कीटाणुओं द्वारा फैलाये जाने वाले रोग – Part 2
काला आजार ( Kala Azar)
इसको डमडम (Dumdum Fever) या काला ज्वर (Black Fever) भी कहते हैं। यह एक संक्रामक रोग है। यह एक अनियमित दीर्घ स्थायी ज्वर है। इससे रोगी का प्लीहा (Spleen) या तिल्ली तथा यकृत (Liver) बढ़ जाता है। प्रारम्भ में बुखार तेज रहता है और रोगी में खून की कमी हो जाती है। खून की कमी के कारण वह अन्य विकारों का भी शिकार हो जाता है। इसमें त्वचा शुष्क एवं भूरी हो जाती है। इसमें व्यक्ति का भार भी कम हो जाता है।
उद्भवन काल- यह 15 दिन से अधिक होता है। निवारण (Prevention)-इस रोग के निवारण के लिए निम्नलिखित उपाय काम में लाये जा सकते हैं-
(i) प्रारम्भ में इसका निदान किया जाना चाहिए। निदान के तुरन्त बाद इसकी अधिसूचना (Notification) दी जानी चाहिए।
(ii) रोगी को पृथक् कर दिया जाना चाहिए।
(iii) घरों तथा रोगों के विसर्जनों को निसंक्रमित कर देना चाहिए।
(iv) बालुमक्खियों के जनन क्षेत्र को समाप्त करना चाहिए।
(v) डी. डी. टी. के प्रयोग से बालुमक्खियों को नष्ट करना चाहिए।
(vi) घर तथा पास-पड़ौस को स्वच्छ रखना चाहिए। साथ ही घर में तथा उनके आस-पास के समस्त गड्ढों को भर देना चाहिए।
उपचार (Treatment)—इसके उपचार हेतु एण्टीमोनी (Antimony) से तैयार दवाइयों का प्रयोग किया जा सकता है। यूरिया स्टैबेमिन (Urea Stibamin) के 10 इन्जेक्शनों का पूरा कोर्स दिया जाना चाहिए। ये इन्जेक्शन नस में दिये जाने चाहिए।
डेंगू (Dengue)
यह ज्वर अचानक होता है। इसमें रोगी को बेचैनी, माथे में दर्द, हड्डियों तथा जोड़ों में बड़ा ही तेज दर्द का अनुभव होता है। इसमें तापक्रम चौथे दिन जाकर निम्न हो पाता है। इसमें रोग-निवृत्ति की गति बड़ी धीमी होती है। यह रोग निस्पन्दनीय वाइरस के कारण होता है जो रोगी के रक्त में उपस्थित होते हैं। यह रोग एडीस एजोपटी नामक मच्छर के काटने से फैलता है। मच्छर द्वारा रोगी के रक्त से वाइरस प्राप्त कर लिये जाते हैं। मच्छर इनको रोग के प्रथम 48 घण्टों में ही प्राप्त कर लेता है और काटने के 12 दिन बाद छूत लगने वाला बन जाता है। इस प्रकार से वह जीवनपर्यन्त वाइरस वाहक बना रहता है।
उद्भवन काल— यह 3 से 15 दिन तक का होता है। सामान्यतः इस काल की अवधि को 5 से 6 दिन तक माना जाता है।
निवारण (Prevention)- निवारण के उपाय मुख्यतः एडीस एजीपटी नामक मच्छरों के नियन्त्रण पर निर्भर है।
प्रत्यावर्ती ज्वर (Relapsing Fever)
प्रत्यावर्ती ज्वर दो प्रकार के होते हैं—(अ) लाउस प्रत्यावर्ती ज्वर (Louse Relapsing Fever) तथा (ब) टिक प्रत्यावर्ती ज्वर (Tick Relapsing Fever)। इन दोनों प्रकार के प्रत्यावर्ती ज्वरों का विवेचन नीचे अलग-अलग किया जा रहा है-
(अ) लाउस प्रत्यावर्ती ज्वर (Louse Relapsing Fever)– यह तीव्र संक्रामक स्पाइरोचीटल (Spirochetal) रोग है। इसमें यकायक बड़ा ही तीव्र ज्वर होता है जो 2 से 5 दिन में जाकर समाप्त हो जाता है। इसके तापक्रम का चार्ट विशेष प्रकार का होता है।
