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लेखा रिपोर्ट या प्रबन्धकीय प्रतिवेदन से आशय (Meaning of Accounting Report or Management Reporting)
लेखा रिपोर्ट या प्रबन्धकीय प्रतिवेदन से आशय- लेखांकन प्रणाली का उद्देश्य प्रबन्धकों को व्यावसायिक क्रियाओं पर नियन्त्रण रखने तथा बाह्य पक्षों के व्यवसाय के सम्बन्ध में अपनी नीतियाँ निश्चित करने के लिए आवश्यक सूचना को उचित मात्रा में उपलब्ध कराना है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए लेखांकन अभिलेखों में निहित सूचना को प्रतिवेदन (Reporting) के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
प्रतिवेदन अथवा रिपोर्ट से तात्पर्य उस लेख से होता है जिसके द्वारा किसी उद्देश्य के लिए व्यवस्थित ढंग से प्राप्त यथार्थ सूचनाओं का सम्प्रेषण किया जाता है। सामान्यतः प्रतिबेदन एक ऐसा व्याख्यात्मकं तथा वर्णनात्मक विवरण होता है जो किसी घटना, कार्य पद्धति, व्यवसाय की स्थिति तथा अन्य तथ्यों पर प्रकाश डालता है।
प्रबन्धकीय प्रतिवेदन प्रबन्ध लेखांकन का एक आवश्यक अंग है। प्रबन्ध लेखांकन में प्रतिवेदन कार्य वह विधि है जो लेखा-विधि की क्रिया समाप्त होने पर आरम्भ होती है। जब सभी खातों को बन्द कर दिया जाता है और आर्थिक चिट्ठा व लाभा-लाभ खाता तैयार कर लिया जाता है तो लेखा- विधि का कार्य पूरा मान लिया जाता है लेकिन प्रतिवेदन विधि का आधार तो संचालन एवं विविध आँकड़ों के सम्बन्ध में सामयिक प्रतिवेदन तैयार करना है जो साप्ताहिक, मासिक अथवा वार्षिक हो सकते ‘हैं। अतः सरल शब्दों में, “प्रबन्धकीय क्रियाओं के निष्पादन में सहायक लेखांकन समंकों का संकलन व संवहन जिस रूप में किया जाता है उसके लिखित प्रारूप को ही लेखा रिपोर्ट कहते हैं।”
प्रतिवेदन के उद्देश्य (Objectives of Reporting)
प्रतिवेदन का प्रमुख उद्देश्य संस्था के विभिन्न कार्यों के सुचारू रूप से संचालन में प्रबन्धकों की सहायता करना है। इसके अन्य प्रमुख उद्देश्य निम्न हैं-
(1) प्रबन्धकों के निर्णय कार्य में सहायता करना- प्रतिवेदन का प्रमुख उद्देश्य संस्था की सभी सूचनाओं को सार रूप में प्रबन्धकों के समक्ष प्रस्तुत करना है जिससे प्रबन्धक संस्था के कार्यों के सम्बन्ध में उचित निर्णय ले सकें और संस्था निरन्तर उन्नति करती रहे।
(2) प्रबन्धकों व कर्मचारियों की कार्यक्षमता में वृद्धि- एक अच्छे प्रतिवेदन का उद्देश्य संस्थान में कार्य करने वाले प्रबन्धकों व कर्मचारियों की कार्यक्षमता में वृद्धि करना भी है। प्रतिवेदन में दी गयी विभिन्न सूचनाओं के आधार पर ही प्रबन्धक संस्था में कार्य करने वाले कर्मचारियों के कार्यों का मूल्यांकन करते हैं जिसके आधार ही उनके वेतन, प्रशिक्षण, पदोन्नति व अन्य सुविधाओं का निर्णय लिया जाता है, जो उनकी कार्यक्षमता में वृद्धि करते हों।
(3) कार्य के वातावरण का निर्माण- प्रतिवेदन का उद्देश्य संस्था में कार्य के वातावरण का निर्माण करना भी है। इसके माध्यम से प्रबन्धकों की कार्य नीति की सूचना कर्मचारियों को तथा कर्मचारियों के कार्य व समस्याओं की सूचना उच्च प्रबन्धकों को दी जाती है, जिससे प्रबन्ध उन समस्याओं को दूर कर सशक्त कार्य वातावरण का निर्माण कर सके।
