लेखांकन की अवधारणाएँ (Concepts of Accounting)
लेखांकन सिद्धान्तों में लेखांकन की अवधारणाओं (Concepts) को भी शामिल किया जाता है। लेखांकन में लेखांकन प्रमाप निर्धारित किए जाने की आवश्यकता है। लेखांकन प्रमाप की सहायता से विभिन्न व्यवसायों के लेखांकन से प्रभावशाली निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। इन प्रमापों का निर्धारण सरकार से प्रार्थना करके नहीं कराया जा सकता है तथा साधारण जनता से आवेदन करके भी नहीं कराया जा सकता है, प्रमाप निर्धारण के लिए लेखांकन के कार्य एवं लेखांकन की अवधारणाओं (concepts) का सहारा लेना पड़ता है। लेखांकन प्रमापों एवं सिद्धान्तों के लिए आधारभूत स्वयंसिद्ध मान्यताएं या अवधारणाएँ एक ठोस नींव का काम करती हैं। कुछ लेखक उन्हीं को सिद्धान्त भी मानते हैं।
Postulates को ही Concepts भी माना गया है, अतः ये अवधारणाओं के अन्तर्गत आते हैं जिनका वर्णन आगे किया गया है।
लेखांकन की अवधारणाओं, स्वयंसिद्ध मान्यताओं एवं प्रथाओं से सम्बन्धित विचारधाराओं में सभी व्यक्ति जो कि लेखांकन में दक्ष हैं, एकमत नहीं हैं। जैसे व्यापार का व्यापार के स्वामी से पृथक् इकाई होना व व्यापार के चालू रहने की मान्यता को लेखांकन की प्रथाओं, अवधारणाओं और मान्यताओं, सभी के अन्दर रखा जाता है। स्वयंसिद्ध मान्यताओं, प्रथाओं एवं अवधारणाओं तथा मान्यताओं के अध्ययन से ज्ञात होता है कि कुछ सभी में या एक से अधिक आती हैं। लेखांकन में दक्ष विशेषज्ञ इस सम्बन्ध में अलग-अलग विचारधारा रखते हैं।
(1) मापे हुए प्रतिफल की अवधारणा (Concept of Measured Consideration) –
लेखांकन की विषय-सामग्री को बनाने वाली सूचनाओं को प्रकट करने के लिए मूल्य (Value) के स्थान पर मापा हुआ प्रतिफल का प्रयोग अधिक उपयुक्त है । लेखांकन का प्रमुख उद्देश्य सौदों का केवल दैनिक लेखा करना ही नहीं है वरन् प्रशासन को सहायता पहुँचाने के लिए सामयिक रिपोर्ट को देना भी है। प्रबन्धक, विनियोगी और सरकार व्यवसाय के सम्बन्ध में अपनी नीतियाँ निर्धारित करते समय और व्यापार की प्रगति ज्ञात करते समय केवल लेखांकन की रिपोर्टों को ही ध्यान में नहीं रखते हैं वरन् अन्य सूचनाएँ भी ध्यान में रखते हैं। व्यवसाय की सही स्थिति का माप ज्ञात करने में लेखांकन से पर्याप्त सहायता मिलती है। व्यवसाय की ऐसी क्रियाएँ जिनकी माप मुद्रा में की जाती है, लेखांकन की विषय-सामग्री होती है। यदि मापा हुआ प्रतिफल मुद्रा में न हो तो लेखांकन का कोई उपयोग नहीं रहेगा। यही कारण हैं कि लेखांकन की जड़ें अर्थशास्त्र में केन्द्रित हैं यद्यपि इसके उद्देश्य अर्थशास्त्र से भिन्न हैं ।
(2) लागत अवधारणा (Cost Concept ) –
