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तिलक के स्वराज्य सम्बन्धी विचार

तिलक के स्वराज्य सम्बन्धी विचार
तिलक के स्वराज्य सम्बन्धी विचार

तिलक के स्वराज्य सम्बन्धी विचारों की विवेचना कीजिए।

तिलक के स्वराज्य सम्बन्धी विचार

तिलक के समस्त राजनीतिक चिन्तन को एक शब्द में व्यक्त किया जा सकता है और वह है ‘स्वराज्य’ तिलक ने प्राचीन भारतीय दर्शन का बड़ा गहरा अध्ययन किया था, जिसका आधारभूत सिद्धान्त था, धर्मराज्य ‘धर्मराज्य’ का अभिप्राय एक राजनीतिक व्यवस्था से है, जो धर्म पर आधारित हो और जिसका उद्देश्य धर्म का रक्षण तथा पोषण हो। इस प्रकार स्वराज्य तिलक के लिए एक नैतिक आवश्यकता थी। इसलिए उन्होंने घोषित किया था, “स्वराज्य हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और हम इसे लेकर रहेंगे।”

तिलक के इस मूलमन्त्र का महत्व भली-भाँति समझने के लिए हमें इसकी तुलना दादाभाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता और गोपालकृष्ण गोखले जैसे उदारवादी नेताओं की स्वराज्य सम्बन्धी धारणा से करनी होगी। उदारवादी नेता स्वराज्य की माँग ब्रिटिश नागरिक होने के नाते, ब्रिटिश उपनिवेशों के नमूने पर करते थे। उन्होंने ने अपनी प्रेरणा ब्रिटिश इतिहास तथा संस्थाओं से प्राप्त की थी। तिलक की प्रेरणा का स्रोत प्राचीन भारतीय राजनीतिक दर्शन था, जिसमें स्वराज्य को व्यक्ति का धर्म बतलाया गया है। इस प्रकार उनकी स्वराज्य की धारणा भारतीय संस्कृति का परिणाम थी। तिलक के अनुसार स्वराज्य एक ईश्वरीय गुण है। विदेशी साम्राज्यवाद राष्ट्र की आत्मा का ही हनन कर देता है, इसलिए उन्होंने विदेशी साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष और भारत के लिए स्वराज्य की घोषणा की।

जॉन स्टुअर्ट मिल ने ‘राष्ट्रीयता’ की जो परिभाषा दी थी, तिलक उससे सहमत थे। सन् 1919 तथा 1920 में उन्होंने ‘विल्सन की आत्मनिर्णय की धारणा को स्वीकार करते हुए भारत में इसके व्यावहारिक प्रयोग की माँग की थी। वस्तुतः तिलक का राष्ट्रवादी दर्शन आत्मा की सर्वोच्चता के वेदान्तिक आदर्श और मैजनी, बर्क, मिल तथा विल्सन की धारणाओं का समन्वय था। इस समन्वय ” को तिलक के ‘स्वराज्य’ शब्द द्वारा व्यक्त किया।

‘स्वराज्य’ से तिलक का आशय-

सन् 1916 के पूर्व तक ‘स्वराज्य’ से तिलक का आशय देश के लिए पूर्ण स्वाधीनता की ऐसी स्थिति से था, जिसमे ब्रिटिश सम्राट के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता था। लेकिन 1916 में उन्होंने स्वराज्य की अपनी धारणा को तत्कालीन परिस्थितियों में अधिक समयानुकूल और व्यावहारिक बना लिया होम रूल आन्दोलन के अन्तर्गत 31 मई, 1916 को अहमद नगर में स्वराज्य पर अपने पहले भाषण में उन्होंने कहा कि “स्वराज्य से अभिप्रायः केवल यह है कि भारत के आन्तरिक मामलों का संचालन और प्रबन्ध भारतवासियों के हाथों में हो। हम ब्रिटेन के राजा सम्राट को बनाए रखने में विश्वास करते हैं।” उनके विचार ये विचार उनके यथार्थवादी दृष्टिकोण का परिचय देते हैं।

उल्लेखनीय है कि तिलक ने अपनी पूर्ण धारणा अर्थात् पूर्ण स्वाधीनता की आकांक्षा परित्याग नहीं किया था, वरन तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए ‘ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत स्वराज्य’ का व्यावहारिक सुझाव दिया था. यह पूर्ण स्वाधीनता की दिशा में पहला महत्त्वपूर्ण कदम था। उनके द्वारा इस स्थिति को अपनाए जाने का कारण यह भी था कि ‘स्वराज्य’ की मांग को ‘राज्यद्रोह’ से अलग किया जा सके और देश की जनता को स्वराज्य के लिए संगठित किया जा सके। वे जानते थे कि स्वराज्य का सन्देश प्रसारित करने के लिए उनका जेल से बाहर रहना आवश्यक था, जिससे वे जनता को जागरूक, संगठित और स्वतन्त्रता के संघर्ष के लिए प्रेरित कर सकें। उनका आदर्श तो भारत के लिए सम्पूर्ण अर्थों में पूर्ण स्वतन्त्रता ही था।

