पाठ्यचर्या का संगठन (Organisation of Curriculum)
पाठ्यचर्या के संगठन के लिए पाठ्यचर्या में कई गुण होते हैं। पाठ्यचर्या के संगठन में कई तत्त्वों का समावेश होता है, जैसे- सहभागिता, अवसरवादिता, लचीलापन आदि। पाठ्यचर्या में इनके अतिरिक्त कई तथ्य होते हैं जो संगठित होकर ही कार्य करते हैं तथा उच्च कोटि की पाठ्यचर्या का निर्माण करते हैं। पाठ्यचर्या की योजना के अनसार ही पाठ्यचर्या का स्वरूप निर्मित हो सकेगा।
पाठ्यचर्या की यह विशेषता है कि पाठ्यचर्या के प्रारूप में या उसके स्वरूप में जितनी भिन्नता होगी उतना ही पाठ्यचर्या अलग-अलग प्रदर्शित होगी। पाठ्यचर्या में अन्तर्वस्तु चयन, प्रारूप निर्माण, योजना के बाद उसके संगठन की आवश्यकता होती है। संगठन में विषय, प्रचलित सामाजिक जीवन एवं अनुभवों को स्थान दिया जाता है। किन्तु फिर भी वर्तमान में तीन स्तरों पर पाठ्यचर्या का संगठन किया गया है। पाठ्यचर्या का संगठन अंशों में विभाजित विषयों को अलग से एक जगह संगठित करने की प्रक्रिया पाठ्यचर्या संगठन कहलाती हैं। पाठ्यचर्या संगठन के विषय में कई शिक्षाशास्त्रियों ने अपने विचार व्यक्त किए हैं जो कि निम्नलिखित हैं-
प्रचलित पाठ्यचर्या का संगठन (Organisation of Existing Curriculum)
प्रचलित पाठ्यचर्या संगठन के निम्नलिखित प्रकार हैं-
प्रचलित पाठ्यचर्या का संगठन
- समन्वित पाठ्यचर्या संगठन
- क्रमबद्ध पाठ्यचर्या संगठन
- सतत् पाठ्यचर्या संगठन
- पाठ्य सहगामी क्रियाओं का समावेश
1) समन्वित पाठ्यचर्या संगठन
समन्वित पाठ्यचर्या संगठन इस प्रकार किया जाता है कि विषय-वस्तु की विभिन्नता के स्थान पर आवश्यक विषयों को समन्वित किया जाता है। इसमें अध्यापक व छात्रों की पाठ्य सहगामी क्रियाओं, योजना आदि को विशेष स्थान दिया जाता है। इसमें सम्पूर्ण कक्षा के सभी समूहों को महत्त्व दिया जाता है साथ-साथ व्यक्तिगत अध्ययन को भी महत्ता प्रदान की जाती है। विभिन्न विषयों को आपस में सह-संबंधित करके एक विशेष संगठन किया जाता है जिससे कि छात्रों को कठिनाई अनुभव न हो। यद्यपि यह सामान्य संगठन प्रक्रिया है किन्तु वर्तमान समय की शैक्षिक समस्याओं व आवश्यकताओं के अनुसार बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
2) क्रमबद्ध पाठ्यचर्या संगठन
पाठ्यचर्या के संगठन में क्रमबद्धता होती है इसमें विभिन्न विषयों को समाहित किया जाता है तथा उसकी अन्तर्वस्तु और भी विभिन्नता रखती है किन्तु इस संगठन में यह ध्यान रखा जाता है कि विषयों के सभी तत्त्व क्रमबद्ध तरीके से सुव्यवस्थित किए गए हों। प्रायः प्रचलित पाठ्यचर्या के विषयों में क्रमबद्धता की कमी देखी जाती है। विभिन्न विषयों को अलग-अलग तथा बिना किसी क्रम के पढ़ाया जाता है जबकि विषयों तथा अन्तरविषयों को एक क्रमानुसार अध्ययन कराया जाना चाहिए जिससे विषयों को परस्पर सम्बद्ध किया जा सके एवं क्रमानुसार अध्ययन से समयानुसार उनके अस्तित्व की जानकारी प्राप्त होगी।
3) सतत् पाठ्यचर्या संगठन