एक व्यापारिक उद्योग की आर्थिक क्रियाओं का आशय सामग्री, श्रम एवं अन्य सेवाओं के योग से नयी उपयोगिता सृजन करना होता है। उत्पादन में सामग्री और सेवाओं की आवश्यकता है लेकिन लेखांकन में इनकी कीमतों का लेखा किया जा सकता है। लेखांकन सामग्री लागत, श्रम लागत और मशीन लागत को प्रकट करता है। लेखांकन की आधारभूत धारणा यह है कि इसके द्वारा लागतों को महत्वपूर्ण स्थान दिया जा सकता है। यदि लेखे उचित रीति से रखे जाएं तो इनके आधार पर उत्पादन की सही लागत ज्ञात की जा सकती है।
लेखांकन में स्थायी सम्पत्तियों को साधारणतया लागत पर लिखा जाता है और बाद वाले वर्षों में लागत को ही आधार मानकर लेखे किए जाते हैं। इन सम्पत्तियों के लेखों पर बाजार मूल्य का प्रभाव नहीं पड़ता है। लागत अवधारणा का यह आशय नहीं है कि स्थायी सम्पत्ति को सदैव लागत मूल्य पर ही दिखाया जाएगा: इनके मूल्य में से ह्रास घटाकर लेखा किया जाता है। जो सम्पत्तियाँ बिना मूल्य के प्राप्त हो जाती हैं उन्हें साधारणतया चिट्ठे में नहीं लिखा जाता है, परन्तु दान में मिली हुई सम्पत्तियों को चिट्ठे में प्रकट किया जाता है; इनके सम्बन्ध में स्थायी सम्पत्ति खाता डेबिट और पूँजी संचय खाता क्रेडिट किया जाता है।
(3) प्रयत्न एवं प्राप्तियों की अवधारणा या लागत और आय की तुलना वाली अवधारणा (Concept of Efforts and Accomplishment or Concept of Matching Cost and Revenue) –
कभी कोई व्यवसाय आरम्भ किया जाता है तो आरम्भकर्ता इसे यह समझकर आरम्भ करता है कि यह व्यवसाय अनिश्चित काल तक चलाया जाएगा। व्यवसाय का सही परिणाम व्यवसाय की समाप्ति पर ही प्राप्त किया जा सकता है, परन्तु यदि व्यवसाय की अवधि लम्बी होती है तो प्रत्येक व्यवसायकर्त्ता अपने प्रयत्नों के परिणामों को ज्ञात करने का इच्छुक रहता है। लेखांकन एक ऐसी क्रिया है जिसके द्वारा व्यवसाय में किए गए प्रयत्नों की लागत एवं प्रयत्नों के फलों की आय का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। लेखांकन के प्रयत्नों को लागत (Costs) और इनके परिणामों को आय (Revenue) की संज्ञा दी गयी है। एक निर्धारित अवधि पर जो कि बहुधा एक वर्ष की होती है, लागत और आय की तुलना की जाती है। इसे लागत और आय की तुलना वाली अवधारणा (Concept of Matching Cost and Revenue) कहा जाता है। इसी को प्रयत्न एवं प्राप्तियों की अवधारणा भी कहा जाता है। इसके आधार पर यह ज्ञात होता है कि प्राप्तियों का प्रयत्नों पर आधिक्य लागत नहीं है।
लेखांकन की अवधारणा यह है कि लेखे इस प्रकार किए जाएं ताकि एक निर्धारित अवधि के लेखों की आय की तुलना इसे प्राप्त करने की इसी अवधि की लागत से उचित रीति से की जा सके। यदि लेखांकन से यह तुलना सम्भव नहीं होती तो लेखांकन व्यवस्था अच्छी नहीं मानी जाती है। यही कारण है कि लेखापालक एक निर्धारित अवधि में हुए सभी व्ययों का, चाहे उनका भुगतान रोकड़ में हुआ हो या वे अदत्त व्यय हों तथा सभी आयों का चाहे वे नकद प्राप्त हुई हों या उपार्जित हों, लेखा करते हैं।
इस अवधारणा का प्रभाव – इस अवधारणा के कारण व्यवसायी यह सरलता से ज्ञात कर सकता है कि उसकी आय सम्बन्धित लागत से अधिक है या कम है या इसके बराबर है और इस आधार पर वह व्यवसाय में मितव्ययिता लाने, इसकी कार्यक्षमता बढ़ाने एवं आय में वृद्धि करने की योजना बना सकता है।
