किण्डरगार्टन पद्धति का क्या अर्थ है ? किण्डरगार्टन पद्धति का सविस्तार वर्णन कीजिये।
किण्डरगार्टन का अर्थ- किण्डरगार्टन जर्मन भाषा का शब्द है, जो दो शब्दों से मिलकर बना है-Kinder’ अर्थात् ‘बालक’ तथा ‘Garten’ अर्थात् ‘उद्यान’ या ‘बाग’। इस प्रकार किण्डरगार्टन शब्द का अर्थ है Children’s Garden’ अर्थात् ‘बाल उद्यान’। फ़ोबेल ने पौधे की तुलना बालक से तथा माली की शिक्षक से की है। जिस प्रकार माली उद्यान के पौधे की देखभाल करके उसकी स्वाभाविक वृद्धि में सहायता देता है, उसी प्रकार शिक्षक स्कूल में उपयुक्त वातावरण का निर्माण करके बालक के स्वाभाविक विकास में योग देता है।
किण्डरगार्टन की विशेषता- किण्डरगार्टन एक लघु समाज एवं बालकों का समूह है, जिसका वातावरण खेल, आनन्द तथा स्वतन्त्रता से भरा पड़ा है। यह खेल सहयोग, स्वयं क्रिया और आत्म-अभिव्यक्ति के अन्य साधनों द्वारा बालक को अपनी रचनात्मक शक्तियों का प्रयोग करने, अपने व्यक्तित्व का निर्माण करने, सत्य, न्याय और उत्तरदायित्व के गुण को सीखने तथा सामाजिक जीवन के कुछ मूल्यों और विधियों को समझने का अवसर प्रदान करता है।
Contents
फ्रोबेल की जीवनी
फ्रोबेल ने शिक्षा को एक महान् देन दी है। बच्चों के प्रति उसके अत्यधिक प्यार, बच्चों के खेल तथा क्रियाशीलता पर अधिक बल के फलस्वरूप शिक्षा क्षेत्र में एक नवीनतम ‘शिशु-विहार पद्धति’ की स्थापना ने फ्रोबेल को संसार का महान् शिक्षाशास्त्री बना दिया है। आज भी फ्रोबेल का नाम बड़े प्यार तथा आदर से लिया जाता है।
प्रारम्भिक जीवन – फ्रेडरिक विल्हेल्म आगस्ट फ्रोबेल का जन्म दक्षिण जर्मनी के एक गाँव ओबर वियसबैंक में 21 अप्रैल, 1782 में हुआ। फ्रोबेल अपनी प्रारम्भिक किशोरावस्था में उपेक्षित रहा। दुःखपूर्ण तथा शोकपूर्ण स्मृतियों ने उसे बच्चों के जीवन को अधिक सुखी बनाने की प्रेरणा दी। जब वह नौ महीने का था तो उसकी माँ का देहान्त हो गया। उसके पिता ने दूसरा विवाह किया। वह फ्रोबेल से अधिक प्यार नहीं करता था। सौतेली माँ के दुर्व्यवहार ने फ्रोबेल के जीवन को और अधिक दुःखी बना दिया। माता-पिता के प्यार से रहित फ्रोबेल अब भगवान की दया पर ही आश्रित रह गया। फ्रोबेल अन्तर्मुखी और भावुक हो गया। वह प्राकृतिक सौन्दर्य की ओर आकर्षित हुआ। पर्वत, वृक्ष, फूल, बादल आदि उसे अपने साथी लगने लगे, क्योंकि उसका अपना बचपन अपेक्षित था, अतः उसने अपना सारा जीवन बच्चों की खुशी में लगा दिया।
शिक्षा- स्कूल में फ्रोबेल मूढ़मति समझा जाता था। अतः स्कूल में उसकी शिक्षा-दीक्षा अधिक नहीं हुई। 15 वर्ष की आयु में उसने एक जंगल के अफसर के यहाँ नौकरी कर ली। उसके साथ वह दो वर्ष रहा। इस प्रकार उसका अपेक्षित बचपन प्रकृति के निकट सम्बन्ध में व्यतीत हुआ। उसने बहुत सा समय जंगल में बिल्कुल अकेले व्यतीत किया तथा सम्भवतः यहीं से उसकी वास्तविक शिक्षा शुरू हुई और उसका प्रकृति से प्रेम बढ़ा। दो चीजों ने उसे बहुत प्रभावित किया—उसके पिता का धार्मिक प्रभाव तथा प्रकृति प्रेम, इन्हीं दोनों ने उसे रहस्यवादी एवं आशावादी बना दिया। उसने प्राकृतिक नियमों में समानता और एकता का अनुभव किया। अतः उसने जेवा विश्वविद्यालय में प्रवेश प्राप्त किया जहाँ वह अपने शिक्षक के दार्शनिक विचारों से बहुत प्रभावित हुआ। दुर्भाग्य से वह विश्वविद्यालय में केवल दो वर्ष तक ही शिक्षा प्राप्त कर सका, उसके पश्चात् विश्वविद्यालय के द्वार उसके लिए बन्द हो गये, क्योंकि उसकी आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। फिर वह चार वर्षों तक घुमक्कड़ रहा। वह कभी कोई नौकरी करता तो कभी कोई, किन्तु वह हर नौकरी में बुरी तरह से असफल हुआ, और स्थान-स्थान पर घूमता रहा।
