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विद्यालय संगठन [SCHOOL ORGANIZATION]
विद्यालय संगठन का अर्थ एवं परिभाषाएँ
(MEANING AND DEFINITIONS OF SCHOOL ORGANIZATION)
किसी भी विद्यालय की सफलता के लिए उसका निश्चित रूप से संगठन होना अत्यन्त आवश्यक है। किसी भी विद्यालय की स्थापना के लिए स्थान, वातावरण, जल, भवन, फर्नीचर, स्कूल और कर्मचारी, आदि आवश्यक हैं तथा अभीष्ट साध्य की प्राप्ति के लिए उनका प्रबन्ध भी करना होता है। परन्तु यदि विद्यालय का संगठन ठीक प्रकार से नहीं किया जाता है, तो वह विद्यालय चल ही नहीं सकता। विद्यालय संगठन को यदि परम्परागत अर्थ में समझने का प्रयास करेंगे तो इसका सम्बन्ध विद्यार्थियों के लिए पढ़ने की व्यवस्था करने मात्र से है। इसके अन्तर्गत शिक्षकों की व्यवस्था, समय-सारणी, बैठने की व्यवस्था तथा कक्षाध्यापक की जो न्यूनतम आवश्यकताएँ होती हैं, उनकी व्यवस्था, आदि की जाती है। विद्यालय संगठन वह संरचना है जिसमें शिक्षक, छात्र, परिनिरीक्षक एवं अन्य व्यक्ति विद्यालय के कार्यों को चलाने लिए मिलकर कार्य करते हैं। वास्तव में शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए समस्त उपलब्ध भौतिक एवं मानवीय तत्त्वों की समुचित व्यवस्था करना हो विद्यालय का संगठन कहलाता है।
विद्यालय संगठन के अन्तर्गत केवल विद्यालय की व्यवस्था ही नहीं आती, बल्कि विद्यालय के विभिन्न तत्वों में सामंजस्य या समन्वय स्थापित करना भी संगठन के अन्तर्गत आता है। सभी आवश्यक तत्त्वों का प्रबन्ध करने के साथ ही उनका इस प्रकार से समन्वय किया जाना चाहिए कि निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति कम से कम समय में और बिना किसी बाधा के हो जाए। यदि विभिन्न वस्तुओं के प्रयोग एवं उनके कार्यों में उचित समन्वय का अभाव होता है तो विद्यालय का कार्य सुचारू रूप से संचालित नहीं हो सकेगा।
विद्यालय में शिक्षा संगठन को कुछ विद्वानों ने इस प्रकार परिभाषित किया है
1. ग्रेज (Gregg) के अनुसार, “किसी सामान्य लक्ष्य की प्राप्ति की दिशा में किसी समूह की समन्वित क्रियाओं का आशय ही संगठन से है।”
2. आर्थर मेलकन (Arthor Malkan) के अनुसार, “संगठन का तात्पर्य शैक्षिक लक्ष्यों तथा उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु विद्यालयों तथा महाविद्यालयों में शिक्षा सम्बन्धी तथ्यों को व्यवस्थित क्रम में सम्पादन करना ही शिक्षा संगठन है।”
3. वर्गीस (Varghese) के अनुसार, “कक्षा का अध्यापक के साथ, कमरे का कक्षा के साथ और छात्रों का शिक्षण पद्धतियों तथा पाठ्य पुस्तक के साथ सामंजस्य होना एवं समय तथा श्रम का समुचित विभाजन, आदि विद्यालय में शिक्षा का संगठन बनाने में सहायता प्रदान करते हैं। समय तथा श्रम का समुचित वर्गीकरण ही शिक्षा का संगठन है।”
4. शिक्षा बोर्ड ने संगठन की अपनी परिभाषा इस प्रकार दो है” छात्रों के व्यक्तिगत विकास के लिए विद्यालय की समस्त सामग्री का समुचित वर्गीकरण एवं विभाजन ही शिक्षा का संगठन कहलाता है। छात्र अपना व्यक्तिगत विकास समय के अनुरूप स्वयं कर सकें, इसके लिए विद्यालय संगठन को सहायता करनी चाहिए। इस प्रकार प्रत्येक विद्यालय अथवा महाविद्यालय का प्रमुख प्रयोजन बालकों के व्यक्तिगत विकास का मार्ग प्रशस्त करना है।”