पाठ्यचर्या संगठन में निरन्तरता का होना अति आवश्यक है। इसमें बिना किसी बाधा अथवा रिक्त स्थान के विषयों को संगठित करना चाहिए जिससे कि रिक्तता की सम्भावनाएं कम होगी। ज्ञान का अद्भुत भण्डार होने से ऐसी परिस्थितियाँ कम ही निर्मित होती हैं किन्तु अच्छी योजना के अभाव में ऐसी स्थितियाँ दृष्टिगत होती है। पाठ्यचर्या संगठन में गतिशीलता हेतु निरन्तरता की अत्यन्त आवश्यकता होती है जिसके परिणामस्वरूप अधिगम तत्परता, क्रियात्मकता, विकास आदि पक्ष सुदृढ़ बनते है तथा व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में सहायता प्रदान करते हैं। इसमें पाठ्यचर्या चयन समिति के सदस्यों को आवश्यकतानुसार, विचार-विमर्श करके एक अच्छी योजना के अन्तर्गत पाठ्यचर्या का संगठन करना चाहिए।
4) पाठ्य सहगामी क्रियाओं का समावेश
पाठ्यचर्या में पाठ्य सहगामी क्रियाओं का समावेश निम्नलिखित कारणों से किया जाना चाहिए-
- पाठ्य सहगामी क्रियाओं का महत्त्व ।
- विभिन्न पाठ्य सहगामी क्रियाओं के क्षेत्र।
- विभिन्न पाठ्य सहगामी क्रियाएं।
- पाठ्य सहगामी क्रियाओं की सीमाएं।
- पाठ्य सहगामी क्रियाओं के विकास हेतु सुझाव ।
i) पाठ्य सहगामी क्रियाओं का महत्त्व
पाठ्य सहगामी क्रियाओं के विकास / सुझाव हेतु पाठ्य सहगामी क्रियाओं का पाठ्यचर्या में विशिष्ट स्थान है। पाठ्यचर्या चाहे किसी भी स्तर की हो उसमें पाठ्य सहगामी क्रियाओं की आवश्यकता एवं महत्त्व होता ही है। शिक्षा का लक्ष्य केवल विद्यार्थियों को पढ़ना एवं लिखना ही नहीं सिखाना होता है बल्कि विद्यार्थियों के जीवन के हर पक्ष का विकास करना होता है। जीवन के संघर्षों के लिए तैयार करना भी शिक्षा का उद्देश्य होता है। इस प्रकार के मानव निर्माण हेतु पाठ्यचर्या में पाठ्य सहगामी क्रियाओं का उपयोग करना अति आवश्यक हो जाता है-
a) शारीरिक विकास- शिक्षा में शारीरिक प्रशिक्षण के माध्यम से छात्रों का शारीरिक विकास किया जाता है। छात्रों को खेल-कूद शारीरिक क्रियाएं, एन. सी.सी. एवं एन.एस.एस. दौड़ आदि अभिक्रियाओं के द्वारा बालकों का शारीरिक विकास किया जाता है जिससे की बालक को एक स्वस्थ शरीर प्राप्त हो।
b) नागरिकता के गुणों का विकास- छात्रों में पाठ्य सहगामी क्रियाओं द्वारा नागरिकता के गुणों का विकास किया जाना चाहिए। छात्रों को उनके अधिकारों एवं कर्तव्यों से अवगत कराना चाहिए। छात्रों के नैतिकता को व्यवहारिक रूप से सीखना चाहिए। इसके लिए शिक्षक कक्षा में नैतिकता का वातावरण तैयार करे तथा स्वयं भी चारित्रिक गुण छात्रों में विकसित करे। क्योंकि छात्रों के अच्छे चरित्र के लिए शिक्षक का चरित्र उत्तरदायी होता है। एवं एक अच्छे चरित्र एवं नैतिकता की शिक्षा द्वारा छात्रों में नागरिकता के गुणों का विकास होगा।
