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निबन्धात्मक प्रश्न (Essay Type Questions)
निबन्धात्मक परीक्षण प्राचीन काल से ही अत्यन्त प्रचलित है। इतिहास के अवलोकन से ज्ञात होता है कि 2000 बी.सी. पूर्व भी चीन में निबन्धात्मक परीक्षणों का प्रचलन थावर्तमान शताब्दी के प्रारम्भ होने से पहले तक ये लिखित परीक्षाएँ लेने का एकमात्र तरीका था इसलिए इस प्रकार के परीक्षणों को परम्परागत परीक्षण भी कहा जाता है। निबन्धात्मक परीक्षण अत्यन्त सुविधाजनक होते हैं। प्रश्न सरलता एवं शीघ्रता से तैयार हो जाते हैंनिबन्धात्मक परीक्षण में विद्यार्थियों से एक विस्तृत उत्तर प्रस्तुत करने की अपेक्षा की जाती है तथा किसी मानक उत्तर से तुलना किए बिना ही परीक्षक उत्तरों का अंकन कर देता है। निबन्धात्मक परीक्षण का अंकन करते समय परीक्षक को सरलता रहती है कि प्राप्तांकों के सामान्य स्तर तथा वितरण की प्रकृति को नियन्त्रित कर सके। किसी उत्तर पर परीक्षक कितने अंक देता है, यह कुछ हद तक उसका व्यक्तिगत निर्णय होता हैनिबन्धात्मक परीक्षण का कठिनाई स्तर कुछ भी क्यों न हो, परीक्षक अपने प्राप्तांकों को इस तरह से व्यवस्थित कर सकता है कि उसके द्वारा पूर्व निर्धारित प्रतिशत के विद्यार्थी न्यूनतम उत्तीर्ण अंक प्राप्त कर सकें।
निबन्धात्मक परीक्षणों के पक्ष में जो तर्क दिया जाता है उसमें सबसे प्रमुख तर्क यह है कि निबन्धात्मक परीक्षण विद्यार्थियों की शैक्षिक उपलब्धि का सर्वोत्तम ढंग से मापन करता है। विद्यार्थियों को पहले से तैयार उत्तर नहीं देना होता है बल्कि उन्हें उत्तर देने के लिए अपने विषय का अच्छा ज्ञान व बोध होना चाहिए, जिससे वे विभिन्न तथ्यों तथा सिद्धान्तों को एक-दूसरे से सम्बन्धित कर सकें ताकि अपने विचारों की लिखित अभिव्यक्ति करने में सफल हो सकें। इसके अतिरिक्त निबन्धात्मक परीक्षणों पर विद्यार्थियों के द्वारा दिए गए उत्तर उनकी विचार प्रक्रियाओं की प्रकृति तथा गुणवत्ता का ज्ञान भी प्रदान करते हैं। आलोचनात्मक चिन्तन, सृजनशीलता, अभिव्यक्ति क्षमता, ज्ञान का तार्किक संश्लेषण, मूल्यांकन क्षमता आदि अनेक योग्यताओं का मापन निबन्धात्मक परीक्षण के द्वारा किया जाना ही सम्भव हैनिबन्धात्मक परीक्षण वह परीक्षण होता है जिसमें –
- प्रश्नों की संख्या अन्य परीक्षणों की तुलना में कम होती है।
- परीक्षार्थी को स्वेच्छा से प्रश्नों से सम्बन्धित तथ्यों को संगठित व प्रकाशित करने की स्वतन्त्रता होती है।
- सामान्यतः यह परीक्षण तथ्यों के पुनः स्मरण पर आधारित होते हैं।
- इनके द्वारा विभिन्न कौशलों एवं मानसिक शक्तियों का मापन भी सम्भव है।
निबन्धात्मक प्रश्नों की विशेषताएँ (Characteristics of Essay Type Questions)
इन परीक्षाओं की विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
