नवजात शिशु की क्या विशेषताएँ हैं ? वर्णन कीजिए।
गर्भस्थ शिशु, जो माँ के शरीर से जन्म लेता है, उसे नवजात शिशु (Neonate) कहते हैं। Neonate लैटिन भाषा का शब्द है, जो सम्भवतः ग्रीक भाषा के शब्द Neos से बना है, जिसका अर्थ है नया। नवजात शिशु (Neonate) शब्द का अर्थ है-वह नवजात शिशु, जिसकी आयु अधिक से अधिक 30 दिन की हो, जन्म से आधा घण्टा आयु तक का बालक Partunate कहलाता है। Partunate Period वह है, जिसमें बच्चे के Umbilical Cord को काटकर बच्चों को माँ से अलग किया जाता है। वह एक स्वतन्त्र और माँ से भिन्न जीव बन जाता है। कुछ मनोवैज्ञानिक Neonate के स्थान पर New Born Infant शब्द का प्रयोग करते हैं और इसकी आयु जन्म से केवल 10 दिन तक मानते हैं। नवजात शिशु की कुछ प्रमुख विशेषताएँ निम्न प्रकार से हैं-
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1. शारीरिक विकास से सम्बन्धित विशेषताएँ (Properties Related to Physical Development)
शारीरिक विकास से सम्बन्धित निम्न चार विशेषताएँ हैं-
(अ) नवजात शिशु का आकार (Size of the Infant) – जन्म के समय नवजात शिशु का औसत भार 7.5 पौण्ड तथा औसत लम्बाई 19.5 इंच होती है। भार के औसत का विस्तार 3-16 पौण्ड तक तथा लम्बाई के औसत का विस्तार 15-21 इंच तक होता है। अक्सर जन्म के समय लड़के लड़कियों की अपेक्षा अधिक लम्बे होते हैं। नवजात शिशु के आकार को अनेक कारक प्रभावित करते हैं। इनमें से कुछ प्रमुख कारक निम्न प्रकार से हैं-
(i) माँ का आहार (Maternal Diet)- माँ के आहार में प्रोटीन की मात्रा शिशु के आकार को सर्वाधिक प्रभावित करती है। स्मिथ और वाइन्स (Smith, 1947; Wines, 1947) के अनुसार, “माँ के आहार में पोषक तत्व जितने ही कम मात्रा में होंगे, नवजात शिशु का आकार उतना ही छोटा होता है।” एक अन्य अध्ययन (Burke, et al., 1949) में यह देखा गया कि गर्भावस्था के अन्तिम माह में माँ द्वारा लिया गया आहार नवजात शिशु के आकार को सर्वाधिक प्रभावित करता है।
(ii) आर्थिक स्तर (Economic Status) – माता-पिता के आर्थिक स्तर का सम्बन्ध माँ के आहार की मात्रा और क्वालिटी से है। गिब्सन (Gibson, 1951) ने अपने अध्ययनों में देखा कि उन लोगों में, जिनका आर्थिक स्तर निम्न होता है, उनके बच्चे आकार में छोटे और कम भार वाले उत्पन्न होते हैं।
(iii) जन्मक्रम (Birth Order) – एक अध्ययन (H. B. Meredith, 1950) में देखा गया है कि स्त्री का पहला बच्चा लम्बाई में बाद के बच्चों की अपेक्षा 1% छोटा तथा 9% हल्का होता है।
(iv) गर्भस्थ शिशु की क्रियाएँ (Fetal Activity) – अध्ययनों में देखा गया है कि जो गर्भस्थ शिशु गर्भकालीन अवस्था में अधिक क्रियाशील होते हैं, वे जन्म के समय दुबले-पतले और कम भार के होते हैं।
(v) अन्य कारक (Other Factors) – जिन बच्चों को जन्म के 6 घण्टे या इसके बाद Feed किया जाता है, वे अपना भार कम (lose) करते हैं। कुछ अध्ययनों (Brown, 1939; Salber & Bradshaw, 1953, 1954) में देखा गया है कि जो बच्चे बसन्त और गर्मियों में होते हैं, उनका अपना भार जल्दी बढ़ता है, परन्तु यह ठंडे देशों के लिए सही है। अपने देश में जो बच्चे जाड़े के प्रारम्भ में पैदा होते हैं, उनका अपना भार शीघ्र बढ़ता है। यह देखा गया है कि नया बच्चा जन्म के 7 दिन तक भार में घटता है और 7 दिन के बाद उसका अपना भार बढ़ने लग जाता है। जन्म से सात दिन के बाद शिशु का भार कितना शीघ्र बढ़ेगा, यह कई कारकों पर निर्भर करता है; जैसे- नवजात शिशु का जन्मक्रम, यौन, जन्म के समय आकार तथा जन्म का प्रकार आदि ।