(4) कर्मचारियों के मनोबल में वृद्धिं- अच्छे प्रतिवेदन का उद्देश्य कारखानें में कार्य – करने वाले कर्मचारियों व अधिकारियों के मनोबल में वृद्धि करना भी है। प्रतिवेदन के माध्यम से कर्मचारियों के कार्यों की सूचना उच्च प्रबन्धकों को दी जाती है जिसके आधार पर वे कार्य करने वाले कर्मचारियों को विभिन्न प्रकार की अभिप्रेरणा प्रदान करते हैं जिससे उनके मनोबल में वृद्धि होती है।
(5) प्रबन्धकों के निर्णय को स्वीकार्य बनाना – प्रबन्धकों के विभिन्न निर्णय समस्त कर्मचारियों द्वारा तभी स्वीकार किये जाते हैं जबकि वे उचित व सही जानकारी पर आधारित हों। प्रतिवेदन का उद्देश्य प्रबन्धकों को संस्था के सभी कार्यों के लिए उचित सूचना प्रदान करना है जिससे प्रबन्धक विभिन्न समस्याओं के लिए सबको स्वीकार योग्य निर्णय ले सकें।
(6) प्रबन्धकों तथा कर्मचारियों के बीच मधुर सम्बन्ध- अच्छे प्रतिवेदन का उद्देश्य प्रबन्धकों तथा कर्मचारियों के बीच मधुर सम्बन्ध स्थापित करना भी है। प्रतिवेदन समस्त कार्यों की सही सूचना प्रबन्धकों को देते हैं जिससे उनके निर्णय सही तथा कर्मचारियों के हित में होते हैं। इससे प्रबन्धकों व कर्मचारियों में मधुर सम्बन्धों की स्थापना होती है।
(7) लागतों पर नियन्त्रण- प्रतिवेदन का उद्देश्य लागतों पर नियन्त्रण करना भी होता है। प्रतिवेदन संस्था में किये जाने वाले समस्त कार्यों की सूचना सार रूप में प्रबन्धकों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं जिससे प्रबन्धक उनका विश्लेषण करके इस बात की जानकारी प्राप्त कर लेते हैं कि विभिन्न उत्पादन लागतों को किस स्तर पर कम किया जा सकता है और वे उन्हें नियन्त्रित करने का निर्णय आसानी से ले लेते हैं। इस प्रकार प्रतिवेदन लागतों के नियन्त्रण में भी सहायक है।
प्रबन्ध के लिए प्रतिवेदन का महत्व अथवा आवश्यकता (Importance of Necessity of Reports)
व्यावसायिक इकाइयों के बढ़ते हुए आकार की प्रवृत्ति ने प्रबन्ध के लिए प्रतिवेदन के महत्व को बढ़ा दिया है। प्रबन्ध इन प्रतिवेदनों और विवरणों के माध्यम से ही फर्म के सम्पूर्ण कार्य कलापों की जानकारी प्राप्त करता है। वास्तव में संस्था में एक अच्छी प्रतिवेदन प्रणाली ही प्रबन्ध को संस्था की नस जानने योग्य बनाती है। एक अच्छी प्रतिवेदन पद्धति से प्रबन्ध को निम्न लाभ होते हैं।
(1) निर्णयन में सहायक (Helpful in Decision Making) – प्रतिवेदन व विवरण पत्र ही प्रबन्धकीय निर्णयों के आधार होते हैं। बिना सूचना की तुलना में समुचित सूचनाओं के आधार पर लिये गये निर्णय अधिक श्रेष्ठ होते हैं। प्रतिवेदन और विवरण-पत्र ही प्रबन्ध की कार्य- नीति, उत्पादन व विक्रय की मात्रा, विक्रय मूल्य, उत्पादन की किस्में तथा डिजाइनें, उत्पादन पद्धतियों, स्कन्ध नीति आदि के निर्धारण के लिए उपयोगी आधार प्रदान करते हैं।
(2) भावी नियोजन में सहायक (Helpful in Future Planning) – नियोजन के लिए भूतकालीन तथ्यों तथा चालू निष्पादनों की जानकारी आवश्यक होती है, जो प्रतिवेदनों और विवरण-पत्रों से प्राप्त होती हैं। एक प्रभावशाली प्रतिवेदन व्यवस्था के बिना कोई प्रबन्धक व्यावसायिक क्रियाओं के भावी नियोजन की रूपरेखा नहीं रख सकता । भावी दशाओं के अनुमानों से सम्बन्धित प्रतिवेदन प्रबन्ध की भावी नीतियों को निश्चित करने में अति उपयोगी होते हैं।
