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राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर पुनर्विचार समिति (1990) के सुझाव in Hind

राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर पुनर्विचार समिति (1990) के सुझाव
राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर पुनर्विचार समिति (1990) के सुझाव

राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर पुनर्विचार समिति (1990) के सुझावों का उल्लेख कीजिए।

1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर पुनर्विचार के लिए 7 नवम्बर, 1990 को सोलह सदस्यीय एक समिति बनाई गई जिसके अध्यक्ष आचार्य राममूर्ति थे। प्रतिवेदन को एक प्रकाशप्राप्त तथा मानवीय की ओर (Towards and Enlightened and Humane Society) का शीर्षक दिया गया। प्रमुख संस्तुतियाँ कई वर्गों में दी गयी, जैसे- कमियों को दूर करना नवीन सन्दर्भ में अध्यापकीय तैयारी इण्टर्नशिप, प्रतिमान हाईस्कूल अध्यापकों के लिए प्रशिक्षण नेतृत्व ‘ के लिए अध्यापक शिक्षकों की तैयारी निरन्तर अध्यापक शिक्षा तथा अन्य तथ्य।

कमियों को दूर करना- इस परिप्रेक्ष्य में कहा गया कि प्रवेश हेतु अभिक्षमता और उपलब्धि को आधार बनाया जाय न कि विश्वविद्यालयीय परीक्षाओं के अंक श्रेणी को। दक्षताधारित एकीकृत अध्यापक शिक्षा को महत्व दिया गया। मूल्य सकारात्मक अभिवृत्ति (समाज, शिक्षण उद्यम अधिगम आदि के प्रति) आदि के विकास हेतु भावात्मक पक्ष पर जोर देना जरूरी माना गया। अध्यापकीय भावी वृद्धि के लिए- सेवाकालीन कार्यक्रम संचालित करना मूल्यांकन और अनुवर्ती सेवा को अविच्छिन्न अंग बनाना कार्यक्रम प्रबन्धन हेतु शोध करना नवाचारिक व्यूह-रचनाओं के प्रयोग को महत्व देना, मीडिया निर्भर दूरवर्ती सेवाकालीन शिक्षा प्रणाली को विकसित करना अधिगम सामग्रियों की सुनिश्चित आपूर्ति (जिसमें शोध पत्रिका आदि भी सम्मिलित हो) प्रत्येक अध्यापक के लिए सेवाकालीन कार्यक्रम में प्रतिभागिता सुनिश्चित करना और प्रथम अध्यापक शिक्षा उपाधि प्रत्यक्ष विधा से प्राप्त करना आदि को विशेष रूप से आवश्यक माना गया।

नवीन सन्दर्भ अध्यापकीय तैयारी – अध्यापक शिक्षा को पुनर्नवीकृत निम्न सन्दर्भों में करने की आवश्यकता को शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए वर्गों के बच्चों के समाजीकरण और सहयोग को बढ़ाने के लिए महिलाओं की समाज में प्रस्थिति को समझने के लिए सभी सन्दर्भों में लैंगिक परिप्रेक्ष्य को सम्मिलित करने, शिक्षा के तीनों ही क्षेत्रों में ज्ञान प्रदान करने की क्षमता विकास हेतु नवाचारिक और सृजनात्मक कार्य अभिक्षमता वृद्धि हेतु स्तरित समाज में शिक्षा की मध्यवर्ती (Interventionist) भूमिका प्रत्यक्षीकरण के लिए शैक्षिक व्यवसाय केन्द्र की तैयारी के लिए पूर्व विद्यालयीय शिक्षा विकलांग शिक्षा निरन्तर और व्यापक शिक्षा क्रियाप्रधान शिक्षा ज्ञान सम्प्राप्ति के वैज्ञानिक विधि आदि विशेष क्षेत्रीय योग्यता विकास हेतु विकेन्द्रित और प्रतिभागी शैक्षिक प्रबन्धन में अध्यापकीय भूमिका को समझने के लिए स्पष्ट किया गया। प्रारम्भिक शिक्षा के वैश्वीकरण की नवीन सन्दर्भ में अनौपचारिक विद्यालय व्यवस्था को प्रोत्साहित करना, ‘पैरा स्कूल’ (Para Schools) के माध्यम से अछूते वर्ग के बच्चों का शिक्षा में स्वागत करना पूर्व बाल्यावस्था देखभाल एवं शिक्षा को सम्बन्धित करना विद्यालय व्यवस्था को सामुदायिक केन्द्र के रूप में विकसित करना जहाँ से सामाजिक सांस्कृतिक कल्याण कार्य संचालित किये जाएँ मानव तथा अन्य संसाधन गतिशीलता हेतु संगीत चित्रकला मूर्तिकला लोक संगीत आदि के व्यवस्थापन न्यूनतम अधिगम स्तरानुकूल विषय-वस्तु निर्माण वस्तु निर्माण समुदाय विद्यालय अधिगम प्रतिफल सम्प्रेषण एवं मूल्यांकन एकीकरण हेतु अवबोध विकास आदि को महत्व दिया गया।

अध्यापक शिक्षा इण्टर्नशिप प्रतिमान- क्षेत्रानुभव के सन्दर्भ में मूल्य शिक्षण कौशलों के अभ्यासाधारित विकास निरीक्षित शिक्षण तथा भूमिका निर्वाहन आदि पर अध्यापक शिक्षा के इण्टर्नशिप प्रतिमान को प्रस्तावित किया गया जो आगमनात्मक हो अर्थात व्यक्तिगत निरीक्षण और अनुभव आधारित सैद्धान्तिक अन्तर्दृष्टि प्राप्ति निर्भर प्रणाली हो। इसके लिए यर्थाथवादी क्षेत्र स्थिति लम्बी अवधि निरीक्षित शिक्षण उत्तम भूमिका प्रतिमान कुशल और प्रभावकारी अध्यापक-शिक्षक का होना आदि को जरूरी माना गया।

