अन्तर्ग्रहण द्वारा फैलने वाले रोग | DISEASES CONVEYED BY INGESTION
ये निम्न हैं-
(1) आन्त्र-ज्वर या टाइफाइड ज्वर (Entric Fever or Typhoid Fever)—आन्त्र ज्वर में टाइफाइड तथा पैराटाइफाइड निहित होते हैं। टाइफाइड ‘बैसीलस टाइफोसस’ (Bacillus Typhosus) के द्वारा उत्पन्न होता है। पैराटाइफाइड (Paratyphoid) तीन प्रकार का होता है—(1) पैराटाइफाइड ‘ए’ (2) पैराटाइफाइड ‘बी’ तथा (3) पैराटाइफाइड ‘सी’। ये तीनों प्रकार के पैराटाइफाइड बैसीलस पैराटाइफाइड ‘ए’, ‘बी’ तथा ‘सो’ के द्वारा पैदा होते हैं। ये ज्वर बड़े ही संक्रामक तथा संचारी होते हैं। साथ ही इन ज्वरों की अवधि लम्बी होती है। सम्पूर्ण विश्व ही इनका प्रसार क्षेत्र है, परन्तु ये ज्वर स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों को अधिक प्रभावित करते हैं। इनके द्वारा मध्य आयु वर्ग के व्यक्तियों को अधिक प्रभावित किया जाता है।
उद्भवन-काल- औसतन 2 सप्ताह परन्तु पैराटाइफाइड ‘ए’ का उद्भवन काल पैराटाइफाइड ‘बी’ और ‘सी’ की अपेक्षा अधिक होता है।
लक्षण (Symptoms)- इसका प्रारम्भ विश्वासघाती सा होता है। प्रारम्भ में रोगी माथे तथा कमर में तीव्र दर्द का अनुभव करता है। इसमें बुखार धीरे-धीरे बढ़ता है। प्रायः यह वृद्धि 1° प्रतिदिन हो जाती है। यह ज्वर लगातार 2 से 4 सप्ताह तक बना रहता है। इसमें तिल्ली भी बढ़ जाती है। जीभ खुश्क रहती है। उच्च तापक्रम की तुलना में नब्ज धीमी रहती है। इसके निदान की ‘रक्त संस्कृति’ (Blood Culture) तथा ‘प्रसमूहन प्रतिक्रिया’ (Widal Reaction) द्वारा पुष्टि की जाती है।
प्रसार-साधन ( Mode of Spread)- यह रोग मुख्यतः पानी, दूध, खाने की वस्तुओं, आदि के माध्यम से, विसर्जनों या मलमूत्र द्वारा फैलाया जाता है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि इस रोग के जीवाणु रोगी के मल-मूत्र द्वारा शरीर से निकलते हैं। मक्खियों द्वारा ये जीवाणु भोज्य तथा पेय पदार्थों में पहुँचा दिये जाते हैं। जब स्वस्थ व्यक्ति इन दूषित पदार्थों का उपभोग करता है तब ये उसके शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। अत: रोगी के विसर्जनों से निकले जीवाणु भोज्य पदार्थों तथा पेय पदार्थों के माध्यम से शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। टाइफाइ भी इस रोग के फैलाने में महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं।
निवारण एवं नियन्त्रण (Prevention and Control)- इस रोग के नियन्त्रण एवं निवारण के लिए निम्नलिखित उपायों को काम में लाया जा सकता है-
(i) जिस स्थान या क्षेत्र में इस रोग का प्रथम रोगी हो उस स्थान या क्षेत्र के स्वास्थ्य अधिकारियों को इसकी सूचना अनिवार्य रूप से दी जाय। अत: रोग के नियन्त्रण के लिए अधिसूचना अनिवार्य है।
(ii) पृथक्करण- रोगी मक्खी-मुक्त कमरे में अलग कर देना चाहिए। जिन घरों में स्वच्छ वातावरण प्रदान नहीं किया जा सके, उन रोगियों को अस्पताल में भेज देना उपयुक्त रहेगा।
