efficiency in reaching goals.”
(2) मैकफारलैण्ड (McFarland) के अनुसार, “प्रबन्धन आधारभूत समन्वय तथा संचालन संक्रिया है जिसमें संगठित प्रयास सम्मिलित रहते हैं।”
“Management is the fundamental integrating and operating mechanism underlying organised efforts.”
(3) जॉर्ज टेरी (George Terry) के अनुसार, “पूर्व निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए मानवीय तथा अन्य संसाधनों का उपयोग करने की सुनिश्चित प्रक्रिया है।”
“Management is a distinct process performed to determine and accomplish stated objectives by the use of human beings and the resources.”
(4) जैक डंकन (Jack Duncan) के अनुसार, “प्रबन्धन में उन सभी संगठनात्मक क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है जो उद्देश्य पूर्ति तथा प्राप्ति, कार्य-मूल्यांकन तथा उस कार्यात्मक दर्शन के विकास से सम्बन्धित हैं जो सामाजिक प्रणाली में संगठन के अस्तित्व को सुनिश्चित करती है।”
“Management consists of all organisational activities that involve goal formation and accomplishment, performance appraisal and the development of an operating philosophy that ensures the organisations survival within the social system.”
प्रबन्धन की विशेषताएँ (CHARACTERISTICS OF MANAGEMENT)
उपर्युक्त परिभाषाओं तथा प्रबन्धन की व्याख्या का विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि प्रबन्धन में निम्नलिखित विशेषताएँ प्रमुख रूप से उभरकर आती हैं-
(1) प्रबन्धन सोद्देश्य प्रक्रिया है (Management is Purposeful Process) प्रबन्धन एक सोद्देश्य प्रक्रिया है। प्रबन्धन का कोई न कोई उद्देश्य होता है। इसका उद्देश्य सरल, सुगम तथा प्रभावी रूप से किसी कार्य के पूर्व निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करना है। प्रबन्धन का अस्तित्व इसलिए है क्योंकि यह वांछित उद्देश्यों की प्राप्ति का प्रभावी साधन है।
(2) प्रबन्धन से कार्य की सफलता बढ़ती है (Brings Success of Actions) प्रबन्धन का केन्द्र बिन्दु सफल कार्यों का आयोजन करना है। प्रबन्धन की सहायता से यह जानना सरल होता है कि कहाँ से कार्य प्रारम्भ किया जाए, कौन से संसाधन जुटाए जायें, उनका सर्वोत्तम उपयोग कैसे हो तथा कार्यों को सफलता कैसे मिले ?
(3) सार्वभौमिकता (Universality)– प्रबन्धन में सार्वभौमिकता होती है। यही कारण है कि प्रत्येक देश, समाज, परिवार तथा उपक्रम में किसी-न-किसी रूप में प्रबन्धन की आवश्यकता पड़ती है।
(4) यह समन्वित प्रक्रिया है (It is an Integrative Process)- प्रबन्धन का मूल मन्त्र सभी मानवीय एवं भौतिक संसाधनों का इस प्रकार समन्वय (Integration) करना है कि उससे अधिकतम परिणाम प्राप्त हो सकें। ये सभी संसाधन प्रबन्धकर्ताओं की उपलब्ध कराये जाते हैं। प्रबन्धकर्ता अपने ज्ञान, अनुभव, शिक्षा तथा दर्शन का प्रयोग कर कार्य सम्पादन कराते हैं।
