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व्यक्तित्व का विकास (Development of Personality)
मानव में व्यक्तित्व विकास निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। यह गर्भधारण के समय से प्रारम्भ होता है तथा जीवनपर्यन्त चलता रहता है। व्यक्तित्व विकास की यह प्रक्रिया विकास की अवस्थाओं के अनुरूप सरलता से स्पष्ट की जा सकती है-
1) गर्भकालीन अवस्था में व्यक्तित्व (Personality in Prenatal Stage)- आनुवांशिक कारकों का व्यक्तित्व के विकास पर विशेष प्रभाव पड़ता है। इसीलिए गर्भावस्था की परिस्थितियाँ जन्म के पश्चात् विकसित होने वाली व्यक्तित्व संरचना की आधारशिला कही जाती है। इस अवस्था में शिशु में आनुवांशिक लक्षण आ जाते हैं एवं उनका लिंग निर्धारित हो जाता है।
2) शैशवावस्था में व्यक्तित्व (Personality in Infancy) – व्यक्तित्व के विकास में शैशवावस्था अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान रखता है क्योंकि इस अवस्था से ही व्यक्तित्व का विकास आरम्भ होता है। व्यक्तित्व विकास के परिणामस्वरूप शिशुओं में वैयक्तिक भिन्नताएँ परिलक्षित होने लगती हैं।
3) बाल्यावस्था में व्यक्तित्व (Personality in Childhood)- बाल्यावस्था के दौरान बालक में व्यापक परिवर्तन होते हैं। इसमें बालक का तीव्रगति से शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक विकास होता है। इस अवस्था में बालक के व्यक्तित्व विकास पर माता-पिता सम्बन्धियों तथा साथियों का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। बालक में वैयक्तिकता भी इस अवस्था में परिलक्षित होने लगती है। इसीलिए कुछ बालक शान्त, कुछ वाचाल, कुछ गुम-सुम तथा कुछ नेतृत्व में रुचि लेने वाले हो जाते हैं।
4) किशोरावस्था में व्यक्तित्व (Personality in Adolescence)- सबसे जटिल तथा संघर्ष की अवस्था को किशोरावस्था कहा जाता है। इस अवस्था में बालक में अनेकानेक परिवर्तन परिलक्षित होने लगते हैं साथ ही साथ उनके सामाजिक, संवेगात्मक, मनोवैज्ञानिक व्यवहार में परिपक्वता भी आने लगती है।
बालक इस अवस्था में अपनी भावनाओं, इच्छाओं तथा संवेगों को अधिक महत्व देने लगते हैं। बाल्यावस्था में विकसित व्यक्तित्व का स्थिरीकरण होने लगता है तथा बालक अवांछित आदतों को त्यागने तथा वांछित आदतों को अंगीकृत करने लगता है।
5) प्रौढ़ावस्था में व्यक्तित्व (Personality in Adulthood)- व्यक्तित्व विकास की अन्तिम अवस्था प्रौढ़ावस्था है। इस अवस्था में किशोरावस्था में विकसित हुए व्यक्तित्व का प्रायः स्थिरीकरण हो जाता है। प्रौढ़ावस्था में व्यक्ति सामाजिक मान्यताओं के अनुरूप कार्य करने लगता है, पारिवारिक उत्तरदायित्व आ जाने से व्यक्ति का जीवन तनावपूर्ण हो जाता है। वह स्वतन्त्र चिन्तन करने लगता है तथा इससे उनकी सृजनात्मक शक्ति में अभिवृद्धि होती है।
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