1) व्यावहारिकता- किसी भी अच्छी परीक्षा में तीन गुणों का होना जरूरी है – वैधता, विश्वसनीयता तथा व्यावहारिकता। निबन्धात्मक परीक्षाओं में इन गुणों में से केवल तीसरा गुण ही पाया जाता है। निबन्धात्मक परीक्षा की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसके प्रश्नों की रचना आसानी से हो जाती है। इस प्रकार की परीक्षाओं की व्यवस्था करना भी आसान होता है। एक समय में अनेक परीक्षार्थियों की परीक्षा कराई जा सकती है। उत्तर-पुस्तिकाओं का मूल्यांकन सरलता से किया जा सकता है।
2) ज्ञान की विस्तृत परख- निबन्धात्मक परीक्षाओं की दूसरी विशेषता यह है कि इनकी सहायता से बच्चों के अर्जित ज्ञान की परख आसानी से की जाती है। इन परीक्षाओं में जो प्रश्न पूछे जाते हैं वे इस प्रकार के होते हैं कि उनका उत्तर वे ही छात्र दे सकेंगे जो शिक्षण के परिणामस्वरूप होने वाले परिवर्तनों से ज्ञान को अधिक संचय करते हैं।
3) मानसिक शक्तियों का विकास- निबन्धात्मक प्रश्नों का उत्तर देने के लिए सबसे पहले स्मृति की आवश्यकता होती है। यदि छात्र सीखे गए तथ्यों को स्मरण नहीं रख सकते तथा आवश्यकता होने पर पुनः स्मरण नहीं कर सकते तो वे इस प्रकार की परीक्षाओं में सफल नहीं हो सकते। तत्पश्चात इस प्रकार के प्रश्नों के उत्तर निबन्ध के रूप में देने होते हैं। निबन्ध लिखने में विचारों तथा तर्कशक्ति की आवश्यकता होती है। ऐसी परीक्षाएं देने के लिए छात्र जब अपने आपको तैयार करते हैं तो उनकी इन मानसिक शक्तियों का विकास होता है।
4) विस्तृत पाठ्यचर्या पर आधारित- निबन्धात्मक परीक्षाओं में पूछे गए प्रश्न सम्पूर्ण पाठ्यचर्या से सम्बन्धित होते हैं। यह प्रयत्न किया जाता है कि परीक्षा पत्र में पाठ्यचर्या का कोई महत्त्वपूर्ण भाग ना छूटे। इस परीक्षा के द्वारा किसी भी विषय के सभी अध्यायों के सम्बन्धों में छात्रों के ज्ञान तथा विकसित मानसिक योग्यता के सम्बन्ध में निर्णय लिया जा सकता है।
5) अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता- इन परीक्षाओं के द्वारा छात्रों को प्रश्नों के लिखित उत्तर देने होते हैं। उत्तर लिखते समय वे अपनी कल्पना, चिन्तन, तर्क आदि शक्तियों के आधार पर अपने विचारों को स्वतन्त्र रूप से अभिव्यक्त करते हैं। वे अपनी भाषा-शैली में प्रश्नों के उत्तर देते हैं। अभिव्यक्ति की इस स्वतन्त्रता के कारण बच्चों की अपनी रुचि, रूझान तथा योग्यताओं का पता चल जाता है।
6) ज्ञान तथ्यों का अन्य परिस्थिति में प्रयोग- छात्रों को पाठ्यचर्या सम्बन्धी अनुभवों को प्रदान करने का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य मात्र यह नहीं होता कि छात्र प्राप्त तथ्यों को रटें बल्कि वे उस प्राप्त ज्ञान को वांछित परिस्थितियों में प्रयोग करना भी सीखें। वस्तुनिष्ठ परीक्षाएं इस उद्देश्य की प्राप्ति में किसी प्रकार से सहायक नहीं होती।
7) निर्माण में सरलता- निबन्धात्मक परीक्षा में प्रश्न-पत्रों का निर्माण कोई कठिन कार्य नहीं है। इसके लिए किसी पूर्व प्रशिक्षण या विशेष कौशल की आवश्यकता नहीं होती। प्रत्येक शिक्षक जिसे अपने विषय का ज्ञान है वह इस प्रकार के प्रश्नपत्रों का निर्माण करता है।