(ब) शारीरिक अनुपात (Physical Proportions) – हरलॉक (1968) का विचार है कि, “नवजात शिशु वयस्क व्यक्ति नहीं है।” (The Newborn Infant is not (an Adult) नवजात शिशु के शारीरिक अनुपात वयस्क व्यक्तियों की अपेक्षा भिन्न होते हैं। उसका सिर उसके सम्पूर्ण शरीर का 1/4 होता है, जबकि वयस्क व्यक्तियों में सिर और शरीर का अनुपात 1: 7 होता है। खोपड़ी (Cranium) और चेहरे का अनुपात 8 : 1 होता है। नवजात शिशु के कन्धे पतले, गर्दन सँकरी, पेट कुछ लम्बा, नाक चपटी और जबड़े अविकसित होते हैं। उसकी भुजाएँ, धड़ तथा पैर और सिर की तुलना में छोटी होती हैं।
(स) नवजात शिशु के विशिष्ट गुण (Infantile Features)- नवजात शिशु के कुछ प्रमुख विशिष्ट गुण निम्न प्रकार से हैं-
1. त्वचा (Skin) – जन्म के समय बालक की त्वचा हल्के गुलाबी रंग की होती है। लगभग जन्म के 15 दिन बाद त्वचा का रंग स्थायी होने लग जाता है।
2. आँखें (Eyes) – जन्म के समय आँखें हल्के भूरे रंग की होती हैं तथा जन्म के कुछ ही दिनों में आँखों का रंग बदलकर कोई स्थायी रंग बन जाता है-अधिकांश बच्चों की आँखें काली होती हैं। आँखें आकार की दृष्टि से परिपक्व लगती हैं, परन्तु इनका इनकी गतियों पर कोई विशिष्ट नियन्त्रण नहीं होता है। दोनों आँखों में कोई समन्वय नहीं होता है। ऐसा लगता है कि नवजात शिशु एक आँख से एक ओर और दूसरी आँख से दूसरी ओर देख रहा है।
3. दाँत (Teeth) – जन्म के समय शिशुओं में दाँत नहीं पाए जाते हैं। मेसलर (Massler & Savara, 1950) ने अपने एक अध्ययन में देखा कि अमेरिका में 2,000 शिशुओं में एक शिशु के जन्म के समय दाँत अवश्य होते हैं। यह दाँत निचले जबड़े में आगे की ओर होते हैं। अपने देश में नवजात शिशु के दाँत होना और भी अनौखी बात है। जन्म के समय दाँतों के होने का कारण Genetic Factors है।
4. गर्दन (Neck)- नवजात शिशु की गर्दन बहुत छोटी होती है। चूँकि सम्पूर्ण शरीर की अपेक्षा सिर बड़ा होता है, अतः छोटी गर्दन दिखाई देती है। ऐसा लगता है कि बालक का सिर, धड़ से ही जुड़ा हुआ है
5. मांसपेशियाँ (Muscles) – नवजात शिशु की माँसपेशियाँ छोटी और मुलायम होती हैं। शिशु का इन पर अधिक नियन्त्रण नहीं होता है। पैर और गर्दन की मांसपेशियाँ शरीर की अन्य माँसपेशियों की अपेक्षा कम विकसित होती हैं।
6. बाल (Hair) – नवजात शिशु के बाल रेशम की तरह मुलायम होते हैं। पीठ और कन्धों पर भी रेशम की तरह मुलायम बाल होते हैं, जो जन्म से कुछ ही सप्ताह बाद झड़ जाते हैं।
7. हड्डियाँ (Bones) – शिशु की हड्डियाँ बहुत लचीली, कोमल और कार्टिलेज की बनी हुई होती हैं।
(द) शरीरशास्त्रीय क्रियाएँ (Physiological Functions) – बालकों की अपेक्षा नवजात शिशुओं की शरीरशास्त्रीय क्रियाएँ भिन्न होती हैं-
1. हृदय की धड़कन (Heart Beats)- वयस्क व्यक्तियों की अपेक्षा नवजात शिशु के हृदय की धड़कनें अधिक होती हैं, क्योंकि नवजात शिशु का हृदय आकार में छोटा होता है। एक अध्ययन (H. J. Grossman, N. H. Greenberg, 1957) के अनुसार सामान्य रक्तचाप (Blood Pressure) बनाये रखने के लिए आवश्यक है कि हृदय की धड़कनें अपेक्षाकृत अधिक गति से हों।