(iii) रोग-काल में संक्रामक दोष निवारण (Concurrent Disinfection) के लिए समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। रोगी के मल-मूत्र तथा बलगम को बर्तन में लेना चाहिए। इस बर्तन में शक्तिशाली निसंक्रामक होना चाहिए। कार्बोलिक एसिड, आइजल, आदि निसंक्रामक प्रयोग में लाये जा सकते हैं। कार्बोलिक एसिड 1 और 10 के अनुपात में प्रयुक्त की जाय। आइजल (Izal) 5 प्रतिशत वाली प्रयुक्त की जानी चाहिए। वस्त्रों तथा बिस्तर, आदि 21 प्रतिशत के फिनाइल के घोल में एक घण्टे तक रखे जाने चाहिए। रोगी की सेवा करने वालों के हाथ किसी शक्तिशाली निसंक्रामक के घोल में धुलवाये जाने चाहिए। कमरों तथा गटरों में कार्बोलिक एसिड या फिनाइल छिड़कवानी चाहिए।
(iv) रोगी के विसर्जनों का कोई भी अंश नहीं छोड़ा जाना चाहिए। इसके लिए कुशल कन्जरवेन्सी की व्यवस्था की जानी चाहिए।
(v) सार्वजनिक जल पूर्ति को क्लोरीनीकृत किया जाना चाहिए।
(vi) शुद्ध दूध की व्यवस्था की जानी चाहिए। रोगी को उबला हुआ दूध प्रदान किया जाना चाहिए।
(vii) मक्खी को नष्ट कर देने के लिए उपयुक्त कदम उठाये जाने चाहिए।
(viii) वाहकों की समुचित रूप से खोज की जाय। साथ ही उन पर नियन्त्रण रखा जाना चाहिए।
(ix) भोज्य पदार्थों का समुचित निरीक्षण किया जाना चाहिए। साथ ही उनको धूल तथा मक्खियों से बचाया जाना चाहिए।
(x) रोगनिरोधक (Prophylactic) टीके की व्यवस्था की जानी चाहिए। इसके लिए टी. ए. बी. (T.A.B.) का टीका दो बार दिया जाना चाहिए। इसकी प्राथमिक मात्रा 0.5 सी. सी. होनी चाहिए। एक सप्ताह बाद दूसरी मात्रा सी. सी. की दी जानी चाहिए। इन मात्राओं से व्यक्ति में 6 माह के लिए प्रतिकारिता उत्पन्न हो जायेगी। इन मात्राओं से कुछ हल्का-सा बुखार तथा सिर दर्द हो सकता है। साथ ही इसकी प्रतिक्रिया भी हो सकती है।
(xi) फिल्म खण्डों, सिनेमा की स्लाइड्स, पैम्फलेट, पोस्टर, आदि द्वारा जनता को शिक्षित किया जाना चाहिए। इनके द्वारा जनता को मुख्यतः उँगलियों (Fingers), भोजन (Food), मक्खियों (Flies), मल (Facces) तथा फोमीज (Fomes) के कार्य-भाग से अवगत कराया जाना चाहिए।
उपचार— रोगी को यथासम्भव चित्त लिटाकर सुलाना चाहिए। उसे शय्याजनित फोड़ों (Bed Sores) से बचाने के लिए बीच-बीच में करवटें लिवा देनी चाहिए। रोगी को उचित परिचर्या (Nursing) प्रदान की जानी चाहिए। रोगी को पर्याप्त जल तथा सन्तरे का रस पिलाना चाहिए। क्लोरोमाइसिटीन (Chloromycetin) इस रोग की खास दवा है। परन्तु इसके अभाव में क्लोरैमफैनीकॉल (Chloram phenical) का प्रयोग किया जा सकता है। तापक्रम के उतर जाने तक इसकी 1 ग्राम की मात्रा प्रति 6 घण्टे बाद 2 से 3 दिन तक देनी चाहिए। इसके बाद 250 मि. ग्राम की मात्रा प्रति 8 घण्टे बाद 3 से 4 सप्ताह तक देनी चाहिए। यदि यह दवा उपयुक्त सिद्ध न हो, तो टैट्रासाइक्लीन (Tetracycline) श्रेणी की किसी एण्टीबॉयोटिक दवा का प्रयोग किया जा सकता है।