छूत (Infection)- इस रोग की छूत स्पाइरीलम (Spirillum) के कारण होती है। भारत में स्पाइरीलम को ‘स्पाइरोचीटा कारटेरी’ (Spirochaeta Recurrentis or Carteri) के नाम से पुकारा जाता है। यह सामान्यत: ज्वर के आक्रमण के समय प्रान्तिक (Peripheral) रक्त में पाया जाता है। परन्तु ज्वर-मुक्तता की अवस्था में इसकी अनुपस्थिति रहती है।
उद्भवन काल- यह 7 से 12 दिन का होता है।
निवारण (Prevention)-इस रोग के निवारण के लिए निम्नलिखित उपायों को काम में लाया जा सकता है-
(i) रोग का निदान तथा उसकी अधिसूचना
(ii) रोगी पृथक् करना।
(iii) जुओं को नष्ट करना- इसके लिए रोगी के वस्त्रों, बिस्तर, खाट, आदि का निर्मोचन किया जाना चाहिए। इसके लिए 5 से 10 प्रतिशत वाली डी. डी. टी. तथा टॉलकम पाउडर का प्रयोग किया जाना चाहिए। जुओं को नष्ट करने के लिए अन्य विधियाँ-सर्वियन बैरल का प्रयोग, साबुन तथा सब्जी के घोल, आदि का भी प्रयोग किया जा सकता है। हाथ से उनको बीनकर भी नष्ट किया जा सकता है, सूर्य के प्रकाश तथा कपड़ों को औटाकर भी नष्ट किया जा सकता है।
उपचार— पैनिसिलीन G, टेट्रासाइक्लीन या क्लोरेमफैनीकॉल (Tetracycline or Chloramphenicol) की पर्याप्त मात्रा इसका विशेष उपचार है। प्रत्यावर्तन को रोकने के लिए ‘Neours Phenamine’ का प्रयोग उपयुक्त है। वयस्क को इसकी 0-4 gm और बच्चे को 0-1 gm की मात्रा नस द्वारा प्रदान की जानी चाहिए।
(ब) टिक प्रत्यावर्ती ज्वर (Tick Relapsing Fever)—यह रोग स्पाइरोचीटा दुत्तोनी (Spirochaeta Duttoni) द्वारा होता है। यह चिचड़ी (Tick) द्वारा फैलाया जाता है। चिचड़ी रोगी को काटकर इसकी त स्वस्थ व्यक्ति को पहुँचाती है। यह भारत में कश्मीर के अलावा और किसी क्षेत्र में नहीं पाया जाता है। इस रोग को नियन्त्रित करने में यह कठिनाई होती है कि समस्त चिचड़ियों को नष्ट करना कठिन हो जाता है क्योंकि ये कृन्तक प्राणियों की माँदों में छिपी रह जाती हैं।
उद्भवन काल- यह 3 से 6 दिन का होता है।
निवारण (Prevention)–चिचड़ी के काटने से बचने के लिए व्यक्ति को हर सम्भव उपाय को काम में लाना चाहिए। उसे उन स्थानों पर नहीं जाना चाहिए जो चिचड़ीयुक्त हैं। डी. डी. टी. या गैमेक्सीन पाउडर को ऐसे स्थानों पर छिड़का या बिखेरा जाना चाहिए। शरीर पर चिचड़ी निरोधकों-इण्डेलोन (Indalone), ‘Dimethylphthalate’ आदि का प्रयोग करना चाहिए। इनका प्रयोग शरीर के उन भागों पर किया जाना चाहिए जिन पर चिचड़ियों ने काटा है।
प्लेग (Plague)
यह एक बड़ा ही प्राचीन रोग है। होमर ने ईसा से 1200 ई. वर्ष पूर्व इस रोग की उपस्थिति को बताया है। व्यापक रूप से फैलने के कारण इस रोग को ब्लैक डैथ (Black Death) के नाम से पुकारा जाता है। भारत में यह रोग सर्वप्रथम मुम्बई में सन् 1896 में प्रकट हुआ। उस समय यह रोग चीन के हांगकांग नगर से भारत आया था। भारत में यह रोग मुम्बई, मैसूर, चेन्नई तथा बिहार प्रान्तों में अधिक फैलता है। बिहार के चम्पारन, सारन, मुंगेर, आदि जिलों में इसकी पुनरावृत्ति होती रहती है। अब यह रोग यूरोप से प्रायः समाप्त सा हो गया है। परन्तु भारत और चीन देश अभी तक इसके शिकार बने हुए हैं।