2. श्वसन क्रिया (Respiration) – नवजात शिशु जन्म होते ही रोना प्रारम्भ करता है। रोने से उसके फेफड़े फूल जाते हैं और श्वसन-क्रिया आरम्भ हो जाती है (C. A. Smith, 1963)। स्पष्ट है कि शिशु का जन्म होते ही शिशु का रोना उसके जीने के लिए अति आवश्यक है। जन्म के समय प्रारम्भ में श्वसन -गति 40 से 50 Breathing Movement प्रति मिनट होती है। परन्तु एक सप्ताह के अन्त तक यह गति 35 गतियाँ प्रति मिनट रह जाती हैं। प्रौढ़ व्यक्तियों में श्वसन की गति 18 गतियाँ प्रति मिनट होती हैं। जब शिशु जागता है तब श्वसन की गति कम 32-3 गतियाँ प्रति मिनट और जब वह रोता है, उस समय श्वसत गति 133-3 गतियाँ प्रति मिनट पहुँच जाती हैं।
3. तापक्रम (Temperature)- नवजात शिशुओं में, चाहे वह अधिक स्वस्थ क्यों न हों, उनके शरीर का तापमान वयस्क व्यक्तियों की अपेक्षा कुछ अधिक ही नहीं होता है बल्कि यह परिवर्तनशील (Variable) भी अधिक होता है। नवजात शिशुओं का तापमान 98-2 से 99° फारेनहाइट तक होता है।
4. चूसने सम्बन्धी सहजक्रिया गतियाँ (Reflex Sucking Movements)- जब नवजात शिशु के होंठ छुए अथवा जब वह भूखा होता है, उस समय उसमें चूसने सम्बन्धी सहज क्रियात्मक गतियाँ होती हैं। एक अध्ययन (B. Spock, जाते हैं 1964) में यह देखा गया है कि जो शिशु स्तनपान करते हैं, उनमें Sucking Movements अन्य बच्चों की अपेक्षा अधिक मात्रा में पाए जाते हैं।
5. नींद (Sleep) – नवजात शिशु पन्द्रह से बीस घण्टे प्रतिदिन सोता है, परन्तु वह इतने घण्टे लगातार नहीं सोता है। वह लगभग दो-दो घण्टे की नींद लेता है। जैसे-जैसे उसकी आयु बढ़ती जाती है, उसकी नींद का अन्तराल बढ़ता जाता है तथा उसकी नींद भी दो-दो घण्टे के बजाय अधिक समय की होती है। भूख होने पर, पीड़ा होने पर या आन्तरिक कष्ट होने पर उसकी नींद खुल जाती है।
6. नाड़ी की गति (Pulse Rate)- जन्म के समय शिशु की नाड़ी की गति 130 से 150 Beats प्रति मिनट होती परन्तु कुछ ही दिनों बाद यह केवल 177 रह जाती है। वयस्क व्यक्तियों में नाड़ी की गति केवल 70 Beats प्रति मिनट होती है। सोते समय शिशुओं की नाड़ी की गति 123.5 Beats प्रति मिनट तथा रोते समय 2185 Beats प्रति मिनट होती है।
7. भूख के आकुंचन (Hunger Rhythms)- जन्म के समय बालक में भूख आकुंचन नहीं होते हैं। यह आकुंचन दो या तीन सप्ताह की आयु के बाद विकसित होते हैं। एक अध्ययन (Pratt, 1954) के अनुसार, “नवजात शिशुओं का पेट 4 से 5 घण्टे में खाली हो जाता है। उनकी छोटी आतें 7 से 8 घण्टे में खाली हो जाती हैं तथा बड़ी आँतें 2 से 14 घण्टे में खाली होती हैं। शिशु मल-मूत्र त्याग अक्सर Feeding के 1/2 घण्टे बाद करता है। चौबीस घण्टे में शिशु लगभग 5 बार मल-मूत्र का त्याग करता है।” यह देखा गया है कि शिशु जिस समय मल-मूत्र का त्याग करता है, उस समय वह चुप रहता है (Halyerson, 1940)।
2. नवजात शिशु की क्रियाएँ (Activities of the Infant)
नवजात शिशु की क्रियाएँ अनायास होती हैं। अधिकांश व्यर्थपूर्ण प्रकृति की होती हैं। नवजात शिशुओं की क्रियाओं को मुख्यतः दो भागों में बाँट सकते हैं-
(अ) सामान्य क्रियाएँ (Mass Activities)