(2) हैजा (Cholera)-हैजा एक तीव्र संक्रामक रोग है। प्रारम्भ में व्यक्ति को दस्त होते हैं। दस्त पनीला होता है। ये चावल के पानी जैसे होते हैं। दस्तों के साथ-साथ रोगी को उल्टी होती है। रोगी को प्यास बहुत सताती है। इसमें पेशाब आना बन्द हो जाता है। इसमें रोगी के हाथ-पैरों में बड़ी ऐंठन होती है। इसमें तापमान गिरता चला जाता है। यदि समय पर सावधानी नहीं बरती जाती है तो रोगी की हृदय गति रुक जाती है।
प्रसार- इस रोग की छूत मुख से लगती है। जब व्यक्ति दूषित जल, दूध भोजन को ग्रहण करता है तब इस रोग के जीवाणु उसके शरीर में प्रविष्ट कर जाते हैं। यह रोग एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को भी लग जाता है। रोगी की सेवा करने वाले व्यक्ति की असावधानी के कारण वह दूसरे व्यक्तियों को इसकी छूत पहुँचा देता है। रोगी के विसर्जनों तथा वस्त्रों से यह रोग फैलता है। यह रोग प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष दोनों ही रूपों से फैलता है। अप्रत्यक्ष रूप से यह रोग मक्खियों द्वारा फैलाया जाता है। मक्खियाँ इस रोग को सजीव तथा यांत्रिक दोनों ही रूपों से फैलाती हैं। इसको हैजा वाहकों द्वारा भी फैलाया जाता है। परन्तु ये इस रोग की छूत को फैलाने में महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं करते हैं।
उद्भवन काल- इस रोग का उद्भवन-काल बहुत ही अल्प होता है जो कुछ घण्टों से लेकर 5 दिन तक माना जाता है।
निवारक उपाय (Preventive Measures) हैजा के निवारक उपाय निम्नलिखित हैं-
(1) अधिसूचना (Notification)– यदि किसी व्यक्ति के इस रोग से ग्रस्त होने का सन्देह हो तभी उसकी सूचना अधिकारियों को दी जानी चाहिए।
(2) पृथक्करण (Separation) रोगी को अलग कर दिया जाय। इसके लिए उसे अस्पताल भेजकर अलग कर सकते हैं या उसे घर में अन्य व्यक्तियों से अलग कर देना चाहिए। इससे घर के अन्य व्यक्तियों को सम्पर्क तोड़ देना चाहिए।
(3) स्थानीय उपाय (Local Measures) इसके अन्तर्गत निम्नलिखित उपायों को काम में लाना चाहिए-
(1) रोगी के मल या दस्त तथा उल्टी को पात्र में लेना चाहिए। इस पात्र में चूना नीचे डालना आवश्यक है। उसके इन विसर्जनों को नगर या ग्राम से दूर दफना या जला देना चाहिए।
(ii) जिस कमरे में रोगी को रखा गया है, उसके फर्श पर चूना बिखेर देना चाहिए।
(iii) मक्खियों को नष्ट करने के लिए कदम उठाये जाने चाहिए। मक्खियों को नष्ट करने के लिए फॉर्मेलिन घोल का प्रयोग करना चाहिए। उनके लारवा को नष्ट करने के लिए D.D.T. का प्रयोग किया जाना चाहिए। भोजन तथा पेय पदार्थों को उनके दूषण से बचाने के लिए जालियों का प्रयोग करना चाहिए।
(iv) हाथों को धोने के लिए उपयुक्त नि:संक्रामक का प्रयोग करना चाहिए। जो व्यक्ति रोगी की सेवा में रहे वह इससे अपने हाथों को धोता रहे।
(v) भोज्य तथा पेय पदार्थों को धूल तथा मक्खियों से बचाना चाहिए।
(vi) समस्त पाखानों तथा नालियों को फिनाइल से धुलवाना चाहिए। इसके अतिरिक्त चूना या ब्लीचिंग पाउडर का भी प्रयोग किया जा सकता है।
(vii) सार्वजनिक स्थानों में भोज्य एवं पेय पदार्थों की बिक्री पर नियन्त्रण तथा उनकी सफाई पर बल दिया जाना चाहिए।