फ्रोबेल के जीवन में मोड़ – फ्रैंकफोर्ट में फ्रोबेल ‘गृह निर्माण विद्या’ (वास्तुकला) सीखने लगा। वहाँ उसने डॉक्टर प्रनर से घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित किया। डॉक्टर ग्रनर उस समय मॉडल स्कूल का निदेशक था। निदेशक ने यह अनुभव किया कि फ्रोबेल एक आदर्श अध्यापक बन सकता है। अतः उसने फ्रोबेल को अपने स्कूल में अध्यापक बनने का अनुरोध किया।
इस परिस्थिति ने फ्रोबेल के जीवन को बदल दिया। फ्रोबेल स्कूल से बहुत संतुष्ट हुआ, उसे ऐसा लगा कि उसकी कोई खोई हुई निधि मिल गई है अथवा उसकी चिरइच्छा पूर्ण हो गई है। वह अत्यन्त प्रसन्न रहने लगा। उसने घोषित किया न कि पहली बार मैंने कुछ ऐसी चीज पाई, जिसके लिए मैं चिरकाल से लालायित था, परन्तु वह मुझे मिलती न थी तथा अन्त में मुझे मेरे जीवन का तत्व मिल ही गया। मैं उतना ही खुश हुआ, जितना कि मछली पानी में और पक्षी हवा में।
यडेंन स्कूल में फ्रोबेल – फ्रैंकफोर्ट में तीन वर्ष रहने के पश्चात् फ्रोबेल ने यर्डेन में पैस्टालॉजी के स्कूल में कार्य किया। वहाँ रहकर उसने पैस्टालॉजी के आदर्शों तथा सिद्धान्तों का सविस्तार अध्ययन किया। पैस्टलॉजी से उसके सम्बन्धों ने उसे शिक्षा में सुधार करने के लिये प्रेरित किया।
फ्रोबेल के अन्य कार्य- फ्रोबेल प्राकृतिक विज्ञान का अध्ययन करना चाहता था, अतः 1811 में उसने विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। वहाँ कुछ देर अध्ययन करने के पश्चात् वह गाटलिंगन तथा तत्पश्चात् बर्लिन गया। दो वर्ष पश्चात् उसने विश्वविद्यालय छोड़ दिया और वह नेपोलियन के विरुद्ध फौज में भर्ती हो गया। फ्रोबेल तीन वर्ष फौज में रहा तथा वहाँ उसने अनुशासन तथा सामूहिक कार्य की शक्ति को देखा। फौज से लौटने के बाद बर्लिन के अजायबघर में उसकी नियुक्ति अध्यक्ष पद पर हो गई, किन्तु इस कार्य में उसका लगाव नहीं था। वह तो शिक्षा में ही विशेष रुचि रखता था।
स्कूलों की स्थापना-फ्रोबेल ने 1816 में प्री-शीम में एक छोटे से स्कूल की स्थापना की। कुछ समय बाद वह स्कूल को ‘कैल्हान’ ले गया। फ्रोबेल ने प्रारम्भिक शिक्षा के अपने सिद्धान्तों को स्थूल रूप दिया। बहुत-से उलट-फेरों के पश्चात् दस वर्ष में यह संस्था बन गई। इस स्थान पर उसने अधिक बल इस बात पर दिया कि बच्चे खेल एवं क्रियात्मक कार्यों द्वारा अपने आपको अभिव्यक्त करें। फ्रोबेल ने बच्चों पर कोई बाह्य प्रभाव नहीं आने दिया। 1826 में फ्रोबेल ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘The Education of Man’ का प्रकाशन किया। इस पुस्तक में फ्रोबेल लिखते हैं कि शिक्षा का सच्चा सिद्धान्त इस बात में निहित है कि हम बालक के मस्तिष्क को ऐसी सजीव सम्पूर्ण इकाई मानें, जिसमें सभी अंग मिलकर कार्य करते हैं ताकि सुन्दर समरसता उत्पन्न कर सकें। इसके बाद फ्रोबेल ने जर्मनी में अनेक स्कूल चलाये। सरकार ने फ्रोबेल के क्रान्तिकारी विचारों पर सन्देह किया और जाँच की गई। इन्सपेक्टर ने बहुत अच्छी रिपोर्ट दी। उसने लिखा कि ” मैंने यहाँ लगभग साठ सदस्यों का एक संगठित परिवार देखा जो पारस्परिक विश्वास के साथ रहता था और जिसका हर सदस्य सबकी भलाई के लिये कार्य करता था। इस संस्था का उद्देश्य केवल विज्ञान तथा ज्ञान ही नहीं है, परन्तु भीतर से ही एक ऐसे मस्तिष्क का निर्माण करना है, जो स्वतन्त्र और सक्रिय हो ।”