यह शिशु की वे क्रियाएँ हैं, जिनमें उसका सम्पूर्ण शरीर सम्बन्धित रहता है। यदि बालक के शरीर को कहीं से स्पर्श किया जाय तो बालक सम्पूर्ण शरीर के द्वारा अनुक्रिया करता है। यह भी देखा गया है कि बालक के दाहिने हाथ को यदि स्पर्श किया जाय तो बालके अपने बाएँ हाथ से भी समान अनुक्रिया करता है। केसेन (W. Kessen, et al., 1961) के अनुसार, “पहले पाँच दिन तक बालक की यह सामान्य अनुक्रियाओं की मात्रा बढ़ती ही जाती है।” प्रातःकाल शिशुओं की यह सामान्य अनुक्रियाएँ अधिक मात्रा में होती हैं तथा अन्य समय में कम (Irwin, 1930)। बालक में अधिकतर गतियाँ उसके चेहरे और हाथ-पैरों में होती हैं। शरीर के अन्य सभी अंगों में कम। गर्भकालीन अवस्था में जिन शिशुओं में क्रियाशीलता अधिक होती है, जन्म के बाद इन शिशुओं में क्रियाशीलता अधिक रहती है (Sontag, 1946)। यह भी देखा गया है कि भूख में, पीड़ा में, आन्तरिक कष्ट में या शिशु को जब कोई शारीरिक असुविधा होती है, तब उसकी यह Mass Activities बढ़ जाती है। अधिक प्रकाश या अधिक अंधेरे स्थान में यदि शिशु को ले जाया जाये, तो भी उसकी ‘मास एक्टीविटीज’ बढ़ जाती है। वातावरण के तापक्रम का प्रभाव भी बालक की इन क्रियाओं पर पड़ता है; परन्तु तापक्रम में थोड़ा परिवर्तन शिशु की इन क्रियाओं को प्रभावित नहीं करता है।
विशिष्ट क्रियाएँ (Specific Activities) ये क्रियाएँ दो प्रकार की होती हैं-
1. सहज- क्रियाएँ (Reflexes)- यह वह क्रियाएँ हैं, जो शिशु विशिष्ट संवेदनात्मक उद्दीपकों के प्रति एक निश्चित ढंग से करता है। यदि संवेदनात्मक उद्दीपक बार-बार उपस्थित किया जाय, तो भी ये क्रियाएँ परिवर्तित नहीं होती हैं। कुछ प्रमुख सहज-क्रियाएँ, जो शिशु में पाई जाती है, वह इस प्रकार से हैं–
(i) आँख की पुतली से सम्बन्धित सहज क्रियाएँ ( Pupilary Reflexes ) – यह आँख की पुतली घटने-बढ़ने की सहज-क्रिया है। इसके द्वारा बालक आँख की सुरक्षा करता है। उसे अंधेरे से उजाले में ले जायें या उजाले से अंधेरे में ले जायें, तो वह इस सहज-क्रिया द्वारा अनुकूलन करते हैं। जन्म के लगभग दो घण्टे में ही यह सहज-क्रिया दृष्टिगोचर होने लग जाती है।
(ii) पाँव के तलुवे से सम्बन्धित सहन क्रियाएँ (Babinski Reflexcs)- यह वह सहज-क्रिया है, जिसमें यदि बालक के पाँव के तलवे को स्पर्श किया जाय, तो वह पैर की उँगलियों को पंखे के समान फैला देता है (Fanning of Toes)। यह सहज-क्रिया नवजात शिशुओं में ही देखी गई है। लगभग छह महीने की आयु तक यह समाप्त हो जाती है।
(iii) माँसपेशियों से सम्बन्धित सहज-क्रियाएँ (Tendon Reflexes)- यह वह सहज-क्रिया है, जिसमें यदि बालक की माँसपेशी को स्पर्श किया जाय, तो माँसपेशी में आकुंचन होता हुआ दिखाई देता है। (iv) चूसण सहज-क्रियाएँ (Sucking Reflexes) शिशु के गालों या ओठों को यदि स्पर्श किया जाय, तो शिशु ओठों से चूसने की अनुक्रिया प्रदर्शित करता है।
(v) अन्य सहज-क्रियाएँ (Other Reflexes) – छींकने, श्वाँस लेने, हृदय धड़कन सम्बन्धी, उदर-सम्बन्धी आदि सहज-क्रियाएँ भी नवजात शिशुओं में पाई जाती हैं।
(2) सामान्यीकृत अनुक्रियाएँ (Generalized Responses) – यह वह अनुक्रियाएँ हैं, जिनमें शरीर के एक से अधिक भाग सम्मिलित होते हैं। जन्म के दो-तीन दिन तक शिशु की आँखें कभी खुल जाती हैं तो कभी बन्द हो जाती हैं। उसकी दोनों आँखों की क्रियाएँ समन्वयीकृत नहीं होती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वह एक आँख से एक ओर और दूसरी आँख से दूसरी ओर देख रहा है। शिशु पहले दिन प्रकाश की ओर बहुत थोड़ी देर देख सकता है। कई बार जन्म के समय शिशुओं की आँखों से आँसू निकलते भी देखे गये हैं। इसी प्रकार जन्म के लगभग 20 मिनट बाद शिशुओं को अपना अँगूठा चूसते भी देखा गया है। जन्म के समय शिशु कभी अपना मुँह खोल लेता है, तो कभी बन्द कर लेता है जन्म के कुछ दिनों तक बालक अपने सिर को बहुत थोड़ा घुमा सकता है। जन्म के कुछ दिनों बाद बालक को यदि बैठाया जाय, तो बैठाने पर वह आगे की ओर गिरता है। वह बिना किसी उद्देश्य के हाथ की मुट्ठी खोलता है और कभी बन्द कर लेता है। उसके हाथ और पैरों में गतियाँ जन्म के तुरन्त बाद प्रारम्भ हो जाती हैं।