(4) एण्टी-कॉलरा या ऑइल मिक्चर का प्रयोग निवारक तथा उपचारात्मक दोनों ही दृष्टिकोण से किया जाना चाहिए। इस मिक्चर को उपचारात्मक दृष्टि से 8 से 10 ग्राम तक प्रतिदिन लेना चाहिए। निवारक दृष्टि से पहले एण्टी-कॉलरा टीका लिया जाय और बाद में ग्राम मिक्चर प्रतिदिन लेना चाहिए।
(5) एण्टीकॉलरा टीका- प्रारम्भ में 0-5 सी. सी. की मात्रा में एण्टीकॉलरा वैक्सीन का टीका लगाया जाना चाहिए। एक सप्ताह बाद सी. सी. वैक्सीन पुनः लगायी जानी चाहिए। इससे 6 माह की प्रतिकारिता प्राप्त की जा सकती है। वेजीटेबिल बाइल लवण (Bile Salt) की गोली खाली पेट दी जाये। इसके 15 मिनट बाद एक गोली वैक्सीन की दी जाय। इस मात्रा से व्यक्ति एक वर्ष की प्रतिकारिता प्राप्त कर सकता है।
(6) निसंक्रमण- इस रोग के निवारण के लिए क्रमिक तथा अन्तिम दोनों प्रकार का निसंक्रमण करना चाहिए। बिस्तर तथा वस्त्रों को भाप से निसंक्रमित किया जाना चाहिए। यदि ऐसा कुशलतापूर्वक न किया जा सके तो रोगी के वस्त्रों तथा बिस्तर को जलाना ही उपयुक्त है। यदि वे कीमती हैं तो उनको घण्टों तक सूर्य की किरणों से निसंक्रमित करना चाहिए। रोगी द्वारा प्रयुक्त बर्तनों को उबालकर निसंक्रमित किया जाना चाहिए। उसके द्वारा प्रयुक्त पलंग या चारपाई को निसंक्रमित करना चाहिए।
(7) जलापूर्ति का शुद्धीकरण (Sterlization of Water Supplies) — यूरोप में हैजा को रोकने में निस्यन्दित जल-वितरण ने महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। इसने भारत में भी हैजा को रोकने से सहायता प्रदान की है। जैसे ही छूत की घटना की सूचना प्राप्त हो, तुरन्त ही जल के शुद्धीकरण के लिए निम्नलिखित उपायों को काम में लाया जा सकता है
(i) पानी का क्लोरीनीकरण- जल को शुद्ध करने के लिए ब्लीचिंग पाउडर या क्लोरीनीकृत चूने का प्रयोग करना चाहिए।
(ii) कुओं या घर में आये हुए जल को पोटेशियम परमैंगनेट से शुद्ध कर लेना चाहिए।
(iii) घरों में पानी को उबालकर शुद्ध बनाया जा सकता है। उबालने से छूत के फैलने का भय दूर हो जायेगा।
(8) भोजन का निरीक्षण- भोजन को सावधानी के साथ पकाया जाना चाहिए। साथ ही मक्खियों तथा धूल से सुरक्षित रखा जाय।
(9) रोगी के मल-मूत्र तथा अन्य विसर्जनों को कुशलता से शीघ्र ही नष्ट कर देना चाहिए जिससे मक्खियों को अपनी वंश वृद्धि के लिए अवसर न मिल सके।
(10) स्वास्थ्य शिक्षा- व्यक्तियों को जागरूक करने के लिए विभिन्न पोस्टरों, पैम्फलेटों, आदि का प्रयोग करना चाहिए। इनके माध्यम से जनता को यह बताया जाय कि अधपके एवं सडे-गले फलों, सब्जियों तथा अन्य भोज्य पदार्थों को खरीदकर खाना हानिकारक है। अत: इनका उपयोग न करने से हैजा के रोग की छूत को फैलने से रोका जा सकता है। स्वच्छता के महत्व को स्पष्ट किया जाये बाजार की वस्तुओं को खाना तथा पीना हानिकारक है। आइसक्रीम, पेय पदार्थ, आदि के प्रयोग पर रोग लगानी चाहिए। खाली पेट कहीं नहीं जाना चाहिए। दस्तावर दवाइयाँ इस काल में नहीं लेनी चाहिए। मक्खन उबले दूध से बनाना से चाहिए। गर्म पेय तथा भोजन लेना लाभदायक है। भाषण, फिल्म तथा स्लाइड्स के द्वारा एण्टी-कॉलेरा प्रचार करना चाहिए। उक्त बातों के माध्यम से जनता को सजग बनाया जाना चाहिए।