(5) प्रबन्धन क्रिया आधारित होता है (Activity Based) प्रबन्धन क्रिया-आधरित होता है। प्रबन्धन में प्रबन्धकर्ताओं को विभिन्न क्षेत्रों से सम्बन्धित विविध कार्य करने होते हैं। प्रबन्धक मण्डल ही विभिन्न कर्मचारियों से इन कार्यों को सम्पादित कराता है। प्रबन्धक मण्डल ही उपक्रम के समस्त कार्यों के लिए उत्तरदायी होता है।
(6) प्रबन्धन बहु-आयामी होता है (Inter Disciplinary) प्रबन्धन का कोई एक क्षेत्र नहीं होता है। प्रबन्धन के अनेक क्षेत्र कार्य तथा आयाम होते हैं। प्रबन्धन में ही मानवशास्त्र, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, विज्ञान तथा ऐसे ही अन्य विषयों के सिद्धान्तों का प्रयोग करना पड़ता है।
(7) प्रबन्धन अदृश्य शक्ति है (Unseen Force)—किसी भी उपक्रम के विभिन्न साधन होते हैं। प्रबन्धन भी उनमें से एक साधत है किन्तु यह एक ऐसा साधन है जिसे हम देख नहीं पाते हैं। वह दिखाई नहीं देता है किन्तु इसकी अनुभूति की जा सकती है।
(8) यह मापनीय है (Measurable)-प्रबन्धन को उत्पाद तथा परिणामों के सन्दर्भ में मापा जा सकता है। कोई प्रबन्धन कितना सफल है तथा किसी प्रबन्धन के क्या परिणाम है इसका अध्ययन उत्पाद तथा परिणामों के आधार पर किया जा सकता है।
(9) प्रबन्धन दूसरों के कार्यों पर निर्भर है (Depends on Others’ Work) प्रबन्धन की परिभाषा का अध्ययन करते समय हमने पढ़ा था कि प्रबन्धन दूसरों से कार्य कराने की कला है। अतः प्रबन्धन दूसरों के कार्यों पर निर्भर करता है। दूसरे शब्दों में प्रबन्धन की सफलता दूसरे व्यक्तियों की योग्यता, कार्य दक्षता तथा लगन एवं रुचि पर आश्रित है।
(10) प्रबन्धन मानव जीवन को प्रभावित करता है (Influences Human Life) दूसरों से कार्य कराने के लिए आवश्यक है कि हम दूसरों के मनोविज्ञान को समझ तथा उसके जीवन को प्रभावित करें। दूसरों को प्रेरणा देने, उत्साहित करने, आदेश देने तथा प्रलोभन, आदि देने से हम उनके जीवन को प्रभावित करते हैं।
प्रबन्धन का क्षेत्र (SCOPE OF MANAGEMENT)
शिक्षा तथा शिक्षण से सम्बन्धित प्रबन्धन के क्षेत्र में हम निम्नांकित बातों को सम्मिलित करते हैं-
(1) संसाधनों का प्रबन्धन
(2) कार्य वितरण तथा निष्पादन।
(3) शिक्षण का प्रबन्धन
(i) नियोजन करना (Planning).
(ii) व्यवस्था करना (Organising).
(iii) अग्रसरण करना (Leading),
(iv) नियन्त्रण करना (Controlling) |
(4) मूल्यांकन करना।
नीचे इन विभिन्न क्षेत्रों का संक्षिप्त परिचय दिया गया है-
(1) संसाधनों का प्रबन्धन- प्रबन्धन का सर्वप्रथम कार्य एवं क्षेत्र शिक्षा तथा शिक्षण के लिए आवश्यक मानवीय एवं भौतिक संसाधनों का प्रबन्ध करना है। शिक्षा जगत में विभिन्न स्तर के कर्मचारियों, प्रधानाध्यापक, अध्यापक, लिपिक, चपरासी, आदि की व्यवस्था करनी होती है। इनके अलावा भवन, फर्नीचर, साज-सज्जा, शिक्षण सामग्री, आदि भौतिक संसाधनों की व्यवस्था के साथ-साथ उनके कल्याण, रख-रखाव तथा सुरक्षा की भी व्यवस्था करनी पड़ती है।
संसाधनों की व्यवस्था के साथ-ही-साथ उनके अनुकूल कार्य विभाजन तथा कार्य-वितरण का कार्य भी प्रबन्धन के क्षेत्र में आता है। इसी प्रकार भौतिक संसाधनों की व्यवस्था इस प्रकार करनी पड़ती है जिससे उनका अधिकतम एवं मितव्ययिता के साथ उपयोग हो सके।