3. नवजात शिशु का क्रन्दन (Crying of the Newborn)
नवजात शिशु का क्रन्दन जन्म के समय या जन्म के कुछ ही देर में प्रारम्भ हो जाता है। यही उसका प्रथम स्वर और भाषा होती है। जन्म के कुछ समय तक शिशु की यह भाषा पूर्णतः एक प्रकार की सहज क्रिया होती है। जन्म के समय बालक के क्रन्दन का बहुत बड़ा लाभ है। उसके क्रन्दन से उसके फेफड़े फूल जाते हैं और उसको श्वसन क्रिया आरम्भ हो जाती है। श्वसन क्रिया प्रारम्भ होने से उसके रक्त को ऑक्सीजन मिलने लग जाती है। जन्म के समय वह पहला अवसर होता है, जब बालक अपनी आवाज प्रथम बार सुनता है। जन्म के 24 घण्टे बाद ही शिशु के क्रन्दन के अर्थ बदल जाते हैं। नवजात शिशुओं का क्रन्दन कुछ विशेष अक्षरों से प्रारम्भ होता है। रोते समय शिशु हाथ-पैर चलाता है और कभी हाथ की मुट्ठी खोलता है तो कभी बन्द करता है।
एक अध्ययन (Aldrich, 1945) के अनुसार, शिशुओं के क्रन्दन के कई कारण होते हैं। यह कारण या तो शारीरिक होते हैं या वातावरण सम्बन्धी; परन्तु अक्सर इनके रोने के कारण अज्ञात होते हैं। एल्डरिच (1945) ने बच्चों के रोने के निम्न कारण बताये हैं-शोरगुल, प्रकाश, उल्टी होना, अधिक गर्मी, स्नान कराने पर रोना, भूख, अज्ञात कारण आदि। एक अध्ययन (M.E. Frics, 1941) में यह देखा गया कि सिजेरियन शिशु अन्य शिशुओं की अपेक्षा बहुत कम रोते हैं। एक अध्ययन (S. Karelitz, et al., 1964) में यह देखा गया कि गर्भकालीन अवस्था में जिन शिशुओं की माताएं अधिक औषधियों का उपयोग करती हैं या जन्म के समय जिन शिशुओं को कोई नुकसान हो जाता है, वे शिशु अन्य शिशुओं की अपेक्षा अधिक क्रन्दन करते हैं। ग्राहम (F. K. Graham, et al., 1962, 1963) ने अपने अध्ययनों में यह देखा कि, जिन शिशुओं का जन्म सामान्य रूप से होता है, वे जन्म के समय अन्य बच्चों की अपेक्षा बहुत तेज रोते हैं।
4. नवजात शिशु की संवेदनशीलता (Sensitivities of the Neonate)
नवजात शिशु की संवेदनशीलता का अध्ययन कठिन है; क्योंकि इस प्रकार के अध्ययन अन्तर्दर्शन विधि से किये जाते हैं। अतः यह भी बताना कठिन है कि कौन-सी संवेदनाएँ शिशु में पाई जाती हैं और कितनी मात्रा में पाई जाती हैं। गेसेल (Gesell, 1949) के अनुसार, “जो बच्चे गर्भकालीन अवस्था के पूर्ण होने से पहले ही जन्म ले लेते हैं, वे भी तीव्र उद्दीपकों के प्रति उसी प्रकार अनुक्रिया करते हैं, जिस प्रकार अन्य बालक शिशुओं में अन्य संवेदनाओं की अपेक्षा स्पर्श-संवेदना के अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं।”
