आधुनिक परिप्रेक्ष्य में अध्यापक के उपयोगिता का वर्णन कीजिए।
आधुनिक युग में शिक्षण के समान अन्य सम्प्रेषण व्यवहारों का प्रयोग समान रूप से किया जा रहा है, क्योंकि जटिलताएँ तथा आवश्यकताएँ दोनों ही बढ़ रही हैं और तकनीकी ज्ञान और कुशलता प्राप्ति को अधिक महत्व दिया जा रहा है। विद्यालय तथा विद्यालय के बाहर अधिगमकर्ताओं की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हो रही है, विषयगत ज्ञान भण्डार द्विगुणित चतुर्गुणित होते जा रहे हैं और उनमें विविधताएँ बढ़ने के कारण अध्यापकों के कार्यक्षेत्र का संकोचन हो जा रहा है। एक अध्यापक एक ही विषय के अध्यापन को अध्यापन को दक्षतापूर्वक करने में सक्षम हो सके, आज यही पर्याप्त माना जा रहा है, जबकि एक ही अध्यापक विशेषकर प्रारम्भिक स्तरों पर प्रायः समस्त विषयों का शिक्षण किया करते थे।
आज साक्षरता के साथ ही संगणकीय साक्षरता को भी प्रत्येक व्यक्ति के लिए अनिवार्य माना जाने लगा है जिससे अध्यापक के लिए दायित्व में वृद्धि हो रही है। एक ही शिक्षण विधि या व्यूह- रचना का प्रयोग आज एक ही कक्षा के विभिन्न वर्गों के लिए भी अनुपयुक्त माना जा रहा है। फलतः आज शिक्षक प्रशिक्षण के स्थान पर प्रायः शिक्षक शिक्षा पद का प्रयोग सर्वमान्य रूप से किया जा रहा है। प्रशिक्षण के अन्तर्गत ज्ञान के साथ ही व्यवहार प्रारूप कौशल तथा अभिवृत्ति आदि में परिवर्तन करने के लिए प्रयास किया जाता है जबकि शिक्षा के माध्यम से परिवर्तन के साथ ही सामाजिक एवं सामुदायिक दृष्टि से उपयोगी गुणगत एवं चरित्रगत परिवर्तन को महत्व दिया जाता है। प्रशिक्षण के माध्यम से किसी व्यक्ति या जीव को किसी कार्य का प्रक्रम के बारे में कुशल बनाया जाता है ताकि कार्य-कुशलता में वृद्धि सम्भव हो सके एवं दक्षता प्राप्ति सुनिश्चित की जा सके। इस दृष्टि से शिक्षकों को प्रशिक्षित करने का तात्पर्य उन्हें शिक्षण कौशलों या विशिष्ट शिक्षण व्यवहारों एवं क्रियाओं में कुशल बनाना शिक्षण व्यवसाय के प्रति उनमें सकारात्मक तथा स्वस्थ अभिवृत्ति या संवेगात्मक मानसिक अवस्था या स्थिति उत्पन्न करना तथा सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि के बारे में उन्हें जानकारी प्रदान करना आदि है। लेकिन हम किसी शिक्षक को शिक्षित करने के लिए प्रयास करते हैं तो ज्ञान के साथ ही उनमें उन नैतिक मूल्यों के विकास को भी महत्व दिया जाना आवश्यक हो जायेगा जो मात्र अध्यापन व्यवसाय से ही सम्बन्धित न होकर सम्पूर्ण जीवन-क्षेत्र से सम्बन्धित हो। शिक्षा समाजोपयोगी एवं मानवतावादी व्यक्तित्व के निर्माण पर बल देती है जबकि प्रशिक्षण में व्यवहारकुशल अध्यापक के निर्माण को आवश्यक माना जाता है।
शिक्षा में जीवन मूल्य संस्कृति तथा परम्पराओं के परिप्रेक्ष्य में ही योग्यताओं का आकलन करने के लिए प्रयत्न किया जाता है न कि मात्र कुशलता और दक्षता के सन्दर्भ में। कम समय में अधिक और गुणात्मक उत्पाद निर्माण के लिए प्रशिक्षण जरूरी हो जाता है लेकिन उसमें मानवीय संवेदनाओं को स्थान प्रायः नहीं दिया जा सकता है। जहाँ प्रयास करते हुए सीखने की गुंजाइश नहीं होती है, वहाँ प्रशिक्षण अनिवार्य माना जाता ही है, जैसे- डॉक्टर शल्य क्रिया करने के पहले प्रशिक्षण लेते हैं क्योंकि वे इसका अभ्यास मरीजों के साथ नहीं कर सकते हैं, लेकिन शल्य-क्रिया के लिए मरीज की उपयुक्तता का आकलन करते समय अन्य पहलुओं को भी ध्यान में रखना पड़ सकता है।
