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विभागीयकरण से आप क्या समझते हैं?
प्रबन्ध की दृष्टि से एक तरह की क्रियाओं को छोटी-छोटी इकाइयों में समूहीकरण करना ही विभागीयकरण कहलाता है। दूसरे शब्दों में, विभागीयकरण का अर्थ है-किसी उपक्रम के संगठन को विभिन्न विभागों तथा उप-विभागों में विभक्त करना; जैसे- एक उपक्रम के संगठन को हम कर्मचारी विभाग, उत्पादन विभाग, विक्रय विभाग, वित्त विभाग, क्रय विभाग आदि विभागों में विभक्त कर सकते हैं। विभागीयकरण व्यवसाय की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए किया जाता है। समान प्रकार की क्रियाओं को एक ही विभाग के अन्तर्गत सम्मिलित किया जाता है। व्यवसाय की प्रकृति तथा आकार को ध्यान में रखते हुए विभागीय प्रबन्ध चाहे तो अपने विभाग को कई उप-विभागों में विभक्त कर सकता है। उदाहरण के लिए विक्रय विभाग का प्रबन्धक विक्रय क्रियाओं को कई उप-विभागों में विभाजित कर सकता है; जैसे-पैंकिंग विभाग, विक्रय-पश्चात् सेवा विभाग, विज्ञापन विभाग आदि ।
विलियम एफ० ग्लूक के अनुसार, “सम्पूर्ण संस्था के कार्यों को विभाजित करने तथा कार्य के समूह स्थापित करने की विधि को ही विभागीयकरण कहते हैं। विभागीयकरण का परिणाम उक्त इकाइयों का निर्माण करना है, जिन्हें सामान्यतः विभाग कहा जाता है।”
कुण्ट्ज तथा ओ’ डोनेल के अनुसार, “विभागीयकरण एक विशाल एकात्मक कार्यात्मक संगठन को छोटे आकार एवं लोचपूर्ण प्रशासकीय इकाइयों में बाँटने की एक प्रक्रिया है। “
संक्षेप में, किसी वृहत् उपक्रम की क्रियाओं की छोटी-छोटी स्वतन्त्र एवं लोचदार इकाइयों में बाँटने की प्रक्रिया ही विभागीयकरण कहलाती है।
विभागीयकरण के आधार (Base of Departmentation)
एक व्यावसायिक संस्था की विभिन्न क्रियाओं को निम्नलिखित आधारों पर विभागों में विभाजित किया जा सकता है-
(1) वस्तु या सेवा का आधार- जब संस्था कई प्रकार की वस्तुओं का निर्माण कर रही है तो प्रत्येक वस्तु के लिए एक अलग विभाग बनाया जा सकता है। इसी प्रकार प्रत्येक प्रकार की सेवा के लिए अलग-अलग विभाग बनाये जा सकते हैं।
(2) क्षेत्रीय आधार- जब संस्था का आकार बड़ा है तथा उसका कार्य देशव्यापी है तो व्यावसायिक क्रियाओं को क्षेत्रीय आधार पर बाँटा जा सकता है।
(3) समय का आधार- जब कार्य दिन-रात चलता रहता है तो समय के आधार पर व्यावसायिक क्रियाओं को बाँटते हैं।
(4) ग्राहकों का आधार- जब संस्था के ग्राहक कई प्रकार के होते हैं तो संस्था के कार्यों को ग्राहकों के अनुसार बाँटते हैं।
(5) कार्यों के अनुसार- इसके अन्तर्गत व्यावसायिक क्रियाओं को कार्यों के अनुसार बाँटा जाता है। यह विभागीयकरण का सबसे अधिक प्रचलित आधार है।
(6) विपणन का आधार- कई बार विभागीयकरण विपणन शृंखलाओं के आधार पर किया जाता है।
(7) विधियों का आधार- अनेक उद्योगों में वस्तु का निर्माण कई प्रक्रिया से होकर होता है। वहाँ पर प्रक्रिया के अनुसार विभागीयकरण किया जाता है।