c) अनुशासित जीवन का विकास करना- छात्रों में पाठ्य सहगामी क्रियाओं द्वारा भी अनुशासन के गुणों को विकसित किया जा सकता है। जैसे- खेल खेलने के दौरान बालक स्वयं ही खेल के नियमों के माध्यम से अनुशासित रहते है। छात्रों में विभिन्न गतिविधियों के द्वारा जीवन को अनुशासित एवं सुनियोजित बनाने की संकल्पना की जानी चाहिए। इसका व्यापक रूप से विद्यालयों में पालन किया जाना चाहिए किन्तु सर्वप्रथम यह भी आवश्यक है कि शिक्षक स्वयं भी अनुशासित रहें। इन गुणों का विकास छात्रों में विभिन्न क्रियाओं के माध्यम से किया जा सकता है।
d) छात्रों की रुचियों का महत्त्व- पाठ्य सहगामी क्रियाओं का आधार तो छात्रों की रुचि ही हैं। छात्रों को उनकी रुचियाँ ही इन क्रियाओं में सहगामी बनने के लिए प्रेरित करती हैं। क्रियाओं के माध्यम से बालकों में छिपी प्रतिभाएँ बाहर आ सकती है। जैसे- लेखन, भाषण, चित्रकारी, गायन, सामाजिक क्रियाएं इत्यादि। इस प्रकार इनकी रुचियों के आधार पर इनके गुणों का विकास करना चाहिए तथा इनकी उर्जा का उपयोग करने के लिए पाठ्य सहगामी क्रियाओं के माध्यम से अवसर प्रदान करने चाहिए।
e) अच्छी आदतों का विकास- पाठ्य सहगामी क्रियाओं द्वारा बालकों में अच्छी आदतों का विकास किया जाना चाहिए। छात्रों में अच्छी आदतों के निर्माण में बाल्यावस्था से ही अभिक्रियाएं करवानी चाहिए क्योंकि किशोरवस्था तक आते-आते बालकों में अच्छी आदतें तथा प्रवृत्तियाँ स्थायी स्वरूप बना लेती हैं। ये आदतें अनौपचारिक रूप से अभिक्रियाओं के माध्यम से विकसित की जा सकती है। ये क्रियाएं समाजसेवा, स्काउटिंग, सामुदायिक कार्य आदि के माध्यम से कराई जा सकती हैं जिससे छात्रों को व्यवहारिकता का भी ज्ञान प्राप्त होगा।
f) सामाजिकता का विकास- पाठ्य सहगामी क्रियाओं की सहायता से छात्रों में सहयोग तथा सामाजिकता की भावना को विस्तृत किया जा सकता है। क्योंकि इन क्रियाओं में भाग लेने पर या सामूहिक रूप से कार्य करने पर आपसी सामंजस्य एवं भाईचारा बढ़ता है। एक प्रकार से विश्व बंधुत्व की भावना में वृद्धि होती है। इसके अतिरिक्त समाज में रहने के गुण, शिष्टता, सामाजिक निष्कपटता, सामाजिक कर्त्तव्य, अच्छा व्यक्तित्व, परोपकार की भावना, सहयोग की भावना आदि के भाव जाग्रत होते हैं। इस प्रकार एक बालक पाठ्य सहगामी क्रियाओं के माध्यम से समाज एवं राष्ट्रोपयोगी बनता है।
ii) विभिन्न पाठ्य सहगामी क्रियाओं के क्षेत्र
पाठ्य सहगामी क्रियाओं के क्षेत्र इस प्रकार है-
- a) शारीरिक,
- b) साहित्यिक,
- c) शैक्षिक,
- d) सामाजिक,
- e) कला क्षेत्र, एवं
- f) मनोरंजन क्षेत्र ।
उपरोक्त क्षेत्रों में पाठ्य सहगामी क्रियाओं की सहभागिता होनी चाहिए जिससे बालकों को भविष्य में किसी भी व्यवसाय को अपनाने हेतु पूर्व प्रशिक्षण प्राप्त होगा। पाठ्य सहगामी क्रियाओं को विभिन्न क्षेत्रों का वर्णन इस प्रकार है-
a) शारीरिक क्षेत्र- शारीरिक क्रियाओं के क्षेत्र में वे सभी शारीरिक गतिविधियाँ आती हैं जो विद्यालयी शिक्षा के अन्तर्गत करवायी जाती हैं। जैसे- दौड़, रस्सी कूद, विभिन्न खेल, तैरना, साईकिल चलाना, पेड़ पर चढ़ना, परेड करना, व्यायाम एवं योगा, सामान्य परिश्रम के कार्य आदि। उपरोक्त कार्य करने से बालकों का स्वास्थ्य अच्छा बना रहता है। साथ ही बालकों में अनुशासन के गुणों का विकास भी होता है।