यही कारण है कि आधुनिक युगोपयोगी अध्यापक का मात्र प्रशिक्षित होने से काम नहीं चल सकता है, बल्कि उन्हें शिक्षित होने के लिए प्रयास करना चाहिए। शिक्षक प्रशिक्षण के स्थान पर शिक्षक शिक्षा पद का प्रयोग करना तभी आज आवश्यक माना जाता रहा है। शिक्षण मात्र सूचना प्रदान करना नहीं है और न ही तथ्यों को सम्प्रेषित करना है। चूँकि अध्यापक एक मानव- अभियांत्रिक के रूप में कार्य करता है, अतः मानव चरित्र, व्यवहार आदत, विभिन्नता आदि से परिचय और तादात्मय की प्राप्ति उनके लिए अपरिहार्य हो जाती है। शिक्षक प्रशिक्षण के स्थान पर शिक्षक शिक्षा ग्रहण करना आधुनिक अध्यापक के लिए इसीलिए अनिवार्य बन गया है।
आधुनिकता के परिप्रेक्ष्य में कई ऐसे कारक हैं, जिनके फलतः शिक्षा से सम्बन्धित क्षेत्रों में भी निरन्तर परिवर्तन घटित हो रहे हैं। शुक्ला (1989) ने अनेक ऐसे कारकों के बारे में अवधारणा प्रस्तुत करने के लिए प्रयास किया। शहरीकरण की तीव्र प्रवृत्ति उनमें से एक है। इसके परिणामस्वरूप शहरी क्षेत्रों के विद्यालयों में छात्र-अध्यापकीय अनुपात में जहाँ एक ओर निरन्तर परिवर्तन हो रहा है, वहीं दूसरी ओर कक्षागत घनत्व भी क्रमशः बढ़ता जा रहा है। इसका प्रभाव अधिगमकर्त्ताओं के शैक्षिक प्रतिफल और प्रगति पर तो पड़ ही रहा है, साथ ही इस दर से अध्यापकीय नियन्त्रण भी निरन्तर कम होता जा रहा है। स्वाध्याय तथा दूरस्थ शिक्षा के नवीन आयाम विकसित होते जा रहें हैं। शहरीकरण की तीव्रता न केवल पयारवरणीय प्रदूषण की समस्या को जन्म दे रही है बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक प्रदूषण मे भी अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है। सामाजिक तथा पारिवारिक मूल्य मान्यताएँ तथा आदर्श में रूपान्तरण हो रहा है और एक सामुदायिक उथल-पुथल के चिन्ह दिखाई दे रहे हैं। इन कठिनाइयों को कुछ हद तक दूर करने के लिए संगणक तथा अन्य शिक्षण मशीन तथा उपकरणों की सहायता लेना अपरिहार्य बनता जा रहा है। अतः अध्यापकीय शिक्षा में क्षेत्र में उन तकनीकी ज्ञान और कुशलताओं की प्राप्ति का समावेशन करना आवश्यक ही नहीं बल्कि अनिवार्य बन चुका है।
आधुनिक विद्यालयों में भाषण या व्याख्यान, वर्णन विवरण आदि अध्यापक प्रधान प्रणालियों का प्रचलन क्रमशः कम उपादेय प्रतीत हो रहा है और प्रयोगशालीय, कार्यशालागत तथा व्यक्तिगत कार्य निष्पादन जैसी पद्धतियों के प्रयोग में अधिक समय एवं साधन संलग्न किये जाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। शैक्षिक संस्थान न केवल पठन-पाठन के केन्द्र ही रह गये हैं बल्कि वे क्रमशः पृथक अनुदेशनात्मक संसाधन तथा सामुदायिक उन्नयन केन्द्रों के रूप में कार्यक्षम बनाये जा रहे हैं।
