अन्तः श्वसन से होने वाली बीमारियाँ | DISEASES CAUSED BY INHALATION
ये निम्न हैं….
(1) जुकाम (Common Cold)—यह एक सामान्य रोग है। इससे बहुत कम ही लोग बच पाते हैं। यह रोग प्रायः वर्ष में एक से तीन बार तक हो जाता है। यह रोग औसतन 2 से 7 दिन तक चलता रहता है। यदि इसमें लापरवाही की जाती है तो इसके बिगड़ जाने से उच्च श्वसन खण्ड में बहुत सी उलझनें उत्पन्न हो जाती हैं। इससे व्यक्ति की कुशलता में कमी आ जाती है।
कारण (Cause)–यह रोग निस्यन्दनीय वाइरस द्वारा होता है। इसके अतिरिक्त इस रोग के उत्पन्न करने में निम्नलिखित बातें महत्त्वपूर्ण कार्य करती हैं-
(i) अनुपयुक्त भोजन ।
(ii) नाक की रुकावट
(iii) तापक्रम में अचानक परिवर्तन।
(iv) थकान।
(v) नमी तथा ठण्ड में गर्म स्थान से बाहर आना (Exposure to Cold and Campness)
(vi) सूखा ।
लक्षण (Symptoms) इसमें नाक तथा आँखों से पानी बहने लगता है। नाक कभी-कभी बन्द हो जाती है। गन्ध एवं स्वाद में अन्तर आ जाता है। रोग के प्रारम्भ में बुखार तथा कमर व हाथ-पैरों में भड़कन होती है।
उपचार एवं रोकथाम (Cure and Control)–अभी तक इसके उपचार के लिए कोई विशेष चिकित्सा का आविष्कार नहीं हो पाया है। इसके उपचार के लिए आराम सबसे महत्त्वपूर्ण चिकित्सा है। गर्म पानी का प्रयोग भी लाभदायक है। सरलता से पचने वाले भोज्य पदार्थ प्रयोग में लाने चाहिए। फर्श, दीवार तथा बिस्तरों पर ग्लाइकॉल (Glycol) का छिड़काव करवाना भी उपयुक्त है। ऐसा छिड़काव वायु से उत्पन्न होने वाली इस तथा अन्य बीमारियों की रोकथाम के लिए महत्त्वपूर्ण है। घरों में तापक्रम, नमी तथा वायु के संचरण पर ध्यान दिया जाये।
(2) इन्फ्लुएन्जा (Influenza)—यह एक ज्वरयुक्त एवं तीव्र संचारी रोग है। सामान्यत: यह रोग ‘फ्लू’ (Flue) के नाम से जाना जाता है। यह यकायक बुखार, सिर दर्द, ठण्ड, हाथ-पैरों में भड़कन व श्वसन तथा गेस्ट्रोइण्टेस्टाइन (Gastrointestine) खण्ड में सूजन तथा उल्टी से प्रारम्भ होता है। इसमें ज्वर 104° फारेनहाइट तक चला जाता है। इसके बिगड़ जाने से गम्भीर उलझनें उत्पन्न हो जाती हैं। फ्लू के बिगड़ जाने पर निमोनिया, ब्रोंकाइटिस (Bronchitis), कान की छूत, आदि उलझनें या गम्भीर बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती हैं।
कारण (Cause)–यह भी निस्यन्दनीय वाइरस के कारण होता है। अन्तिम महामारी के समय तक विश्वास किया जाता था कि इस रोग का कारण फीफर बैसीलस (Pfeiffer bacillus) है। परन्तु कुछ अन्य लोगों का मत था कि फीफर जीवाणु केवल स्ट्रैप्टोकोकस हेमियोलाइटीकस (Streptococcus haemolyticus) तथा न्यूमोकोकस (Neumococcus) के समान एक एजेण्ट है। थकान, भीड़-भाड़, अशुद्ध संवातन, सिनेमा, आदि भी इसके कारण हैं।
उद्भवन काल (Incubation Period)- यह काल अल्प होता है। यह से 3 दिन तक माना जाता है।
निवारण (Prevention)- (1) यदि यह रोग महामारी के रूप में फैल गया हो तो इसकी सूचना तुरन्त सम्बन्धित अधिकारियों को देनी चाहिए।
(2) उक्त स्थिति में रोगी का पृथक्करण करना परमावश्यक है।
(3) उक्त स्थिति में सिनेमा, थियेटर, आदि को बन्द कर देना भी लाभप्रद होगा।