किन्तु आर्थिक कठिनाइयों के कारण वह अपनी संस्था को 1830 में स्विट्जरलैंड ले गया। वहाँ की सरकार ने उसके कार्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की और अपने अध्यापकों को प्रशिक्षण के लिये भेजा। वहाँ से फ्रोबेल बर्गडोर्फ गये। वहाँ वे एक अनाथालय के अध्यक्ष बने। उन्होंने अध्यापकों के प्रशिक्षण का कार्य जारी रखा। वहाँ उन्होंने महसूस किया कि क्योंकि शैशव में बच्चों की शिक्षा नहीं होती, इसलिये स्कूलों में बच्चों की भर्ती नहीं होती। फ्रोबेल का मत था कि बच्चों को शिक्षा शैशव में ही प्रारम्भ हो जानी चाहिये ताकि जब वे स्कूल जाने योग्य हों, तो वे अच्छे विद्यार्थी हों।
फ्रोबेल 1836 में जर्मनी लौटे तथा बलैंकनबर्ग गाँव में अपना प्रथम शिशु-विहार केन्द्र 1839 में खोला। उसने अपना समस्त जीवन शिक्षकों के प्रशिक्षण में एवं शिशु-विहार सम्बन्धी उपकरणों को निश्चित करने में लगा दिया।
दुःखद अन्त- जर्मन सरकार ने फ्रोबेल के विचारों को नहीं माना तथा उसे शिक्षा केन्द्र खोलने से मना कर दिया। यह फ्रोबेल जैसे एक अच्छे अध्यापक के लिये गहरा धक्का था। वह इसे सहन नहीं कर सका। फ्रोबेल का 1852 में अत्यन्त शोचनीय निर्धन तथा व्यथित अवस्था में देहान्त हो गया।
फ्रोबेल की प्रकाशित रचनाएँ
- मानव की शिक्षा,
- शिशु-विहार प्रणाली के सिद्धान्त,
- विकास से शिक्षा,
- मां तथा बच्चों के गीत ।
फ्रोबेल के शिक्षा सम्बन्धी विचार
1. शिक्षा का उद्देश्य–शिक्षा का उद्देश्य बालक के मस्तिष्क को शब्द ज्ञान से भरना नहीं है, अपितु शिक्षा का उद्देश्य है कि बच्चा विषमता में समता या अनेकरूपता में एक रूपता को समझने के योग्य हो सके।
फ्रोबेल के अनुसार शिक्षा का मुख्य कार्य संक्षेप में यह है, “शिक्षा मनुष्य का पथ-प्रदर्शन करे ताकि वह अपने आपको स्पष्ट रूप से समझ सके, प्रकृति से शान्ति का और ईश्वर से एकता का सम्बन्ध स्थापित कर सके। शिक्षा मनुष्य को आत्म-ज्ञान से मानव जाति के ज्ञान की ओर ईश्वर और प्रकृति के ज्ञान की ओर, तथा स्वच्छ और पवित्र जीवन की ओर ऊर्ध्वमुखी करे। “
2. बच्चे की प्रकृति के अनुसार शिक्षा- शिक्षा बच्चे के स्वभाव और उसकी आवश्यकताओं के तालमेल से हो।
3. शिक्षा का सामाजिक पहलू-फ्रोबेल ने शिक्षा के सामाजिक पहलू पर भी बल दिया। उसका विश्वास था कि घर, शिक्षालय, धर्म तथा राज्य इत्यादि सामाजिक अभिकरण भी बच्चे का विकास करते हैं और इनमें रहते हुए बच्चा अनेकरूपता में एकरूपता का आभास पा लेता है।
4. क्रिया द्वारा शिक्षा-शिक्षा का मुख्य साधन बच्चे की अपनी क्रियाशीलता है। खेलकूद बच्चे के विकास का अनिवार्य तत्व है। बन्धन मुक्त तथा स्वच्छन्द प्राकृतिक विकास खेल-कूद द्वारा ही सम्भव है।
5. कल्पना शक्ति का विकास- बच्चे की कल्पना शक्ति को प्रेरित करने के लिये उसने गीतों, हाव-भावों तथा रचनात्मक कार्यक्रमों को निर्धारित किया।
6. बच्चे की शिक्षा स्वतन्त्र वातावरण में- बच्चे की शिक्षा स्वतन्त्र वातावरण में होनी चाहिये। स्वतन्त्रता का अर्थ स्वयं निर्धारित नियमों को स्वीकार करना है।
