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आदर्श संगठन सिद्धान्त क्या है?

आदर्श संगठन सिद्धान्त क्या है?
आदर्श संगठन सिद्धान्त क्या है?

आदर्श संगठन सिद्धान्त क्या है? 

संगठन सिद्धान्तकारों में गुलिक तथा उर्विक का नाम विशेष रूप से जुड़ा हुआ है। गुलिक एवं उर्विक समाज विज्ञान में सैनिक संगठन और औद्योगिक उपक्रमों के क्षेत्र में प्रचुर अनुभव रखते हैं। कारण उन्होंने अनुशासन एवं कार्यक्षमता पर बल दिया और Concept of Staff Agency को प्राप्त किया वे मानव के यंत्रीकृत रूप से प्रभावित थे जैसे कि टेलर ने वैज्ञानिक प्रबन्ध में बताया। हेनरी फियोल के औद्योगिक संगठन ने भी इन दोनों विचारकों को काफी प्रभावित किया और इन दोनों के संगठन सिद्धान्तों में इसकी झलक भी देखी गई है। गुलिक और उर्विक ने (संगठन के पारस्परिक या आदर्श सिद्धान्त) में बड़ी गहराई तक प्रशासन की संरचना तथा मानवीय व्यवस्था में मशीनी कार्य का विवेचन किया है। उर्विक का कथन है कि ‘मानवता के लिए संगठन में ज्ञान का उपयोग जब तक असम्भव है जब तक कारणीभूत तत्व अथवा बनावट विचार विमर्श से पृथक् न हो जाय। चाहे यह पृथक्करण कितना भी कृत्रिम क्यों न हो।” उसने कल्पना और भ्रान्तियों के बड़े अनुपात को समाज में इसके सारे प्रतिफलों के साथ उजागर किया जिस पर व्यवस्था का संगठन आधारित है।

संगठन पर अपना विचार देते हुए लूथर गुलिक ने कहा कि “संगठन सत्ता का औपचारिक ढांचा है जिसके द्वारा किसी निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कार्यों को विभाजित और निर्धारित किया जाता है।”

इस प्रकार लूथर गुलिक ने आदर्श संगठन सिद्धान्त पर जो अपना विचार दिया उसकी महत्वपूर्ण बातें निम्नलिखित है-

(1) कार्य का विभाजन-

इनके अनुसार संगठन में कार्यों को छोटे-छोटे इकाईयों में बांट देना चाहिए और उसे अलग-अलग कार्मिकों द्वारा किया जाना चाहिए। संगठन के सदस्यों को उसकी योग्यता, रुचि तथा कार्यकुशलता के अनुसार कार्य दिया जाना चाहिए। इससे प्रत्येक व्यक्ति अपने कार्य में विशेषज्ञ हो जाता है तथा संगठन की कार्यकुशलता में वृद्धि होती है।

(2) विभागीय संगठन का आधार-

संगठन में कार्यकुशलता बनी रहे, इसके लिए जरूरी है कि संगठन का आधार विभागीय हो अर्थात् वह इकाइयों एवं उप इकाइयों में विभक्त हो। इसके लिए गुलिक ने चार तत्वों की चर्चा की है। उनके अनुसार कार्य, प्रक्रिया व्यक्ति तथा स्थान के आधार पर विभागों का संगठन हो ताकि इससे समाज के सारे वर्ग लाभान्वित हाँ।

(3) पदसोपान-

गुलिक के अनुसार एक अच्छे संगठन के आदेश की श्रृंखला अथवा अधिकारियों की रेखा स्पष्ट होना चाहिए। प्रत्येक संगठन में कार्यरत कर्मचारी उच्चस्तरीय, मध्यस्तरीय प्रबन्ध तथा निम्न प्रबन्ध के अन्तर्गत आते हैं। सारे कार्मिकों को एक ही स्तर में रखना संगठन के लिए उपयोगी नहीं होगा। इन्हें पदसोपान रूप में होना चाहिए।

(4) समन्वय –

समन्वय के तात्पर्य संगठन के कार्यकलापों एवं गतिविधियों में उचित सम्बन्ध समायोजन तथा तालमेल स्थापित करना होता है। गुलिक के अनुसार किसी भी संस्था को प्रभावपूर्ण एवं लाभपूर्ण संचालन हेतु उसके उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए संस्था या संगठन के साधनों में उचित समन्वय कायम किया जाना चाहिए। बिना समन्वय के सभी साधनों का अपव्यय होता है और वह संगठन के उद्देश्यों को प्राप्त नहीं कर पाता है। समन्वय संगठन में दुहराव तथा संघर्ष को हटाता है। साथ ही कार्मिकों में सहयोग की भावना का विकास करता है।