(11) मेला तथा हाटों में इसकी रोकथाम के लिए उपाय- मेले तथा हाटों में हैजा को रोकने के लिए निम्नलिखित कदम उठाये जाने चाहिए-
(i) जल-वितरण की व्यवस्था को सुरक्षित रखा जाना चाहिए।
(ii) रहने तथा खाना बनाने के लिए पृथक् एवं उपयुक्त व्यवस्था की जानी चाहिए जिससे खाना मक्खियों तथा धूल के प्रकोप से बच सके।
(iii) नहाने के लिए पृथक् एवं उपयुक्त व्यवस्था की जानी चाहिए।
(iv) मल-मूत्र को दूर करने के लिए कुशल एवं उचित व्यवस्था होनी चाहिए जिससे मक्खियों को अपनी वंश वृद्धि के लिए अवसर न मिल सके।
(v) इसके प्रारम्भ होने से पहले आस-पास के क्षेत्रों के लोगों तथा आने वाले व्यक्तियों को निःशुल्क एण्टी-कॉलरा टीका लगाया जाये।
उपचार (Treatment) हैजा के रोगी के उपचार के लिए निम्नलिखित कदम उठाये जा सकते हैं-
(1) रोगी को गर्म रखा जाये। उसका तापक्रम गिरने नहीं देना चाहिए। उसके लिए गर्म बिस्तर का भी प्रयोग किया जा सकता है।
(2) उसको थोड़ा-थोड़ा ग्लूकोजयुक्त जल जल्दी-जल्दी देना चाहिए।
(3) रोगी को अपनी प्यास को बुझाने के लिए बर्फ के टुकड़े चूसने के लिए दिए जा सकते हैं।
(4) सल्फा-सूसीडाइन (Sulpha- Succidine) या सल्फा-गाइनीडाइन (Sulpha-guanidine) को चार टिक्कियाँ या गोलियाँ प्रारम्भ में दी जायें। इनके साथ कायोलिन (Kaolin) । ड्राम दिया जाये। इसके बाद प्रति चार घण्टे पर 2 गोली तथा ड्राम कायोलिन दिया जाना चाहिए। यह दवा तब तक चलती रहे जब तक उल्टी तथा दस्त बन्द न हो जायें।
(5) यदि शरीर से पर्याप्त जल निकल गया है तो रॉजर्स हाइपरटॉनिक सैलाइन (Rogers Hypertonic Saline) नसों के माध्यम से दिया जाना चाहिए। इसकी मात्रा ब्लड प्रेशर तथा रक्त की विशेष गुरुता के अनुसार निर्धारित की जानी चाहिए। कभी-कभी रॉजर्स का अल्काइन घोल नसों या गुदा के माध्यम से दिया जा सकता है। यह घोल प्रति 2 घण्टे पर दिया जाना चाहिए। यह तब तक दिया जाये जब तक मूत्र की मात्रा 20 औंस प्रतिदिन न हो जाये। इस घोल में निम्नलिखित दवाएँ होती हैं-
(i) सोडियम बाइकार्ब (Sodium Bicarb) – 160 ग्रेन
(ii) सोडियम क्लोराइड (Sodium Chloride) – 96 ग्रेन
(iii) एक्वा (Aqua) – 1 पिण्ट
(3) बाल पक्षाघात (Polimyslitie) बाल पक्षाघात एक प्रकार का संक्रामक रोग है। यह मुख्यतः बचपन में फैलता है। यह केन्द्रीय नाड़ीमण्डल [ मस्तिष्क, स्पाइनल कॉर्ड (Spinal Cord) तथा नाड़ियों] को प्रभावित करता है। इसके प्रभाव से माँसपेशियाँ निष्क्रिय हो जाती हैं। इसमें हाथों की अपेक्षा टाँगें अधिक प्रभावित होती हैं। यह सभी आयु के बच्चों पर आक्रमण करता है।
कारण- यह एक वाइरस रोग है। इसके वाइरस तीन प्रकार के होते हैं—(1) लेन्सिंग वाइरस (Lansing Virus). (2) लियोन वाइरस (Leon Virus) तथा (3) बेनुहिल्ड वाइरस (Brnuhilde Virus)। ये वाइरस रोगी के मल-मूत्र तथा वाहकों में पाये जाते हैं। मल-मूत्र के वाइरस अधिक खतरनाक होते हैं। ये श्वास या पाचन प्रणाली द्वारा नाड़ीमण्डल को प्रभावित करते हैं।