7. स्कूल एक बाग के रूप में- अध्यापक एक माली है जो बच्चों का फूलों के समान पोषण करता है ताकि उनका वांछित रूप से पूर्ण और स्वच्छन्द विकास हो सके। शिक्षक अपने प्रयत्नों द्वारा बच्चे की सहायता करता है, जो कि अपने स्वभाव के अनुसार उन स्तरों तक पहुँचने के लिये प्रयत्नशील है, जिनसे कि वह अन्यथा वांछित रह सकता है।
किण्डरगार्टन के मुख्य तत्व
शिशु-विहार का अर्थ-फ्रोबेल ने बचपन के महत्व को महसूस किया और 1837 में ब्लैकनबरण नामक स्थान पर 4 से 6 वर्ष तक के बच्चों के लिये प्रथम ‘शिशु-विहार’ शिक्षा केन्द्र खोला। जर्मन में इसका नाम किण्डरगार्टन है, जिसका अर्थ है ‘शिशुओं का बाग’। फ्रोबेल ने स्कूल को बाग की, अध्यापक को माली की तथा बच्चों को पौधों की संज्ञा दी। एक माली की तरह अध्यापक का कार्य है, नन्हें पौधों की देखभाल करना और उन्हें सुन्दर एवं पूर्ण बनाने के लिये जल से सींचना। फ्रोबेल ने बच्चों को फूलों की उपमा दी। उसका विश्वास था कि विकास और उन्नति के क्रम में बच्चे और फूल एक समान हैं। जिस प्रकार पौधे का विकास उसके भीतर बीज के अनुसार होता है, उसी प्रकार बच्चे का विकास भी उसके भीतर से ही होता है। वह अपनी प्रवृत्तियों तथा भावनाओं को अपने अन्तरतम से ही प्रस्फुटित करता है, जिसके लिये उचित वातावरण की आवश्यकता है।
शिशु-विहार पद्धति का उद्देश्य-फ्रोबेल के शब्दों में शिशु-विहार का उद्देश्य है, बच्चों को उनके स्वाभावानुसार कार्य देना, उनके शरीर को शक्ति प्रदान करना, उनकी ज्ञानेन्द्रियों को व्यवहार में लाना, उनके मस्तिष्क को जागृति प्रदान करना तथा प्रकृति और अन्य प्राणियों से उसका तादात्म्य स्थापित करना। यह पद्धति विशेषकर हृदय और उसके स्नेह को उद्वेलित करके उनको सम्पूर्ण सृष्टि के मौलिक उद्भव स्थल की ओर ले जाती है, जहाँ पर सब मिलकर एकाकार हो जाते हैं।
शिशु-विहार की विशेषतायें
1. आत्म-क्रियाशीलता-फ्रोबेल का विश्वास था कि बच्चे को ऐसी किसी भी क्रिया में नहीं रमना चाहिये, जो कि अध्यापकों एवं माता-पिता ने थोपी हो। उसने इस बात पर बल दिया कि बच्चे को पूर्ण स्वतन्त्रता हो कि वह अपनी भावनाओं और अपने निर्णयों को कार्यान्वित कर सके। बच्चे का विकास उसकी आन्तरिक शक्ति द्वारा होता है। फ्रोबेल का कहना है कि शिक्षा स्वतन्त्र आत्म-क्रियाशीलता एवं आत्मनिर्णय का आयोजन करे, क्योंकि प्राणी मात्र ईश्वर का विव है, जिसकी उत्पत्ति स्वतन्त्रता के लिये होती है। फ्रोबेल के अनुसार, आत्म-क्रियाशीलता एक ऐसा क्रम है, जिससे व्यक्ति अपने स्वभाव की जानकारी करता है तथा उस पर अपने संसार का निर्माण करके तब दोनों तत्वों अर्थात्-अपने स्वभाव. तथा अपनी सृष्टि में तालमेल पैदा करता है। इस आत्म-क्रियाशीलता के विषय में एक इंस्पेक्टर का कथन है कि “आत्म-क्रियाशीलता इस संस्था का प्रथम नियम है। जिस प्रकार का निर्देशन यहाँ होता है, उससे बच्चों का मस्तिष्क किसी ऐसे डिब्बे की तरह नहीं बन जाता, जिसमें हर सम्भव शीघ्रता से विभिन्न मूल्यों के विभिन्न युगों के तथा नवीनतम सिक्कों की भरमार की जाती हो, अपितु धीरे-धीरे, निरन्तर एवं अबाध गति से तथा सदा हृदय के भीतर से होता है। मानवीय मस्तिष्क के प्राकृतिक सम्बन्धों के अनुकूल यह निर्देशन आडम्बररहित तथा धैर्यसहित होता है। जो सरलता से जटिलता की ओर, मूर्त से अमूर्त की ओर बच्चे के स्वभाव तथा उसकी आवश्यकताओं के अनुसार इस स्वाभाविक रूप से बढ़ता है कि उसे खेल के समान रुचिकर और आनन्ददायक समझता है।”