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट हो जाता है कि संगठन वह यन्त्र है जिसको विधिवत् संचालित करके लक्ष्य की प्राप्ति की जा सकती है। इसको स्वयं में साध्य बनाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए, वरन् इसको सदैव उस लक्ष्य के अधीन रखा जाना चाहिए। विद्यालय संगठन वास्तव में अभीष्ट लक्ष्यों की प्राप्ति का एक साधन है जिसके लिए नियोजन किया जा रहा है।
विद्यालय संगठन की विशेषताएँ (CHARACTERISTICS OF SCHOOL ORGANIZATION)
संगठन एक अव्यक्तिगत प्रणाली है जिसमें मानव के समूह के समन्वित प्रयत्न कार्य करते हैं। समन्वय के अपने कुछ नियम होते हैं जिनमें रहकर ही संगठन कार्य करता है। संक्षेप में विद्यालय संगठन की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-
1. संगठन कार्य कराने के ज्ञान की एक शाखा अथवा अनुशासन है।
2. संगठन मानवीय तथा भौतिक स्रोतों में समन्वय स्थापित करने की प्रक्रिया है।
3. संगठन व्यक्तियों से कार्य कराने की कला है।
4. संगठन पर्यावरण को सुरक्षित रखने तथा उसे बनाने का कार्य है।
5. संगठन विकास की प्रक्रिया है।
6. संगठन में व्यक्तियों एवं कार्यकर्ताओं को समूह में संगठित रूप से कार्य कराया जाता है।
बर्नार्ड के अनुसार संगठन में नीचे लिखी चार विशेषताएँ होती हैं—
1. संगठन के सुनिश्चित लक्ष्य होते हैं।
2. लक्ष्य प्राप्ति हेतु सम्बन्धित व्यक्ति मिलकर कार्य करते हैं।
3. कार्यरत व्यक्तियों मध्य स्थिति अनुसार सम्बन्ध होता है।
4. समस्त क्रियाओं व साधनों में समन्वय होता है।
विद्यालय संगठन और उसकी आवश्यकता (SCHOOL ORGANIZATION AND ITS NEEDS)
विद्यालय के कार्य को सुचारु रूप और कुशलता से चलाने के लिए विद्यालय संगठन की परम आवश्यकता है। समाज में विद्यालय का अधिक महत्त्व है। उसे एक बहुत बड़े उत्तरदायित्व का निर्वाह करना पड़ता है। विद्यालय का प्रमुख केन्द्र बालक हैं। बालक के मानसिक और शारीरिक विकास के लिए आवश्यक है कि विद्यालय में योग्य अध्यापक हों, उपयुक्त भवन, उपयुक्त खेल-कूद की व्यवस्था, उचित पाठ्य सामग्री, वैज्ञानिक समय तालिका तथा मन्द बुद्धि और तीव्र बुद्धि वाले छात्रों की शिक्षा की व्यवस्था हो। यदि इन बातों को उचित रूप से पूरा न किया गया तो बालक का सर्वांगीण विकास होना अत्यन्त कठिन है। इस प्रकार विद्यालय का संगठन भौतिक मानवीय उत्थान के लिए परम आवश्यक है। मानवीय उत्थान से हमारा तात्पर्य बालक, समाज, अध्यापक, आदि से है तथा भौतिक से हमारा तात्पर्य भवन, फर्नीचर, शिक्षा के उपकरण, आदि से है। आदर्श विद्यालय व्यवस्था में भौतिक और मानवीय दोनों व्यवस्थाओं में उचित मेल होता है।
किसी विद्यालय के अन्दर पर्याप्त मात्रा में छात्र हों, योग्य अध्यापक हों तथा अन्य पढ़ने-लिखने के साधन हों, परन्तु बिना विद्यालय व्यवस्था के किसी प्रकार भी कार्य नहीं चल सकता। कक्षाओं का उचित रूप से लगाना, अध्यापकों में विषयों का विभाजन, परीक्षाओं का उचित संगठन, आदि महत्त्वपूर्ण विषय हैं जिनके लिए एक उत्तम प्रबन्ध की आवश्यकता है। किसी भी विद्यालय के शिक्षण का स्तर, विद्यालय का परीक्षा परिणाम, वहाँ का सुन्दर वातावरण, खेल-कूद प्रतियोगिताओं में छात्रों की विजय, सुन्दर अनुशासन, आदि विद्यालय के सुन्दर प्रबन्ध के परिचायक हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि विद्यार्थी या बालक के सम्पूर्ण विकास के लिए विद्यालय प्रबन्ध की परम आवश्यकता है।