(3) ‘अपवाद द्वारा प्रबन्ध’ में सहायक (Helpful in Management by Ex- ception) – प्रतिवेदनों में अपवादात्मक व महत्वपूर्ण बातें स्पष्ट कर दी जाती है। इससे प्रबन्धक अपना सम्पूर्ण ध्यान समस्याओं के हल करने में लगा सकता है। इस प्रकार प्रतिवेदन ‘अपवाद द्वारा प्रबन्ध’ में अत्यन्त सहायक है।
(4) नियन्त्रण में सहायक (Helpful in Control) व्यावसायिक क्रियाओं पर प्रभावी नियन्त्रण के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि प्रबन्ध को यह पता हो कि वास्तविक परिणाम पूर्व निर्धारित लक्ष्यों अथवा भूतकालीन निष्पादनों से कितने तुलना योग्य है तथा विवरण विभिन्न कारकों से किस सीमा तक प्रभावित है। बजट प्रतिवेदन, उत्तरदायित्व प्रतिवेदन व विवरण विश्लेषण विवरण-पत्र इसके लिए प्रबन्धकों को पर्याप्त उपयोगी सूचनाएँ देते हैं। लागत नियन्त्रण के क्षेत्र में तो इन प्रतिवेदनों का मुख्य स्थान है। इसके अतिरिक्त विभिन्न विभागीय व व्यक्तिगत प्रतिवेदनों से व्यक्तिगत कार्य स्तरों पर नियन्त्रण रखा जा सकता है तथा असामान्य और अवांछनीय तथ्यों के पता लगने पर उन्हें अविलम्ब रोका जा सकता है।
(5) कार्य मूल्यांकन में सहायक (Helpful in Performance Appraisal)- एक अच्छी प्रतिवेदन व्यवस्था कर्मचारियों के कार्य-कलापों के मूल्यांकन में सहायक होती है। इससे संस्था के कर्मचारियों की कार्यकुशलता में सुधार आता है। वे अपने-अपने उत्तरदायित्वों के प्रति अत्यधिक सजग रहते हैं क्योंकि उन्हें पता होता है कि विभिन्न कार्यकरण प्रतिवेदनों और विवरण-पत्रों के माध्यम से प्रबन्ध को उनके क्रिया-कलापों की सतत् जानकारी मिलती रहती है। इस प्रकार प्रबन्धक इन प्रतिवेदनों की सहायता से ही उनके क्रिया-कलापों का मूल्यांकन करते हैं।
प्रतिवेदनों का वर्गीकरण या प्रकार (Classification or Kinds of Reports)
प्रबन्ध हेतु तैयार किये गये विभिन्न प्रतिवेदनों को कई आधारों पर वर्गीकृत किया जा सकता है। कुछ प्रमुख वर्गीकरण निम्न हैं-
(1) उद्देश्य या प्रयोगकर्त्ता के आधार पर वर्गीकरण (Classification on the Basis of Objective or Users)
इस आधार पर लेखा प्रतिवेदनों को निम्न दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
(A) आन्तरिक प्रतिवेदन (Internal Reports)- ये प्रतिवेदन आन्तरिक प्रबन्ध और उसके नियन्त्रण के लिए होते हैं। ये निम्न प्रकार के होते हैं।
(i) सामान्य, आवधिक अथवा नैत्यिक प्रतिवेदन (General, Periodical or Routine Reports)- ये प्रतिवेदन व्यवसाय की दैनिक क्रियाओं से सम्बन्धित होते हैं तथा इन्हें आवश्यकतानुसार दैनिक, साप्ताहिक, मासिक अथवा तिमाही नियमित रूप से तैयार किया जाता है। इन प्रतिवेदनों में नैत्यिक वित्तीय सूचनाएँ दी जाती हैं। सामान्यतः उत्पादन क्रिया का विवरण, विक्रय प्रतिवेदन, उत्पादन लागत प्रतिवेदन, विक्रय लागत प्रतिवेदन, विभागीय कार्य विवरण आदि ऐसे प्रतिवेदनों के उदाहरण हैं।