8) लेखन शक्ति का विकास- निबन्धात्मक परीक्षाओं के अन्तर्गत प्रश्नों का उत्तर देने में छात्रों की लेखन शक्ति का विकास होता है तथा लेखन में क्रमबद्धता, शुद्धता, प्रवाहपूर्णता, मौलिकता, स्पष्टता तथा तारतम्यता कितनी है। वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं से ऐसी कोई जानकारी नहीं मिलती तथा ना ही लेखन क्षमता का विकास होता है।
9) समय, श्रम तथा धन की बचत- वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं का निर्माण कठिन होता है तथा इसके लिए प्रश्न निर्माताओं को विशेष प्रशिक्षण तथा परिश्रम की आवश्यकता होती है। इसके अलावा उनके निर्माण तथा मूल्याकंन में भी अधिक व्यंय होता है। अतः निबन्धात्मक परीक्षा का निर्माण सरल है तथा मूल्याकंन में समय, धन, एवं श्रम की बचत होती है।
निबन्धात्मक प्रश्नों के गुण (Merits of Essay Type Questions)
निबन्धात्मक परीक्षा के लाभ इस प्रकार हैं-
1) प्रश्न-पत्र निर्माण में सरलता- इस प्रकार प्रश्न-पत्र निर्माण में किसी विशेष कौशल की आवश्यकता नहीं होती है। इसमें प्रश्नों की संख्या कम होती है। इस कारण इसके निर्माण में समय और श्रम का अधिक व्यय नहीं होता।
2) विशिष्ट मानसिक योग्यता की जाँच सम्भव- इस परीक्षण में छात्रों को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता होती है। इस कारण इसके माध्यम से विशिष्ट मानसिक शक्तियों, जैसे आलोचनात्मक, तर्क अभिव्यंजना आदि का मापन सम्भव है।
3) भाषा नियन्त्रण- भावों को स्पष्ट करने हेतु प्रयुक्त भाषा पर परीक्षार्थी का कितना नियन्त्रण है। यह इस परीक्षण द्वारा नापा जा सकता है।
4) भावों का संगठन- तथ्यों एवं सूचनाओं को दिशा प्रदान करने की क्षमता एवं उन्हें उचित प्रकार से संगठित कर सकने का अवसर इस परीक्षण में मिलता है।
5) मौलिकता का परीक्षण- छात्रों को अपने विचारों को मौलिक रूप से देने का इस परीक्षण में पर्याप्त अवसर मिलता है जबकि किसी अन्य परीक्षण में यह सम्भव नहीं होता है।
निबन्धात्मक प्रश्नों के दोष (Demerits of Essay Type Questions)
निबन्धात्मक परीक्षा के दोष निम्नलिखित है-
1) रटने पर बल- निबन्धात्मक परीक्षा में सम्पूर्ण पाठ्यक्रम में से कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्न पूछे जाते हैं। इसलिए छात्र सम्पूर्ण पाठ्यक्रम तैयार ना करके कुछ सम्भावित प्रश्न तैयार करते हैं। छात्र उन प्रश्नों को एक प्रकार से रटकर याद करते हैं। इस प्रकार यदि वही प्रश्न परीक्षा में आते हैं तो छात्र उत्तीर्ण हो जाते हैं अन्यथा अनुत्तीर्ण हो जाते हैं।
2) पुस्तकीय ज्ञान पर सीमित- ये परीक्षाएं केवल इस बात पर बल देती है कि छात्रों ने पुस्तकीय ज्ञान किस सीमा तक ग्रहण किया है। इन परीक्षाओं से उनकी संवेदनाओं, भावनाओं तथा अन्य गुणों व कौशलों की जाँच नहीं हो पाती और यह भी पता नहीं लगता कि पुस्तक में दिए गए ज्ञान को प्रयोग करने की क्षमता बालक में कितनी है।