b) साहित्यिक क्षेत्र- साहित्यिक, गतिविधियां भी पाठ्य सहगामी अभिक्रियाएं ही कहलाती हैं। इनके अन्तर्गत भाषण प्रतियोगिता, कहानी लेखन प्रतियोगिता, तात्कालिक भाषण प्रतियोगिता, निबन्ध लेखन प्रतियोगिता, नाटक प्रतियोगिता, चित्र देखकर कहानी लिखो प्रतियोगिता आदि क्रियाएं साहित्यिक क्रियाओं का क्षेत्र कहलाती हैं।
c) शैक्षिक- पाठ्य सहगामी क्रियाओं का सबसे बड़ा क्षेत्र शैक्षिक क्षेत्र ही है क्योंकि सभी क्षेत्र शैक्षिक क्षेत्र में ही आ जाते हैं। शिक्षा के द्वारा ही पाठ्य सहगामी क्रियाओं के माध्यम से बालकों का विकास किया जाता सकता है। शिक्षा के माध्यम से बालकों के लिए विभिन्न प्रतियोगिताएँ आयोजित करवायी जा सकती हैं। जैसे- मॉडल बनाओ प्रतियोगिता, पर्यावरण दिवस मनाना, विभिन्न महान व्यक्तियों का जन्म दिवस मनाना, विज्ञान दिवस मनाना, विषय आधारित प्रतियोगिताएँ आयोजित करना।
d) सामाजिक- सामाजिक क्षेत्र के अन्तर्गत सामुदायिक कार्य, समाजसेवा, स्वच्छता अभियान, नुक्कड़ नाटक, सफाई सप्ताह, श्रमदान, रेडक्रॉस, एन.सी. सी. स्काउट एवं गाइड, आदि कार्यों में सहभागिता करना। ये कार्य अनौपचारिक तथा औपचारिक दोनों प्रकार से हो सकते हैं। सामाजिक क्षेत्र बहुत ही व्यापक है। छात्र स्वयं समाज का एक अंग है। अतः इसमें सामाजिकता के गुणों का विकास करना आवश्यक है। इससे सहयोग की भावना का भी विकास होगा।
e) कला क्षेत्र- प्रत्येक व्यक्ति में एक कलाकार निवास करता है किन्तु उसके गुणों एवं उसकी कला को बाहर निकालने के अवसर केवल पाठ्य सहगामी क्रियाएं ही करती हैं। कई बार बालक को स्वयं ज्ञात नहीं होता है कि उसमें किस प्रकार की कलाकारी के गुण मौजूद हैं। किन्तु पाठ्य सहगामी क्रियाएं यह कार्य बहुत ही भली प्रकार से करती हैं। कला क्षेत्र में विभिन्न अभिक्रियाएं, नृत्य, संगीत, चित्रकारी, गायन, सिलाई, कढ़ाई, लकड़ी का कार्य, सूत का कार्य, जूट का कार्य, कपड़े पर बुनकारी करना, लोहे के बर्तन, मिट्टी के बर्तन एवं खिलौने बनाना, कागज के कार्य आदि। उपरोक्त के अतिरिक्त अन्य कई क्रियाएँ व कलाएँ हैं जो पाठ्य सहगामी क्रियाएँ कहलाती हैं। इनके माध्यम से बालक भविष्य में अपना जीवनयापन कर सकता है। अतः कला का क्षेत्र अति वृहद एवं व्यापक क्षेत्र है।
f) मनोरंजन क्षेत्र- वर्तमान में मनोरंजन का स्वरूप बदल गया है तथा इस क्षेत्र का विकास भी अत्यन्त तीव्र गति से हुआ है। यह क्षेत्र बालकों को अति प्रिय होता है। इसके अन्तर्गत विभिन्न गतिविधियाँ होती है। जैसे- सांस्कृतिक कार्यक्रम, ज्ञानवर्धक नाटकों का मंचन, ज्ञानवर्धक फिल्में दिखाना, बालचर सहकारी बैंको का संचालन, शैक्षिक यात्रा, पर्यटन, पिकनिक, शैक्षिक प्रोजेक्ट आदि कार्य। उपरोक्त कार्यों द्वारा छात्रों के मनोरंजन के साथ-साथ उनमें ज्ञानात्मक कुशलता भी विकसित होती है। शिक्षा में मनोरंजन के अभाव में कई प्रकार की कुशलताएं बाहर नहीं आ पाती हैं। अतः पाठ्य सहगामी क्रियाओं के लिए मनोरंजन का क्षेत्र सबसे उपयुक्त है।
