शिक्षाशास्त्र / Education

भाषा विवाद | भाषा शिक्षा की समस्या | भाषा समस्या का हल | त्रिभाषा सूत्र तथा इसके दोष

भाषा विवाद की व्याख्या कीजिए। इसे कौन से तत्व बढ़ावा देते हैं? इसका सर्वमान्य समाधान क्या हो सकता है? अथवा त्रिभाषा सूत्र क्या है? भाषा विवाद की विवेचना करते हुए उसके हल के लिए सुझाव दीजिये।

विचारों भावों और बोधात्मकता के आदान-प्रदान का जो शाब्दिक माध्यम है, वही भाषा है। वैसे भाषा- सार्थक शब्द का कहना, प्रयोग करना मात्र है और यह केवल शब्दों के समूह एवं उनके प्रयोग को ही नहीं प्रकट करता है बल्कि आज भाषा मानवीय चिन्तन, विचार तर्क एवं भावनाओं को शब्दों एवं संकेतों या प्रतीकों में प्रकट करने का साधन-माध्यम मानी जाती है।

भाषा विवाद- 1813 ई. के आज्ञापत्र में 10,00,000 रूपया भारतीय शिक्षा पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी को खर्च करने कहा गया है। पहले प्राचीन भारतीय शिक्षा पर धन लगाया गया और उसका विकास किया गया। लेकिन बाद में लार्ड मैकाले के प्रस्ताव एवं लार्ड बँटिक के घोषणा-पत्र (1935) ने इस धन राशि को केवल अंग्रेजी के माध्यम से दी जाने वाली शिक्षा पर खर्च किये जाने का आदेश दिया। इससे संस्कृति, अरबी एवं फारसी में चलने वाली शिक्षा बन्द सी हो गयी और एक निश्चित भाषा नीति चल पड़ी परन्तु बाद में लार्ड ऑकलैण्ड ने 1839 में घोषणा की कि अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों को सरकारी सेवाएं मिलेंगी और अंग्रेजी की शिक्षा पर अधिक धन खर्च किया जायेगा। परन्तु 31 हजार रूपये संस्कृत, अरबी, फारसी के माध्यम से दी जाने वाली शिक्षा पर खर्च किया जायेगा। इस प्रकार से भाषा विवाद का प्रथम सोपान समाप्त हुआ।

भाषा विवाद का दूसरा सोपान बीसवीं शताब्दी के शुरू में हुआ विशेष कर 1905 ई० के बाद राष्ट्रीय आन्दोलन के कारण राष्ट्रीय नेताओं ने मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने के लिए तथा भाषाओं को पाठ्यक्रम में शामिल करने पर जोर दिया। 1997 ई. के सैडलर कमीशन ने इण्टरमीडिएट स्तर तक की शिक्षा का माध्यम मातृभाषा व भारतीय भाषाओं को बनाने को कहा। इसकी पुनरावृत्ति 1928 ई० में हींग कमेटी ने किया। 1936-37 ई० में वुड एक्ट रिपोर्ट में 1937 ई. में बेसिक शिक्षा योजना में, 1944 ई० में सार्जेण्ट रिपोर्ट में मातृभाषा और भारतीय भाषाओं की शिक्षा का माध्यम बनाने को कहा। 1948 ई० में राधाकृष्णन् कमीशन ने इण्टरमीडिएट स्तर तक मातृभाषाऔर उच्च कक्षाओं में अंग्रेजी में शिक्षा देने को कहा। 1952-53 में मुदालियर माध्यमिक शिक्षा आयोग ने मातृभाषा को ही शिक्षा माध्यम बनाने को कहा।

1956 ई० में मातृभाषा और अंग्रेजी भाषा के स्थान पर त्रिभाषा फार्मूला चालू किया गया जो केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार परिषद् ने शुरू किया। त्रिभाषा सूत्र में मातृभाषा या प्रादेशिक भाषा राष्ट्रीय भाषा और अंग्रेजी भाषा को शामिल किया गया। 1961 में डॉ० सम्पूर्णानन्द की अध्यक्षता में गठित भावात्मक एकता समिति ने भी त्रिभाषासूत्र के अपनाने पर बल दिया। 1964-66 ई. के कोठार कमीशन ने भी त्रिभाषा सूत्र स्वीकार किया लेकिन मातृभाषा को माध्यमिक स्तर तक ही माध्यम बनाया । आगे की कक्षाओं के लिए मातृभाषा या अंग्रेजी भाषा का यथावश्यकता प्रयोग किया जाये। यही रूप आज भी पाया जाता है।

भाषा शिक्षा की समस्या

 भाषा शिक्षा एक समस्या के रूप में उभरी है। भाषा शिक्षा की समस्याएँ इस प्रकार है-

1. शिक्षा के माध्यम की समस्या- आज देश में विभिन्न भाषाएँ प्रचलित है और यह समस्या रही है कि किस भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया जाये। अनेक स्थानों पर भाषायी दंगे भी हुए भाषा विवाद ने सुविधाभोगी वर्ग उत्पन्न कर दिया जो अंग्रेजी का सहारा लेकर अपनी प्रभुसत्ता जनता पर कायम किये हुए है।