(5) विकेन्द्रीयकरण –

गुलिक के अनुसार जिस प्रशासकीय प्रणाली में उच्चाधिकारियों की शक्ति और विवेक में कमी होती है उसे केन्द्रीकृत व्यवस्था कहते हैं। इसके विपरीत जिस प्रशासकीय पद्धति में कर्मिको को अधिक शक्ति प्रदान की हो उसे विकेन्द्रीकृत व्यवस्था कहते हैं। गुलिक ने अपने संगठन सिद्धान्त में विकेन्द्रीकृत व्यवस्था पर बल लिया है।

(6) आदेश की एकता –

इस सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक कर्मचारी या व्यक्ति को एक से अधिक पदाधिकारी नहीं होना चाहिए अर्थात् संगठन में आदेश देने वाला एक ही अधिकारी होना चाहिए।

(7) स्टाफ तथा लाइन अभिकरण –

गुलिक का विचार है प्रत्येक संगठन में स्टाफ तथा लाइन दोनों होना चाहिए Line agency शक्ति का प्रतीक है और Staff agency सहयोग एवं परामर्श सम्बन्धी कार्य का प्रतीक है।

( 8 ) प्रत्यायोजन-

प्रत्यायोजन का अर्थ किसी उच्चतर द्वारा निम्नतर को विशेष शक्ति प्रदान करना होता है। गुलिक का विचार है कि कुछ अधिकार प्रत्येक संगठन में उच्चतर द्वारा निम्नतर अधिकारियों को सौंप देना चाहिए। इसमें कार्मिकों में उत्तरदायित्व की भावना जागती हैं।

(9) नियंत्रण का क्षेत्र –

गुलिक के अनुसार किसी भी संगठन में प्रत्येक अधिकारी को अपने नियंत्रण एवं कार्य की सीमा निर्धारित होना चाहिए और उनसे यह अपेक्षा करनी चाहिए कि वे अपने नियंत्रण के क्षेत्र में ही कार्य करें। कदापि अतिक्रमण न करें। इससे संगठन में अनुशासन कायम रहता है।

आलोचना- यद्यपि गुलिक के संगठन विचार काफी उपयोगी हैं लेकिन इसमें कुछ दोष भी है जिसके कारण इनके विचारों की कुछ आलोचनाएं भी की गई हैं।

सर्वप्रथम तो इनकी आलोचना इनके संगठन के विभागीय आधार की हुई है। गुलिक ने विभागीय आधार के उद्देश्य, प्रक्रिया, व्यक्ति तथा स्थान चार तत्व बताया है। यदि संगठन उद्देश्य के आधार पर किया जाता है तो वह काफी वृहत रूप धारण कर लेता है जो विकास के लिए उपयुक्त नहीं है। यदि संगठन प्रक्रिया के आधार पर किया जाता है तो इससे संगठन के उद्देश्य ‘फीके पड़ जायेंगे। संगठन का आधार व्यक्ति हो इससे उसका बौना आकार बन जायेगा और यदि संगठन का आधार स्थान हो तो इससे क्षेत्रीयता की भावना का विकास होगा जो कदापि उचित नहीं है।

आलोचकों को इनके पदसोपान व्यवस्था में भी दोष दिखाई पड़ता है। पदसोपान व्यवस्था से कार्मिक औपचारिकता का विकास होता है जो किसी भी स्थिति में लाभप्रद नहीं होगा। इनकी आदेश की एकता सिद्धान्त भी उपयुक्त नहीं है। कारण कि किसी भी संगठन में इनका पालन पूर्णरूपेण नहीं हो सकता।

इस प्रकार गुलिक के विचारों की आलोचकों ने काफी आलोचना किया है फिर भी इनके संगठन सिद्धान्त महत्वपूर्ण हैं। इन्होंने अपने सिद्धान्त द्वारा यह बताने का प्रयास किया है। उसे प्रशासन या प्रबन्ध के किसी भी क्षेत्र में लागू किया जा सकता है। विभागीय संगठन के आधार की तो आलोचकों ने काफी आलोचना किया है। लेकिन इस विचार से संगठन में विशेषीकृत भावना का विकास हुआ और समाज के सारे वर्गों के विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ है। अतः गुलिक के द्वारा दिया गया विचार लोक प्रशासन के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण योगदान माना जाता है।

एक उर्विक के आदर्श संगठन सिद्धान्त- एल उर्विक ने पुस्तक ‘Theory of Organisation’ में संगठन सिद्धान्त की विषद व्याख्या किया है। अपनी पुस्तक में इसने बताया है कि संगठन सिद्धान्त को वैज्ञानिकता प्रदान किया जा सकता है। जैसा कि टेलर Taylor ने किया है। संगठन सिद्धान्त के प्रतिपादन में उर्विक ने फियोल के विचारों से भी प्रेरणा लिया है। इन्होंने संगठन की परिभाषा देते हुए कहा है कि संगठन का अर्थ है किसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु आवश्यक क्रियाओं को निर्धारित करना और उन्हें ऐसे वर्ग में क्रमबद्ध करना जो विभिन्न व्यक्तियों को सौंपे जा सकें।