(4) घरों में कमरों की भीड़-भाड़ को कम करने का प्रयास करना चाहिए।
(5) कमरों में उचित वायु-संवातन की व्यवस्था की जानी चाहिए।
(6) शरीर के कम्पन को रोकने के लिए गर्म कपड़ों का प्रयोग करना चाहिए।
(7) अधिक कार्य एवं थकान से बचना चाहिए।
(8) पौष्टिक आहार प्रदान करना चाहिए।
(9) रोगाणुरोधक दवा से कुल्ला तथा गरारे करने चाहिए।
(10) सार्वजनिक स्थानों पर थूकना तथा नाक छिनकना नहीं चाहिए।
(11) रोगी के कमरे, बिस्तर तथा वस्त्रों को निसंक्रमित करना चाहिए।
(12) रोगी के नाक तथा गले के विसर्जनों को किसी पात्र में लेना चाहिए, पात्र में किसी निसंक्रामक का घोल डालना चाहिए।
(13) रोगी के सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों को अपने हाथों को किसी निसंक्रामक से धोना चाहिए।
(14) इस रोग को रोकने के लिए वैक्सीन इंजेक्शन द्वारा दी जा सकती है।
(15) इस रोग को रोकने में फॉरमेलाइण्ड वाइरस के टीके द्वारा काफी सहायता मिली है।
(16) उपशमक सीरम (Convalescent Serum) द्वारा प्रतिकारिता प्रदान की जानी चाहिए।
(17) पोस्टरों, पैम्फलेट, आदि के द्वारा जनता को स्वस्थ जीवनयापन तथा निवारण सम्बन्धी बातों से अवगत कराना चाहिए।
उपचार (Cure)- इस रोग की कोई विशेष दवा नहीं है। ज्वर श्वसन छूत को रोकने के लिए सहायक उपायों को काम में लाया जा सकता है।
(3) कुकर खाँसी (Whooping Cough)-कुकर खाँसी एक तीव्र श्वसन छूत है। यह रोग बैसीलस पटूंसिस या हेमोफिलस पटूंसिस (Bacillus pertusis or Hemophilus pertusis) नामक जीवाणु से होता है।
लक्षण (Symptoms)- इस रोग के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं—
(i) प्रारम्भ में खाँसी के साथ 100 से 102 डिग्री फा. तक तापक्रम होना।
(ii) सूखी दमतोड़ खाँसी का होना।
(iii) खाँसते-खाँसते आँखों का लाल हो जाना।
(iv) खाँसते-खाँसते उल्टी हो जाना।
(v) खाँसते-खाँसते चिपचिपा खखार आना।
उद्भवन काल (Incubation Period)- सामान्यत: यह काल 7 दिन का होता है, परन्तु इसकी अधिकतम अवधि 21 दिन की होती है।
नियन्त्रण एवं उपचार (Cure and Control)—इस रोग को रोकने के लिए निम्नलिखित उपायों को काम में लाया जा सकता है-
(i) रोगी का पृथक्करण।
(ii) यदि बच्चा विद्यालय जाता है तो उसे विद्यालय से 6 सप्ताह के लिए कम-से-कम रोक लेना चाहिए।
(iii) सभी आरक्षित (Susceptible) बच्चों को टीके द्वारा प्रतिकारिता दिलानी चाहिए।
(iv) छ: महीने से दो वर्ष तक बच्चों को पर्टसिस वैक्सीन का टीका 4 बार दिया जाना चाहिए। प्रथम तीन टीकों के बीच एक-एक सप्ताह का समय दिया जाना चाहिए।
(v) रोगी को अर्ध-तरल पेय देना चाहिए।
(vi) यदि मौसम अच्छा हो तो बालक को खुली हवा में खेलने दिया जाए।
(vii) स्टैप्टोमाइसीन (Streptomycin) तथा अन्य एण्टीबॉयटिक दवाइयाँ इस रोग में गुणकारी सिद्ध हुई हैं।
(viii) खाँसी के लिए पैरीगांरिक (Paregoric) दी जा सकती है।
(4) प्रमस्तिष्क मेरु ज्वर (Cerebrospinal Fever)—यह एक विशेष प्रकार का संक्रामक रोग है। यह रोग निसेरिया मेनिन्गोकोकस (Neisseria Meningococcus) नामक जीवाणु के कारण होता है। यह जीवाणु रोगी के प्रमस्तिष्क मेरु ज्वर में पाया जाता है।