(4) सत्यापन योग्य बाह्य प्रमाण की अवधारणा (Concept of Verifiable Objective Evidence)—
लेखांकन की यह एक महत्वपूर्ण अवधारणा है कि लेखांकन की विषय-सामग्री की सत्यता की जांच बाह्य प्रमाण द्वारा अवश्य की जानी चाहिए। बाह्य प्रमाण का यहाँ आशय उन प्रयत्नों एवं प्रमाणकों, आदि (documents and voucher, etc.) से है जिनके आधार पर लेखे किए जाते हैं। यदि लेखांकन को बहुत अधिक वैज्ञानिक होना है तो बाह्य प्रमाण द्वारा प्रमाणों को इसका आधार अवश्य बनना पड़ेगा। चूँकि व्यवसाय की समस्त लागत एवं आय का ज्ञान लेखांकन द्वारा ही किया जाता है, अतः बाह्य प्रमाणों का लेखांकन में प्रशंसनीय स्थान है।
(5) पृथक् व्यवसाय की अवधारणा (Business Entity Concept ) —
व्यवसाय की इकाई को इसके स्वामी से पृथक् माना जाता है। यह पृथकत्व लेखांकन में ही होता है। स्वामी द्वारा व्यवसाय के साथ किए हुए सौदे उसी प्रकार माने जाते हैं जैसे कि इन्हें बाहरी लोगों ने किया हो। यद्यपि स्वामी व्यवसाय में पूँजी लगाता है पर व्यवसाय के लिए यह दायित्व है, जो आहरण स्वामी द्वारा किए जाते हैं उनके लिए एक अलग खाजा खोला जाता है। इसी अवधारणा के आधार पर व्यवसाय का लाभ या हानि सही-सही निकलता है।
यह पृथकत्व की अवधारणा सभी प्रकार के व्यवसायों में है, चाहे एकाकी व्यवसाय हो या फर्म हो या कम्पनी।
इस अवधारणा का प्रभाव – व्यवसाय का स्वामी से अलग माना जाना एक ऐसी अवधारणा है जिससे व्यवसाय की कार्यक्षमता सही एवं शुद्ध रूप में मापी जा सकती है क्योंकि इसके स्वामी का इसके साथ प्रत्येक लेन-देन बाहरी व्यक्तियों के लेन-देन की तरह मानकर अलग लिखा जाता है। अतः व्यवसाय पर पड़ने वाले सभी व्यवहारों का लेखा होने के कारण इसका लाभ एवं कार्यक्षमता भली-भाँति मापी जा सकती है।
(6) चालू व्यवसाय की अवधारणा (Going Concern Concept ) –
लेख लक की यह अवधारणा होनी चाहिए कि व्यवसाय चलता रहेगा और बन्द नहीं होगा। इसी अवधारणा के आधार पर लेखे किए जाने चाहिएँ। यही कारण है कि जब वर्ष समाप्त होता है और अन्तिम खाते बनाए जाते हैं तब अदत्त व्ययों एवं पूर्णदत्त व्ययों का लेखा किया जाता है क्योंकि लेखापालक यह जानता है कि व्यवसाय भविष्य में चालू रहेगा और ये समालोचनाएँ आगे वाली अवधि में समायोजित हो जाएंगी।
यदि व्यवसाय की दशा खराब हो जाए और सभी यह आशा करें कि अब व्यवसाय बन्द ही हो जाएगा फिर भी लेखापालक (Accountant) की यही अवधारणा रहती है कि व्यवसाय चालू रहेगा और वह सब छोटे-बड़े लेखे करता रहता है, वह व्यवसाय बन्द होने की सम्भावना के आधार पर लेखे करना बन्द नहीं करता। यही लेखापालक का सबसे बड़ा गुण है जो कि व्यवसाय के चालू रहने वाली अवधारणा पर आधारित है।
लेखापालक सम्पत्तियों का ह्रास उनके कार्यशील जीवन (Working Life) को ध्यान में रखकर करता है क्योंकि वह जानता है कि व्यवसाय का जीवन असीमित अवधि का है।