रोग का कारण– प्लेग का प्रमुख कारण पेसट्यूरैला पेसटिस (Pasteurella pestis) या बैसीलस पेसटिस (Bacillus pestis) है। यह ब्यूबोनिक प्लेग (Bubonic Plague) में गिल्टी या ग्रन्थि में, न्यूमॉनिक प्लेग (Neumonic Plague) में बलगम तथा सेप्टीकैमिक प्लेग (Septicaemic Plague) में रक्त में पाया जाता है। यह जीवाणु तिल्ली, आँत, फेफड़े, यकृत, आदि में भी उपस्थित रहता है।
उद्भवन काल— गिल्टीदार प्लेग में यह 3 से 6 दिन का होता है। परन्तु अन्य प्रकार के प्लेग में 3 से 4 दिन का होता है।
प्लेग के प्रकार (Varieties of Plague)- प्लेग के निम्नलिखित तीन भेद हैं
(1) गिल्टीदार प्लेग (Bubonic Plague)—यह रोग सामान्य रूप से पाया जाता है। इसमें ग्रन्थियाँ बढ़ जाती हैं जो बहुत दर्द करती हैं। इसमें ग्रन्थियों के पंक्चर या छिद्र से बेसीली प्रवेश करते हैं।
(ii) न्यूमॉनिक प्लेग (Neumonic Plague) यह खाँसी के समय ड्राफ्लेट छूत द्वारा संचरित किया जाता है। बलगम में बैसीलस पेसटिस पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं। इस रोग में मृत्यु 98 से 100 प्रतिशत तक हो जाती है।
(iii) सेप्टीकैमिक प्लेग ( Septichemic Plague)—यह रोग रक्त संजनन (Blood Culture) द्वारा सिद्ध किया गया है। इसमें गिल्टी नहीं बनती है, वरन् यह रक् द्वारा फैलता है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं। कि यह रक्त की छूत से फैलता है।
मृत्यु दर (Mortality) — यदि गिल्टीदार प्लेग का उपचार न किया जाय तो इसमें मृत्यु दर 25 से 50 प्रतिशत रहती है। न्यूमॉनिक तथा सेप्टीकैमिक प्लेगों में प्रारम्भ में मृत्यु दर शत-प्रतिशत हो जाती है। परन्तु आधुनिक चिकित्सा ने इस दर को कम कर दिया है।
चूहों द्वारा फैलाये जाने वाले रोग (Disease Spread by Rats)—चूहों द्वारा फैलाये जाने वाले रोगों को हम निम्नलिखित विभागों में विभक्त कर सकते हैं-
(अ) चूहे के पिस्सू के काटने से फैलने वाले रोग- चूहे के पिस्सू (Rat Flea) के काटने से दो रोग (1) पिस्सू टाइफस (Flea Typhus) तथा (2) प्लेग (Plague) फैलते हैं।
(ब) चूहे के काटने से फैलने वाला रोग- चूहे के काटने से रेटबाइट ज्वर (Ratbite Fever) फैलता है।
(स) मनुष्य के भोजन को चूहों के मल-मूत्र द्वारा दूषित करने से फैलने वाले रोग- इस प्रकार के दूषित भोजन के प्रयोग से निम्नलिखित रोग फैलते हैं—
(i) स्पाइरोचीटल पीलिया (Spirochetal Jaundice),
(ii) अन्न विषायण (Food Poisoning)।
निवारण तथा नियन्त्रण (Prevention and Control)- प्लेग के नियन्त्रण एवं निवारण के लिए निम्नलिखित उपायों को काम में लाया जा सकता है-
(i) अधिसूचना- प्लेग के फैलते ही उसकी सूचना तुरन्त अधिकारियों को दी जानी चाहिए। यदि चूहों में भी महामारी फैल गयी हो तो इसकी सूचना तुरन्त तथा अनिवार्यतः दी जानी चाहिए।
(ii) रोगी को पृथक कर देना चाहिए। रोगी को संक्रामक रोगों के चिकित्सालय में भेजना उत्तम होगा। यदि न्यूमॉनिक प्लेग का रोगी हो, तो उसे घर में ही पृथक् कमरे में रखा जा सकता है।