i. दृष्टि (Sight) – जन्म के समय आँख का रेटिना, जिसमें दृष्टि की संवेदना के सेल्स पाये जाते हैं, पूर्ण रूप से परिपक्व नहीं होता है। जन्म के समय फोबिया में शंकु (Corics) बहुत कम स्पष्ट होते हैं। अतः कहा जा सकता है कि जन्म के समय शिशु आंशिक रूप से ‘कलर ब्लाइण्ड’ होता है। यद्यपि अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआ है कि जन्म के सातवें दिन शिशु रंगों के प्रति अनुक्रिया करते हैं। स्मिथ (Smith, 1936) का विचार है कि, “लड़कों की अपेक्षा लड़कियाँ जन्म के सात दिन से नौ दिन में रंग उद्दीपकों के प्रति अनुक्रिया अधिक करती हैं।” आँख के रेटिना में शंकुओं और दण्डों (Cones & Rods) की संख्या उतनी ही होती है जितनी कि वयस्क व्यक्तियों में हरलॉक (1968) का विचार है कि, “जन्म के प्रथम दिन शिशु बहुत पास की वस्तु को देख सकता है। पहले सप्ताह के अन्त तक वह पास की वस्तु को देख सकता है, परन्तु एक माह का शिशु कुछ दूर के उद्दीपकों को भी देख सकता है।”
ii. श्रवण (Hearing)- जन्म के समय यह ज्ञानेन्द्री अन्य ज्ञानेन्द्रियों की अपेक्षा सर्वाधिक कम विकसित होती है। जन्म के तुरन्त बाद नवजात शिशु सुनते हैं या नहीं, इस सम्बन्ध में मनोवैज्ञानिकों में एक मत नहीं है। कुछ मनोवैज्ञानिकों का विचार है कि, जन्म के दस मिनट में ही बच्चा सुनने लग जाता है, परन्तु अन्य लोगों का विचार है कि, जन्म के कुछ दिन बाद तक बालक पूर्णतः बहरा (Deaf) होता है। प्रैट (K. C. Pratt, 1954) का विचार है कि, नवजात शिशु जन्म के तीसरे दिन से सातवें दिन के मध्य में ध्वनि उद्दीपकों के प्रति अनुक्रिया करने लग जाता है।” एक अन्य अध्ययन (A. S. Leventhal & L. P. Lipsitt, 1964) के अनुसार, जन्म के 118 घण्टे बाद शिशु ध्वनि स्थानीयकरण करने लग जाते हैं।
iii. स्वाद (Taste)- अन्य ज्ञानेन्द्रियों की अपेक्षा यह ज्ञानेन्द्री अत्यधिक विकसित होती है। अध्ययनों से यह देखा गया है कि शिशु मीठी उत्तेजनाओं के प्रति धनात्मक अनुक्रिया करते हैं और नमकीन, खट्टी तथा कड़वी चीजों के प्रति ऋणात्मक अनुक्रिया करते हैं। प्रैट (Pratt, 1954) का विचार है कि, स्वाद संवेदनशीलता सीमान्त के सम्बन्ध में शिशुओं में अधिक वैयक्तिक भिन्नताएँ पायी जाती हैं।
iv. गन्ध (Smell)– एक अध्ययन (L. P. Lipsitt, et al., 1963) के अनुसार, गन्ध संवेदनशीलता जन्म के समय काफी विकसित होती है या वह जन्म के कुछ ही दिनों में विकसित हो जाती है। माँ यदि अपने स्तन पर सिरके का अम्ल, अमोनिया, पैट्रोलियम, सन्तरे का तेल आदि लगाकर शिशु को स्तनपान कराये, तो शिशु स्तनपान नहीं करता है। प्रैट (Pratt, 1954) का विचार है कि इस संवेदनशीलता में भी वैयक्तिक भिन्नताएँ पाई जाती हैं।
v. त्वक संवेदनशीलता (Skin Sensitivities) – स्पर्श, दबाव, ताप और पीड़ा सम्बन्धी संवदेनशीलता बालक में जन्म के समय पाई जाती है या इसका विकास जन्म के कुछ ही समय में हो जाता है। शरीर के अन्य अंगों की अपेक्षा कुछ अंग अधिक संवेदनशील होते हैं। अन्य अंगों की अपेक्षा होंठ अधिक संवेदनशील होते हैं। ताप उद्दीपकों की अपेक्षा शीत उद्दीपकों के प्रति शिशु अधिक अनुक्रिया करता है। जन्म के प्रथम दो दिन पीड़ा-संवेदना कुछ कमजोर होती है। होंठ, हथेली और पैर के तलवे में यह संवेदना अधिक मात्रा में पाई जाती है। इसी प्रकार पलक, माथे पर और नाक की झिल्ली में यह संवेदना अधिक मात्रा में पाई जाती है।
5. नवजात शिशु के संवेग (Emotions of the Neonate) –
नवजात शिशुओं के संवेगों के सम्बन्ध में जो अध्ययन हुए हैं, वे कम हैं, परन्तु जो भी अध्ययन हुए हैं, वे विस्तृत अधिक हैं। वाटसन (Watson, 1925) के अनुसार, शिशु में जन्म के समय या जन्म के कुछ ही समय बाद तीन संवेग पाए जाते हैं। वाटसन का यह भी विचार है कि यह संवेग कुछ विशिष्ट उद्दीपकों के द्वारा शिशुओं में उत्पन्न किए जा सकते हैं। वाटसन के द्वारा बताये हुए तीन प्रमुख संवेग हैं-भय, क्रोध और प्रेम बैकविन (Bakwin, 1947) का विचार है कि, नवजात शिशुओं की संवेगात्मक अनुक्रियाएँ अत्यधिक विकसित होती हैं। उनके अनुसार, जो नवजात शिशु गर्भकालीन अवस्था को पूर्ण किए बिना उत्पन्न हो जाते हैं, उनमें भी समान प्रकार की संवेगात्मक अनुक्रियाएँ पाई जाती हैं।
