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शिक्षा का अर्थ | शिक्षा के उद्देश्य | टैगोर के शिक्षा-दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त | पाठ्यचर्या

शिक्षा का अर्थ | शिक्षा के उद्देश्य | टैगोर के शिक्षा-दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त | पाठ्यचर्या
शिक्षा का अर्थ | शिक्षा के उद्देश्य | टैगोर के शिक्षा-दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त | पाठ्यचर्या

शिक्षा का अर्थ (Meaning of Education)

टैगोर के अनुसार, ‘सर्वोच्च शिक्षा वही है जो, सम्पूर्ण सृष्टि से हमारे जीवन का सामंजस्य स्थापित करती है।” सम्पूर्ण सृष्टि से टैगोर का अभिप्राय है कि संसार की चर और अचर, जड़ और चेतन, सजीव और निर्जीव सभी वस्तुएँ। इन वस्तुओं से हमारे जीवन का सामंजस्य तभी हो सकता है, जब हमारी सभी शक्तियाँ विकसित होती हैं और पूर्णता के उच्चतम बिन्दु तक पहुँचती हैं। इसी को टैगोर ने ‘मनुष्यत्व’ कहा है। शिक्षा मनुष्य का शारीरिक, बौद्धिक, आर्थिक, नैतिक, आध्यात्मिक और धार्मिक विकास करती है। टैगोर ने शिक्षा के व्यापक अर्थ में शिक्षा के प्राचीन भारतीय आदर्श ‘सा विद्या या विमुक्तये’ को भी स्थान दिया है।

शिक्षा के उद्देश्य (Objectives of Education)

टैगोर ने समय-समय पर अपने लेखों, साहित्यिक रचनाओं और व्याख्यानों में शिक्षा के उद्देश्यों के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त किए हैं। इनके आधार पर शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य माने जा सकते हैं-

1) शारीरिक विकास (Physical Development)- टैगोर के अनुसार, शिक्षा का सर्वप्रथम उद्देश्य बालक का शारीरिक विकास करना है।

2) मानसिक विकास (Mental Development)- टैगोर के अनुसार, शिक्षा का कार्य बालक को वास्तविक जीवन की बातों, स्थितियों और वातावरण से परिचित कराकर उसके मस्तिष्क का विकास करना है।

3) नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास (Moral and Spiritual Development)- टैगोर ने शारीरिक और मानसिक विकास के साथ-साथ नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास पर भी बल दिया है और व्यक्ति के आन्तरिक विकास को शिक्षा का एक उद्देश्य माना है।

4) सामाजिक विकास एवं अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण का विकास (Social Development and Development of International Understanding)- बालक में सामाजिक गुणों का विकास करना शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है। अपने अन्दर सामाजिक गुणों को विकसित करके बालक स्वयं की और समाज की प्रगति में सहयोग कर सकता है। वे संकीर्ण राष्ट्रवाद की भावना के विरुद्ध थे और अन्तर्राष्ट्रीय समाज के समर्थक थे। इनका कहना था कि शिक्षा के द्वारा बालक में अन्तर्राष्ट्रीय दृ ष्टिकोण को विकसित किया जाए।

5) सामंजस्य की क्षमता का विकास (Development of the Capacity of Adjustment)-टैगोर के अनुसार, बालकों को जीवन की वास्तविक परिस्थितियों, सामाजिक स्थितियों और वातावरण की जानकारी कराना तथा उनसे अनुकूलन कराना, शिक्षा का उद्देश्य है।

टैगोर के शिक्षा-दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त (Fundamental Principles of Educational Philosophy of Tagore)

टैगोर के शिक्षा-दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त इस प्रकार हैं-

1) प्रकृति की गोद में शिक्षा-बालकों को शिक्षा नगरों से दूर प्रकृति के वातावरण में होनी चाहिए। प्रकृति के साथ सम्पर्क स्थापित करने में बालकों को आनन्द का अनुभव होता है।