लक्षण (Symptoms)– सिर में तीव्र दर्द, ज्वर, कड़ी गर्दन तथा बाद में सम्पूर्ण शरीर में कड़ापन प्रारम्भिक लक्षण हैं। इससे मस्तिष्क भी प्रभावित हो जाता है। मस्तिष्क सुस्त एवं संज्ञाहीन हो जाता है। कुछ रोगियों के शरीर पर दाने निकल आते हैं। कभी-कभी अनेक प्रकार की आंगिक निष्क्रियाएँ बनी रहती हैं। इसमें असावधानी बरतने पर कभी-कभी मुख या अन्य किसी अंग को लकवा मार जाता है। साथ ही बहरापन या अन्धापन आ जाता है।
उद्भवन काल (Incubation Period)–2 से 10 दिन तक माना जाता है। निवारण (Prevention) इस रोग के निवारण के लिए निम्नांकित उपायों को काम में लाया जा सकता है-
(i) रोगी को अलग करना।
(ii) रोगों से सप्ताह तक सम्पर्क स्थापित नहीं किया जाना चाहिए।
(iii) घरों तथा कार्य स्थलों पर भीड़-भाड़ को रोकने के लिए प्रयास किए जाने चाहिए।
(iv) शुद्ध हवा तथा प्रकाश की व्यवस्था की जाए।
(v) रोगाणुरोधक दवा से कुल्ला एवं गरारे कराये जाने चाहिए।
(vi) रोगनिरोधक वैक्सीन का प्रयोग किया जाए। इसकी तीन खुराक दी जानी चाहिए।
उपचार (Cure)-पैनिसिलीन की 30 हजार इकाई की मात्रा प्रति 3 घण्टे बाद दी जाए। यह दवा तब तक दी जाए जब तक रोगी के शरीर में 7 या 8 लाख इकाई दवा न पहुँच जाए। आयु के अनुसार सल्फाडाइजीन की खुराक भी साथ-साथ दी जानी चाहिए।
(5) कर्णफेर (Mumps) – यह एक तीव्र संक्रामक रोग है। यह रोग एक प्रकार के छाने जा सकने वाले अत्यन्त सूक्ष्म वाइरस द्वारा होता है। ये वाइरस व्यक्ति के रक्त, लार (Saliva) तथा प्रमस्तिष्क मेरु द्रव्य में उपस्थित रहते हैं।
उद्भवन काल (Incubation Period)-12 से 26 दिन तक माना जाता है। लक्षण (Symptoms) इस रोग के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं-
(i) कान के नीचे पीड़ा, तनाव और कोमलता का होना।
(ii) इस भाग में सूजन भी आ जाती है।
(iii) ज्वर का होना।
(iv) मुख के खोलने तथा कुछ निगलने में दर्द होना।
निवारण (Prevention)—इस रोग के निवारण के लिए निम्नलिखित उपायों को काम में लाया जा सकता है-
(i) रोगी को पृथक् रखना।
(ii) रोगी से सम्पर्क स्थापित नहीं किया जाना चाहिए।
(iii) इसके जीवाणु से तैयार की गई सीरम का टीका दिया जाये.
उपचार (Cure)–इसकी कोई विशेष दवा नहीं है। फिर भी निम्नलिखित का प्रयोग लाभप्रद सिद्ध हो सकता है-
(1) रोगी को निरन्तर बिस्तर में गर्म रखना चाहिए।
(ii) गर्म सेंक दी जानी चाहिए।
(iii) पैरोटिड ग्रन्थियों पर इक्थियौल बैलाडोना (lethyol belladona) का लेप करना चाहिए।
(iv) रजस्वला स्त्रियों को कम से कम 10 दिन तक बिस्तर पर रखना चाहिए।
(v) किशोर रोगियों को 10 सी. सी. उपशमक सीरम दी जानी चाहिए, जिससे अन्य विकारों को रोका जा सके।
(vi) सल्फोनेमाइड्स (Sulphonamides) का प्रयोग अन्य गौण विकारों की रोकथाम के लिए किया जा सकता है।
(vii) पोटेशियम परमँगनेट के घोल से गरारे कराये जा सकते हैं।
(viii) जब तक सूजन न हट जाये तब तक हल्का भोजन देना चाहिए।
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