अतः उपरोक्त क्षेत्रों में पाठ्य सहगामी क्रियाएं अपना स्थान बनाए रखती है। इन क्रियाओं का विस्तार उपरोक्त क्षेत्रों में सबसे अधिक हुआ है। जिनका लाभ वर्तमान समय में शिक्षार्थियों को भी प्राप्त है। पाठ्य सहगामी क्रियाओं के माध्यम से बालकों में नवीन जीवनपयोगी आकाक्षाओं तथा क्षमताओं का संचार किया जा सकता है।
iii) विभिन्न पाठ्य सहगामी क्रियाएँ-
पाठ्य सहगामी क्रियाएँ अनेक प्रकार की होती हैं किन्तु यहाँ पर सभी की व्याख्या करना सम्भव नहीं है। अतः कुछ सामान्य एवं अत्यधिक उपयोगी पाठ्य सहगामी क्रियाओं की विवेचना की जा रही है-
- a) शिविरों का आयोजन,
- b) प्रतियोगिताओं का आयोजन,
- c) बाल सभा का आयोजन,
- d) श्रमदान कार्यक्रम,
- e) एन.सी.सी. (NCC),
- f) स्काउट,
- g) विद्यालय पत्रिकाओं का प्रकाशन,
- h) शैक्षिक भ्रमण,
- i) अन्य
a) शिविरों का आयोजन- राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 एवं माध्यमिक शिक्षा आयोजन 1964 की अनुशंसा के अनुसार विभिन्न प्रकार के शिविरों का आयोजन करना शिक्षण प्रक्रिया एवं अधिगम के हित में होगा। इसके अन्तर्गत कई समाज सेवा के कार्य आते हैं। जैसे- साक्षरता अभियान, सामूहिक शिक्षण, गाँवों में जाकर अनौपचारिक अध्यापन एवं आवश्यक जानकारी देना, स्वच्छता के प्रति जागरूकता, पर्यावरण स्वच्छता के प्रति जागरूकता, प्रदूषण कम करने के सामान्य उपाय, आदि। उपरोक्त कार्यों हेतु विभिन्न स्थानों पर शिविर लगाए जाएं जिनमें बालक उपरोक्त कार्यों को करके सामाजिकता में सहभागी बनें। इसके अन्तर्गत मनोरंजन द्वारा भी लोगों को जागरूक बनाया जा सकता है। इससे छात्रों में परिश्रम का महत्त्व एवं स्वावलम्बन के गुणों का विकास होगा।
b) प्रतियोगिताओं का आयोजन- विद्यालयों में पाठ्य सामग्री क्रियाओं के अन्तर्गत विभिन्न प्रतियोगिताएं आयोजित करवायी जाएं जिससे कि छात्रों को उनकी आन्तरिक क्षमताओं तथा रुचियों का दोहन करने के अवसर प्राप्त होंगे। प्रतियोगिताओं के आयोजन से छात्रों में प्रतियोगी भाव उत्पन्न होता है तथा वह जीवन में सबसे आगे रहने तथा विजय प्राप्ति के लिए सतत प्रयासरत रहता है। अपने लक्ष्यों पर दृष्टि रखते हुए सदैव ऊर्जावान बना रहता है। अतः प्रतियोगिताओं से छात्रों के जीवन में नवीनता, ऊर्जा एवं अच्छे गुणों का सृजन होता है।
c) बाल सभा का आयोजन- विद्यालयों में बाल सभाओं का आयोजन किया जाना चाहिए। इन बाल सभाओं में छात्रों को अपनी-अपनी प्रतिभाओं को प्रस्तुत करने का अवसर मिलता है। इन बाल सभाओं में विद्यालय के सभी छात्र एक स्थान पर एकत्रित होते हैं। इन बाल सभाओं में बालकों के कार्यों को प्रोत्साहन दिया जाता है। इससे छात्रों में चेतना का विकास होता है। छात्रों के मन का भय समाप्त होता है तथा वे स्वयं को प्रस्तुत करने के लिए तैयार करते हैं। इन सभाओं में मनोरंजक कार्यक्रम भी होते हैं। जैसे- कविता पाठ, भाषण, वाद-विवाद, बाल-सुलभ क्रियाएँ, ज्ञानात्मक जानकारियाँ आदि की प्रस्तुति दी जाती है।