(iii) संक्रमित क्षेत्र को खाली कर देना (Evacuation of the Infected Premises) जैसे ही यह ज्ञात हो जाय कि यह रोग महामारी के रूप में फैल गया है वैसे ही संक्रमित घर के अन्य लोगों की वह स्थान छोड़ देना चाहिए। उनको कैम्पों में या झोंपड़ी बनाकर बाहर दूर स्थान पर रहना चाहिए। उनको अपने साथ किसी प्रकार का सामान नहीं ले जाना चाहिए। यदि झोपड़ी बनाकर चाहर रहना सम्भव न हो तो निचली मंजिल वाले लोगों को ऊपरी मंजिल पर अपना निवास स्थान बना लेना चाहिए। यह कदम उस समय हो। उठाया जा सकता है जब मकान कई मंजिला हो, साथ ही जब चूहों की मृत्युदर असाधारण हो प्रकार की व्यवस्था के साथ-साथ चूहों तथा चूहों के पिस्सुओं को नष्ट एवं निसंक्रमित करने के लिए भी कदम उठाये जाने चाहिए।
(iv) रोग निरोधक एण्टीप्लेग टीका (Prophylactic Antiplague Inoculation) – इसके लिए हेफकीन (Haffkine) की एण्टीप्लेग वैक्सीन का टीका लगवाया जाय। सामान्यतया इसकी मात्रा 2 सी. सी. होनी चाहिए। इसकी मात्रा सी. सी. प्रति सप्ताह भी हो सकती है। परन्तु ऐसी केवल दो मात्रा दी जानी चाहिए। 2 सी. सी. वैक्सीन 6 से 8 महीने तक के लिए प्रतिकारिता प्रदान कर सकती है।
(v) चूहों के विरुद्ध सुसंगठित अभियान ( Campaign against Rats) इस सम्बन्ध में निम्नलिखित उपायों को काम में लाया जा सकता है-
(अ) चूहे-मुक्त घरों का निर्माण (Construction of Rat Proof Houses) अनाज के गोदाम तथा बाजार आवासीय क्षेत्रों से अलग होने चाहिए। इनको निवास स्थान के रूप में प्रयुक्त नहीं किया जाना चाहिए। घर तथा अनाज के गोदाम चूहों से मुक्त होने चाहिए। घरों में पानी या भोज्य पदार्थों को कभी खुला नहीं छोड़ना चाहिए जिससे चूहे उसको खराब न कर सके और ऐसा करने से उनको भोजन नहीं मिलेगा। अतः भोजन के अभाव में वे घरों को छोड़ने के लिए बाध्य हो जायेंगे। बाहरी दरवाजों के नीचे के भाग को धातु की चादरों से सुरक्षित करवा देना चाहिए जिससे चूहे उनमें अपने बिल न बना सकें। साथ ही बाहरी चूहे घर में प्रवेश न कर सकें। खिड़कियों पर तार की जाली लगवा देनी चाहिए।
(थ) चूहों को नष्ट करना (Rat Destruction) जनसाधारण को इस बात से अवगत करा दिया जाय कि चूहे उनके सबसे बड़े शत्रु हैं। अतः उनको हर सम्भव रूप से नष्ट कर देना चाहिए। इनको नष्ट करने के लिए निम्नलिखित उपायों को काम में लाया जा सकता है-
(1) विषाक्त भोजन द्वारा (By Poisonous Baits)-चूहों को मारने या उनके शिकार के लिए उन्हें फँसाने के हेतु आटे को मलकर गोलियाँ बना लेनी चाहिए। इन गोलियों की आन्तरिक सतह में थोड़ा-सा विष या कोई विषाक्त पाउडर, आदि रख देना चाहिए। इनको मारने के लिए सबसे उपयुक्त विष बेरियम कार्बोनेट (Barium Carbonate) है। यह सबसे सस्ता, स्वादहीन एवं प्रयोग करते समय सबसे सुविधाजनक एवं सुरक्षित विष है। पौण्ड बेरियम कार्बोनेट तथा 2 पौण्ड आटे की गोलियाँ घरों के लिए पर्याप्त है। 20 से 40 गोलियाँ प्रत्येक घर में उन स्थानों पर रखनी चाहिए जहाँ चूहों का आवागमन अधिक होता है।
(2) धुआँ द्वारा (By Fumigation)—यह एक प्रभावशाली विधि है। इसको प्रशिक्षित व्यक्तियों द्वारा प्रयुक्त करना चाहिए। एक बिल के सिवाय अन्य सभी बिलों को बन्द कर देना चाहिए। पम्प की नॉजिल को खुले बिल में घुमाकर धुआँ करना चाहिए। इस तरह से सभी चूहे तथा उनके पिस्सू नष्ट हो जायेंगे।