इस अवधारणा के सम्बन्ध में विचारधाराएँ— इस अवधारणा के सम्बन्ध में निम्नांकित दो विचारधाराएँ महत्वपूर्ण हैं:
कोहलर के अनुसार, कोलहर के विचार में चालू व्यवसाय की अवधारणा का आशय निम्नांकित है:
“एक व्यवसायिक उद्यम अपनी सम्पत्तियों, दायित्वों, आय, परिचालन लागत, सेविवर्ग नीतियों तथा आशाओं के साथ चलन में है और इसकी भविष्य में भी चलते रहने की आशा है, यही चालू व्यवसाय की अवधारणा है। यह अवधारणा अमूर्त सम्पत्तियों के मूल्यांकन में तथा मूर्त सम्पत्तियों के हास में महत्वपूर्ण है।”
एनथोनी के अनुसार “जब तक विरोध में उपयुक्त प्रमाण न हों, लेखापालकों की मान्यता है कि व्यवसाय भविष्य में अनिश्चित काल तक चलता रहेगा।”
इस अवधारणा का प्रभाव- व्यवसाय के लेखे सही एवं पूर्ण होते हैं और व्यवसाय की कैसी भी बुरी दशा क्यों न हो जाए, इसके लेखांकन पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, लेखे बराबर किए जाते हैं।
चालू व्यवसाय की अवधारणा न रहना- निम्नांकित दशाओं में व्यवसाय के चालू रहने की अवधारणा नहीं रहती है:
(i) प्रबन्ध से सम्बन्धित परिस्थितियाँ- यदि प्रबन्ध से सम्बन्धित ऐसा व्यक्ति व्यवसाय को छोड़ देता है जिस पर सारा व्यवसाय आधारित होता है और उसके स्थान पर दूसरा उतना ही योग्य एवं प्रभावशाली व्यक्ति नहीं आता है तो व्यवसाय के चलते रहने की सम्भावना नहीं रह जाती है।
(ii) उत्पादन से सम्बन्धित परिस्थितियाँ- लम्बी हड़ताल के कारण उत्पादन कम हो गया है तथा मशीनरी खराब हो गयी है, कच्चे माल की कीमतें बहुत बढ़ गयी हैं अतः व्यापार के अधिक दिनों तक चलने की सम्भावना नहीं रह गयी है तथा दिवालियापन की स्थिति आ गयी है।
(iii) पूर्तिकर्त्ताओं से सम्बन्धित परिस्थितियाँ— (i) सबसे अधिक माल जिसके पास से क्रय किया जाता था उसका व्यापार बन्द हो गया है, अन्य कोई भी पूर्तिकर्ता आवश्यक माल की पूर्ति नहीं कर सकता है। (ii) फर्म रोकड़ कटौती का लाभ उठाने की स्थिति में न हो, उधार लेना पड़े और समय से उसका भुगतान करने में लगातार त्रुटियाँ हों तथा इस पर ब्याज भी लगे। इन दशाओं में फर्म के सम्बन्ध पूर्तिकर्ताओं से ठीक नहीं रहते तथा फर्म दिवालिया होने की स्थिति में आ जाती है।
(iv) बिक्री से सम्बन्धित परिस्थितियाँ — (i) कड़ी प्रतियोगिता के कारण कम बिक्री का होना तथा एकाधिकार समाप्त होना। (ii) सस्ती प्रतिस्थापित वस्तुएँ बाजार में आ जाने से बिक्री बहुत कम हो गयी है और फर्म विघटन के कगार पर है। (iii) जो ग्राहक सबसे अधिक माल क्रय करते थे उन्होंने इस फर्म से क्रय करना बन्द कर दिया है तथा उनमें से बहुत से दिवालिया हो गए हैं। (iv) बिक्री एजेण्टों ने असहयोग कर दिया है। इन सबका प्रभाव यह हुआ है कि बिक्री न के बराबर हो गयी है।
