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महात्मा गाँधी (MAHATMA GANDHI)
जीवन-वृत्त (Life Sketch)
गाँधी जी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 को काठियावाड़, गुजरात प्रदेश के पोरबन्दर नामक स्थान पर हुआ था। इनका पूरा नाम मोहनदास करमचन्द गाँधी था। महात्मा गाँधी के पिता का नाम करमचन्द गाँधी था, जो राजकोट में दीवान थे एवं इनकी माता का नाम पुतलीबाई था। वह धार्मिक विचारों वाली महिला थीं। गाँधी जी की प्राथमिक शिक्षा काठियावाड़ से ही हुई तत्पश्चात् अल्फ्रेड हाईस्कूल, राजकोट से इन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। बचपन से ही ये थोड़े संकोची, आज्ञाकारी स्वभाव के थे एवं सदैव बड़ों का मान-सम्मान करते थे। मैट्रिक के बाद आगे की शिक्षा भावनगर के शामलदास कॉलेज से पूरी की। गाँधी जी की आत्मकथा के अनुसार वे पढ़ाई-लिखाई में औसत थे। 13 वर्ष की अल्पायु में उनका विवाह कस्तूरबा गाँधी जी से हो गया।
गाँधी जी ने 10 जून सन् 1891 ई. में इंग्लैण्ड से वकालत की परीक्षा पास की। अप्रैल सन् 1893 ई. को गाँधी जी कानूनी सलाहकार के रूप में दक्षिण अफ्रीका गए। अफ्रीका से वापस आने पर गाँधी जी ने विदेशी शासन का विरोध करते हुए स्वतन्त्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लिया। सन् 1942 ई. में स्वतन्त्रता आन्दोलन ने फिर जोर पकड़ा जिसके परिणामस्वरूप गाँधी जी को जेल जाना पड़ा। इससे स्वतन्त्रता की आग और भड़क गयी जिससे विवश होकर अंग्रेजों ने 15 अगस्त 1947 ई. को भारत छोड़ दिया। भारत को आजादी तो मिल गयी, परन्तु इसके साथ ही देश का विभाजन भी हो गया और चारों तरफ साम्प्रदायिक झगड़े आरम्भ हो गए। गाँधी जी इन झगड़ों को शान्त करने का प्रयास किया। उनकी इस नीति से खिन्न होकर 30 जनवरी, सन् 1948 ईको नाथूराम गोडसे नामक नौजवान ने गाँधी की गोली मारकर हत्या कर दी।
महात्मा गाँधी के अनुसार, “सच्ची शिक्षा वह है जो बालकों की आत्मिक, बौद्धिक और शारीरिक क्षमताओं को उनके अन्दर से बाहर प्रकट एवं उत्तेजित करती है।”
गाँधी का सर्वोदय दर्शन (Sarvodaya Philosophy of Gandhi)
गाँधी जी ने अपने जीवन दर्शन में सर्वोदय दर्शन को विशेष महत्त्व दिया है। सर्वोदय एक आध्यात्मिक संकल्पना है जिसे प्राप्त करना कठिन था परन्तु उन्होंने इसके लिए प्रयत्न किया तथा वे पूँजीवादी तथा राजसत्ता के बल पर समाज में समता स्थापित करना चाहते थे।
1) सर्वोदय दर्शन की तत्त्व मीमांसा- गाँधी जी तत्त्व ज्ञान का सर्वोत्तम ग्रन्थ गीता को मानते थे। भगवद्गीता के अनुसार म मूल तत्त्वों को दो भागों में विभाजित किया गया है; पुरूष एवं प्रकृति। यहाँ पर पुरूष से तात्पर्य है ‘ईश्वर एवं प्रकृति से तात्पर्य है ‘पदार्थ। इनमें से ईश्वर को श्रेष्ठतम माना गया है। गाँधी जी ने गीता की दो बातों पर अत्यधिक ध्यान केन्द्रित किया है। पहली बात यह कि प्रकृति के कण-कण में ईश्वर व्याप्त है लेकिन प्रकृति ईश्वर में व्याप्त नहीं है। दूसरी बात यह है कि ईश्वर ने इस सम्पूर्ण जगत का निर्माण किया है। गाँधी जी ने गीता के इन तथ्यों को उजागर किया कि ईश्वर ही इस जगत का कर्ता है एवं प्रकृति इसकी उपादान कारण है।
2) सर्वोदय दर्शन की ज्ञान मीमांसा- गाँधी जी ज्ञान को जीवन का आधार मानते थे। इन्होंने ज्ञान को भौतिक तथा आध्यात्मिक रूप में विभाजित किया है। गाँधी जी की विचार दृष्टि से व्यक्ति को भौतिक (सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक) तथा आध्यात्मिक (ईश्वर तथा धर्म से सम्बन्धित) दोनों प्रकार का ज्ञान प्राप्त करना अनिवार्य है। इन दोनों ज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् ही वह ईश्वर तथा मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। गाँधी जी ने आध्यात्मिक ज्ञान के लिए गीता को सर्वश्रेष्ठ बताया है। इसमें अध्यात्म एवं स्वानुभूति की शिक्षा एवं कर्म प्रधान श्लोक व्यक्ति को मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। गीता के अध्ययन द्वारा व्यक्ति आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।
3) सर्वोदय दर्शन की मूल्य मीमांसा- गाँधी जी का मानना था कि मनुष्य शरीर, मन एवं आत्मा का योग है। उनका यह भी मानना था कि मनुष्य जीवन का अन्तिम लक्ष्य सत्य की प्राप्ति अर्थात् ईश्वर की प्राप्ति है। गाँधी जी इसी को मुक्ति कहते थे। गाँधी जी ने मनुष्य को सर्वप्रथम अपने भौतिक अभावों से मुक्ति प्राप्त करने पर बल दिया है। गाँधी जी ने भौतिक जीवन की सुख समृद्धि के लिए श्रम, नैतिकता एवं चरित्र के महत्त्व को स्वीकार किया है। गाँधी जी ने भौतिक एवं आध्यात्मिक सुखों की प्राप्ति के लिए एकादश व्रत (सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्वाद, अस्तेय, अपरिग्रह, अभय, अस्पृश्यता, निवारण, कायिक, श्रम, सर्वधर्म सम्भाव और विनम्रता) के पालन को भी आवश्यक समझते हैं।
सत्य, गाँधी जी के लिए साहस एवं साधन दोनों है। साहस रूप में सत्य वह है जिसका अस्तित्त्व है जिनका कभी अन्त नहीं होता है, अर्थात् ईश्वर और साधन रूप में सत्य से गाँधी जी का तात्पर्य सत्य विचार, सत्य आचरण और सत्य भाषण से है। अहिंसा से इसका अर्थ समस्त जीवधारियों के प्रति कुविचार के अभाव से हैं। इनके विचार से अहिंसा के अभाव में न सत्य का पालन हो सकता है और न ही सत्य की प्राप्ति हो सकती है।
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