2) मनुष्य की पूर्णता की शिक्षा-टैगोर के अनुसार, वास्तव में मानव जातियों में स्वाभाविक अन्तर होते हैं, जिन्हें सुरक्षित रखना है और सम्मानित करना है और शिक्षा का कार्य इन अन्तरों के होते हुए भी एकता की अनुभूति कराना है, विषमताओं के होते हुए भी असत्य के बीच सत्य को खोजना है। डॉ. मुखर्जी ने कहा है कि, “इस एकता के सिद्धान्तों को दूसरे दृष्टिकोण से देखने पर टैगोर ने उसे पूर्णता के सिद्धान्त में बदला है। इन्होंने शरीर की शिक्षा, बुद्धि की शिक्षा, आत्मा की शिक्षा तथा आत्माभिव्यक्ति की शिक्षा में जो एकता स्थापित की है, उसके द्वारा मनुष्यत्व की पूर्णता (Fullness of manhood) के लिए प्रयत्न किया है।”

3) शिक्षा में स्वतन्त्रता-टैगोर ने कहा है कि जहाँ स्वतन्त्रता नहीं और जहाँ विकास नहीं वहाँ जीवन नहीं है। इसलिए शिक्षा प्राप्त करते समय बालक को स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए। उन पर कम से कम प्रतिबन्ध लगाने चाहिए। स्वतन्त्रता तथा प्रसन्नता के द्वारा अनुभव की पूर्णता टैगोर की आदर्श शिक्षा का हृदय और आत्मा है।

4) बालक का चहुँमुखी और सामंजस्यपूर्ण विकास-शिक्षा के द्वारा व्यक्ति की जन्मजात शक्तियों का विकास करके उसके व्यक्त्तित्त्व का चहुँमुखी और सामंजस्यपूर्ण विकास किया जाना चाहिए।

5) राष्ट्रीय शिक्षा-टैगोर ने कहा है कि बालकों की शिक्षा राष्ट्रीय होनी चाहिए, उसमें भारत के अतीत एवं भविष्य का पूर्ण ध्यान रखा जाना चाहिए।

6) कलात्मक शक्तियों का विकास-शिक्षा के द्वारा बालकों में संगीत, अभिनय, तथा चित्रकला की योग्यताओं का विकास किया जाना चाहिए।

7) भारतीय संस्कृति की शिक्षा-बालकों को शिक्षा के द्वारा भारतीय समाज की पृष्ठभूमि और भारतीय संस्कृति का स्पष्ट ज्ञान प्रदान किया जाना चाहिए।

8) सामुदायिक जीवन की शिक्षा-टैगोर ने कहा है कि शिक्षा को गतिशील एवं सजीव तभी बनाया जा सकता है जबकि उसका आधार व्यापक हो और समुदाय के जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध हो। बालकों को सामाजिक सेवा के अवसर मिलने चाहिए जिससे उनमें स्वशासन तथा उत्तरदायित्व के भाव विकसित हो सकें।

9) प्रत्यक्ष स्रोतों से ज्ञान-टैगोर का कहना है कि पुस्तक के स्थान पर जहाँ तक सम्भव हो सके बालकों को प्रत्यक्ष स्रोतों से ज्ञान प्राप्त करने के अवसर प्रदान किए जाने चाहिए।

10) सामाजिक आदर्शों की शिक्षा-शिक्षा के द्वारा बालकों को सामाजिक आदर्शों, परम्पराओं, रीति-रिवाजों और समस्याओं से अवगत कराया जाना चाहिए।

11) स्वतन्त्र प्रयास द्वारा शिक्षा-शिक्षा के द्वारा बालकों को इस प्रकार के अवसर दिए जाने चाहिए कि वह स्वतन्त्र प्रयासों द्वारा शिक्षा प्राप्त कर सके।

12) रटने की आदत का अन्त-टैगोर ने कहा है कि बालकों को रटने के लिए बाध्य न किया जाए, यथासम्भव शिक्षण विधि का आधार जीवन, प्रकृति और समाज की वास्तविक परिस्थितियाँ होनी चाहिए।

पाठ्यचर्या (Curriculum)

टैगोर ने तत्कालीन पाठ्यचर्या को दोषयुक्त बताया और एक व्यापक क्रियाप्रधान पाठ्यचर्या की रचना की। इन्होंने पाठ्यचर्या में इतिहास, भूगोल, प्राकृतिक अध्ययन, साहित्य, भाषा एवं सांस्कृतिक विषयों को शामिल करने पर जोर दिया। इनका कहना था कि पाठ्यचर्या में कृषि कार्य, वस्तुओं का संग्रह, नृत्य, बागवानी, अभिनय तथा नाटक आदि को शामिल किया जाना चाहिए।

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Anjali Yadav

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