(ii) विशिष्ट प्रतिवेदन (Special Reports) – प्रबन्धकों के समक्ष ऐसी बहुत-सी समस्याएँ आती हैं, जिनके लिए सामान्य प्रतिवेदन पर्याप्त सूचनाएँ नहीं दे पाते हैं। अतः इन विशिष्ट समस्याओं पर निर्णय लेने के लिए विशिष्ट प्रतिवेदन आवश्यक हो जाते हैं। ये प्रतिवेदन व्यवसाय की दैनिक क्रियाओं से सम्बन्धित न होकर किसी विशेष प्रबन्धकीय समस्या से सम्बन्धित होते हैं। यह अन्वेषणात्मक प्रकृति के होते हैं और समस्या विशेष पर किये गये अध्ययन पर आधारित तथ्य प्रदान करते हैं। ये प्रतिवेदन मुख्यतया सर्वोच्च प्रबन्ध के उपयोग के लिए होते हैं।
(B) बाह्य प्रतिवेदन (External Reports) – ये प्रतिवेदन अत्यन्त संक्षिप्त होते हैं, फिर भी ये व्यवसाय के बाह्य पक्षों को बहुत महत्वपूर्ण सूचनाएँ प्रदान करते हैं। इनमें निम्न प्रतिवेदन सम्मिलित होते हैं –
(i) अंशधारियों के लिए प्रतिवेदन।
(ii) स्कन्ध विपणि प्रतिवेदन।
(iii) कर विवरण- इसमें आयकर, बिक्री कर, आबकारी कर विवरण तथा अन्य विवरण सम्मिलित हैं।
(iv) बैंक तथा अन्य साख संस्थाओं का प्रतिपादन।
(2) प्रकृति के आधार पर वर्गीकरण (Classification on the Basis of Nature)
इस आधार पर लेखा प्रतिवेदनों को निम्न भागों में बाँटा जा सकता है।
(A) उपक्रम प्रतिवेदन ( Enterprise Reports)- इन प्रतिवेदनों में सम्पूर्ण उपक्रम की किसी विशिष्ट क्रिया, कार्य अथवा समूची संचालन क्रिया के सम्बन्ध में वित्तीय सूचनाएँ दी जाती हैं। ये प्रतिवेदन व्यवसाय के बाह्य पक्षों को उपक्रम के बारे में सूचना प्रदान करते हैं। संस्था का स्थिति विवरण, आय विवरण, संचालकों का प्रतिवेदन, अध्यक्षीय भाषण, आयकर विवरण, स्कन्ध विपणि, अधिकारियों को भेजा गया विवरण, आदि इसके उदाहरण हैं। इन प्रतिवेदनों का एक नियत प्रारूप होता है तथा विषय-वस्तु भी निश्चित होती है।
(B) नियन्त्रण प्रतिवेदन (Control Reports) – ये प्रतिवेदन प्रबन्धकीय लेखा- विधि की नियन्त्रण प्रक्रिया के आधार होते हैं। ये वास्तविक निष्पादन का बजटीय या प्रमापित अंकों से माप प्रस्तुत करते हैं। इसमें विचरण की सीमा और उसके कारणों को स्पष्ट किया जाता है। प्रत्येक उत्तरदायित्व केन्द्र के लिए एक अलग नियन्त्रण प्रतिवेदन तैयार किया जाता है। इन्हें साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक अथवा वार्षिक आधार पर तैयार किया जाता है। इनका कोई एक निश्चित प्रारूप नहीं हो सकता। ये प्रतिवेदन निम्न दो प्रकार के होते हैं –
(i) चालू नियन्त्रण प्रतिवेदन (Current Control Reports) – ये प्रतिवेदन मासिक, साप्ताहिक अथवा दैनिक आधार पर तैयार किये जाते हैं। इनका उद्देश्य निष्पादित क्रियाओं की उनके लिए निर्धारित प्रमापों से तुलना करके विचरण ज्ञात करना और उन्हें प्रबन्ध की जानकारी में लाना होता है जिससे प्रबन्ध समय रहते आवश्यक सुधारात्मक कार्यवाही कर सके।
(ii) सारांश अथवा संक्षिप्त नियन्त्रण प्रतिवेदन (Summary Control Reports) एक निश्चित अवधि में प्रमाप से हुए विचरणों के लाभ पर पड़ने वाले प्रभाव को संक्षिप्त रूप में प्रकट करने वाले प्रतिवेदन को ही सारांश नियन्त्रण प्रतिवेदन कहते हैं। इनका उद्देश्य कारखाना प्रबन्ध की कुल प्रभावशीलता प्रकट करना तथा मुख्य प्रबन्ध अधिकारी के विचारार्थ विभिन्न विचरणों को सारांश रूप में प्रस्तुत करना तथा उनके बजटीय लाभ पर प्रभाव को दर्शाना होता है।