तिलक का स्वराज्य के साथ अपने देश के लिए ऐसी शासन व्यवस्था के पक्षधर थे, जिसमें शासन के सभी अधिकारी और कर्मचारी जनता के प्रति सचेत रहे तथा कार्यपालिका के अधिकारी और कर्मचारी स्वयं को जनता के प्रति उत्तरदायी समझे। तिलक का विश्वास था कि राज्य का अस्तित्व जनगण के कल्याण और सुख के लिए होता है और इस आधार पर स्वराज्य का आशय था कि ‘अन्तिम सत्ता जनता के हाथ में हो।’ इस आधार पर ही उन्होंने कहा था कि “भारतीय रियासतों में भारतीय शासक होते हुए भी स्वराज्य नहीं है।” तिलक भारतीय शासन प्रणाली में मूलभूत परिवर्तन चाहते थे। तिलक के जीवनी लेखक पर्वत लिखते हैं कि “तिलक के नाम के साथ जो विविध सम्मानित सम्बोधन जोड़े जाते हैं उनमें ‘लोकतान्त्रिक स्वराज्य के प्रतिपादक’ अवश्य ही जुड़ जाना चाहिए।” पर्वत आगे लिखते हैं, “यह स्पष्ट है कि स्वराज्य की तिलक की धारण, मुख्यता शासन चलाने वाले व्यक्तियों से नहीं, वरन् शासन के मूल प्रयोजनों से अधिक सम्बन्धित है।”

चाहें हम इस बात को स्वीकार ले कि जीवन के अन्तिम वर्षों में तिलक ने ‘स्वराज्य’ को लगभग उसी आशय से ग्रहण कर लिया था, जिस आशय से उदारवादी नेताओं ने इसे ग्रहण किया था, लेकिन इस प्रसंग में तिलक और उदारवादी नेताओं में बहुत अधिक महत्वपूर्ण अन्तर है उदारवादी नेताओं के विभिन्न राजनीतिक विचारों में ‘देश के लिए स्वराज्य’ भी एक विचार था। तिलक के लिए स्वराज्य विचार मात्र नहीं था, यह उनका धर्म, उनका जीवन और उनका प्राण था उदावादी नेता स्वराज्य का उलेख तो करते थे, लेकिन न तो उन्होंने गुलामी के अपमान को तिलक जैसी गहराई के साथ अनुभव किया था और न ही वे तिलक के समान स्वराज्य के लिए सर्वस्व रूप में समर्पित थे।

तिलक का समस्त राजनीतिक चिन्तन स्वराज्य पर केन्द्रित है। उनके अनुसार स्वराज्य समस्त सामाजिक व्यवस्था का आधार और राष्ट्रीय प्रगति का मूल तत्व है। उनका कहना था कि स्वराज्य के अभाव में कोई औद्योगिक प्रगति नहीं हो सकती, कोई राष्ट्रीय शिक्षा नहीं हो सकती और कोई सामाजिक सुधार नहीं हो सकता। यदि एक बार राजनीतिक सत्ता जनता के हाथों में आ जाय, तो यह अन्य उद्देश्यों को भी सुगमतापूर्वक पूरा कर सकती है। तिलक जब अर्थ घेतनावस्था में मृत्युशैय्या पर पड़े थे, तब भी उनके अन्तिम शब्द थे, “यदि स्वराज्य न मिला तो भारत समृद्ध नहीं हो सकता। स्वराज्य हमारे अस्तित्व के लिए अनिवार्य है।”

वे ब्रिटिश नौकरशाही के इस तर्क से पूर्णतया सहमत थे कि स्वयं भारतीय, भारत के मामलों का प्रबन्ध नहीं सँभाल सकते। उन्होंने हिन्दुओं और मुस्लमानों में परस्पर अविश्वास और विद्वेष उत्पन्न करने की ब्रिटिश नीति का कड़ा विरोध किया और इस बात पर बल दिया कि स्वराज्य प्राप्त हो जाने पर इन दो समुदायों के बीच अविश्वास और विद्वेष की कोई आशंका नहीं रहेगी। उन्होंने कहा, “मैं जिस स्वराज्य की माँग कर रहा हूँ, वह केवल हिन्दुओं के लिए, मुस्लमानों के लिए अथवा किसी वर्ग विशेष के लिए नहीं होगा भारतीय जनता की समस्याओं को हल करने की एक ही औषधि है- ‘वास्तविक सत्ता’। जब यह औषधि हमें प्राप्त हो जायेगी, तब यदि हमसे आपस में कोई मतभेद होंगे, तो हम उन्हें स्वयं सुलझाने में समर्थ होंगे……! हम अपने विवादों को स्वयं हल करने की शक्ति चाहते हैं।”

