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निर्देशन का अर्थ एवं इसके अंग (Meaning of direction and its parts)
निर्देशन, प्रबन्ध का वह कार्य है जो संगठित कार्य को जन्म देता है। मात्र अच्छे उद्देश्यों एवं नीतियों के सृजन, कुशल, संरचना, प्रभावी नियन्त्रण व्यवस्था और विवेकपूर्ण निर्णयन प्रक्रिया के प्रदान कर देने से ही सामान्य लक्ष्यों की प्राप्ति नहीं हो सकती, जब तक कि संस्था के कर्मचारी स्वेच्छा एवं कुशलता से कार्य करने के लिए प्रेरित नहीं किए जाते। निर्देशन के पीछे प्रबन्धकों का प्रमुख उद्देश्य प्रबन्धकीय योजनाओं और निर्णयों को प्रभावी ढंग से कार्यरूप में परिणित कराना होता है। । यह प्रबनधकीय निणच्यों एवं कर्मचारियों के कार्यों के बीच की सम्बद्ध कड़ी होती है। हैमन के अनुसार, निर्देशन के अन्तर्गत वे प्रक्रियाएं एवं विधियां सम्मिलित होती हैं, जिनका उपयोग निर्देशों को देनै तथा यह सुनिश्चित करने के लिए होता है कि क्रियाएं मूल योजनाओं के अनुरूप ही सम्पन्न हो रही हैं। निर्देशन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके चारों ओर समस्त निष्पादन घूमता है। यह क्रियाओं का सार है तथा समन्वय अच्छे प्रबन्धकीय निर्देशन का एक आवश्यक उप-उत्पाद है। कुंटज और ओडोनिल के शब्दों में, निर्देशन अधीनस्थों के पथ-प्रदर्शन एवं पर्यवेक्षण का कार्य है। तथा डिमक के अनुसार, निर्देशन प्रशासन का हृदय है, जिसके अन्तर्गत क्षेत्र का निर्धारण, आदेशों एवं निर्देशों का निर्गमन तथा प्रगतिशील नेतृत्व प्रदान करना सम्मिलित किया जाता है। इस प्रकार प्रबन्धकीय एवं संचालन कार्यों को जोड़ने वाली कड़ी निर्देशन है और इसके अन्तर्गत निर्देशों का निर्गमन, अधीनस्थों का मार्गदर्शन एवं पर्यवेक्षण तथा उनका अभिप्रेरण सम्मिलित किया जाता है।
संस्था में मानवीय संघटकों का सबसे प्रमुख स्थान होता है, और प्रबन्धकों का मुख्य उत्तरदायित्व इन्हीं मानवीय संघटकों द्वारा विभिन्न कार्यों को सम्पन्न कराना होता है। अतः निर्देशन एक बहुत ही संवेदनशील कार्य है क्योंकि इसका प्रत्यक्ष सम्बन्ध मानवीय तत्वों से होता है। प्रबन्धकीय निर्णयों को प्रभावी एवं सार्थक क्रियाओं में परिवर्तित करने के लिए व्यक्तियों को अभिप्रेरित करने की आवश्यकता होती है। उन्हें ऐसे प्रोत्साहित करना पड़ता है कि वे उत्साह, रूचि एवं स्वेच्छा से कार्य करें। उनको कार्य के सही ढंग सिखाने एवं दोषूपर्ण आदतों से मुक्त कराने के लिए निरन्तर मार्गदर्शन एवं निरीक्षण की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त, उनके पथ-प्रदर्शन विवेकशक्ति के जागरण, उत्साहवर्द्धन तथा कार्यों में एकता की स्थापना के लिए कुशल एवं प्रगतिशील नेतृत्व की भी आवश्यकता होती है।