2. सम्पर्क भाषा की समस्या- भाषा शिक्षा की दूसरी समस्या है, सम्पर्क भाषा की। देश के विभिन्न प्रदेशों की मध्य सम्पर्क भाषा क्या हो ? प्रत्येक छात्र को कितनी भाषाओं का ज्ञान हो जिससे वह देश के सुदूरवर्ती भाग में भी अपना सम्पर्क कायम कर सके।

3. क्षेत्रीय भाषाओं की स्थिति- तीसरी समस्या है क्षेत्रीय भाषाओं की राष्ट्रीय स्तर पर क्या स्थिति है? उनमें आपस में आदान-प्रदान किस प्रकार हो।

4. बालकों की भाषा की शिक्षा- विद्यालयों में बालकों को कितनी भाषाएँ पढ़ाई जाये। यह सवाल भी महत्वपूर्ण है, कुछ आयोग ने दो तथा कुछ ने तीन भाषाओं के शिक्षण की बात कही है।

5. शास्त्रीय भाषाएँ- संस्कृत, अरबी, फारसी आदि शास्त्रीय भाषाओं के शिक्षण की ….. भी अस्पष्ट है। इन शास्त्रीय भाषाओं का अध्ययन किस दृष्टि से किया जाये ? एक महत्वपूर्ण समस्या है।

भाषा समस्या का हल

 भारत में भाषा का प्रश्न राष्ट्रीय चेतन के साथ जुड़ा हुआ है। राष्ट्रीय चेतन का आधार भाषा तथा साहित्य होता है। भारत की अधिकांश जनसंख्या हिन्दी बोलती है, समझती है। इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी को पहला स्थान दिया गया परन्तु अंग्रेजी हिन्दी को हटाकर स्वयं पहले पद पर आसीन हो गयी है। साथ ही 15 भाषाओं को प्रमुख राष्ट्रीय भाषाओं के रूप में स्वीकार किया गया। अंग्रेजी सहकारी भाषा के रूप में स्वीकार की गयी।

भाषा की समस्या को हल करने के लिए विभिन्न शिक्षा आयोगों तथा भाषा आयोग ने यह सुझाव दिये हैं-

(1) राधाकृष्णन आयोग- राधाकृष्णन आयोग ने सभी भाषाओं के महत्व को स्वीकार किया है। आयोग के अनुसार-

  1. भारतीय संविधान में राजभाषा के रूप में हिन्दी का विकास अवश्य है।
  2. अंग्रेजी आधुनिक सभ्यता, विचार तथा विज्ञान एवं दर्शन की कुंजी है।
  3. संस्कृत के प्रति भारतीयों के मन में भक्ति-भावना तथा आस्था है।
  4. उच्च शिक्षा मातृभाषा में होनी चाहिए।
  5. उच्चतर माध्यमिक स्तर पर तीन भाषाओं का पूरा ज्ञान कराया जाये।
  6. विश्वविद्यालय स्तर पर सभी कक्षाओं में हिन्दी में शिक्षा दी जाये।

(2) मुदालियर कमीशन– मुदालियर कमीशन ने भाषा के सम्बन्ध में ये सुझाव दिये हैं-

  1. माध्यमिक स्तर पर शिक्षा का माध्यम मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा हो ।
  2. मिडिल स्तर पर मातृभाषा तथा हिन्दी पढ़ाई जाये।
  3. माध्यमिक स्तर पर छात्र दो भाषाओं का अध्ययन अवश्य करें। मातृभाषा के अध्ययन के साथ-साथ हिन्दी (जहाँ हिन्दी मातृभाषा न हो) अंग्रेजी, आधुनिक भारतीय भाषा, यूरोपीय भाषा या शास्त्रीय भाषा में चुनी जाये।
  4. संस्कृत वैकल्पिक भाषा के रूप में पढ़ाई जाये।
  5. अंग्रेजी का अध्ययन वैकल्पिक हो ।
  6. हिन्दी का अध्ययन अनिवार्य हो ।

(3) भाषा आयोग- श्री बी० जी० खैरी (1955) की अध्यक्षता में गठित भाषा आयोग ने हिन्दी की शिक्षा को माध्यम बनाने की सिफारिश की। प्रतियोगी परीक्षाओं में क्षेत्रीय भाषाओं को भी स्थान दिया जाये।

(4) त्रिभाषा (1956)- 1956 में केन्द्रीय शिक्षा के लिए त्रिभाषा सूत्र प्रस्तुत किया जो इस प्रकार है-

  1. मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा । सलाहकार बोर्ड ने भाषा विवाद को सुलझाने
  2. अंग्रेजी या अन्य विदेशी भाषा।
  3. अहिन्दी क्षेत्र के लिए हिन्दी, हिन्दी क्षेत्रों के लिए कोई एक क्षेत्रीय भाषा।