(C) अन्वेषणात्मक प्रतिवेदन (Investigative Reports) – नियन्त्रण प्रतिवेदन द्वारा प्रकट गम्भीर मामलों पर की गयी विशेष जाँच के आधार पर तैयार किये जाते हैं। इनमें समस्या के कारणों और उनके लिए उपायों पर प्रकाश डाला जाता है। ये विशिष्ट प्रतिवेदन होते हैं तथा इन्हें विचाराधीन परिस्थिति विशेष की विशिष्ट आवश्यकताओं के आधार पर तैयार किया जाता है।
(3) निहित सूचना के आधार पर वर्गीकरण (Classification on the Basis of Information Facts)
इस आधार पर लेखा प्रतिवेदनों को निम्न दो भागों में बाँटा जाता है –
(A) परिचालन प्रतिवेदन (Operating Reports) – ये प्रतिवेदन व्यवसाय के संचालन परिणामों से सम्बन्धित होते हैं। इन्हें दो भागों में बाँटा जा सकता है –
(i) नियन्त्रण प्रतिवेदन ( Control Reports) – इसका वर्णन पूर्व में किया जा चुका है।
(ii) सूचना प्रतिवेदन ( Information Reports) – इनका उद्देश्य संचालन से सम्बन्धित उन तथ्यों तथा सूचनाओं को सरल एवं स्पष्ट रूप में प्रबन्ध के समक्ष प्रस्तुत करना होता है जो कि व्यवसायिक योजना की नीति पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकते हैं। इन प्रतिवेदनों का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक होता है तथा इनकी तैयारी में अपेक्षाकृत अधिक जाँच व विश्लेषण की आवश्यकता होती है। प्रवृत्ति प्रतिवेदन, विश्लेषणात्मक प्रतिवेदन, क्रियाशीलता प्रतिवेदन आदि इसी प्रकार के प्रतिवेदनों के उदाहरण हैं।
(B) वित्तीय प्रतिवदेन (Financial Reports)- ये प्रतिवेदन संस्था की वित्तीय स्थिति पर प्रकाश डालते हैं और प्रबन्ध का अंशधारियों के प्रति दायित्व निभाने का मूल्यांकन करते हैं। ये निम्न प्रकार के होते हैं।
(i) स्थिर वित्तीय प्रतिवेदन (Static Financial Reports) – ये प्रतिवेदन किसी निश्चित तिथि पर व्यवसाय की वित्तीय स्थिति (सम्पत्ति, ऋण और दायितव की स्थिति) का एक चित्र प्रस्तुत करते हैं। स्थिति विवरण और उनके सहायक विवरण, जैसे देनदारों का विवरण, स्थिर प्रतिवेदन कहलाते हैं।
(ii) प्रावैगिक वित्तीय प्रतिवेदन (Dynamic Financial Reports) ये प्रतिवेदन व्यवसाय की वित्तीय स्थिति के परिवर्तनों को प्रदर्शित करते हैं। इसमें व्यवसाय के आर्थिक चिठ्ठे में वास्तविक अंकों की बजटीय अंकों से तुलना, व्यवसाय की विभिन्न सम्पत्तियों में विनियोजित कोषों की प्रभावशीलता की माप तथा दो लेखाविधियों के बीच व्यवसाय के कोषों के परिवर्तन का विश्लेषण किया जाता है। वित्तीय नियन्त्रण प्रतिवेदन, कोषों की प्रभावशीलता का प्रतिवेदन, वित्तीय स्थिति में परिवर्तन का प्रतिवेदन आदि प्रावैगिक वित्तीय प्रतिवेदन के ही उदाहरण हैं।
विभिन्न स्तर के प्रबन्धकों के लिए प्रतिवेदन (Reports for Different Levels of Management)
विभिन्न स्तर के प्रबन्ध अधिकारियों को प्रस्तुत किये जाने वाले प्रतिवेदनों के सम्बन्ध में यह बात ध्यान देने योग्य है कि जैसे-जैसे प्रबन्ध अधिकारी का स्तर ऊँचा होता जाता है प्रतिवेदनों का सीमा क्षेत्र व्यापक होता जाता है लेकिन इसमें दिये गये विवरणों की मात्रा कम होती जाती है। प्रबन्धकीय स्तर के आधार पर इन प्रतिवेदनों को निम्न चार वर्गों में बाँटा जा सकता है।
(1) संचालक मण्डल को प्रतिवेदन (Reports to the Board of Directors)