हरलॉक (1978) का विचार है कि, “यह आशा करना अतार्किक होगा कि जन्म के समय संवेगात्मक अवस्थाएँ पूर्णतः परिभाषित होती हैं, वैसी ही जैसे विशिष्ट संवेगों की।” (It would be illogical to expect that emotional states at birth would be so well-defined that they could as readily identified as specific emotions.) 377 आधुनिक मनोवैज्ञानिकों का विचार है कि नवजात शिशुओं में निश्चित संवेगात्मक प्रतिमान नहीं पाए जाते हैं, बल्कि इनमें संवेगात्मक अनुक्रियाओं के नाम पर केवल दो प्रकार की अनुक्रियाएँ पाई जाती हैं। प्रथम प्रकार की अनुक्रियाएँ सुखात्मक ‘अनुक्रियाएँ (Pleasurable Responses) हैं। ये अनुक्रियाएँ बालक में स्तनपान करते समय दिखाई देती हैं या बालक को अच्छी तरह गोद लेते समय दूसरे प्रकार की संवेगात्मक अनुक्रियाएँ असुखात्मक अनुक्रियाएँ (Unpleasant Reponses) हैं, यह अनुक्रियाएँ शिशु उस समय करता है, जब अचानक उसे गलत तरीके से उठा लिया जाय अथवा इसी प्रकार उसे लिटाया जाय या तेज शोरगुल हो। कुछ मनोवैज्ञानिकों (K. M. Bandham, 1951; R. A. Spitz, 1949) का विचार है कि, सुखात्मक अनुक्रियाओं की अपेक्षा असुखात्मक अनुक्रियाएँ शिशु अधिक स्पष्ट ढंग से अभिव्यक्त करते हैं। जब माँ शिशु को स्तनपान कराना समय से पहले ही छुड़ा देती है तब उसे स्तनपान के स्थान पर बोतलपान से प्राकृतिक सन्तुष्टि न मिलने के कारण बालक माँ के स्नेह और प्रेम का भी भूखा रह जाता है। इस प्रकार के बालकों में प्रेम संवेग का विकास सामान्य रूप से नहीं होता है। आधुनिक युग में अनेक स्त्रियाँ अपने नवजात शिशुओं को इसलिए स्तनपान नहीं कराती हैं कि उनके स्तनों की आकृति बिगड़ जाएगी, परन्तु यह सत्य नहीं, भ्रामक है। इस दिशा में हुए अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआ है कि जो माताएँ अपने शिशुओं को जितना ही अधिक स्तनपान कराती हैं, उनके स्तनपान कराने से उनके स्तनों और उनकी योनि (भग) का आकार सुदृढ़ होता है।
जब माताएँ अपने रोते शिशुओं को व्यस्तता के कारण परिवार के अन्य लोगों को चुप कराने के लिए दे देती हैं या बच्चे की देखभाल करने वाली आया को चुप कराने के लिए दे देती हैं तो वह बहुधा शिशु को डरा-धमकाकर चुप कराते हैं, ऐसे में बालक में भय संवेग के अति विकसित होने की सम्भावना बढ़ जाती है।
कभी-कभी यह भी देखा गया है कि माता की व्यस्तता या अन्य किसी कारणवश नवजात शिशु का लालन-पालन सही ढंग से नहीं होता है। नवजात शिशु यदि रो रहा है तो रोते-रोते स्वयं रो-रो कर चुप हो जाता है। इस प्रकार की अवस्थाएँ बालक में भय, असुरक्षा और नैराश्य की भावनाएँ उत्पन्न करती हैं।
6. नवजात शिशुओं में अधिगम की क्षमता (Capacity for Learning in Infants)
