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 बाल्यावस्था में नैतिक विकास | Moral Development in Childhood in Hindi

 बाल्यावस्था में नैतिक विकास | Moral Development in Childhood in Hindi
 बाल्यावस्था में नैतिक विकास | Moral Development in Childhood in Hindi

 बाल्यावस्था में नैतिक विकास (Moral Development in Childhood)

इस अवस्था में बालक घर से बाहर निकलना प्रारम्भ कर देता है। स्कूल में अन्य बालकों के सम्पर्क में आने से उसके व्यवहार में परिवर्तन आने लगता है। बच्चों में नैतिकता का व्यवहार उसके समूह से सर्वाधिक प्रभावित होता है। इस आयु काल में बालक सत्य, न्याय और ईमानदारी के भाव व्यक्त करने लगता है। अब वह उचित व अनुचित में भेद करना सीख जाता है और अध्यापक की आज्ञा का पालन निष्ठता से करता है। इस अवस्था में अब तक सीखे गए नैतिक मूल्यों का वह सामान्यीकरण करने लगता है। बाल्यावस्था में वह जानने लगता है कि चोरी करना पाप है और झूठ बोलना बुरा व्यवहार है।

कॉलसनिक के अनुसार, “बाल्यावस्था में बालक नैतिक सिद्धान्तों की पहचान कर उन्हें प्रयोग में लाना प्रारम्भ कर देते हैं।

इस अवस्था में बालक के सकारात्मक व्यवहार की सराहना करनी चाहिए और अनैतिक व्यवहार करने पर उन्हें दण्ड देना चाहिए ताकि वह समाज के मान्य नियमों का पालन करना सीख लें। बाल्यावस्था में नैतिक प्रत्ययों की शिक्षा अत्यंत आवश्यक है।

नैतिक विकास को चारित्रिक विकास या मूल्य परक विकास भी कहते हैं ।

स्ट्रैन्ज रथ के अनुसार, “छः सात एवं आठ वर्ष के बच्चों में विवेक, न्याय, इमानदारी और मूल्यों के प्रति निष्ठा की भावना का विकास होने लगता है।”

बालकों में नैतिक विकास निम्नलिखित प्रकार से होता है-

1) हम का भाव- मैं का भाव छोड़कर हम का भाव आता है और बालक मिलजुल कर कार्य करना सीखते हैं। इस प्रकार भाईचारे की भावना का विकास होता है।

2) असामाजिक कार्यों की उपेक्षा – नैतिक विकास के फलस्वरूप बालक उन व्यवहारों को नहीं करता है जो समाज द्वारा अनैतिक तथा समाज के अहित में होते हैं। इससे आत्मबल का विकास होता है जिससे भविष्य में बालक अच्छे नागरिक के रूप में विकसित होता है।

3) आवश्यकताओं के प्रति जागरूक- बालक अपने परिवार व समाज की आवश्यकताओं के प्रति जागरूक होते हैं। यदि उन्हें अच्छी तरह यह बोध करा दिया जाए तो वह अपना जिद्दी स्वभाव छोड़ देते हैं और अपनी अनावश्यक माँगों पर नियंत्रण करना सीख लेते हैं।

4) न्याय एवं ईमानदारी- बालक न्याय-अन्याय, सही-गलत का अन्तर समझने लगते हैं और न्याय पालन न होने की दशा में प्रतिरोध करते हैं। उनमें विवेक शक्ति का विकास होता है।

5) नैतिक तथा धार्मिक भाव- बालक में नैतिकता एवं धार्मिकता की शुरूआत शैशवावस्था से ही पड़ जाती है। प्रारम्भ में परिवार के सदस्यों के व्यवहारों द्वारा सीखता है बाद में शिक्षा के पाठ्यक्रम में नैतिक मूल्यों एवं धार्मिकता के बारे में पढ़ता है और उसके मन में राष्ट्रीय एकता, “सर्व धर्म सम्भाव” जैसी भावनाएँ उत्पन्न हो जाती हैं।

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Anjali Yadav

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