लेखांकन के विभिन्न सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।
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लेखाविधि के सिद्धान्त (Principles of Accounting)
यद्यपि लेखांकन के सिद्धान्तों के प्रश्न पर लेखापालकों की विचारधारा में काफी मतभेद हैं, परन्तु अग्रलिखित सिद्धान्तों पर सभी लेखापाल एकमत हैं-
(1) मुद्रा-मापन का सिद्धान्त (Principle of Money Measurement) – लेखाविधि का सम्बन्ध मुद्रा से होता है, अत: उन्हीं व्यवहारों एवं घटनाओं का लेखा लेखाविधि में किया जाता है जिनको मुद्रा में मापा जा सकता है।
(2) पृथक् व्यवसाय का सिद्धान्त (Principle of Business Entity) – प्रत्येक व्यवसायी का लेखाकर्म रखने का यह उद्देश्य होता है कि उसे यह मालूम हो सके कि उसके व्यवसाय में कितना लाभ या हानि हुई तथा व्यवसाय की कितनी सम्पत्तियाँ एवं दायित्व हैं। ऐसी जानकारी तब ही सम्भव है जबकि व्यवसाय का अस्तित्व तथा व्यवसायी का निजी अस्तित्व रखे जाएँ अर्थात् व्यवसाय के लेखे केवल व्यवसाय की दृष्टि से ही रखे जाएँ ।
(3) कानून के पालन का सिद्धान्त (Principle of Observation of Law) – प्रत्येक देश में लेखाकर्म रखने के सम्बन्ध में विशिष्ट कानून होते हैं, जैसे- भारतीय कम्पनियों को ‘भारतीय कम्पनी अधिनियम 1956 के प्रावधानों का पालन करना चाहिए।
(4) द्वि-पहलू का सिद्धान्त (Principle of Double Aspect ) — लेखाविधि के अन्तर्गत दोहरी लेखाविधि (Double Entry System) को अपनाया जाता है, जिसके अन्तर्गत प्रत्येक व्यावसायिक व्यवहार दो खातों को प्रभावित करता है अर्थात् एक खाता डेबिट (Dr.) होता है तो दूसरा खाता क्रेडिट (Cr.) होता है।
(5) स्पष्टीकरण का सिद्धान्त (Principle of Clarity) — इस सिद्धान्त के अनुसार लेखांकन इस प्रकार किया जाना चाहिए जिससे व्यवसाय से सम्बन्धित आवश्यक सूचनाओं का ज्ञान लेखाविधि के द्वारा तैयार किए गए वित्तीय विवरणों से आसानी से हो सके।
(6) लेखाकर्म अवधि का सिद्धान्त (Principle of Accounting Period) – प्रत्येक व्यवसाय में एक निर्धारित लेखावधि होती है, जिसके समाप्त होने पर अन्तिम खाते तैयार होते हैं, और लेखावधि में क्या लाभ-हानि हुआ है, इसका पता लगाया जाता है। लेखावधि प्रायः कैलेण्डर वर्ष (Calendar Year) अर्थात् 31 दिसम्बर अथवा वित्तीय वर्ष (Financial Year) अर्थात् 31 मार्च को समाप्त होती है।
(7) लागत का सिद्धान्त (Principle of Cost ) — इस सिद्धान्त के अनुसार स्थायी सम्पत्तियों को उनके लागत मूल्य (Cost Value) पर दर्शाया जाता है, बाजार मूल्य (Market Value) पर नहीं। लेकिन सम्पत्तियों के लागत मूल्य में से ह्रास (Depreciation) अवश्य घटा दिया जाता है।
(8) भौतिकता का सिद्धान्त (Principle of Materiality) – भौतिकता के सिद्धान्त से यह आशय है कि लेखापालक को केवल उन्हीं तथ्यों एवं घटनाओं का लेखा करना चाहिए जोकि व्यवसाय एवं लेखाविधि की दृष्टि से उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण हैं। यदि इनके स्कन्ध का लेखा किया जाए या लेखा न किया जाए तो व्यवसाय की आर्थिक स्थिति पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा। इसके विपरीत, व्यापार चिन्ह (Trade Mark), पेटेण्ट (Patent), आदि का व्यवसाय के लिए महत्त्व होता है, अतः इनका लेखा करना आवश्यक है।
(9) आय-निर्धारण का सिद्धान्त (Principle of Income Determination) – इस सिद्धान्त से आशय उस अतिरेक (Surplus) से है जो कि हम व्यवसाय के सम्पूर्ण व्ययों को वसूल करने के बाद प्रस्तुत करते हैं। इस सम्बन्ध में स्मरणीय तथ्य यह है कि आय और व्यय एक ही लेखाविधि से सम्बन्धित होने चाहिए अर्थात् अर्जित आय (Accrued Income), पेशगी प्राप्त आय (Income Received in Advance), पूर्वदत्त व्यय (Prepaid Expenses) और अदत्त व्यय (Outstanding Expenses) का समायोजन करके ही चालू वर्ष की आय का निर्धारण करना चाहिए।
(1) पूँजीगत तथा आयगत व्यवहारों का सिद्धान्त (Principle of Capital and Revenue Transactions) – लेखे करते समय पूँजीगत एवं आयगत व्यवहारों को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए। पूँजीगत व्यय ऐसे व्यय होते हैं जिनसे व्यवसाय की स्थायी सम्पत्तियों और व्यवसाय की लाभार्जन क्षमता में वृद्धि होती है जबकि आयगत व्यय ऐसे व्यय होते हैं जो व्यापार को सुचारु रूप से चलाने के लिए दिन-प्रतिदिन करने होते हैं।
(11) रूढ़िवादिता का सिद्धान्त (Principle of Conservation) – प्राचीनकाल से लेखाविधि के विद्वानों का यह मत रहा है कि व्यवसाय की आर्थिक स्थिति को रूढ़िवादिता के आधार पर दर्शाया जाना चाहिए, अर्थात् भावा लाभों की चिन्ता न करके सम्भावित हानियों के लिए व्यवस्था कर लेनी चाहिए, जिससे संस्था की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ रह सके। उदाहरण के लिए, अन्तिम स्कन्ध और विनियोगों का मूल्यांकन उस मूल्य पर किया जाना चाहिए जो लागत मूल्य (Cost Value) और बाजार मूल्य (Market Value) दोनों में जो भी कम हो ।
(12) एकरूपता का सिद्धान्त (Principle of Consistency) – इस सिद्धान्त के अनुसार संस्थान में जिस पद्धति को एक बार अपनाने का निर्णय ले लिया जाता है, आने वाले समय में उसी प्रकृति की अन्य घटनाओं के लिए वही पद्धति अपनाई जानी चाहिए। उदाहरण के लिए, यदि स्थायी सम्पत्तियों पर ह्रास काटने के लिए क्रमागत शेष पर निश्चित दर पद्धति को अपनाने का निर्णय लिया गया है तो आगामी वर्षों में इसी आधार पर स्थायी सम्पत्तियों पर हास काटा जाना चाहिए।
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