सामाजिक विघटन के प्रमुख कारण क्या हैं ?
सामाजिक विघटन के प्रमुख कारण
सामाजिक विघटन एक उलझनमय जटिल प्रक्रिया है, जिसमें किसी विशेष कारण को ही महत्व नहीं दिया जा सकता। परिस्थिति तथा देशकाल के अनुसार विघटन के कारणों में भी परिवर्तन हो जाता है। फिर भी सामाजिक विघटन के कुछ ऐसे कारण हैं, जिन पर प्रकाश डालना आवश्यक हो जाता है। सामाजिक विघटन के कुछ उल्लेखनीय कारणों का विवरण निम्नवर्णित है—
1. सांस्कृतिक विलम्बना- सांस्कृतिक परिवर्तन भी सामाजिक विघटन का कारण हो सकता है। संस्कृति के सभी तत्वों में समान रूप में परिवर्तन नहीं होता। भौतिक तत्वों में परिवर्तन शीघ्रता से होता है, जबकि अभौतिक तत्वों में परिवर्तन उतनी शीघ्रता से नहीं होता। दूसरे शब्दों में, मनुष्य भौतिक उपकरणों को तो शीघ्रता से अपना लेता है, परन्तु विश्वास और विचारों में परिवर्तन शीघ्रता से नहीं करता। उदाहरण के लिए, भारतीयों ने पाश्चात्य संस्कृति के भौतिक उपकरण कोट-पैन्ट पहनना, मेज-कुर्सी पर बैठकर खाना खाना आदि को तो सरलता से अपना लिया, परन्तु उनके गुणों तथा विचारों को नहीं अपना पाए। इस प्रकार हम देखते हैं कि सामाजिक परिवर्तन में संस्कृति के अभौतिक तत्व भौतिक तत्वों से पीछे रह जाते हैं। यही सांस्कृतिक विलम्बना कहलाती है। सांस्कृतिक विलम्बना के कारण समाज में कुव्यवस्था फैलती है, जोकि सामाजिक विघटन की जनक होती है।
2. सामाजिक परिवर्तन – सामाजिक विघटन का सबसे प्रमुख कारण सामाजिक परिवर्तन है। जब सामाजिक सम्बन्धों में तीव्र गति से तथा आमूल परिवर्तन होता है तो सामाजिक विघटन की प्रक्रिया भी प्रारम्भ हो जाती है। इलियट तथा मैरिल (Elliott and Merrill) के अनुसार, सामाजिक संगठन का स्वभाव गतिशील है। इसकी रूढ़ियाँ, विधियाँ, संस्थाएँ एवं समितियाँ आदि परिवर्तित होती रहती हैं। इस परिवर्तन के फलस्वरूप सामाजिक विघटन आरम्भ हो जाता है, क्योंकि अनेक लोग परिवर्तित परिस्थितियों में सामंजस्य नहीं कर पाते। यदि परिवर्तन की गति अत्यधिक तीव्र है तो भी अधिकांश लोगों के लिए इससे तालमेल बनाए रखना कठिन हो जाता है
3. युद्ध- युद्ध भी सामाजिक विघटन का एक कारण होता है। युद्धकाल में समाज की व्यवस्था भंग हो जाती है, देश के अधिकांश युवक सेना में भर्ती हो जाते हैं, अनेक युवा स्त्रियाँ विधवा हो जाती हैं, अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार बन्द हो जाता है, वस्तुओं के मूल्य बढ़ जाते हैं, रहन-सहन का स्तर गिर जाता है और युद्ध में अनेक पुरुषों के मारे जाने से स्त्री-पुरुषों के अनुपात में बहुत अन्तर आ जाता है। फलस्वरूप यौन सम्बन्धों में अन्तर आ जाता है और व्यभिचार फैलने लगता है। जीता हुआ देश या समूह अपनी मान्यताओं को हारे हुए देश अथवा समूह पर बलपूर्वक थोपने का प्रयास करता है। अतः युद्ध द्वारा ऐसी परिस्थितियाँ पैदा हो जाती हैं, जिनसे सामाजिक विघटन को प्रोत्साहन मिलता है।
4. सामाजिक मनोवृत्तियाँ – मनुष्य को मनोवृत्तियाँ सामाजिक वातावरण के आधार पर बनी हैं। अमेरिका में साम्यवाद के प्रति रोष रहा है तो रूस में पूँजीवाद के विरुद्ध भावना रही है। अनेक समाजों में बालकों के मस्तिष्क में कुछ विशेष बातें भर दी जाती हैं, जिसके परिणामस्वरूप बालक या तो उनसे अत्यधिक प्रेम करने लगता है या अत्यधिक घृणा करने लगता है। इस प्रकार किसी वस्तु के प्रति विशेष धारणाएँ बन जाती हैं, जिस प्रकार साम्यवादी देशों के नागरिकों में पूँजीवादी देशों के प्रति एक घृणा की धारणा रही है। मानसिक धारणाएँ जब तक मनुष्य को सुख देती हैं तथा पुरानी प्रथाओं के अनुकूल होती हैं, तब तक तो ठीक रहता है, परन्तु जब ये अनुकूल न होकर भिन्न प्रकृति की होती हैं तो एकदम दोनों में संघर्ष तथा मतभेद उत्पन्न हो जाता है और इस प्रकार सामाजिक विघटन हो जाता है।
