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भारतीय लोकतन्त्र की सफलता के लिये आवश्यक स्थितियों का वर्णन कीजिए।
भारतीय लोकतन्त्र की सफलता के लिये आवश्यक स्थितियाँ डा. अम्बेडकर- ने भारत में संसदीय लोकतंत्र को सफल बनाने हेतु कुछ आवश्यक स्थितियों या शर्तों का उल्लेख किया है।
1. सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना आवश्यक- डा. अम्बेडकर ने संविधान सभा द्वारा संविधान पारित किये जाने पर 25 नवंबर, 1949 को घोषित किया कि “देश में 26 जनवरी 1950 को संविधान के प्रभावी होने के साथ राजनीतिक जीवन में समता के युग का उद्घाटन होगा लेकिन सामाजिक और आर्थिक जीवन में विषमता बनी रहेगी। यदि यह विषमता बराबर बनी रही. तो उसकी आग से झुलसा वर्ग हमारे महान प्रयासों से निर्मित इस राजनीतिक महल अर्थात संवैधानिक व्यवस्था को ध्वस्त किये बिना नहीं रहेगा। असमानता से पीड़ित लोग राजनीतिक प्रजातंत्र के ढाँचे को उखाड़ फेंकेंगे। अतः डॉ. अम्बेडकर ने ऐसी परिस्थिति उत्पन्न नहीं होने देने के लिए तथा राजनीतिक प्रजातन्त्र को यथार्थ बनाने हेतु सामाजिक और आर्थिक प्रजातंत्र की स्थापना पर बल ही नहीं दिया वरन् उसे आवश्यक भी बताया।
इसलिए इस स्थिति के निराकरण के लिए डा. अम्बेडकर ने स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुत्व के सिद्धांतों पर आधारित एक ऐसी लोकतान्त्रिक व्यवस्था की स्थापना पर जोर दिया जो हिंसक क्रान्ति निवारक ही न हो वरन् सामाजिक लोकतंत्र का एक सजीव रूप भी हो। सामाजिक न्याय, जिसका जिसका आधारभूत सिद्धांत हो। ऐसे सामाजिक न्याय आधारित सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना के लिए डॉ० अम्बेडकर ने निम्नलिखित सुझाव दिये-
(1) संवैधानिक आधार पर समस्त सामाजिक असमानताओं तथा विशेषाधिकारों का उन्मूलन किया जाये अर्थात वर्ण, जाति, धर्म, लिंग, भाषा या किसी अन्य आधार पर प्रचलित सभी प्रकार के ऊँच नीच के भेदभावों को पूर्णतः समाप्त किया जाये।
(2) अस्पृश्यता का संवैधानिक उन्मूलन कर उससे जुड़ी समस्त निर्योग्यताओं का अन्त किया जाये तथा अस्पृश्य को तीव्र उन्नति करने हेतु कानूनी संरक्षण प्रदान किया जाये।
(3) बिना किसी भेदभाव के सभी नागरिकों के लिए समानता के आधार पर मौलिक, अधिकारों का संवैधानिक प्रावधान किया जाये तथा उनके संरक्षण की उचित व्यवस्था की जाये।
(4) सभी नागरिकों के लिए जीवन निर्वाह हेतु समान नागरिक संहिता का निर्माण किया जाये और उसे प्रभावी ढंग से लागू किया जाये।
2. व्यक्ति पूजा को निरूत्साहित किया जाये- डा0 अम्बेडकर व्यक्ति पूजा की प्रवृत्ति को उसके स्वस्थ विकास के लिए घातक मानते थे। अतः उन्होंने लोकतंत्र के स्वस्थ विकास के लिए जनता को इस प्रवृत्ति से दूर रहने का परामर्श दिया। उन्होंने कहा, “हो सकता है मोक्ष पाने के लिए भक्ति आवश्यक हो लेकिन राजनीति में भक्ति से हमारा अधःपतन होगा और उसका अनिवार्य पतन होगा अधिनायकवाद।” अतः इससे बचने के लिए जे.एस. मिल की चेतावनी से जनता को सावधान करते हुए कहा कि “अपनी स्वतन्त्रताओं को किसी महान व्यक्ति के चरणों में समर्पित मत करो, इस दृष्टि से उस पर विश्वास मत करो जो तुम्हारी लोकतांत्रिक संस्थाओं को रौंदने की क्षमता रखता हो।” भारतीय जनता की इस प्रवृत्ति की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा कि “जब तक उसमें यह प्रवृत्ति बनी रहेगी, तब तक देश का न तो स्वस्थ राजनीतिक विकास सम्भव होगा और न ही लोकतंत्र का भविष्य उज्जवल।”