संचालक मण्डल कम्पनी का सर्वोच्च स्तरीय प्रबन्ध होता है। इस स्तर पर सम्पूर्ण व्यवसाय होने वाली आधारभूत नीतियाँ और योजनाएँ निश्चित की जाती हैं तथा निर्णय लिये जाते हैं। पर लागू संचालक मण्डल को प्रतिवेदन संस्था का मुख्य अधिकारी (प्रबन्ध संचालक) प्रस्तुत करता है तथा अन्य अधिकारी उसके द्वारा ही संचालक मण्डल को प्रतिवेदन देते हैं। जिन संस्थाओं में प्रबन्ध लेखापाल संस्था का मुख्य वित्तीय अधिकारी होता है, वहाँ यह कार्य प्रबन्ध-लेखापाल करता है।
संचालक मण्डल को प्रस्तुत किये जाने वाले प्रतिवेदन सारांश में होते हैं। इनमें उन सभी सूचनाओं का समावेश होता है जो किसी कम्पनी के संचालन व नीति निर्धारण के लिए आवश्यक होती हैं । तुलना व प्रवृत्ति विश्लेषण के लिए इन प्रतिवेदनों में वर्तमान अवधि के अंकों के साथ-साथ गत वर्षों के अथवा उसी प्रकार के व्यवसाय में संलग्न अन्य कम्पनियों के समंक भी दिये जाते हैं। आवश्यकतानुसार ये प्रतिवेदन वार्षिक, छमाही, तिमाही अथवा मासिक हो सकते हैं, किन्तु सभी प्रकार के प्रतिवेदन संचालक मण्डल को मण्डल की सभा से पूर्व ही प्रस्तुत कर दिये जाते हैं। व्यवसाय का लाभ-हानि विवरण तथा स्थिति विवरण बोर्ड को मासिक आधार पर ही प्रस्तुत किये जाते हैं।
भारतीय कम्पनी अधिनियम के अनुसार इस रिपोर्ट में निम्न बातों का होना आवश्यक है-
(1) कम्पनी के व्यापार की स्थिति।
(2) विभिन्न कोषों हेतु संचालक मण्डल द्वारा ली जाने वाली प्रस्तावित राशि।
(3) उक्त राशि की सिफारिश जो लाभांश के रूप में वित्तीय की जाने वाली है।
(4) गत रिपोर्ट से लगातार इस वितरित वर्ष के अन्त तक संस्था में हुए महत्वपूर्ण परिवर्तन।
(2) उच्च प्रबन्ध के लिए प्रतिवेदन (Reports to Top Management)
एक बड़ी कम्पनी में उच्च प्रबन्ध संचालक मण्डल और मध्य प्रबन्ध के बीच समाशोधन गृह का कार्य करता है। इस स्तर पर प्रस्तुत किये जाने वाले प्रतिवेदन सामान्यतः दो प्रकार के होते हैं – एक तो वे जिन्हें संचालक मण्डल को प्रेषित कर देना होता है और दूसरे वे जिन्हें मण्डल को प्रेषित करने की आवश्यकता नहीं होती, इन पर तो उच्च प्रबन्ध को ही विचार करना होता है। इस स्तर के प्रबन्धकों का कम्पनी के कार्यात्मक पक्ष की ओर अधिक ध्यान रहता है। ये लोग विभिन्न विभागध्यक्षों के पर्यवेक्षक और सलाहकार का कार्य करते हैं। चूँकि उच्च प्रबन्ध स्तर के बहुत से व्यक्ति कम्पनी संचालक मण्डल के सदस्य भी होते हैं, अतः इस स्तर पर प्रतिवेदन क्रिया में ओवरलैपिंग (Overlapping) की सम्भावना रहती है। उच्च प्रबन्धक को भेजे जाने वाले प्रतिवेदन में स्थिति विवरण व लाभ-हानि सारांश, लागत प्रतिवेदन, विचरण विवरण, मास्टर बजट, रोकड़ बजट, पूँजी बजट, विकास एवं अनुसंधान व्यय बजट, उत्पादन और विक्रय सारांश वजट और विभिन्न लेखा-अनुपात सम्मिलित होते हैं। इन प्रतिवेदनों की सहायता से ही उच्च प्रबन्ध व्यावसायिक क्रियाओं पर नियन्त्रण करता है।
(3) मध्य प्रबन्ध के लिए प्रतिवेदन (Reports to Middle Management)
इस श्रेणी में आने वाले प्रतिवेदन उच्च प्रबन्ध को दिये जाने वाले प्रतिवेदनों से
कुछ अधिक विस्तृत सूचना देते हैं। इन प्रतिवेदनों को प्रमुखतया निम्न वर्गों में रखा जा सकता है –