हाईस्कूल अध्यापक प्रशिक्षण के सन्दर्भ में कहा गया कि चार वर्षीय बी०एस-सी० बी०एड० जैसी उपाधि पाठ्यक्रम को बढ़ावा दिया जाना जरूरी है ताकि विषय-वस्तु एवं अध्यापक प्रविधि दोनों के ही सन्दर्भ में उत्तम प्रशिक्षित अध्यापकों को तैयार कर पाना सम्भव हो सके।

नेतृत्व भूमिका हेतु अध्यापक शिक्षकीय तैयारी के पक्ष में यह स्पष्ट किया गया कि शैक्षिक उद्देश्य तथा व्यूह रचनाओं की तैयारी अध्यापक तथा अध्यापक शिक्षकों से अलग निर्दिष्ट किये जाने पर वे उन्हें विपरीत अर्थ भी दे सकते हैं, नीति प्रयोग और नियन्त्रण में उनकी भूमिका नगण्य होने से वे मात्र आदेश पालनकर्त्ता रह जाते हैं, अध्यापक शिक्षा संस्थान भी सेवा केन्द्र की भूमिका में नहीं रह जाते हैं, फलतः उद्देश्य व्यूह-रचना निर्माण और प्रयोग में अध्यापक अध्यापक शिक्षक एवं संस्थानों को नेतृत्व भूमिका निर्वाहनावसर देने की जरूरत है। अतः अध्यामक-शिक्षक कम से कम कई वर्षों के विद्यालय-शिक्षा अनुभव प्राप्त व्यक्ति हो बाह्य विश्व के अनुभवी हो उच्च शैक्षिक दक्षतायुक्त हो ज्ञान और निर्णय ग्रहण अभिज्ञ हो, भारतीय समाज की सामाजिक आर्थिक एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का ज्ञाता हो, पिछड़ों के प्रति समत्व बोध रखता हो, शोध दक्ष और परिणामोन्मुख हो तथा अभिप्रेरणा चिन्तनशील, आत्म-निर्भर और संसाधान सम्पन्न व्यक्ति अवश्य हो। इसके लिए उपयुक्त अध्यापक शिक्षकीय प्रशिक्षण कार्यक्रम संचालित करने की आवश्यकता है।

निरन्तर अध्यापक शिक्षा- शैक्षिक संकुल का निर्माण करना जरूरी है जो अपने क्षेत्रीय अध्यापकों के लिए सेवाकालीन शिक्षा कार्यक्रम आयोजित एवं संचालित कर सके। यह संकुल जिला शिक्षा और प्रशिक्षण संस्थान और विद्यालय के मध्य सम्प्रेषण माध्यम के रूप में कार्य करे, यह आवश्यक है। अन्य सुझावों में यह कहा गया कि अध्यापक शिक्षा केन्द्रों में मात्र योग्य और दक्ष व्यक्तियों को ही विद्यालय तथा अन्य सरकारी संस्थानों से चक्रीय आवर्तन क्रम में स्थान देना जरूरी है न कि समस्यात्मक व्यक्तियों को। समय-समय पर ज्ञान को नवीनीकृत किये जाने के आधार पर ही अध्यापकों की निरन्तरता को बनाये रखने की आवश्यकता निश्चित हो। जिला शिक्षा और प्रशिक्षण संस्थानों को पूर्ण स्वायत्ता दी जाय ताकि उनके द्वारा प्रारम्भिक शिक्षा के सार्वभौमिक रण प्रारम्भिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा महिला पिछड़े एवं अल्पसंख्यकों में समानता और सामाजिक न्याय को बढ़ाने के लिए शिक्षा का व्यवसाय केन्द्र और परीक्षा सुधार आदि क्षेत्र में वांछित दायित्व का निर्वाहन करना सम्भव हो सके।

1990 में यू०जी०सी० के द्वारा पाठ्यक्रम विकास केन्द्र कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया और बी०एड०, बी०टी० बी०ए०बी०एड० पाठ्यक्रम आदि के लिए उद्देश्य निर्धारित करते हुए यह स्पष्ट किया गया कि विद्यालयी शिक्षा के प्रति जागरूकता निर्माण दो विषयों के शिक्षण में दक्षतार्जन निरन्तर मूल्यांकन कौशल ज्ञान रुचि अभिवृत्ति, कौशल आदि के विकास जो ज्ञान और अवबोध के साथ हो आदि के साथ बालकों के साथ समुदाय के लिए भी मार्गदर्शक के रूप में कार्य करने की दक्षत विकसित करना आवश्यक है। न्यूनतम प्रवेश योग्यता स्नातक उपाधि को माना गया जबकि चार वर्षीय पाठ्यक्रम में इण्डरमीडियट उत्तीर्ण होना जरूरी माना गया। अवधि एकर्षीय मानी गयी जो कि चार वर्षीय पाठ्यक्रमों के अतिरिक्त रही। चार प्रतिमान-बी०एड-एक वर्ष बी०एड०एक वर्ष (सेमेस्टर प्रणाली) बी०एड०एक वर्ष तथा 5/6 महीना इण्टर्नशिप और बी०एड० (बेसिक) एक वर्ष प्रस्तुत किये गये जो दिशा निर्देशन पाठ्यक्रम के दो प्रतिमान, जिसमें नवीन अभिकरण द्वारा तथा राष्ट्रीय पाठ्यक्रम केन्द्र द्वारा राज्य तथा जिला संसाधनाधार पर संचालित किये जाने पर बल दिया गया, के अतिरिक्त थे।

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Anjali Yadav

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