क्रियाशीलता के सम्बन्ध में निम्नलिखित बातें आवश्यक हैं-
- यह नियन्त्रित अथवा शोधित क्रिया हो ।
- आत्म-क्रियाशीलता ही कार्य अथवा खेल का रूप ग्रहण करे।
- यह सन्दिग्ध अथवा अनिश्चित न हो।
- सार्थक क्रियाओं के लिये सामाजिक वातावरण आवश्यक है।
2. खेल-फ्रोबेल के अनुसार, इस अवस्था में खेल-कूद पवित्रतम तथा पूर्ण आध्यात्मिक क्रिया है। अतः यह आनन्द, स्वतन्त्रता, संतुष्टि, शारीरिक और हार्दिक विश्राम प्रदान करता है और संसार में शान्ति स्थापित करता है। संसार में जो कुछ भी अच्छा है यह (खेल) उसी का उद्गम स्रोत है।
फ्रोबेल चाहता था कि खेलकूद को निश्चित साधनों द्वारा संगठित तथा नियन्त्रित किया जाये, जिससे कि यह खेल केवल उद्देश्यरहित नकारात्मक क्रिया ही बनकर न रह जाये वरन् यह उस उद्देश्य को प्राप्त करे, जिसके लिये इसकी उद्भावना की गई है। इस कार्य के लिये तर्कयुक्त तथा चैतन्यपूर्ण मार्गदर्शन किया जाये। इसी के फलस्वरूप फ्रोबेल ने बच्चों को खेलने के लिये सात उपहार दिये हैं।
3. गीत हावभाव तथा रचना-फ्रोबेल ने गीतों, हावभावों एवं रचनात्मक कार्यों में पूर्ण सम्बन्ध देखा। उसने यह देखा कि बच्चा इन तीनों पारस्परिक सहयोगी रूपों द्वारा अभिव्यन्जना करता है। बच्चा जो कुछ सीखता है, पहले गीत द्वारा अभिव्यक्त करता है, तब इसे हाव-भावों के प्रदर्शन से अभिनीत किया जाता है और अन्त में कागज तथा मिट्टी की रचनात्मक चीजों से उसे प्रदर्शित किया जाता है। इस प्रकार मस्तिष्क, भाषण, अंगों तथा हस्त का संतुलित विकास होता है। तीनों क्रियाएँ ज्ञानेन्द्रिय अंगों तथा माँसपेशियों को पर्याप्त अभ्यास करवाती हैं।
4. गीतों का चयन-फ्रोबेल ने गीतों की एक पुस्तक लिखी, ‘माँ और शिशुओं के गीत’ । पुस्तक में 50 गीत हैं। गीतों के साथ खेला भी जा सकता है। गीतों के पीछे यह भावना है कि बच्चे अपने अंगों और अपनी विभिन्न इन्द्रियों का उपयोग कर सकें। आस-पास के वातावरण के साथ कोई न कोई क्रीड़ा जुड़ी हुई है, जैसे-आँख मिचौनी। गीतों का चयन अध्यापक बच्चे के विकास के अनुरूप करता है। प्रत्येक गीत के तीन भाग हैं-
- माता या अध्यापक के लिये मार्गदर्शक आदर्श वाक्य ।
- लय, ताल बद्ध कविता ।
- गीत को समझने के लिये एक तस्वीर।
5. उपहार तथा कार्य- खेल तथा क्रियाशीलता की महत्ता पर पहले ही बल दिया जा चुका है। क्रियाशीलता की सुविधा के लिये फ्रोबेल ने जिन चीजों का आयोजन किया है, उन्हें उपहार कहते हैं। उपहार जिन क्रियाओं की सुविधा देते हैं, उन्हें ही कार्य कह दिया जाता है। इन उपहारों को सावधानी से श्रेणीबद्ध किया गया है। उनमें खेलने वाली चीजों की सब नवीनताएँ सम्मिलित हैं। उपहार का क्रम ऐसा है कि बच्चा स्वयं ही एक विचार से दूसरा विचार तथा एक खेल से दूसरे की ओर मुड़ जाता है।
प्रथम उपहार- यह प्रथम उपहार गेंदों का उपहार है। एक डिब्बे में 6 रंग-बिरंगे गेंद डाल दिये जाते हैं। बच्चा उन्हें उछाल-उछालकर खेलता है। उनका उछलना ही क्रिया अथवा कार्य है। इन गेंदों का उद्देश्य बच्चे को रंगों, पदार्थों, गति तथा दिशा आदि का ज्ञान करवाना है। गेंद को उछालते हुए बच्चे यह गीत गाते जाते हैं।
अहा ! जी देखो सुन्दर गेंद
नन्हा, मुलायम, गोल गोल गेंद !