विभागीयकरण करते समय निम्नांकित तत्वों को ध्यान में रखना चाहिए-
(1) मितव्ययिता- विभागीयकरण से संस्था के व्यय भार में वृद्धि के स्थान पर कमी की जाये।
(2) नियन्त्रण- विभागीयकरण तभी सफल हो सकता है, जब सभी विभागों की क्रियाओं पर प्रभावपूर्ण नियन्त्रण हो ।
(3) समन्वय – विभागीयकरण की सफलता के लिए विभिन्न विभागों में समन्वय आवश्यक है। साधारणतया एक विभाग को दूसरे विभाग के समान कार्य न सौंपे जायें।
(4) विशिष्टीकरण- विभागीयकरण से हर हालत में विशिष्टीकरण होना चाहिए, तभी वह लाभदायक हो सकता है।
(5) स्थानीय परिस्थितियाँ- विशिष्टीकरण करते समय संगठन चलाने वालों की योग्यता एवं महत्व तथा औपचारिक सम्बन्धों पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
(6) विशेष ध्यान- उन कार्यों पर, जो व्यावसायिक उद्देश्यों की पूर्ति में विशेष महत्व रखते हैं तथा जिन पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए; उनके लिये अलग विभाग बनाना आवश्यक होता है।
विभागीयकरण के प्रमुख लाभ (Advantages of Departmentation)
विभागीयकरण से अनेक लाभ होते हैं, उनमें से प्रमुख निम्न हैं-
(1) विभागीयकरण से कर्मचारियों के अधिकार व दायित्व के स्पष्ट विभाजन से उनकी दक्षता एवं कार्यकुशलता में वृद्धि होती है। इससे वह स्वतन्त्र रूप से सोच सकते हैं और कार्य करने में समर्थ होते हैं।
(2) प्रत्येक विभाग एवं सम्बन्धित व्यक्तियों पर निश्चित उत्तरदायित्व डाला जा सकता है।
(3) विभागीय प्रबन्धकों द्वारा स्वतन्त्र रूप से निर्णय लेने से योग्य कर्मचारियों का निर्माण सरल होता है।
(4) प्रत्येक कार्य की कुशलता मापी जा सकती है। इससे प्रबन्धकीय मूल्यांकन का कार्य सरल हो जाता है।
(5) विभागीय बजट सही एवं प्रभावपूर्ण तरीकों से बनाये जा सकते हैं।
(6) सम्पूर्ण विभाग की सम्पूर्ण क्रियाओं पर समुचित नियन्त्रण रखा जा सकता है।
(7) विभागीयकरण करने से उपलब्ध मानवीय संसाधनों का अधिकतम उपयोग किया जा सकता है।
विभागीयकरण के प्रमुख दोष (Disadvantages of Departmentation)
विभागीयकरण के प्रमुख दोष निम्नलिखित हैं-
(1) इससे विकेन्द्रीयकरण को बढ़ावा मिलता है।
(2) योग्य तथा कुशल कर्मचारियों का चुनाव कठिन है।
(3) प्रत्येक विभाग अलग-अलग होने से प्रबन्ध की समस्या जटिल हो जाती है। विभिन्न विभागों की क्रियाओं के मध्य समन्वय स्थापित करना स्वयं में एक समस्या बन जाती है।
(4) विभागीयकरण एक अत्यन्त कार्यशील एवं खर्चीली संरचना है।
(5) विभागीयकरण की विधि केवल बड़े उपक्रमों के लिए ही उपयुक्त है।
(6) प्रत्येक विभाग अलग होने के कारण प्रबन्धकीय प्रशिक्षण देना भी जटिल समस्या बन जाती है।
(7) विभागीयकरण होने से सम्बन्धित प्रबन्धकों एवं उनमें कार्य करने वाले कर्मचारियों का दृष्टिकोण बड़ा ही संकुचित हो जाता है।
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