इसी प्रकार समूह के साथ ही साथ आज हम पुनः व्यक्ति स्तर पर शिक्षण को अधिक महत्वपूर्ण मान रहे हैं, क्योंकि विशिष्ट अधिगमकर्ताओं के लिए यह अनिवार्य है। इतना ही नहीं, आज जब हम समाकलन एवं समावेशन की बात कर रहे हैं तो अवश्य ही सामान्य कक्षाओं में प्रतिभावान तथा मन्दितमना दोनों ही वर्गों के छात्रों को एकीकृत रूप से शिक्षित करने पर ध्यान देना जरूरी हो जाता है। इसके लिए आधुनिककालीन अध्यापकों को न केवल विभिन्न शिक्षण प्रणालियों में दक्षता प्राप्त करना जरूरी हो जाता है बल्कि साथ ही यह भी आवश्यक हो जाता है कि अध्यापक विभिन्न वगों के अधिगमकर्ताओं की शारीरिक और चारित्रिक आवश्यकताओं को समझने के लिए दक्ष तथा सक्षम हो। अतः आधुनिक उपयोगी अध्यापक के लिए मात्र प्रशिक्षण से काम चलना सम्भव नहीं रह गया है बल्कि उनके लिए व्यापक एवं बहुआयामी शिक्षा की जरूरत उनके कार्यक्षेत्र दायित्व एवं वृद्धि के साथ ही अनुभव में आ रही है। इसके विविध पक्षों पर हम क्रमशः चर्चा करने के लिए प्रयास करेंगे।
आधुनिक उपयोगी अध्यापक के बारे में स्पष्टीकरण देते हुए ज्ञानम (2002) ने कहा कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में केन्द्र-बिन्दु विषयगत ज्ञान से हटकर आज सामान्य कौशल और दक्षता तक पहुँच चुका है। इसका प्रभाव विद्यालयीय शिक्षा पर भी पड़ता हुआ दिखाई दे रहा है। निरन्तर स्वाध्याय हेतु कौशल एवं दक्षता को छात्रों में विकसित करने की आज आवश्यकता है ताकि उनका भविष्य उज्जवल हो सके। सूचना तकनीकी सम्पन्न वातावरण के उपयोगी शिक्षकों की आज आवश्यकता है। आविष्कार खोज और स्वतः अधिगम के लिए छात्रों को प्रोत्साहित करने के लिए अध्यापक को एक प्रभावकारी प्रोत्साहक (Effective Facilitator) की भूमिका अदा करनी होगी। सूचना संसाधन (Information Processing) के लिए छात्रों में उच्च स्तरीय कौशलों को विकसित करने के लिए प्रयास करना उनका दायित्व होगा जो कि परिकल्पना निर्माण परीक्षण विश्लेषण और संश्लेषण आदि से सम्बन्धित हो। सूचना तकनीकी से सम्बन्धित साधनों जैसे- दूरदर्शन, संगणकीय कार्यक्रम, दृश्य क्रीड़ा (Video games) ई-मेल आधारित सूचना विनिमय इण्टरनेट अन्वेषण आदि से जुड़े हुए छात्रों के परिस्थितिजन्य पूर्वज्ञान को अधिगम अनुभव की संरचना हेतु अध्यापकीय कुशलता की आज अपेक्षा है। अधिगम के गैर परम्परागत स्वरूपों के लिए भी आज समाज को कुशल अध्यपकों की आवश्यकता है। प्रथमतः यथार्थ (Virtual) विश्वविद्यालयों के लिए उनकी आवश्यकता होगी जहाँ जन-सम्प्रेषण के माध्यम, इण्टरनेट, दूरस्थ शिक्षा तकनीकी जिसमें उपग्रहीय सेवा का उपयोग किया जाता है एवं संगणक पत्राचार एवं एवं अन्य माध्यमों की सहायता ली जाती है, द्वितीयतः सेवा, जैसे- पुस्तक, पाठ्यक्रम प्रारूप, परीक्षण सामग्री आदि की रचना, बिक्री एवं सम्बन्धित सेवा के क्षेत्र में तथा पारस्परिक सम्मतिजन्य संक्रिया में सहयोग जैसे- संगणक कम्पनी एवं विश्वविद्यालय के मध्य उपाधि स्तरीय पाठ्यक्रम संचालन और उपाधि प्रदान हेतु पारस्परिक समझौता आदि में तृतीयतः विविध कुशलताओं से युक्त अध्यापकों की आवश्यकता भावी काल में होगी। इनमें एक उत्तम पाठ्य-पुस्तकं रचयिता, अध्ययन पाठ-लेखक आदि से लेकर संगणकीय अनुप्रयोग में प्रवाह-दक्ष अध्यापक भी आयेंगे जिनका कार्य मात्र परम्परागत ढंग से कक्षा शिक्षण करना ही नहीं रह जायेगा। इन समस्त अध्यापकों के लिए उपयुक्त शिक्षा-प्रबन्ध आधुनिक अध्यापक शिक्षा कार्यक्रम के माध्यम से ही सम्भव हो सकता है।
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