3) उद्द्दश्यों में अस्पष्टता- मूल्यांकन तथा उद्देश्यों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। मूल्याकंन का उद्देश्य शिक्षण उद्देश्यों की प्राप्ति के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करना होता है। परीक्षा निर्माण से पहले परीक्षक को यह ज्ञात अवश्य होना चाहिए कि उसके किन उद्देश्यों की प्राप्ति के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करनी है परन्तु निबन्धात्मक परीक्षाओं में परीक्षक सम्पूर्ण पाठ्यचर्या में अधिक से अधिक प्रश्नों की रचना करना ही परीक्षा का उद्देश्य मानते हैं। इस प्रकार वास्तविक उद्देयों का मूल्यांकन नहीं हो पाता।
4) समय तथा धन का अपव्यय- निबन्धात्मक परीक्षाओं में प्रश्न-पत्र के निर्माण, उनके छपने, उत्तर-पुस्तिकाओं की व्यवस्था तथा उनके मूल्यांकन हेतु बहुत खर्च करना पड़ता है। इनके संचालन में प्रायः एक महीना लगता है तथा उत्तर जाँचने में भी समय लगता है।
5) उचित मूल्यांकन कठिन- निबन्धात्मक परीक्षाओं में मूल्यांकन के अन्तर्गत अभी तक ऐसा मापदण्ड नहीं बना है जिसके आधार पर बालकों की प्रगति की उचित जाँच की जा सके। कभी-कभी बालक एक अथवा दो अंको की कमी से अनुत्तीर्ण घोषित कर दिए जाते हैं या फिर उचित श्रेणी प्राप्त करने में असमर्थ रहते हैं। इसके अलावा परीक्षकों की आत्मनिष्ठा उनकी मानसिकता परीक्षार्थियों के उचित मूल्याकंन के मार्ग में बाधक होती है।
6) साधन नहीं, साध्य- परीक्षा छात्र की यथार्थ स्थिति के मापन का एक साधन मात्र है। इस स्थिति का आंकलन करने पर उसके भावी कार्यक्रम के सम्बन्ध में कोई निर्णय लिया जा सकता है। शिक्षा के प्रमुख लक्ष्य सर्वांगीण विकास की प्राप्ति में छात्र की स्थिति के सम्बन्ध में निरन्तर प्रमाण प्रस्तुत करते हुए परीक्षा को एक साधन के रूप में प्रयुक्त होना चाहिए लेकिन आज के समय में परीक्षा साधन ना होकर साध्य मान ली गई है।
7) भाषा तथा लेखन गति का प्रभाव- निबन्धात्मक परीक्षाओं में भाषा शैली और लेखन गति का प्रभाव अधिक परिलक्षित होता है जिन छात्रों का भाषा पर अधिकार होता है वे अपने विचारों को प्रभावपूर्ण शैली में अभिव्यक्त कर सकते हैं इसके साथ ही जिनके लेखन की गति तीव्र होती है पाठ्य-वस्तु का अधिक ज्ञान न रखने वाले भी सफल हो जाते तथा भाषण-शैली और लेखन की गति के अभाव में अच्छे अंक प्राप्त करने में कुछ छात्र असफल होते हैं।
8) उद्दीपन का अभाव- इन परीक्षाओं में छात्रों को स्थाई रूप से ज्ञान प्राप्त करने के लिए उद्दीपन नहीं मिल पाता। इसका प्रमुख कारण है कि छात्रों को ऐसी विषय-वस्तु को स्मरण करना पड़ता है जिनका उनके वास्तविक जीवन से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है। अतः छात्र परीक्षा उत्तीर्ण करना ही अपना उद्देश्य मान लेते हैं।
9) प्रयोग करने की क्षमता अविकसित- इन परीक्षाओं में छात्र अपनी विभिन्न मानसिक शक्तियों के अभाव में अपने ज्ञान का प्रयोग करने में असमर्थ रहते हैं। अतः यह देखने में आता है कि विवेचनात्मक, विश्लेषणात्मक तथा संश्लेषणात्मक प्रश्नों के पूछे जाने पर छात्रों का प्रस्तुतीकरण सन्तोषजनक नहीं होता। ये केवल रटे हुए ज्ञान को प्रस्तुत करते हैं।
