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पाठ्यचर्या विकास के प्रेरक (Motives of Curriculum Development)
प्रारम्भ में ही प्रेरकों के विषय में जानकारियाँ दी गई हैं। अतः पाठ्यचर्या विकास में किन-किन प्रेरकों का सहयोग हो सकता है। उनकी हम निम्नलिखित प्रकार से व्याख्या करते हैं-
1) सामाजिक समस्याएँ- मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। परिस्थितियाँ समाज में कैसी भी रहें, मनुष्य को समाज में रहकर ही जीवित रहना पड़ता है तथा अपनी परिस्थितियों के साथ समायोजन करना पड़ता है। उसी प्रकार समाज है तो सामाजिक समस्याएँ भी रहती हैं। ऐसे में शिक्षा ही एक ऐसा घटक है जिसके द्वारा उन समस्याओं के समाधान प्राप्त किए जा सकते हैं। ये समस्याएँ, जीवन-यापन, बदलते मूल्य, अशिक्षा, गरीबी, बिगड़ता पर्यावरण, कुपोषण आदि हो सकती है। इन समस्याओं का हल शिक्षा के उद्देश्यों से जुड़ा है। अतः इस परिप्रेक्ष्य में यह कहना किसी भी प्रकार से गलत नहीं है कि सामाजिक समस्याएँ भी पाठ्यचर्या के विकास के लिए प्रेरक का कार्य करती हैं।
2) सामाजिक आवश्यकताएँ- युग कोई भी रहा हो, समाज की आवश्यकताएं सदैव बनी रहती हैं तथा इन आवश्यकताओं की पूर्ति का एक सरल रास्ता शिक्षा द्वारा तय किया जा सकता है। सामाजिक आवश्यकताएँ स्वास्थ्य, ज्ञान, आर्थिक विकास, व्यक्तित्व का विकास, भाषा का ज्ञान, संस्कृति व सभ्यता का संरक्षण, राष्ट्र प्रेम की भावना, आध्यात्मिक मूल्यों का विकास, सामाजिक विकास, अच्छे नागरिकों का निर्माण आदि हैं, जिनकी अपनी विशिष्टता होती है तथा एक उत्तम समाज के निर्माण के लिए यह आवश्यकता पूर्ण करने के लिए एक अच्छे पाठ्यचर्या का निर्माण आवश्यक है क्योंकि इन आवश्यकताओं को पूर्ण करने की दिशा में पाठ्यचर्या ही योगदान दे सकता है। इस प्रकार सामाजिक आवश्यकताएँ पाठ्यचर्या विकास की प्रेरक होती हैं।
3) शैक्षिक उद्देश्य व परिणाम- पाठ्यचर्या विकास हेतु शिक्षा के उद्देश्य व उसके परिणाम प्रेरक का कार्य करते हैं। शिक्षा का विस्तार करने के लिए सर्वप्रथम उसके उद्देश्यों का निर्धारण करना आवश्यक होता है। शिक्षा के परिणामों के आधार पर उसमें आवश्यक व उचित सुधार किए जाते हैं जिससे कि शिक्षा का स्तर उठे तथा ज्ञान का विस्तार हो सके। शिक्षा के परिणामों का विश्लेषण करके पाठ्यचर्या विकास में आवश्यक पाठ्यवस्तु जोड़ी या हटायी जाती है। शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए पाठ्यचर्या में उपयुक्त विषयों तथा पाठ्यवस्तु का चयन करके उसे स्थान दिया जाता है। अतः यह कहना सार्थक होता है कि शिक्षा के उद्देश्य व परिणाम पाठ्यचर्या के विकास हेतु प्रेरक होते हैं।
4) सामाजिक परिवर्तन- सामाजिक गतिशीलता, सामाजिक परिवर्तन का ही रूप है। आदिकाल में मनुष्य आदिमानव था। आदिमानव से सम्पूर्ण मानव तथा आधुनिक मानव बनने में समाज का लगातार परिवर्तन हुआ है। आज के समाज में तथा प्राचीन समाज में बहुत अंतर था। आज स्त्रियों की दशा में सुधार, शिक्षा के प्रति जागरूकता, आर्थिकवाद का उदय, प्रजातंत्र, समानता, धार्मिकता में कमी, पारिवारिक विघटन, विभिन्न रोजगार, बाल केन्द्रित शिक्षा, मूल्यों का ह्रास, पर्यावरण प्रदूषण में बढ़ोत्तरी आदि परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं। यद्यपि इन परिवर्तनों का एक कारण पाश्चात्य प्रभाव भी महत्त्वपूर्ण रूप से रहा है। अतः इन सभी स्थितियों के कारण जो समाज में परिवर्तन हो रहे हैं वही परिवर्तन पाठ्यचर्या विकास हेतु प्रेरक के रूप में प्रस्तुत होते है क्योंकि इन विभिन्न दशाओं का अध्ययन समाज में रहकर शिक्षा के माध्यम से किया जाता है। शिक्षा के अंतर्गत पाठ्यचर्या ही ऐसा प्रत्यय है जिसके द्वारा इन स्थितियों में सुधार या विश्लेषण किया जा सकता है।
5) आधुनिकता- वर्तमान में भारत ही में नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व में आधुनिकता का वर्चस्व बढ़ता ही जा रहा है। इससे कोई भी राष्ट्र तथा समाज अछूता नही है। वर्तमान में तकनीकी, सोशल मीडिया आदि ऐसे घटक हैं जिनके कारण दुनिया छोटी अनुभव होने लगी है। लोगों के संपर्क बढ़े हैं जिससे एक दूसरे का प्रभाव उन पर पड़ता है। विशेषकर भाषा, वेश-भूषा, भोजन, जीवनशैली, रुचियाँ, संगीत, शिक्षा आदि पर विदेशों का प्रभाव बहुत ही तेजी से बढ़ रहा है। इस प्रभाव के कारण शिक्षा में परिवर्तन किया जाना स्वाभाविक है। शिक्षा में नए विषयों का जुड़ाव जो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी मान्य है तथा रोजगार हेतु मार्ग प्रशस्त करते हैं। जब शिक्षा में परिवर्तन किए जायेंगे तो पाठ्यचर्या का विकास भी होगा। अतः आधुनिकता भी पाठ्यचर्या के विकास का एक प्रेरक है।
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