5. बेकारी – वर्तमान युग में बेकारी भी सामाजिक विघटन का एक कारण है। बेकार व्यक्ति का मस्तिष्क खाली और अर्थाभाव से पीड़ित होता है। ऐसी दशा में वह सामाजिक अपराधों तथा भ्रष्टाचार की ओर झुक जाता है। बेकारी आदमी चोरी, डकैती तथा अन्य अपराधों से ग्रसित हो जाते हैं। बेकारी आज अनेक समाजों में सबसे बड़ा अभिशाप बना हुआ है। तथा इससे पीड़ित अनेक व्यक्ति आत्महत्या कर लेते हैं। किसी भी समाज में आत्महत्याओं की दर में वृद्धि सामाजिक विघटन का सबसे ठोस परिणाम है।
6. नगरीकरण- आधुनिक युग में गाँव छोड़कर लोग नगर की ओर दौड़ रहे हैं। परिणामस्वरूप नगरों की जनसंख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। जनसंख्या के घनत्व के बढ़ जाने से नगरों में अपराधों की भी वृद्धि होती जा रही है तथा सामाजिक मूल्यों में भी परिवर्तन आता जा रहा है। सभी ग्रामवासी नगरीय संस्कृति से पूर्ण रूप से अनुकूलन भी नहीं कर सकते, जिसके कारण विघटन की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। ग्रामीण भोलेपन के स्थान पर शहरी चालाकी स्थान लेती जा रही है।
7. व्यक्तिवाद – नगरीकरण और औद्योगिक प्रगति के कारण समाज में व्यक्तिवादी प्रवृत्तियों को पनपने का अवसर मिलता है। प्रत्येक व्यक्ति व्यक्तिगत लाभ के आगे सामाजिक मूल्यों की चिन्ता नहीं करता। अत्यधिक व्यक्तिवाद भी सामाजिक संगठन को कमजोर बनाता है तथा फलस्वरूप विघटनकारी प्रवृत्तियाँ प्रबल हो जाती हैं।
8. संकट – विभिन्न संकटों के कारण भी सामाजिक विघटन होता है। थामस (Thomas) के शब्दों में, “संकट ऐसी कोई भी घटना है जो एक संघर्ष की परिस्थिति पर ध्यान केन्द्रित करके सुचारु रूप से बनने वाली आदतों में बाधा डालती है।” ये संकट दो प्रकार के होते हैं- (i) आकस्मिक संकट तथा (ii) संचयी संकट। आकस्मिक संकट वे संकट होते हैं, जो आशा के विपरीत अचानक ही समाज पर टूट पड़ते हैं। इनका सामना करने के लिए समाज तैयार नहीं होता, अतः इनसे अत्यधिक नुकसान होता है तथा समाज का संगठन बिगड़ जाता है। भूचाल, बाढ़, महामारी, अकाल तथा युद्ध तथा देश के सर्वोत्तम नेता का आकस्मिक देहान्त आदि इसी प्रकार के संकट होते हैं। इसके विपरीत, संचयी संकट धीरे-धीरे संचित होकर संगठित होते हैं। ये संकट भी अपने चरम रूप में पहुँचकर सामाजिक विघटन को प्रोत्साहन देते हैं।
9. सामाजिक मूल्य- सामाजिक मूल्यों में तीव्र परिवर्तन अथवा परस्पर संघर्ष भी सामाजिक विघटन का प्रमुख कारण है। सामाजिक मूल्यों की परिभाषा करते हुए इलियट तथा मैरिल (Elliott and Merrill) लिखते हैं, “सामाजिक मूल्य वे सामाजिक वस्तुएँ होती हैं, जो हमारे लिए कुछ अर्थ रखती हैं और जिन्हें हम जीवन की योजना के लिए महत्वपूर्ण समझते हैं। जब समाज में प्रचलित विभिन्न मूल्यों और दृष्टिकोण के मध्य सामंजस्य नहीं रहता और सामाजिक मूल्यों के प्रति वैयक्तिक दृष्टिकोण अपना सामंजस्य नहीं करते तो सामाजिक विघटन की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है।” इलियट तथा मैरिल के अनुसार, “सामाजिक मूल्यों के अभाव में न तो सामाजिक संगठन और न ही सामाजिक विघटन का कोई अस्तित्व है। ” सामाजिक मूल्यों में संघर्ष का प्रमुख कारण विभिन्न पीढ़ियों में अन्तर तथा तीव्र परिवर्तन है
10. भौगोलिक कारण- भौगोलिक पर्यावरण भी सामाजिक विघटन का एक कारण होता है। अतिवृष्टि, अनावृष्टि, बाढ़, भूचाल, संक्रामक रोग आदि प्राकृतिक विपत्तियाँ सामाजिक विघटन की प्रक्रिया को प्रोत्साहन देती हैं।
11. धर्म का ह्रास- धर्म ने हमेशा सामाजिक नियन्त्रण में अपनी प्रमुख भूमिका अदा की हैं, परन्तु वर्तमान युग में धर्म के प्रति लोगों की आस्था कम होती जा रही है। लोग धर्म की उपेक्षा करने के कारण सामाजिक मान्यताओं और नैतिक मूल्यों की भी उपेक्षा करने लगे हैं। धर्म का सबसे मुख्य कार्य सामूहिक एकता बनाए रखना रहा है, परन्तु धर्म के ह्रास के कारण यह एकता कम होती जा रही है। इस प्रकार, धर्म के ह्रास ने सामाजिक विघटन की प्रक्रिया में अपना विशेष योगदान दिया है। आज यह सामाजिक नियन्त्रण के अनौपचारिक साधन के रूप में अपना महत्व खोता जा रहा है।
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