उद्भवन-काल- यह सामान्यतया 7 से 12 दिन होता है। परन्तु कभी-कभी यह केवल 3 दिन होता है और कभी-कभी 21 दिन भी होता है।
लक्षण- जब यह रोग प्रारम्भ होता है तब बच्चे को तेज बुखार, सिर दर्द, बेचैनी, ठण्ड, गर्दन या कटि में अस्थायी पीड़ा और तनाव, जुकाम, आदि का अनुभव होता है। इसके बाद गर्दन तथा पीठ कड़ी हो जाती है। इस स्तर पर सेरीबोस्पाइनल साव साफ रहता है। इस प्रारम्भिक स्तर को प्रीपैरेलाइटिक स्तर (Preparalytic Stage) के नाम से पुकारते हैं।
प्रथम स्तर के बाद 2 या 3 दिन के लिए रोगी कुछ स्वस्थ-सा प्रतीत होता है। इसके बाद इस रोग का दूसरा स्तर प्रारम्भ होता है। इस स्तर को पैरालाइटिक स्तर (Paralytic Stage) कहते हैं। इसमें माँसपेशियों के समूह में कुछ उलझनें आ जाती हैं। इस स्तर पर रोगी के किसी अंग को लकवा मार जाता है और वह अंग निष्क्रिय हो जाता है। लारनिक्स (Larnyx) तथा फैरीनिक्स (Pharenyx) की माँसपेशियों का पक्षाघात सबसे घातक होता है।
प्रसार- इस रोग को फैलाने वाले निम्नलिखित प्रमुख कारक हैं-
(i) स्वस्थ रोगवाहक।
(ii) रोगियों द्वारा।
(iii) मक्खियों द्वारा।
(iv) दूषित दूध के उपयोग से।
(v) दूषित जल में स्नान करने से।
(vi) मल तथा नदियों में बहने वाली गन्दी वस्तुओं द्वारा।
(vil) दूषित खाने-पीने की चीजों द्वारा।
(viii) नाक तथा गले के बिन्दु संक्रामक द्वारा।
रोग की रोकथाम- इस रोग के निवारण के लिए निम्नलिखित उपायों को काम में लाया जा सकता है-
(i) रोग की सूचना स्वास्थ्य अधिकारियों को देनी चाहिए।
(ii) रोगी को पृथक् कर देना चाहिए। रोगी को पूर्ण आराम तथा लक्षणात्मक उपचार प्रदान किया जाये।
(iii) रोगी के मूत्र, बलगम, मल, आदि को दूर करने के लिए उचित व्यवस्था की जाये।
(iv) सभी प्रकार की जल वितरण व्यवस्था को सुरक्षित किया जाये। महामारी के समय में नहाने के स्थलों के पानी को भी क्लोरीनीकृत कर देना चाहिए।
(v) खेल के मैदानों, विद्यालयों तथा सिनेमाओं में बालकों की भीड़ को रोका जाये।
(vi) महामारी के समय अधिक शारीरिक व्यायाम प्रदान करने की प्रथा को रोका जाये।
(vii) फलों को हल्के परमैंगनेट के घोल में धोकर ही रोगी को देने चाहिए।
(viii) मक्खी विरोधी उपायों को काम में लाया जाये।
(ix) सभी सन्देह वाहकों को पोटेशियम परमैंगनेट से कुल्ली करायी जाये और उन्हें सल्फाडाइजीन (Sulphadiazine) की चार गोली प्रतिदिन दी जायें।
(x) रोग के शुरू होने पर पोलियो वैक्सीन देकर सक्रिय प्रतिकारिता उत्पन्न की जानी चाहिए।
(xi) जोनस साल्क (Jonas Salk) द्वारा आविष्कृत पोलियो माइलिटस वैक्सीन के टीके लगाये जायें। इसके टीके से 75% बाल पक्षाघात के मामलों (Cases) की रोकथाम की जा सकती है।
उपचार- यह रोग लक्षणात्मक है। इस कारण इसकी कोई विशेष दवा नहीं है। सल्फोनेमाइड्स (Sulphonamides) के प्रयोग से श्वसन तथा श्रवण सम्बन्धी कठिनाइयों को रोका तथा उनका उपचार किया जा सकता है।
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