(2) कार्य-वितरण तथा निष्पादन- शैक्षिक प्रबन्धन के क्षेत्र में मानवीय संसाधनों के मध्य उनको योग्यता एवं क्षमता के अनुसार कार्य वितरण का दायित्व भी आता है। कार्य-वितरण श्रम विभाजन के सिद्धान्तों पर आधारित होता है। प्रबन्धन का कार्य यहीं पर समाप्त नहीं हो जाता, उसे यह भी देखना पड़ता है कि जिन कर्मचारियों को जो कार्य दिये गये हैं वे सफलतापूर्वक सम्पन्न हो रहे हैं अथवा नहीं। प्रबन्धन को ऐसी परिस्थितियों का भी निर्माण करना होता है जिससे कर्मचारीगण अपने कार्यों का सफलतापूर्वक सम्पादन कर सकें।
(3) शिक्षण अधिगम का प्रबन्धन- शिक्षण अधिगम के प्रबन्धन का कार्य प्रमुख रूप से अध्यापक का होता है। इस हेतु शिक्षक ही प्रबन्धकर्ता की भूमिका अदा करता है। इस प्रकार अध्यापक भी एक प्रबन्धकर्ता होता है। शिक्षण-अधिगम के प्रबन्धन के लिए वह योजना बनाता है, व्यवस्था करता है, अग्रेषित करता है तथा नियन्त्रण करता है। अध्यापक इन चारों ही कार्यों के लिए विभिन्न प्रकार की क्रियाएँ करता है।
डॉ. आर. ए. शर्मा ने अपनी पुस्तक शिक्षण-तकनीक में लिखा है कि डेवीज़ के अनुसार इन चारों कार्यों के लिए अध्यापक निम्नांकित क्रियाएँ करता है-
1. सम्पूर्ण प्रणाली का विश्लेषण करना।
2. कार्य विश्लेषण करना।
3. छात्रों की योग्यताओं को ज्ञात करना।
4. छात्रों के ज्ञान, कौशल तथा अभिवृत्तियों का विश्लेषण करना।
5. छात्रों की आवश्यकताओं को पहचानना।
6. अधिगम उद्देश्यों की व्याख्या करना।
7. अधिगम के स्रोतों की व्याख्या करना।
8. समुचित शिक्षण व्यूह रचना का चयन करना।
9. छात्रों को अभिप्रेरण तथा प्रोत्साहन देना।
10. शिक्षण प्रणाली का मूल्यांकन करना।
11. शिक्षण प्रणाली को क्रियान्वित करना।
12. अधिगम-प्रणाली का लगातार निरीक्षण करना।
13. उसमें सुधार कर अपनाना।
14. मापन के मापदण्ड का मूल्यांकन करना।
15. कार्य क्षमताओं के आधार पर मापन के मानदण्ड का विकास करना।
उपर्युक्त क्रियाओं में से क्रिया नं. 1, 2, 3, 4, 5, 6, 14 तथा 15 को नियोजन के अन्तर्गत, क्रिया नं. 7 तथा 11 को व्यवस्था के अन्तर्गत क्रिया नं. 8 को अग्रसरण में तथा 11, 12, 13 को नियन्त्रण के अन्तर्गत रखा जाता है।
(4) मूल्यांकन करना- शैक्षिक प्रबन्धन का एक कार्य समस्त कार्यों का समय-समय पर मूल्यांकन करना भी है। प्रबन्धन मूल्यांकन के परिणामों के आधार पर अपने कार्यों, सफलताओं तथा असफलताओं की समीक्षा करता है तथा भविष्य के लिए कार्य योजना बनाता है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि शिक्षण के क्षेत्र में प्रबन्धन का अपना महत्त्व है। प्रबन्धन के आधार पर ही परिवीक्षण, प्रशासन तथा संगठन की व्यवस्था की जाती है। शिक्षा प्रशासन से सम्बन्धित पुस्तकों में हम परिवीक्षण, संगठन तथा व्यवस्था, आदि के सम्बन्ध में विस्तार से पढ़ते हैं। ये सभी प्रबन्धन के ही अंग हैं।
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