(3) फँसाकर (By Trapping)-चूहों को जालीदार चूहेदानी में फँसाकर भी नष्ट किया जा सकता है। परन्तु ऐसी चूहेदानी प्रयुक्त करना उपयुक्त होगा जिनमें जीवित चूहों को पकड़ा जा सके। इस विधि द्वारा उनको नष्ट करने के लिए बड़ी सावधानी तथा देखभाल की आवश्यकता है। साथ ही यह विधि अन्य की अपेक्षा व्ययी या खर्चीली भी है।
(4) चूहों के पिस्सुओं को नष्ट करना (Destruction of Rat Fleas)-प्लेग को रोकने के लिए सबसे प्रमुख उपाय पिस्सुओं को नष्ट करना है। इन पिस्सुओं को नष्ट करने के लिए डी. डी. टी. या गैमेक्सीन का प्रयोग किया जाता है क्योंकि इनमें कीटाणुओं को मारने की शक्ति होती है। मकान के फर्श पर 10 प्रतिशत डी. डी. टी. का पाउडर छिड़कवाना चाहिए और दीवारों पर 5 प्रतिशत डी. डी. टी. मिट्टी के तेल में मिलाकर छिड़कवानी चाहिए।
वस्त्रों तथा बिस्तर के पिस्सुओं को नष्ट करने के लिए सूर्य की किरणों या उसके प्रकाश को प्रयुक्त किया जा सकता है।
(5) गिल्टीदार प्लेग के कमरे को 5 से 10 प्रतिशत वाले डी. डी. टी. पाउडर से निसंक्रमित कर देना चाहिए। न्यूमॉनिक प्लेग में फॉर्मेल्डिहाइड (Formaldehyde) से धुआँ कर देना चाहिए।
(6) प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सुरक्षा के लिए भी कदम उठाने चाहिए। इसके लिए वह कीटाणुनाशक पाउडर का उपयोग कर सकता है। उसे प्रति सप्ताह अपने वस्त्रों तथा बिस्तर पर ऐसे पाउडर को छिड़कना चाहिए। साथ ही उसे प्रतिदिन कीटाणु निरोधकों का प्रयोग करना चाहिए।
(7) न्यूमॉनिक प्लेग के फैल जाने पर नर्सों, डॉक्टर तथा अन्य स्वास्थ्य कर्मचारियों के बचाव के लिए भी कदम उठाये जाने चाहिए। इनको चूहों के पिस्सुओं के काटने से बचने के लिए दस्ताने, चेहरे का पूरा नकाब, आदि का प्रयोग करना चाहिए। साथ ही उनको एण्टीबॉयटिक दवाइयों का प्रयोग करते रहना चाहिए।
(8) जनसाधारण को सजग या जागरूक करने के लिए भाषणों, पैम्फलेट, फिल्म तथा स्लाइडों का प्रयोग करना चाहिए। इसके माध्यम से उनको यह स्पष्ट किया जाय कि प्लेग की छूत किस प्रकार फैलती है और चूहों तथा उनके पिस्सुओं से किस प्रकार रक्षा की जा सकती है।
(9) समुद्री निरोध (Maritime Quarantine) विदेशों से आने वाले सभी अछूते जहाजों से निर्मूषन सर्टीफिकेट (Deratization Certificate) लेना चाहिए। यदि उनके पास ऐसा सर्टीफिकेट न हो तो उन जहाजों की जाँच की जाय। यदि उनमें चूहे पाये जायें तो उनको भूमीकृत किया जाय।
उपचार- सभी प्रकार के प्लेगों की सबसे उपयुक्त दवा स्ट्रैप्टोमाइसीन (Streptomycin) है। परन्तु इसका प्रयोग तुरन्त ही किया जाना चाहिए। इसको माँसपेशियों के माध्यम से प्रति 3 या 4 घण्टे बाद 0.5 ग्राम देनी चाहिए। जब तापक्रम सामान्य हो जाय तब इसको प्रतिदिन 1 ग्राम की मात्रा में दिया जाना चाहिए। इसकी कुल मात्रा शरीर में 1-5 ग्राम अवश्य पहुँचानी चाहिए। गम्भीर मामलों में स्टैप्टोमाइसीन के साथ-साथ टेरामाइसीन (Terramycin), क्लोरोमाइसिटीन (Chloromycetin), ऑरोमाइसिटीन (Auromycetin), टेट्रा साइक्लीन (Tetracyclin), आदि का भी प्रयोग करना चाहिए। यदि रोग व्यापक रूप से फैला हुआ हो तो सल्फाडाइजीन तथा सल्फामेराजीन (Sulphadiazine and Sulfamerazine) का भी प्रयोग किया जा सकता। है।
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