(A) विक्रय पर प्रतिवेदन (Reports on Sales)- इस सम्बन्ध में निम्न प्रतिवेदन तैयार किये जा सकते हैं –
(i) वास्तविक विक्रय और बजटीय विक्रय का विवरण।
(ii) वास्तविक विक्रय व्यय और बजटीय विक्रय व्यय का विवरण।
(iii) विक्रेतानुसार, उत्पादानुसार व क्षेत्रानुसार विक्रय का विवरण।
(iv) देनदारों का विवरण।
(v) प्राप्त आर्डरों का विवरण।
(B) क्रय पर प्रतिवेदन (Reports on Purchase)- इन प्रतिवेदनों में विभिन्न समयों पर सामग्री की क्रय मात्रा, सामग्री के स्टॉक की स्थिति, सामग्री के मूल्य की प्रवृत्ति आदि बाते दी जाती हैं।
(C) उत्पादन पर प्रतिवेदन (Reports on Production)- इस सम्बन्ध में निम्न तैयार किये जा सकते हैं-
(i) उत्पादन बजट तथा वास्तविक उत्पादन,
(ii) उत्पादन विचरण विवरण,
(iii) संयन्त्र उपयोग बजट तथा वास्तविक संयन्त्र उपयोग,
(iv) श्रम बजट तथा वास्तविक श्रम का उपयोग।
(D) लागतों पर प्रतिवेदन (Reports on Costs) – उत्पादन लागत के प्रतिवेदन में सामग्री, श्रम और उपरिव्यथों का सारांश दिया जाता है। इसमें सामग्री क्षय, बेकार गये समय, मशीन उपयोग आदि के सम्बन्ध में भी सूचनाएँ दी जाती हैं।
(4) निम्न प्रबन्ध स्तर के लिए प्रतिवेदन (Reports to Junior Management Level)
इस श्रेणी में आने वाले प्रतिवेदन दैनिक कार्य प्रतिवेदन कहलाते हैं। इन प्रतिवेदनों का कोई निश्चित प्रारूप नहीं होता है। इन प्रतिवेदनों में अधिकांशतः मात्राएँ ही दिखायी जाती हैं। वस्तुतः ये प्रतिवेदन कार्य प्रगति का दैनिक सारांश होते हैं।
लेखा रिपोर्ट के कार्य (Functions of Account Report)
लेखा रिपोर्ट किसी भी संस्था के लिए एक अति महत्वपूर्ण विवरण है। यह निम्न कार्यों को सम्पादित करती है।
(1) सूचना प्रदान करना (To Provide Information)- लेखा रिपोर्ट का यह भी एक महत्वपूर्ण कार्य है कि संचालक प्रबन्ध हेतु सूचना का प्रस्तुतीकरण एवं संवहन सही रूप में एवं ठीक समय पर हो। इस सम्बन्ध में सूचना विभिन्न रिपोर्टों के अध्ययन द्वारा दी जा सकती है।
(2) नियन्त्रण में सहायता देना (To Help in Controlling) – लेखा रिपोर्ट का मुख्य कार्य नियन्त्रण व्यवस्था में सहयोग देना है। यह रिपोर्ट नियन्त्रण का आधार मानी जाती है। इस रिपोर्ट के माध्यम से संचालन क्रिया की कमियाँ मानकर उनमें सुधार किया जा सकता है।
(3) असाधारण पर रोकथाम करना (To Check on Abnormal)- लेखा रिपोर्ट प्रबन्ध के महत्वपूर्ण सिद्धान्त केवल असाधारण की रोकथाम के क्रियान्वयन में महत्वपूर्ण सूचनाएँ देती हैं। इसके अन्तर्गत प्रमाप द्वारा ज्ञात किये गये विचलनों का विश्लेषण करके प्रशासन को पक्ष तथा विपक्ष की परिस्थितियों के सम्बन्ध में जानकारी दी जाती है।
(4) लाभ अर्जित करने का उद्देश्य (Object to Earn Profit) – लेखा रिपोर्ट लाभ कमाने में भी सहायता देती है। इस रिपोर्ट के माध्यम से लेखों का विश्लेषण तथा विवेचन अधिकारियों को लाभ प्राप्त करने हेतु प्रेरणा देता है।
अच्छे प्रतिवेदन के आवश्यक तत्व (Essentials of a Good Report)
सामान्यतः एक अच्छे प्रतिवेदन के अन्तर्गत निम्न तत्वों का होना आवश्यक है।
(1) निश्चित उद्देश्य (Certain Object) – प्रतिवेदनों में निश्चित उद्देश्य का होना अति आवश्यक है क्योंकि इसी उद्देश्य की जानकारी से उच्चाधिकारियों द्वारा भावी कार्यवाही का निर्णय लिया जाता है।