(5) कोठारी आयोग- कोठारी आयोग ने भाषा विवाद को हल करने के लिए पृथक् त्रिभाषा सूत्र प्रस्तुत किया-

  1.  मातृभाषा या प्रादेशिक भाषा।
  2. केन्द्र की राज्य भाषा या सहकारी भाषा।
  3. आधुनिक भारतीय भाषा या यूरोपीय भाषा जो (1) या (2) में सम्मिलित न हो।

शिक्षा के माध्यम के रूप में कोठारी कमीशन ने शिक्षा के सभी स्तरों पर मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम स्वीकार करने की सिफारिश के साथ ही अखिल भारतीय स्तर पर अंग्रेजी में शिक्षा दी जाये।

त्रिभाषा सूत्र –

द्विभाषा सूत्र के दोषों को दूर करने के लिए त्रिभाषा सूत्र का प्रतिपादन किया गया। केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार परिषद् की 23वीं बैठक में जनवरी सन् 1956 में त्रिभाषा सूत्र का विकास किया गया, इस सूत्र की मुख्य बातें भाषाओं के सम्बन्ध में निम्नलिखित थीं-

(1) प्राथमिक तथा माध्यमिक स्तर पर शिक्षा का माध्यम मातृभाषा अथवा क्षेत्रीय भाषा हो ।

(2) अंग्रेजी अथवा अन्य कोई यूरोपीय भाषा।

(3) हिन्दी (अहिन्दी भाषी क्षेत्रों के लिए) तथा अन्य कोई आधुनिक भारतीय भाषा (हिन्दी भाषी क्षेत्रों के लिए) ।

विद्यार्थियों को माध्यमिक स्तर पर उपर्युक्त तीन वर्गों में से एक-एक भाषा कुल तीन भाषाएं) अनिवार्य रूप से अध्ययन करनी पड़ेगी।

त्रिभाषा सूत्र के दोष-

त्रिभाषा सूत्र में निम्नलिखित कमियां दृष्टिगोचर होती है-

(1) इस सूत्र के अनुसार माध्यमिक स्तर पर बालक का पाठ्यक्रम अत्यन्त बोझिल बन जाता है। उसे अन्य अनिवार्य तथा वैकल्पिक विषयों के अतिरिक्त तीन भाषाओं का भी अध्ययन अनिवार्य रूप से करना पड़ता है। पाठ्यक्रम का यह भार बालक कहाँ तक वहन कर पायेगा, यह एक विचारणीय प्रश्न है।

(2) ऐसा भी देखने में आता है कि अधिकांश छात्र अपनी पढ़ाई माध्यमिक शिक्षा के बाद समाप्त कर देते हैं और उन्हें फिर अंग्रेजी से कोई सरोकार नहीं पड़ता, फिर उन्हें अंग्रेजी क्यों पढ़ाई जाये। इसके अतिरिक्त अंग्रेजी बालकों के व्यवहारिक जीवन से प्रत्यक्ष रूप से सम्बन्धित भी नहीं है।

(3) तीसरी आलोचना यह है कि हिन्दी भाषी क्षेत्रों में छात्र को अन्य भारतीय आधुनिक भाषा क्यों पढ़ाई जाये। इसकी उन्हें क्या उपयोगिता ? इसके अतिरिक्त इस सम्बन्ध में निम्नलिखित अन्य व्यावहारिक कठिनाइयाँ उत्पन्न हो सकती है-

  • (क) एक व्यावहारिक समस्या यह उत्पन्न होगी कि हिन्दी भाषी क्षेत्रों में अन्य 14 भाषाओं में से किसी क्षेत्रीय भाषा का अध्ययन प्रारम्भ किया जाये।
  • (ख) यदि एक विद्यालय में छात्र कई क्षेत्रीय भाषाओं को वैकल्पिक विषय के रूप में स्वीकार करें, तो क्या विद्यालय के लिए यह सम्भव होगा कि वह विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं के अध्ययन की व्यवस्था करे ।
  • (ग) तीसरी व्यावहारिक कठिनाई आधुनिक भारतीय भाषाओं के शिक्षकों के सम्बन्ध में है। यदि सभी हिन्दी भाषी क्षेत्रों में भारतीय भाषाओं के पठन-पाठन की योजना तैयार की जाये तो उसके लिए कम-से-कम 10 या 15 हजार शिक्षकों की आवश्यकता पड़ेगी। इतनी बड़ी संख्या में प्रशिक्षित अध्यापकों को उपलब्ध कराना अत्यन्त कठिन कार्य है।
  • (घ) त्रिभाषा सूत्र के कार्यान्वयन के लिए अत्यधिक धन की आवश्यकता पड़ेगी।
  • (ड.) इस सूत्र की उपयोगिता हिन्दी भाषी क्षेत्रों के लिए धन, शक्ति और समय के अपव्यय को ध्यान रखते हुए बहुत कम है।

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Anjali Yadav

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