(v) अन्य परिस्थितियाँ- (i) फर्म के विरोध में जो मामले न्यायालय में चल रहे थे उनमें अधिकतर में फर्म हार गयी है और इसे दायित्व की बड़ी-बड़ी राशियाँ देनी पड़ गयी हैं। (ii) सरकार से जो लाइसेन्स इसे मिले थे वे निरस्त कर दिए गए हैं। (iii) फर्म में कई बार आग लगने से बहुत क्षति हो गयी है। बीमा कम्पनी ने बहुत ही कम इस क्षति की पूर्ति की है। (iv) फर्म के देनदारों से राशि वसून्न नहीं हो पायी है। (v) अल्पकालीन ऋणों का प्रयोग दीर्घकालीन आवश्यकताओं की पूर्ति में किया जा रहा है। उपर्युक्त परिस्थितियों के कारण व्यवसाय के निरन्तर चालू रहने की सम्भावना नहीं है तथा यह व्यवसाय किसी भी समय बन्द हो सकता है, इसलिए उपर्युक्त परिस्थितियों में चालू व्यवसाय की अवधारणा लागू नहीं होती है।
(7) लेखांकन अवधि की अवधारणा (Accounting Period Concept ) —
एक व्यवसाय के अनिश्चित काल तक चलने की अवधारणा होने के कारण व्यवसायी एक ऐसी अवधि निश्चित करता है जिस पर वह अपने लाभ-हानि ज्ञात कर सके और अपनी वित्तीय स्थिति का पता लगाए। यह अवधि साधारणतया एक वर्ष होती है। इस अवधि का निर्धारण व्यवसाय की प्रकृति के आधार पर एवं व्यवसाय के स्वामी के लेखांकन सम्बन्धी उद्देश्य के आधार पर किया जाता है।
इस अवधारणा का प्रभाव – (i) व्यवसाय की एक वर्ष की प्रगति की तुलना दूसरे वर्ष की प्रगति से की जा सकती है। (ii) व्यवसाय की एक वर्ष की वित्तीय स्थिति की तुलना दूसरे वर्ष की वित्तीय स्थिति से की जा सकती है। (iii) व्यवसाय की लागत, व्यावसायिक लाभ एवं व्यावसायिक कार्यदक्षता की वार्षिक तुलना द्वारा व्यवसाय के सम्बन्ध में विभिन्न प्रकार की योजनाएँ बनायी जा सकती हैं। इसी कारण लेखांकन अवधि की अवधारणा महत्वपूर्ण मानी जाती है।
(8) द्विपक्ष अवधारणा (Dual Aspect Concept)—
लेखांकन की यह अवधारणा है कि प्रत्येक सौदा दो खातों को प्रभावित करता है। यही कारण है कि लेखांकन की दोहरी प्रणाली (Double Entry) का जन्म हुआ है। इस प्रणाली में एक पक्ष को डेबिट और दूसरे पक्ष को क्रेडिट किया जाता है। व्यवसाय के सभी सौदे इस अवधारणा के आधार पर ही लिखे जाते हैं। जब कोई एकाकी व्यवसायी अपना व्यवसाय शुरू करता है। तो वह एक निर्धारित पूँजी इस व्यवसाय में लगाता है। माना कि मोहन ने 10,000 रु० रोकड़ से व्यवसाय प्रारम्भ किया, तो व्यवसाय में 10,000 रु० रोकड़ पहुँची। इसलिए व्यवसाय के लिए रोकड़ तो सम्पत्ति की तरह हुई, परन्तु व्यवसाय इस रोकड़ को स्वामी को कभी-न-कभी लौटाएगा अतः यह उसके लिए दायित्व भी हुई। इस रोकड़ से वह सम्पत्तियाँ, आदि खरीदता है और ऐसा भी हो सकता है कि उसे सम्पत्तियाँ, आदि क्रय करने के लिए उधार लेना पड़े। व्यापार की पूँजी व्यापार की सम्पत्तियों के बराबर होती है। यदि व्यापार की पूँजी के साथ ऋण भी लिया जाता है तो पूँजी + ऋण = सम्पत्तियाँ ।