(2) पक्षपात रहित (Unbiased)- प्रतिवेदन में निष्पक्षता का तत्व होना चाहिए। प्रतिवेदन में उपलब्ध सूचनायें तथा तथ्य पक्षपात रहित रूप में प्रस्तुत किये जाने चाहिए। प्रतिवेदनों को व्यक्तिगत भावना से दूर रहकर ही बनाया जाना चाहिए।
(3) सम्भावित घटनाओं का उल्लेख (Indication of Possible Events) – प्रतिवेदन में विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति करने के गुण भी होने चाहिए, इससे प्रतिवेदन में सम्भावित घटनाओं का उल्लेख करने में आसानी होती है।
(4) समयबद्ध (Time Bound) – प्रतिवेदन तैयार करने में उचित समय का ध्यान रखना चाहिए। प्रतिवेदन को वास्तविक कार्य सम्पादन के तुरन्त बाद जारी करना चाहिए ताकि प्रबन्ध उस पर उचित ध्यान दे सके।
(5) उचित शीर्षक का प्रयोग (Use of Suitable Title) – प्रतिवेदन में उचित शीर्षक का उपयोग किया जाना चाहिए। शीर्षक के माध्यम से यह बात आसानी से ज्ञात की जा सकती है कि प्रतिवेदन किस व्यक्ति हेतु पेश किया गया है तथा वह कहाँ से प्रारम्भ हुआ है।
(6) संक्षिप्त रूपरेखा (Brief Outlined) – एक लम्बा प्रतिवेदन प्रभावशाली और उत्तम नहीं माना जाता है, यदि प्रतिवेदन अधिक लम्बा तथा विवरणात्मक हो तो उसकी संक्षिप्त रूपरेखा बना लेनी चाहिए। संक्षिप्त रूपरेखा में सभी मुख्य बातों एवं निष्कर्षो का समावेश होना चाहिए।
(7) परिशिष्ट का उपयोग (Use of AppendiceW) – विशिष्ट प्रतिवेदन तैयार करते समय सहायक तथ्यों को सदैव परिशिष्ट के रूप में दिखाया जाना चाहिए जिससे प्रतिवेदन को सरलता से पढ़ा एवं समझा जा सके।
(8) सारणी, रेखाचित्र आदि का उपयोग (Use of Table Diagrams etc.)- प्रतिवेदन ऐसा होना चाहिए जिसे देखते ही सम्बन्धित विषय की जानकारी प्राप्त हो जाए। ऐसा प्रतिवेदन में तथ्यों की सारणी, रेखाचित्र, चिन्हों आदि के प्रस्तुत करने पर ही सम्भव होता है।
(9) सरल एवं व्यावहारिक शब्दावली का प्रयोग (Use of Simple and Practical Terminology) प्रतिवेदन के अन्दर वैज्ञानिक एवं तान्त्रिक शब्दों का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। प्रतिवेदन स्पष्ट होना चाहिए, जिससे भिन्न-भिन्न निष्कर्ष न निकाले जा सकें।
(10) अपवाद का सिद्धान्त (Principle of Exception)- प्रतिवेदन तैयार करते समय अपवाद का सिद्धान्त ध्यान में रखा जाना चाहिए। योजना के अनुकूल तथ्यों के न होने पर ही उनका प्रतिवेदन में उल्लेख किया जाना चाहिए।
(11) नियन्त्रण पूर्ण योजना (Fully Controlled Planning) – प्रतिवेदन में नियन्त्रण की पूरी योजना विस्तृत रूप में होना आवश्यक है। नियन्त्रण पूर्ण योजना होने से प्रबन्ध के विभिन्न स्तरों हेतु प्रस्तुत किये जाने वाले तथ्य आपस में समन्वित हो जाते हैं, जिससे उच्च प्रशासन तक प्रतिवेदन संक्षिप्त एवं पूर्ण रूप में आसानी से पहुँच जाते हैं।
(12) नियन्त्रणीय व अनियन्त्रणीय तथ्यों का समावेश (Inclusion of Con-trollable and Uncontrollable Factors)- एक अच्छे प्रतिवेदन में नियन्त्रणीय तथा अनियन्त्रणीय तथ्यों से अधिकारी वर्ग का परिचय हो जाने पर उनसे भविष्य में लाभ उठाया जा सकता है।
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