3. संवैधानिक साधनों में आस्था- डा. अम्बेडकर की यह मान्यता है कि सभी तरह के सामाजिक परिवर्तनों के लक्ष्य की प्रवृत्ति हेतु संवैधानिक साधनों के प्रयोग हेतु में आम जन की दृढ़ आस्था होनी चाहिए। लेकिन ऐसा तभी सम्भव है जबकि एक जनतान्त्रिक शासन व्यवस्था में अनिवार्य रूप से ऐसे साधनों की व्यवस्था हो ताकि उनको अपना कर जनता उन सामाजिक परिवर्तनों को साकार रूप दे सके जो वह अपने जीवन स्तर के सुधार हेतु आवश्यक मानती हो। यदि जनतान्त्रिक व्यवस्था में ऐसे साधनों की व्यवस्था नहीं होती है तो ऐसी स्थिति में हिंसक साधनों के प्रयोग को रोका नहीं जा सकता है। अतः सामाजिक परिवर्तनों के लिए संवैधानिक साधनों के प्रयोग की प्रभावकारी व्यवस्था का होना एक जनतान्त्रिक व्यवस्था की अनिवार्य आवश्यकता है। क्योंकि तभी वह अपना जनतान्त्रिक रूप बनाये रखने में सफल हो सकती है।
4. द्विदलीय व्यवस्था और सक्षम विपक्ष – डा० अम्बेडकर द्विदलीय व्यवस्था को लोकतन्त्र की सफलता के लिए आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य मानते हैं। उनका कथन है कि जब तक जनता के हाथों में एक दल को सत्ता से हटाकर दूसरे दल को सत्ता प्रदान करने का विकल्प विद्यमान न हो, तब तक लोकतान्त्रिक शासन का कोई अर्थ और औचित्य नहीं है। द्विदलीय और उसके सम्भव नहीं होने पर बहुदलीय व्यवस्था को लोकतांत्रिक दृष्टि से समर्थन करते हुए वे कहते हैं कि “जहाँ एक से अधिक दल नहीं होते हैं, वहाँ विवेक का विकास सम्भव नहीं है। जहाँ विवेक का विकास न हो, वहाँ स्वतन्त्रता प्राप्त करना और उसे लाभप्रद बनाना भी सम्भव नहीं हो पाता है।” अत: उनके अनुसार एक लोकतन्त्र में जहाँ सत्ताधारी दल आवश्यक है, वहाँ उसके कार्य व्यवहार को जन हितकारी बनाये रखने की दृष्टि से उसे नियन्त्रित करने वाले साधन के रूप में एक सक्षम विपक्ष का होना भी जरूरी है। सत्ताधारी दल और सक्षम विपक्ष जनतन्त्र के ये दो पहिये हैं जिनके कारण वह स्वस्थ और गतिशील ही नहीं रहता है वरन् उसका लोक-कल्याणकारी रूप भी निरन्तर बना रहता है। सक्षम विपक्ष सत्ताधारी दल द्वारा सत्ता का दुरुपयोग न हो, इसका एक सजग प्रहरी ही नहीं, आलोचक भी होता है जो इस दृष्टि से सत्ताधारी दल को निरन्तर सावधान रखता है तथा सत्ताधारी दल के भ्रष्ट और अकुशल होने पर जनता के सम्मुख एक विकल्प के रूप में हमेशा विद्यमान रहता है, जिसे चाहने पर जनता निर्वाचन के माध्यम से बहुमत प्रदान कर सत्ताधारी दल के रूप में प्रस्थापित करने के लिए स्वतंत्र होती है सक्षम और विकल्प के रूप में विपक्ष जनतान्त्रिक शासन व्यवस्था की एक प्रमुख विशेषता है और इसी कारण से वह अन्य भी शासन व्यवस्थाओं की तुलना में सबसे इच्छित और लोकप्रिय शासन व्यवस्था मानी जाती है।