उर्विक ने संगठन के जो सिद्धान्त दिया है उसकी मुख्य बातें निम्नलिखित हैं-

(1) उद्देश्य के सिद्धान्त – जिस प्रकार उद्देश्य रहित जीवन व्यर्थ होता है उसी प्रकार किसी भी संस्थान के संगठन को उद्देश्य रहित होने से उसका निर्माण एवं अस्तित्व सम्भव नहीं होता है। प्रत्येक संगठन का एक सामान्य उद्देश्य होना चाहिए। जिससे कि विभिन्न विभागों, साधनों व मशीनों के प्रयास को निर्देशित करके उसकी पूर्ति की जा सके। इसके अभाव में संगठन के कार्य, योजनाएँ एवं निर्णय प्रभावहीन हो जाते हैं।

(2) समानता का सिद्धान्त – उर्विक के अनुसार संगठन में प्रत्येक पद के लिए विभिन्न अधिकारों, क्रियाओं एवं दायित्वों में समानता होनी चाहिए, अन्यथा मतभेद, मनमुटाव और अव्यवस्था उत्पन्न होने की सम्भावना बनी रहती है जिसके कारण संगठन प्रभावपूर्ण ढंग से अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में असफल हो जायेगा। अतः संगठन का निर्माण समानता के आधार पर होना चाहिए।

(3) उत्तरदायित्व का सिद्धान्त- संगठन में प्रत्येक अधिकारी एवं उनके अधीनस्थों के उत्तरदायित्व निश्चित रहने चाहिए। साथ ही साथ प्रत्येक अधिकारी व उसके अधीनस्थों को यह ज्ञात होना चाहिए कि उनके उत्तरदायित्व क्या हैं तथा वे उसे कैसे पूरा कर सकते हैं। उच्चतर अपने निम्नतर के प्रति उत्तरदायी होते हैं। तक पूरे संगठन के कार्मिकों को अपने-अपने उत्तरदायित्व का पूरा ज्ञान नहीं होगा तब तक वे पूरी जिम्मेदारी से अपने कार्यों का सम्पादन नहीं कर सकते।

(4) पदसोपान का सिद्धान्त- उर्विक के अनुसार एक अच्छे संगठन में आदेश की शृंखला अथवा अधिकारों की रेखा की स्पष्ट व निश्चित व्याख्या होनी चाहिए। प्रत्येक संगठन में ऊपर से नीचे तक औपचारिक अधिकारों एवं सम्बन्धों की एक स्पष्ट रेखा होना आवश्यक होता है। प्रत्येक संगठन में कर्मचारी उच्चस्तरीय, मध्यस्तरीय एवं निम्नस्तरीय प्रबन्ध के अन्तर्गत आते हैं। उन सभी को एक ही स्तर में रखना उचित नहीं होता है। अतः वरिष्ठ एवं कनिष्ठ अधिकारियों में परस्पर औपचारिक सम्बन्ध श्रृंखला की स्थापना की जानी चाहिए। प्रत्येक कर्मचारी को अपनी श्रृंखला का उल्लंघन नहीं करना चाहिए।

(5) नियंत्रण का क्षेत्र- एक अधिकारी के नियंत्रण में कार्य करने वाले कर्मचारियों की संख्या सीमित होनी चाहिए ताकि वह अधिक कुशलता से उनका पर्यवेक्षण कर सके। उर्विक के अनुसार एक व्यक्ति 5 या 6 कार्मिकों से अधिक की देखभाल नहीं कर सकता।

(6) विशिष्टिकरण का सिद्धान्त- उर्विक के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति का कार्य विशेष एक कार्य तक ही सीमित होना चाहिए। संगठन के सदस्यों को उनकी योग्यता, रुचि तथा कार्य कुशलता के अनुसार कार्य किया जाना चाहिए। इससे कर्मचारी अपने कार्य को दक्षता से कर सकने तथा कार्य की समस्त जटिलताओं को सरलता से समझ सकने में सक्षम होता है।

(7) समन्वय के सिद्धान्त- समन्वय का तात्पर्य संगठन के कार्यकलापों एवं गतिविधियों में उचित सम्बन्ध समायोजन तथा तालमेल स्थापित करना होता है। एल उर्विक के अनुसार किसी भी संस्था के प्रभावपूर्ण लाभपूर्ण एवं सतत् कार्य संचालन के लिए उसके उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए संस्था या संगठन स्थापित किया जाना चाहिए। बिना समन्वय के सभी साधनों एवं प्रयासों का अपव्यय होता है तथा वे संस्थान के उद्देश्यों को प्राप्त करने में असफल हो जाते हैं।