गोल गोल गेंद, अहा जाता है हर ओर
खेलें इससे बच्चे खुश हो नाचें जैसे मोर
दूसरा उपहार- इसमें तीन चीजें हैं। एक गोलाकार, दूसरी त्रिकोण तथा तीसरी एक बेलन। इनको भी एक डिब्बे में रखा गया है। बच्चा उनसे खेलता है तथा उनकी भिन्नता पर गौर करता है। वह देखता है कि गोलाकार चीज घूमती है। और त्रिकोण खड़ी रहती है। बेलन में दोनों गुण हैं-वह खड़ा भी रहता है तथा घूमता भी है। बच्चा यह अनुभव करता है कि बेलन दोनों के गुणों का मिलान करता है।
तीसरा उपहार- यह लकड़ी का एक घनफल है, जिसे छोटे-छोटे आठ घनफलों में बाँटा गया है। इनके द्वारा बच्चा जोड़ तथा घटाव सीख सकता है। इससे बच्चे कई कलात्माकार जैसे सीढ़ियाँ आदि बनाना भी सीखते हैं।
चौथा उपहार- एक बड़े घन को आठ लम्बे भागों में विभाजित किया हुआ होता है। हर एक भाग की लम्बाई, चौड़ाई से दुगुनी तथा चौड़ाई भी मोटाई से दुगुनी होती है। इसे बच्चा तीसरे उपहार की तरह कई तरीकों से जोड़कर बहुत प्रकार की आकृतियाँ बना सकता है।
पाँचवां उपहार- यह तीसरे उपहार से मिलता-जुलता है। इसमें एक बड़े घन को सताईस छोटे घनों में विभाजित किया होता है। इसके तीन छोटे घनों को तिरछा दो भागों में एवं तीन को चार भागों में बाँटा होता है। बच्चा उपहार तीन और चार के विभिन्न तरीकों से जोड़कर विभिन्न आकृतियाँ बना सकता है। साथ में आकार एवं गिनती का ज्ञान भी प्राप्त कर सकता है।
छठा उपहार- यह उपहार चार से मिलता-जुलता है, इसमें एक बड़े घन को अट्ठारह बड़े भागों में एवं नौ छोटे लम्बे भागों में बाँटा होता है। इससे बच्चा विभिन्न तरीकों से आकृतियाँ बना सकता है। यह उपहार भी बच्चों को गिनती सिखाने में सहायक होता है।
सातवां उपहार – यह त्रिकोन एवं चौकोर आकार के दो रंगों के लकड़ी के टुकड़ों का सैट होता है। इससे बच्चा रेखागणित सम्बन्धी चित्र तथा पच्चीकारी कर सकता है।
अन्य उपहार व्यवसायों सम्बन्धी जैसे कागज काटना, मनकों में धागा डालना, दरी बुनना, कशीदाकारी करना, टोकरी बुनना, मॉडल बनाना आदि से सम्बन्धित होते हैं।
6. शिक्षक का स्थान–शिक्षक निष्क्रिय न हों। जब बच्चों को उपहार दिये जाते हैं तो शिक्षक उन्हें कार्य बताता है। शिक्षक का यह कार्य भी है कि बच्चों का कभी-कभी निर्देशन करें। वह स्वयं भी गीत गाता है ताकि बच्चे गीत के विषय में जान सकें।
7. अनुशासन–शिक्षक के कई महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व हैं। उसे बच्चों में बहुत-से गुण उत्पन्न करने होते हैं, जैसे-प्यार, सहानुभूति, नम्रता, सहयोग तथा बड़ों के प्रति आज्ञाकारिता। उसे बाह्य दबावों तथा शारीरिक दण्ड से परे रहना होता है। बच्चों को यह अनुभव करवाना पड़ता है कि अनुशासन का अर्थ है नियमितता का आदर करना, सद्भावों को रखना तथा पारस्परिक व्यवहारों को उचित रूप में रखना। फ्रोबेल ने इस बात पर बल दिया कि इस स्तर पर शिक्षा देने के लिये औरतों को शिक्षित किया जाये।
8. पाठ्यचर्या-पाठ्यचर्या का विभाजन इस प्रकार होता है-