कोई भी प्राणी किसी समस्या या क्रिया का अधिगम तब कर सकता है, जब वह उस समस्या के सम्बन्ध में जागरूक हो। किसी समस्या के अधिगम के लिए यह भी आवश्यक है कि अधिगमकर्त्ता के स्नायु इतने विकसित और परिपक्व हो कि वह समस्या का अधिगम कर सकें। नवजात शिशुओं के स्नायु और मस्तिष्क इतने परिपक्व नहीं होते हैं कि वे किसी समस्या का सरल से सरल विधि द्वारा अधिगम कर सकें। नवजात शिशुओं में जागरुकता भी नहीं के बराबर पाई है। कुछ अध्ययनों (D. P. Marquis, 1941; K. C. Pratt, 1954) के द्वारा यह स्पष्ट हुआ है कि यद्यपि नवजात शिशुओं में अनुबन्धन (Conditioning) द्वारा अधिगम बहुत कठिन है, फिर भी स्तनपान सम्बन्धी परिस्थितियों (Feeding situation) के प्रति नवजात को अधिगम कराया जा सकता है, परन्तु यह अनुबन्ध जन्म के कई दिनो बाद ही स्थापित कर सकता है।
7. नवजात शिशुओं का व्यक्तित्व (Personality of the Neonate)
नवजात शिशुओं के व्यक्तित्व में अन्तर कुछ ही दिनों में दृष्टिगोचर होने लगता है। हम सभी जानते हैं कि कुछ नवजात शिशु सोने की तरह अच्छे और कीमती भी होते हैं और कुछ माता-पिता के लिए अत्यधिक परेशानी पैदा करने वाले होते हैं। नवजात शिशुओं के व्यक्तित्व में अन्तर वंशानुक्रम और वातावरण सम्बन्धी कारकों के कारण तो होते ही हैं, साथ ही साथ व्यक्तित्व में अन्तर अपरिपक्व जन्म (Premature Birth), जन्म के समय की परिस्थितियाँ तथा स्वास्थ्य की दशाएँ आदि कारकों के कारण भी होते हैं। फ्रायड (Freud, 1936) का विचार है कि, नवजात शिशु के लिए जन्म एक दैहिक और मनोवैज्ञानिक आघात (Physiological and Psychological Shock) है। इस आघात के कारण बालक में चिन्ता उत्पन्न हो जाती है। कुछ मनोवैज्ञानिकों (H. Raju, 1949. H. A. Carruthers, 1951) का विचार है कि, इस बात का कोई प्रभाव नहीं है कि जन्म शिशु के लिए आघात है और उनमें चिन्ता उत्पन्न करता है तथा जन्म उनके व्यक्तित्व विकास को महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करता है। यह अध्ययनों द्वारा अवश्य सिद्ध हो चुका है कि जो बालक जन्म होते ही माँ से अलग कर दिये जाते हैं और माँ से दूर रखे जाते हैं, उनका विभिन्न परिस्थितियों में समायोजन उतना अच्छा नहीं होता है, जितना कि उन बच्चों का, जो माँ के साथ रहते हैं।
गर्भकालीन अवस्था में माँ की विचारधारा भी बालक के व्यक्तित्व को महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करती है। कई बार यह देखा गया है कि बच्चा जब इच्छित यौन का नहीं होता है, तो माँ अपने वर्तमान अनिच्छित बालक का अधिक अच्छी तरह लालन-पालन नहीं कर पाती है। एक अध्ययन में यह देखा गया कि, जो सिजेरियन बच्चे होते हैं, वे जन्म के बाद स्वभाव से चुप रहने वाले होते हैं, परन्तु जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में उनका समायोजन बहुत अच्छा होता है। कुछ अध्ययनों में यह भी जानने का प्रयास किया गया कि जन्म के महीने का बालक के व्यक्तित्व और व्यवहार से क्या सम्बन्ध है ? एक अध्ययन (Pintner & Forlano, 1934) में यह देखा गया कि, अधिकांश प्रतिभाशाली और प्रसिद्ध व्यक्ति अक्टूबर माह में जन्मे हैं तथा बसन्त में ऐसे बहुत कम व्यक्तियों का जन्म हुआ है। एक अन्य अध्ययन (Pile, 1951; Sumner, 1953) में यह देखा गया कि, जो बालक बसन्त, गर्मी या शरद् ऋतु में पैदा होते हैं, वे जाड़े में पैदा होने वाले बच्चों की अपेक्षा अधिक सामाजिक होते हैं। एक अध्ययन में बोलैण्ड (Boland, 1951) ने देखा कि, जो शिशु उपकरणों की सहायता से उत्पन्न होते हैं, उनमें अधिक संवेदनशीलता पाई जाती है। वे बेचैनी, भाषा-सम्बन्धी दोष तथा ध्यान एकाग्र करने में कठिनाई अनुभव करने वाले होते हैं।
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