तिलक के सम्बन्ध में विशेष बात यह है कि तिलक ने न केवल ‘स्वराज्य’ का नारा दिया, वरन् तप, त्याग, समर्पण और निष्ठा के साथ जीवन के इस एकमात्र आदर्श की ओर बढ़े। उनके कार्यों का बाहरी स्वरूप चाहे जो भी रहा हो, प्रत्येक कार्य का लक्ष्य देश के लिए स्वराज्य ही था। सी• वाई. चिन्तामणि लिखते हैं कि “स्वतन्त्रता प्राप्ति उनके जीवन का चरम लक्ष्य था. और अपने समकालीन राजनीतिज्ञों में उन्होंने इसके लिए सबसे अधिक कष्ट सहन किये।” बम्बई के गवर्नर ने भारत मन्त्री को अपने एक पत्र में लिखा था, “तिलक मुख्य षड्यन्त्रकारियों में से हैं या सबसे मुख्य षड्यन्त्रकारी हैं। उसने भारत में ब्रिटिश शासन की सब कमजोरियों का बड़ी सावधानी के साथ अध्ययन किया है। उसके गणपति उत्सव, शिवाजी उत्सव, पैसा निधि और राष्ट्रीय स्कूल- इन सबका एक ही उद्देश्य है कि भारत से ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंका जाय।”

अंग्रेजों की न्यायप्रियता और उदारवादी विचारधारा में अविश्वास-

लोकमान्य तिलक को अंग्रेजों की न्यायप्रियता में कोई विश्वास नहीं था। उनकी मूल धारणा थी कि कोई भी साम्राज्यवादी शक्ति शासित देश के हित में शासन नहीं करती। साम्राज्यवाद का तो उद्देश्य ही शासित देश का राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक शोषण करना होता है। भारत के ब्रिटिश शासकों का उदद्देश्य भी यही है और अंग्रेजों की न्यायप्रियता पर विश्वास करना नितान्त अविवेकपूर्ण है।

उन्होंने उदारवादियों की पद्धति और साधनों की निर्थकता और प्रभावहीनता पर कटाक्ष करते हुए कहा, “अनुनय, आग्रह और प्रतिनिधि मण्डल से कुछ नहीं होगा, जब तक कि इसके पीछे ठोस शक्ति न हो। आयरलैण्ड, जापान और रूस के उदाहरणों से हमें सबक लेना चाहिए।” उन्होंने कहा, “प्रतिवेदनों से कुछ नहीं होगा, हमें अपनी शक्तियों को संगठित करना होगा, ताकि जब हम शासकों के समक्ष अपनी मांगे लेकर उपस्थित हों, तो उन्हें न मानने का साहस न कर सकें।”

‘संवैधानिक पद्धति’ उदारवादी विचारधारा का मूल आधार थी, तिलक ने इस संवैधानिक पद्धति की निष्फलता पर ‘केसरी’ के कई लेख लिखे और उन्हें यह सिद्ध करने में कोई कठिनाई नहीं हुई कि इस विश्वास पर आधारित कोई भी कार्य समय को नष्ट करना मात्र है। तिलक का विचार था कि संवैधानिक पद्धति ब्रिटेन सरीखे देश में तो ठीक हो सकती है जहाँ एक संविधान है और शासन जनता के प्रति उत्तरदायी है, भारत जैसे देश में संवैधानिक पद्धति सर्वथा अनुपयुक्त थी, जहां कि ‘दण्ड विधान’ (Penal Code) ही संविधान था और जनता के पास सरकार को बदलने के लोकतान्त्रिक साधन नहीं थे। तिलक का कहना था कि इतिहास में इस बात का एक भी उदाहरण नहीं है कि एक विदेशी शासन ने शासित राष्ट्र के हित में शासन किया हो और स्वेच्छापूर्वक उसे सत्ता में भाग दिया हो। इतिहास से तो यही सिद्ध होता है कि राजनीतिक अधिकार और अन्तिम रूप में देश के लिए स्वशासन की स्थिति या स्वराज्य ‘बलिदान का मार्ग’ अपनाकर ही प्राप्त की जा सकती है। लोकमान्य तिलक कहा करते थे, “हमारा आदर्श दया याचना नहीं, आत्म-निर्भरता हैं ।”

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Anjali Yadav

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