d) श्रमदान कार्यक्रम- श्रमदान कार्यक्रम के माध्यम से छात्रों को परिश्रम का महत्त्व समझाया जाता है। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत विद्यालय के बाहर ऐसे स्थान पर छात्रों को ले जाया जाता है जहाँ पर कोई सामाजिक कल्याण हेतु निर्माण आदि हो रहा हो। ऐसे स्थान पर बालकों एवं शिक्षकों का अल्प समय के लिए श्रमदान कराया जाता है जिससे सामुदायिक भावों का भी संचार होता है। इसके अतिरिक्त विद्यालय में भी सप्ताह में या माह में एक बार यह क्रियाएँ करवायी जा सकती हैं। उदाहरण के लिए- खेल-प्रांगण में से कंकड़ चुनवाना, कागज आदि उठवाना। इन कार्यक्रमों में विद्यालय के प्रत्येक सदस्यों को भाग लेना चाहिए।
e) एन.सी.सी. (N.C.C.) कार्यक्रम- N.C.C. के कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करना चाहिए। यद्यपि यह कार्यक्रम छात्रों के लिए अनिवार्य नही है। इसमें छात्र स्वेच्छा से भाग ले सकते हैं। इसके अन्तर्गत विभिन्न शिविर लगाकर ये कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। इन गतिविधियों से विद्यार्थियों में नेतृत्व के गुणों का आविर्भाव होता है। इससे सेवा भावना को भी बढ़ावा मिलता है। इस प्रकार के एन.सी.सी. शिविरों का सम्पूर्ण व्यय शासन द्वारा किया जाता है।
f) स्काउटिंग- स्काउटिंग के द्वारा छात्रों में अनुशासन, नेतृत्व, सेवा, परिश्रम का महत्त्व, साहस आदि के गुणों का विकास होता है। इस प्रकार इसमें कार्य करने वाले लड़कों को बालचर एवं लड़कियों को गर्ल गाइडिंग (Girl Guiding) कहा जाता है। इसके अन्तर्गत अनेक कार्यक्रमों का आयोजन होता है। विभिन्न खेल, शिविर बनाना, समाज सेवा आदि कार्यक्रम करवाए जाते हैं। छात्रों में इन कार्यक्रमों में सम्मिलित होने से कार्य क्षमता में भी वृद्धि होती है।
g) विद्यालय पत्रिकाओं का प्रकाशन- विद्यालयों में वार्षिक पत्रिकाओं का प्रकाशन होने से छात्रों तथा शिक्षकों के मनोभावों को प्रकाशित रूप मिलता है तथा वे अपने विचारों को प्रकट कर सकते हैं। उनकी रचनात्मक क्षमता का विकास होता है एवं साहित्यिक रुचि के लिए नवीन मार्ग खुलते हैं। विद्यालय की पत्रिकाओं में छात्रों द्वारा रचित कविताएं, लेख, गीत, कहानियां आदि को प्रकाशित किया जाता है तथा सर्वश्रेष्ठ रचना को पारितोषिक दिया जाना चाहिए जिससे छात्रों को प्रोत्साहन मिले तथा वे आगे भी कार्य करने के लिए उत्सुक रहें।
h) शैक्षिक भ्रमण- शैक्षिक भ्रमण के अन्तर्गत छात्र-छात्राओं को वर्ष में एक बार विद्यालय से दूर कुछ दिनों के लिए ले जाया जाता है जिससे उनमें जिज्ञासु प्रवृत्ति बढ़ती है तथा नवीन अवबोध प्राप्त होता है। भ्रमण के लिए ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक स्थलों पर ले जाया जाता है। भ्रमण से छात्रों को वास्तविकता व प्रकृति का ज्ञान प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त प्रबन्धन, नेतृत्व आदि के गुणों का भी विकास होता है। भ्रमण की योजना तथा क्रियान्वयन उचित रूप से किया जाना चाहिए। भ्रमण हेतु छोटी-छोटी सावधानियाँ भी रखनी चाहिए। छात्रों को विभिन्न परिस्थितियों से पूर्व ही अवगत कराना चाहिए।