(8) परिभाषा का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के अनुसार एक संगठन में कार्यरत कर्मचारियों, अधिकारियों और विभागों के कार्यक्षेत्र का स्पष्ट एवं निश्चित विवेचन किया जाना चाहिए इससे कर्मचारी अपने कार्य को पूर्ण एवं अधिकारों को ध्यान में रखते हुए पूरा कर सकेंगे। किसी तरह से एक-दूसरे के कार्य-क्षेत्र की सीमाओं, अधिकारों एवं दायित्वों का दुरुपयोग एवं दोहराव नहीं हो सकेगा। कार्यों एवं अधिकारों का स्पष्टीकरण मौखिक एवं लिखित होने के साथ- साथ सर्वत्र सम्प्रेषित भी किया जाना चाहिए। बाद में उर्विक ने अपने इन आठ सिद्धान्तों को और होकर उर्विक ने कहा कि संगठन के सिद्धान्त घट बढ़ भी सकते हैं। अपने सिद्धान्तों की चर्चा विकसित किया। टेलर, फेयोल, मूने, फालेट आदि के द्वारा दिए गए सिद्धान्तों द्वारा प्रभावित करते हुए कर सकते हैं। उर्विक ने अपने इन 29 सिद्धान्तों की चर्चा प्रसिद्ध पुस्तक ‘प्रशासन के तत्व’ में किया है ये सिद्धान्त हैं-

अनुसंधान, पूर्वानुमान, नियोजन, उपयुक्तता, संगठन, निर्देशन, नियंत्रण, समन्वय, सत्ता, पदासोपान, कार्य विभाजन, नेतृत्व, प्रत्यायोजन, कार्यात्मक विभाजन, निर्धारक प्रयोगात्मक, विवेचनात्मक सामान्य हित केन्द्रीयकरण, कार्मिक की भर्ती, सहयोग, चयन व नियुक्ति, पुरस्कार व मान्यता, पहल, न्याय, अनुशासन एवं स्थायित्व ।

आलोचना- उर्विक द्वारा दिए गए सिद्धान्तों की कुछ आलोचनाएं भी की गई है जो निम्नलिखित है-

1. उर्विक द्वारा दिए गए सिद्धान्तों में वैज्ञानिकता का अभाव है अर्थात् किसी भी सिद्धान्त का निर्माण वैज्ञानिक, विश्लेषण आदि के आधार पर नहीं किया गया है जिसके कारण इन सिद्धान्तों की प्रमाणिकता की जाँच नहीं की जा सकती है।

2. पदसोपान व्यवस्था के कारण लालफीताशाही तथा अनावश्यक औपचारिकताएं पाई जाती है, जिससे अव्यवस्था का साम्राज्य कायम हो जाता है।

3. उर्विक ने संगठन को एक संरचना के रूप में माना है जिसकी कार्यकुशलता केवल निश्चित सिद्धान्तों पर बढ़ाई जा सकती है। लेकिन मानवीय तत्वों पर कोई विचार प्रकट नहीं किया गया है।

4. उर्विक ने केवल संगठन के औपचारिक नियमों पर ही बल दिया है। संगठन में कर्मचारियों के बीच आपसी सम्बन्ध भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अतः यह भली-भाँति एक दोष माना जाता है।

5. उर्विक ने सिर्फ प्रबन्ध के सिद्धान्तों के बारे में ही विचार प्रगट किया है। संगठन के भिन्न कार्यों तथा विधियों को अपनाना पड़ता है। लेकिन उर्विक संगठन के अन्तर्गत सम्पादित की जाने वाली प्रक्रियाओं पर कोई विचार नहीं प्रकट किया।

निष्कर्ष- उपर्युक्त वर्णित संगठन के सिद्धान्तों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि उर्विक ने विभिन्न परम्परावादी विचारकों के साथ ही संगठन के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण दिशा प्रदान किया है। उर्विक द्वारा किए गए यह विचार संगठन की कार्यकुशलता की आधारशिला कहा जा सकता है क्योंकि इन्हीं सिद्धान्तों के आधार पर अन्य प्रक्रियाओं एवं सिद्धान्त में परिवर्तनशील होते हैं तथा यह संगठन के विभिन्न पहलुओं पर निर्भर करती है पूर्णतः सही प्रतीत होता है। वस्तुतः उनके द्वारा दिया गया यह योगदान संगठन में काफी उपयोगी सिद्ध हुआ है।

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Anjali Yadav

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