5. तटस्थ प्रशासनिक व्यवस्था- डा0 अम्बेडकर का यह सुविचारित मत था कि एक जनतान्त्रिक व्यवस्था में प्रशासनिक व्यवस्था का स्वरूप तटस्थ होना चाहिए, प्रतिबद्ध नहीं। उनकी निष्ठा किसी राजनीतिक दल या राजनीतिक विचारधारा के प्रति नहीं वरन् कानून के प्रति होनी चाहिए। इस हेतु वे प्रशासन का संचालन करने वाली सार्वजनिक सेवाओं को तटस्थता की रक्षा हेतु उन्हें स्थायित्व ही प्रदान किये जाने के पक्ष में नहीं थे वरन् इस दृष्टि से आवश्यक संवैधानिक व्यवस्था किये जाने के समर्थक भी थे। अतः वे संयुक्त राष्ट्र अमेरिका की तरह लूट प्रथा’ के विरोधी थे जिनके अनुसार सत्ताधारी दल में परिवर्तन के अनुसार सारा प्रशासनिक ढाँचा ही बदल जाता है तथा सत्ताच्युत दल के प्रशासनिक अधिकारियों और कर्मचारियों के स्थान पर सत्ता प्राप्त दल के अधिकारी और कर्मचारी नियुक्त कर दिये जाते हैं। उनका इस दृष्टि से यह स्पष्ट मत था कि सत्ताधारी दल में परिवर्तन के साथ प्रशासनिक कर्मचारियों एवं अधिकारियों में परिवर्तन नहीं होना चाहिए। प्रशासनिक तटस्थता, स्थिरता और निरन्तरता की दृष्टि से वे इसे आवश्यक समझते थे।
6. संवैधानिक नैतिकता का निर्वाह- डा0 अम्बेडकर उपयुक्त बातों के अतिरिक्त एक जनतान्त्रिक व्यवस्था की सुदृढ़ता और सफलता के लिए संवैधानिक नैतिकता के निर्वाह को भी अत्यावश्यक मानते थे। उनकी यह मान्यता थी कि इस बात की पुख्ता व्यवस्था की जानी चाहिए कि शासकीय प्रशासकीय व्यवस्था और विपक्ष सभी नैतिकता के आधार पर संवैधानिक आदर्शों के प्रति प्रतिबद्ध और समर्पित हों, उनके प्रति सुदृढ़ रूप से निष्ठावान हो। उनका यह मत था कि देश का संविधान सिर्फ एक ‘सूखा ढाँचा’ मात्र होता है जिसमें रक्त और माँस का प्रावधान राजनीतिक गतिविधियों से संलग्न द्वारा संवैधानिक आदशों के प्रति नैतिक निष्ठा के निर्वाह के माध्यम से किया जाता है।
7. जागरूक जनमत- डा0 अम्बेडकर का मत था कि जागरूक जनमत ही उनतंत्र की सफलता का सर्वाधिक प्रभावपूर्ण साधन होता है। अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति सतत् जनता ही लोकतन्त्र की सफलता के लिए उन आवश्यक परिस्थितियों का निर्माण करती है जिनके बिना उसकी सफलता संदिग्ध ही नहीं, असम्भव भी होती है। सजग जनता के अभाव में जनतन्त्र भेड़ों के शासन का एक प्रतिरूप होता है जिसे शासक चरवाहा अपनी छड़ी के बल पर इच्छित दिशा में हॉककर ले जाता है। अतः जागरूक जनमत ही वह आवश्यक तत्व है जो जनतंत्र को भेड़ों के शासन के रूप में परिवर्तित होने से बचाता है और सही और सबल जनतंत्र का रूप प्रदान करता है।
सरांश- सरांश के रूप में हम यह कह सकते हैं कि डा0 अम्बेडकर भारत के लिए शासन-प्रशासन की लोकतांत्रिक प्रणाली और उसमें भी विशेष रूप से संसदीय प्रणाली की स्थापना के समर्थक थे तथा उन्होंने उसकी सफलता के लिए अनेक स्थितियों के निर्माण पर जोर दिया, जिसमें सामाजिक लोकतन्त्र की स्थापना बहुदलीय प्रणाली तथा सक्षम विपक्ष का अस्तित्व प्रशासकीय तटस्थता जागरूक जनमत और संवैधानिक नैतिकता का निर्वाह आदि गुण तत्व प्रमुख है। इन विशेषताओं से युक्त प्रणाली को ही वे संवैधानिक दृष्टि से भारत के लिए उपयुक्त मानते थे। फलत: इन्हीं आधारों पर उन्होंने स्वतन्त्र भारत के संविधान का निर्माण किया जिसके सम्बन्ध में उनका कहना था कि “यह संविधान प्रत्यक्ष व्यवहार में लाने योग्य है। यह लचीला है साथ ही शान्तिकाल और युद्धकाल दोनों में ही देश को एक सूत्र में बांधे रखने में अत्यन्त प्रभावी और सक्षम है। यदि ऐसे संविधान का भी सही प्रकार से अनुसरण नहीं हो पाता है और वह इच्छित फल प्रदान करने में असमर्थ सिद्ध होता है तो निर्विवाद रूप से यही कहना होगा कि दोष संविधान का नहीं वरन् इन्सान में व्याप्त अवगुणों का है।”
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