i) अन्य – विद्यालय में अन्य पाठ्य सहगामी क्रियाओं के सन्दर्भ में विभिन्न क्रियाएं, नाटक, संगीत, चित्रकारी, गायन, लेखन, आदि क्रियाएं भी समय-समय पर आयोजित करवानी चाहिए। छात्रों को अवकाश के समय का सदुपयोग करने की प्रवृत्ति जागृत करना; बागवानी, स्वच्छता आदि को आदतों में समाहित कराना भी पाठ्य सहगामी क्रियाओं का मुख्य कार्य है।
इस प्रकार विभिन्न प्रकार की पाठ्य सहगामी क्रियाएं करवाई जा सकती हैं जो कि छात्र-छात्राओं का सर्वांगीण विकास करने में सहयोग प्रदान करेंगी।
iv) पाठ्य सहगामी क्रियाओं की सीमाएँ
पाठ्य सहगामी क्रियाओं की सीमाएँ निम्नलिखित हैं-
a) शिक्षकों का अध्ययन के अतिरिक्त अन्य कार्य भार होने के कारण वे पाठ्य सहगामी क्रियाओं पर ध्यान नहीं दे पाते हैं।
b) छात्रों का स्वयं का रुचि न लेना।
c) अधिगम कार्य जटिल व कार्यों की अधिकता के कारण छात्रों को पर्याप्त समय नहीं मिल पाता है।
d) प्रशिक्षित अध्यापकों का अभाव होने से इन क्रियाओं का क्रियान्वयन सुचारू रूप से नहीं हो पाता है।
e) पाठ्य सहगामी क्रियाओं में छात्रों की सहभागिता में कमी रहती है।
f) प्रायः विद्यालयों में शिक्षा के सैद्धान्तिक पक्षों पर विचार किया जाता है, व्यावहारिक पक्षों पर नहीं।
g) विद्यालयों में छात्रों को पाठ्य सहगामी क्रियाओं हेतु अतिरिक्त समय नहीं दिया जाता है।
h) विद्यालयों में सुविधाओं एवं साधनों का अभाव भी इन क्रियाओं के क्रियान्वयन में बाधक तत्त्व है, जैसे- व्यवस्थित प्रांगण न होना, पर्याप्त खेल सामग्री एवं प्रशिक्षित शिक्षक का अभाव आदि।
i) पाठ्य सहगामी क्रियाओं के मूल्यांकन एवं समीक्षा का न होना।
j) पाठ्य सहगामी क्रियाओं हेतु उचित वातावरण एवं परिस्थितियाँ उपलब्ध न होना।
v) पाठ्य सहगामी क्रियाओं के विकास हेतु सुझाव
पाठ्य सहगामी क्रियाओं के विकास हेतु सुझाव निम्नलिखित हैं-
a) पाठ्य सहगामी क्रियाओं के विकास के लिए प्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति की जाए एवं शिक्षकों के अतिरिक्त कार्यभार को बाँटकर उन्हें समय दिया जाए, जिससे अध्यापक भी पाठ्यचर्या सहगामी क्रियाओं में मार्गदर्शन दे सके ।
b) छात्रों को पाठ्य सहगामी क्रियाओं में सहभागिता के लिए प्रोत्साहित किया जाए, उन्हें पारितोषिक, आवश्यक शैक्षिक सामग्री, खेल सामग्री आदि का वितरण किया जाए।
c) छात्रों को पाठ्य सहगामी क्रियाओं के लिए अतिरिक्त समय उपलब्ध कराना चाहिए।
d) छात्रों में भी स्वयं पाठ्य सहगामी क्रियाओं के लिए जागरूक रहना चाहिए एवं बढ़-चढ़ कर भाग लेना चाहिए।
e) विद्यालयों में शिक्षा को सैद्धान्तिक के साथ-साथ व्यावहारिक भी बनाया जाए।
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