- धर्म तथा धार्मिक शिक्षा।
- भाषाएँ।
- शिल्पकार्य या दस्तकारी।
- प्राकृतिक विज्ञान तथा गणित।
- कला ।
फ्रोबेल के शिशु-विहार के गुण
1. फ्रोबेल ने शिशु शिक्षा पर बल दिया।
2. फ्रोबेल ने प्रारम्भिक शिक्षा में खेल पर बल दिया।
3. फ्रोबेल ने बच्चे के स्वभाव, भावनाओं और मूल प्रवृत्तियों के अध्ययन पर बल दिया।
4. शिशु-विहार में उत्पादक कार्यों के सम्मिलित होने के कारण बच्चे उत्पादक बन जाते हैं।
5. विभिन्न उपहारों से ज्ञानेन्द्रियों का प्रशिक्षण होता है।
6. उसने स्कूल का एक अनिवार्य सामाजिक अभिकरण के रूप में और भी महत्व बढ़ा दिया। उसने स्कूल को छोटे समाज का रूप दिया जहाँ बच्चे जीवन के महत्वपूर्ण पक्षों के लिये प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं। वे सहयोग, सहानुभूति, सहकारिता और उत्तरदायित्व जैसे गुणों को सीखते हैं।
7. पाठ्यचर्या प्रकृति अध्ययन होने के कारण बच्चों के मस्तिष्क में प्रकृति तथा विश्व के लिये प्यार की भावना जाग्रत होती है।
8. शिशु-विहार के कार्यों और उपहारों ने एक नवीन अध्यापन पद्धति को जन्म दिया।
9. शिशु-विहार में क्रियाशीलता के लिये पर्याप्त स्थान है।
फ्रोबेल द्वारा बताई गई पद्धति की सीमायें
- शिशु-विहार में बच्चों के आन्तरिक विकास पर बहुत अधिक बल दिया जाता है। वातावरण के महत्व पर बहुत कम ध्यान दिया गया है।
- फ्रोबेल के उपहार साधारण हैं। वे ज्ञानेन्द्रियों के प्रशिक्षण में इतने सहायक नहीं हैं।
- विभिन्न विषयों के अध्यापन में समवाय की ओर बहुत कम ध्यान दिया गया है।
- फ्रोबेल ने बच्चे से बहुत अधिक आशा की है। बच्चे उपहारों द्वारा खेलते हुए एकता के अमूर्त भाग को नहीं समझ सकते।
- यह भी सम्भव नहीं कि खेल-कूद को शिक्षा में इतना महत्व दिया जाये, क्योंकि गम्भीर अध्ययन के लिये यह उपयोगी नहीं।
- उसके द्वारा रचित गीत असामयिक हैं। प्रत्येक स्कूल में इनका प्रयोग नहीं हो सकता।
- शिशु-विहार व्यक्तिगत अध्यापन की ओर ध्यान नहीं देता।
फ्रोबेल का आधुनिक शिक्षा पर प्रभाव
फ्रोबेल ने बच्चों से प्यार करने एवं उनके लिये जीवित रहने का सन्देश दिया। छोटे बच्चों के लिये स्कूल जेलों के समान नहीं रहे तथा न ही बच्चे निष्क्रिय श्रोतागण ही रहे हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि प्रचलित आधुनिक सभी शिक्षा पद्धतियों के मूल में फ्रोबेल की विचारधारा काम करती है। उसने समाज को छोटे बच्चों की शिक्षा के लिये जागरूक किया। आधुनिक शिक्षा के अग्रलिखित प्रमुख तत्वों को फ्रोबेल ने प्रभावित किया-
1. स्कूल की नई धारणा- आधुनिक शिक्षा में स्कूल को छोटे समाज के रूप में माना जाता है। आधुनिक स्कूलों को सहकारी संस्थाएँ समझा जाता है।
2. बच्चों के अध्ययन पर बल-फ्रोबेल ने बच्चे की प्रवृत्तियों तथा उसकी भावनाओं के अध्ययन पर बहुत बल दिया। आधुनिक शिक्षा भी इसे बहुत आवश्यक समझती है और इस बात का आयोजन करती है कि बच्चे की मूल प्रवृत्तियों तथा भावनाओं को स्वतन्त्र रूप से विकसित होने का पूर्ण अवसर मिले।