10) परीक्षाएं वैध नहीं- निबन्धात्मक परीक्षाओं से केवल ज्ञान में होने वाले परिवर्तन की जाँच होती है और ज्ञान के अलावा स्मरण शक्ति अथवा रटने की शक्ति की जाँच होती है। इन परीक्षाओं से बच्चों के पूर्ण व्यक्तित्व की जाँच नहीं होती। इसलिए ये परीक्षाएं वैध नहीं होती। इन परीक्षाओं को वैध बनाने के लिए उसे व्यापक तथा विभेदकारी बनाना होता है। इन परीक्षाओं में किसी विषय के समस्त पाठ्यचर्या पर दस से अधिक प्रश्न पूछे जाते हैं। इन सभी में से पाँच अथवा सात प्रश्नों के उत्तर देने होते हैं। इन प्रश्नों के द्वारा पाठ्यक्रम का सीमित प्रतिनिधित्व होता है। यदि इन प्रश्नों में से पाँच-सात प्रश्न बच्चों के द्वारा तैयार किए जाते हैं तो वे सफल हो जाते हैं अथवा नहीं। इस प्रकार ये परीक्षाएं अवसर पर निर्भर करती हैं।
11) विश्वसनीय परीक्षाएं नहीं- इन परीक्षाओं के परिणाम सदैव समान नहीं होते। यदि किसी समूह को एक प्रश्न-पत्र दिया गया तो उसके परिणाम में अन्तर मिलेगा। अतः यह प्रक्रिया रटने की उपयोगिता पर बल देती है जिससे छात्र अच्छे अंक प्राप्त कर लेते हैं। निबन्धात्मक प्रश्नों के अर्थ समान नहीं होते। एक प्रश्न के अनेक अर्थ को विद्यार्थी प्रस्तुत करता है। परीक्षकों के अनुसार भी एक प्रश्न के अनेक अर्थ होते हैं। अतः ऐसी स्थिति में भिन्नता का होना आवश्यक है। उत्तर की अनिश्चितता इनका दूसरा बड़ा अवगुण होता है। यदि किसी निबन्धात्मक प्रश्न के उत्तर को दो परीक्षकों से जाँच करवाई जाए तो उसके परिणाम भिन्न होंगे।
12) अनैतिकता को प्रोत्साहन-इन परीक्षाओं के प्रश्न-पत्र एक विशेष शैली में बनाए जाते हैं। अध्यापक और शिक्षार्थी दोनों पिछले वर्षों के प्रश्न-पत्रों के आधार पर पूछे गए प्रश्नों का प्रारूप देखकर तैयार करते हैं। कुछ अध्यापक परीक्षा उपयोगी प्रश्न बताकर अपने अनुभव का बखान करते हैं तथा परीक्षक अपने उत्तरदायित्व का सही प्रकार से निर्वाह नहीं करते हैं।
सुधार के लिए सुझाव (Suggestions for Improvements)
निबन्धात्मक परीक्षा में सुधार हेतु निम्न सुझावों को प्रस्तुत किया गया है-
- परीक्षकों को आदर्श उत्तर का प्रारूप प्रस्तुत किया जाए।
- प्रश्न अत्यन्त सीधे, स्पष्ट, निश्चित व उपयुक्त होने चाहिए।
- प्रश्न विषय के अधिक से अधिक भाग का प्रतिनिधित्व करें।
- प्रशिक्षित अध्यापक को ही प्रश्न-पत्रों के निर्माण तथा मूल्याकंन का कार्य दिया जाए।
- प्रश्नों की रचना विषय से सम्बन्धित पूर्व निर्धारित उद्देश्यों को ध्यान में रखकर की जाए।
- छात्रों को परीक्षा से पूर्व कक्षा में सुनियोजित उत्तर देने की कला में दक्ष करना चाहिए।
- प्रश्न-पत्र में अधिक परन्तु छोटे प्रश्न दिए जाएं तथा उनमें किसी भी प्रकार का विकल्प ना दिया जाए।
- परीक्षक के व्यक्तिगत पक्षपात को कम किया जाए।
- प्रश्न-पत्रों की समयावधि तथा निर्देशों में सुधार किया जाए।
- परीक्षा समय पर ली जाए तथा उसके लेने की विधि में सुधार किया जाए।
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