इस अवधारणा का प्रभाव — (i) लेखांकन उचित एवं पूर्ण रूप से हो जाता है क्योंकि यदि एक सौदे के एक पक्ष का लेखा किया जाए और दूसरे पक्ष का लेखा न किया जाए तो यह उचित नहीं होता है। (ii) वर्तमान काल में जब उत्पादन क्रियाएँ बहुत जटिल हो गयी हैं, लेखाकर्म को सुचारु रूप से रखा जाना अत्यन्त आवश्यक हो गया है। लेखांकन की यह द्विपक्षीय अवधारणा अत्यन्त महत्वपूर्ण हो गयी है। (iii) इस अवधारणा के आधार पर रखे गए लेखों के कारण कर्मचारियों की त्रुटियों एवं कपटों का पता लगाया जा सकता है तथा उनकी जाँच की जा सकती है।
(9) पूँजी अवधारणा (Capital Concept) —
पूँजी अवधारणा का आशय यह है कि पूँजी का लेखा व्यवसाय में अलग से किया जाना चाहिए। व्यवसाय की वार्षिक अवधि में जो लाभ होता है वह एकाकी व्यवसाय और साझेदारी संस्थाओं में खाते बनाते समय पूँजी खातों में हस्तान्तरित कर दिया जाता है, परन्तु लिमिटेड कम्पनियों का लेखांकन करते समय इन कम्पनियों के होने वाले लाभ को पूँजी खाते में हस्तान्तरित नहीं किया जाता है । लेखापालक को यह ध्यान रखना चाहिए कि जंशधारियों को कम्पनी से मिलने वाली आय उनका लाभांश है जिसका लेखा पूँजी खाते में नहीं होता है।
इस अवधारणा का प्रभाव — इस अवधारणा के आधार पर व्यवसाय की पूँजी की उपार्जन शक्ति का ज्ञान आसानी से लगाया जा सकता है और विभिन्न अवधियों की आय की तुलना द्वारा। व्यवसाय की कार्यक्षमता का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
(10) वसूली की अवधारणा (Realization Concept ) —
इस अवधारणा के अनुसार न तो आदेश प्राप्ति को और न उत्पादन को आधार माना जाता है। यदि व्यवसाय में नकद बिक्री ही होती है तो नकद बिक्री को और यदि उधार बिक्री होती है तो नकद व उधार दोनों को आय माना जाता है। किसी आय का उपार्जन उस तारीख को माना जाता है जिस पर क्रेता को सेवाएँ या माल किसी पर्याप्त प्रतिफल के बदले में दिये गये हैं। यह प्रतिफल नकद हो सकता है या विनिमयसाध्य प्रलेख के रूप में हो सकता है।
(11) उपार्जन अवधारणा (Accrual Concept) –
इस अवधारणा का प्रारम्भ वर्ष के अन्त में लाभ-हानि खाता एवं चिट्ठा बनाए जाने के कारण हुआ है। जो व्यय जिस अवधि से सम्बन्धित है वह उसी अवधि में लिखा जाता है; जैसे नवम्बर व दिसम्बर का कारखाने का किराया अगले वर्ष जनवरी में भुगतान किया जाएगा, फिर भी इसका लेखा अदत्त किराए की तरह 31 दिसम्बर को अवश्य किया जाता है और इसे लाभ-हानि खाते एवं चिट्ठे दोनों में प्रकट किया जाता है। इसी प्रकार इस वर्ष की उपार्जित आयों का लेखा इस वर्ष अवश्य किया जाता है, चाहे वे नकदी में प्राप्त हुई हों या नकदी में प्राप्त न हों। जो व्यय इस वर्ष में अग्रिम भुगतान किए गए हैं उनका केवल वही भाग इस वर्ष के खातों में आएगा जो इस वर्ष से सम्बन्धित हैं, पूर्वदत्त को घटा दिया जाता है।
इस अवधारणा का प्रभाव — (i) इस अवधारणा के कारण वर्ष के लाभ या हानि तथा वर्ष की वित्तीय स्थिति ज्ञात करने में सरलता होती है। (ii) वर्ष में लागत एवं आय की तुलना करने में सहायता मिलती है।
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