3. ज्ञानेन्द्रियों का प्रशिक्षण- बच्चों की विभिन्न इन्द्रियों के प्रशिक्षण के लिये फ्रोबेल ने उपहारों का आयोजन किया। इन्हीं उपहारों की सहायता से फ्रोबेल बच्चों को आकार, रूप-रंग और संख्या आदि का ज्ञान करवाना चाहता था।
4. शिक्षा में प्रकृति अध्ययन- फ्रोबेल के लिये प्रकृति अध्ययन का अर्थ था बच्चे को भगवान के समीप लाना। उसने प्रकृति अध्ययन के एक ऐसे पाठ्यक्रम का समर्थन किया, जिससे बच्चा अपने इस संसार को समझ सके तथा गम्भीर निरीक्षण के पश्चात् ही अपनी आदतों को बनाये ।
इस विचार ने आज इतना बल पकड़ा है कि हम उस स्कूल को स्कूल नहीं मानते जो बच्चों को प्रकृति अध्ययन की सुविधा न दे।
5. पूर्व प्राथमिक अथवा पूर्व बुनियादी शिक्षा- वर्तमान शिक्षक बच्चे की पूर्व प्राथमिक शिक्षा के महत्व को खूब समझने लगा है। आज हमें ऐसे अनेक शिक्षा केन्द्र देखने को मिलते हैं, जो कि बच्चों की आवश्यकताओं को पूरा करते हैं। फ्रोबेल विश्वास करते थे कि जब तक शिशु-शिक्षा नहीं होगी, कुछ भी ठोस और श्रेष्ठ प्राप्त नहीं हो सकता।
6. शिशु-शिक्षा के लिये स्त्री अध्यापिका- यह कहना असत्य नहीं होगा कि फ्रोबेल के प्रभाव के कारण ही आज यह धारणा सर्वसम्मत बन चुकी है कि पूर्व प्राथमिक शिक्षा, या शिशु-शिक्षा के लिये स्त्री अध्यापिकायें ही अधिक उपयुक्त रहती हैं, क्योंकि इस स्तर पर स्त्री शिक्षिका पुरुष शिक्षक की अपेक्षा अधिक प्यार तथा सहज स्वाभाविक स्नेह प्रदान कर सकती है।
7. बच्चे के व्यक्तित्व का मान- फ्रोबेल बच्चों के लिये जिया और बच्चों के लिये मरा। उसने जीवन भर बच्चों के लिये कार्य किया। बच्चों के लिये उसका हृदय प्यार से लबालब भरा हुआ था। आधुनिक शिक्षक बच्चों के व्यक्तित्व को बहुत महत्व देते हैं।
8. खेल द्वारा शिक्षा- फ्रोबेल का विश्वास था कि आत्मविकास के लिये खेल का सर्वोच्च स्थान है। उसने स्कूल के कार्यक्रम में खेल-कूद को मुख्य स्थान दिया।
9. शिक्षा में क्रियाशीलता- फ्रोबेल प्रथम शिक्षाविद् था, जिसने आत्म-क्रियाशीलता को शिक्षा का आधार माना। ‘क्रिया द्वारा’ शिक्षा आधुनिक युग की प्रचलित रीति है। आधुनिक स्कूल खेलों के प्रिय केन्द्र हैं। अतः बच्चे उन्हें प्यार करते हैं। हम बच्चों के लिये ऐसी क्रियाओं का आयोजन करते हैं, जिनसे उनकी बहुत-सी प्रवृत्तियाँ जैसे जिज्ञासा प्राप्ति, रचना तथा हस्तकार्य आदि सन्तुष्ट हो सकें।
किण्डरगार्टन में समयानुसार परिवर्तन- पूर्व प्राथमिक शिक्षा देने के लिये किण्डरगार्टन का सभी देशों में प्रचार हुआ है, जैसे-जैसे बच्चों सम्बन्धी मनोवैज्ञानिक जानकारी बढ़ती गई वैसे-वैसे किण्डरगार्टन के खेलों, कथाओं तथा गीतों में वातावरण के अनुकूल परिवर्तन कर दिये गये हैं। यद्यपि देश तथा काल के अनुसार किण्डरगार्टन प्रणाली में कई परिवर्तन हुए हैं, परन्तु उसके मूल सिद्धान्त अब भी वही है जो उसके प्रवर्तक ने दर्शाए थे।
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