निर्देशन के कुछ विशेष लक्षणों का विवेचन अग्रलिखित हैं- प्रथम, निर्देशन कार्य संगठन के हर स्तर पर सम्पन्न होता है। हर प्रबन्धक चाहे वह संस्था का अध्यक्ष हो या किसी विभाग का निरीक्षक, यदि उसके अधीनस्थ एक भी कर्मचारी है, तो उसे निर्देशन का कार्य सम्पन्न करना होगा। दूसरे, निर्देशन वरिष्ठ अधिकारी का ही कार्य होता है। एक वरिष्ठ अधिकारी ही अपने अधीनस्थों का उत्साहवर्धन, मार्गदर्शन, निरीक्षण, विवेचन, प्रदर्शन निर्देशन, आदि कर सकता है, एक अधीनस्थ अपने अधिकारी का नहीं। तीसरे, निर्देशन भी, अन्य प्रबन्धकीय कार्यों की भांति, एक दूसरे पर निर्भर एवं परस्पर सम्बन्धित होता है। निर्देशन कार्य, प्रबन्धकीय नियोजन, संगठन, नियंत्रण एवं समन्वय को प्रभावित करता है और इन कार्यों से प्रभावित भी होता है। चौथे, निर्देशन एक परिवर्ती एवं सतत कार्य है, और प्रबन्धक को सदैव ही यह कार्य सम्पन्न करना पड़ता है। सम्भवतः इस कार्य से उसे कभी भी मुक्ति नहीं मिलती। और अन्त में निर्देशन के सभी अंग, अर्थात् अभिप्रेरण, नेतृत्व, पर्यवेक्षण एवं संदेशवाहन, एक दूसरे से गहनरूप में संबद्ध है। उदाहरण के लिए, कर्मचारियों का उत्साहवर्धन बिना प्रगतिशील नेतृत्व, उचित पथ प्रदर्शन, निकट निरीक्षण तथा प्रभावी संदेशवाहन के कभी संभव नहीं हो सकता। इसी प्रकार प्रभावी मार्गदर्शन या पर्यवेक्षण भी बिना ऊँचे मनोबल, अनुशासन, कुशल नेतृत्व या द्रुतिगामी संदेशवाहन के सम्भव नहीं है। अतः इसे एक पृथक एवं स्वतन्त्र प्रक्रिया के रूप में मानना उचित नहीं है।
निर्देशन के अंग
संक्षेप में निर्देशन के चार प्रमुख अंग है-
- अभिप्रेरण
- नेतृत्व
- पर्यवेक्षण एवं
- संदेशवाहन ।
(1) अभिप्रेरण (Motivation)- अभिप्रेरण, निर्देशन का एक प्रमुख अंग है। इसका अर्थ है कर्मचारियों को कार्य करने के लिए इस ढंग से प्रेरित करना कि उनमें स्वतः कार्य करने की इच्छा, लगन और रूचि उत्पन्न हो तथा उनके मनोबल, विश्वास और संतोष में वृद्धि हो।
(2) नेतृत्व (Leadership) – निर्देशन के लिए नेतृत्व आवश्यक होता है और जिसका अर्थ होता है कार्यरत कर्मचारियों की भावनाओं तथा कार्यों का पथ-प्रदर्शन, उनका नेतृत्व करना, उन्हें आवश्यक आदेश देना, उनका प्रतिनिधित्व करना, उनके लिए व्याख्या करना और उनकी क्रियाओं में सहयोग और सामन्जस्य स्थापित करना।
(3) पर्यवेक्षण (Supervision) – पर्यवेक्षण भी निर्देशन का एक अभिन्न अंग है और जिसका अर्थ होता है कर्मचारियों के कार्यों, कार्यस्थलों, कार्यविधियों एवं कार्यक्रमों का निरीक्षण करना, उचित परामर्श देना और प्रशिक्षण द्वारा उनमें सुधार लाना। इसके अतिरिक्त, उनमें अनुशासन एंव संदेशवाहन बनाए रखना तथा कार्य निष्पादन के लिए निरन्तर प्रयास करते रहना।
(4) संदेशवाहन (Communication) – उपर्युक्त निर्देशन कार्यों के लिए संदेशवाहन एक आवश्यक तत्व है। अतः संस्था में सूचना-प्रसारण के लिए उचित संदेशवाहन व्यवस्था का संगठन करना भी निर्देशन का एक आवश्यक अंग समझा जाता है। उच्चाधिकारियों के आदेशों, निर्देशों तथा विचारों को कर्मचारियों तक पहुंचाना और कर्मचारियों एवं विभागों की कार्य-निष्पादन की सूचनाओं, समस्याओं, शिकायतों, सुझावों और विचारों को उच्चाधिकारियों तक पहुँचाना, ही संदेशवाहन है।
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