हमारे देश में स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद प्रशासक का महत्त्व बढ़ गया है। विद्यालय संगठन की समस्या जटिल हो गई है, क्योंकि विद्यार्थियों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है, स्कूल के कार्यक्षेत्र में विस्तार हो भी रहा है, नये-नये विषयों को पाठ्यक्रम में स्थान दिया जा रहा है, नयी-नयी शिक्षण विधियों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है, माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्यों में वृद्धि हो रही है, आधुनिक मनोवैज्ञानिक अनुसन्धानों, बुद्धि परीक्षाओं, योग्यता परीक्षाओं का विद्यालयों में प्रयोग बढ़ रहा है, विद्यालय के समाज के प्रति उत्तरदायित्वों में वृद्धि हो रही है, इसलिए विद्यालय प्रशासन और प्रबन्ध का महत्त्व बढ़ता जा रहा है। इसीलिए अब विद्यालयों का प्रबन्ध इस प्रकार है कि हम अपने भावी नागरिकों का समुचित विकास कर सकें।
विद्यालय संगठन के उद्देश्य (AIMS OF SCHOOL ORGANIZATION)
विद्यालय की स्थापना का मुख्य ध्येय बालक का सर्वांगीण विकास करना है। इसलिए विद्यालय संगठन का उद्देश्य भी इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु सक्रिय योग प्रदान करना होना चाहिए। विद्यालय संगठन का उद्देश्य बालकों को ऐसे अवसर प्रदान करना है, जिनमें उनकी समस्त जन्मजात शक्तियों का सामंजस्यपूर्ण विकास सम्भव हो सके। इसके अतिरिक्त उनकी मूल प्रवृत्तियों का उपयोग एवं शोधन तथा रुचियों का स्वस्थ प्रकाशन एवं परिष्करण हो सके। बालक के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का सन्तुलित विकास करने की दृष्टि से विद्यालय संगठन का ध्येय—उसके शारीरिक, मानसिक, चारित्रिक एवं सामाजिक गुणों का विकास करते हुए उसे इस योग्य बनाना है कि वह भावी जीवन में अपने दायित्वों का निर्वाह सफलता एवं सच्चाई के साथ कर सके।
अतः स्पष्ट है कि विद्यालय का संगठन बालक की विकासात्मक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर करना चाहिए। परन्तु यह तथ्य नहीं भुलाया जाना चाहिए कि बालक का विकास शून्य में विचरण करने हेतु नहीं किया जा रहा है, वरन् उसे तो समाज का एक कुशल एवं सफल सदस्य बनाना है। समाज अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु विद्यालय की स्थापना करता है। विद्यालय मानव जाति की अनुपम उपलब्धियों को संजोकर रखता है तथा उन्हें भावी सन्तति को विरासत के रूप में प्रदान करता है। इस प्रकार विद्यालय संगठन का उद्देश्य बालकों को इस प्रकार से शिक्षित करना है कि वे समाज के आदर्शों, मान्यताओं, विश्वासों एवं मूल्यों की रक्षा कर सकें। कुछ विद्वानों का मत है कि विद्यालय समाज का लघु रूप है जिसमें समाज की क्रियाएँ, विचारधाराएँ, आवश्यकताएँ एवं संस्कृति, आदि अनेक सर्वोत्तम रूप में प्रतिबिम्बित होती हैं। विद्यालय का संगठन इस प्रकार किया जाना चाहिए कि वह सामाजिक जीवन का ऐसा केन्द्र बन सके, जहाँ बालक को सामाजिक जीवन का वास्तविक एवं उपयोगी प्रशिक्षण मिल सके। विद्यालय संगठन का लक्ष्य सामाजिक आवश्यकताओं के सन्दर्भ में बालक का समन्वित बहुपक्षीय विकास होना चाहिए जिसमें वह स्वयं अपने, अपनी जाति, समाज, राष्ट्र और अन्ततः मानव जाति के लिए वरदान सिद्ध हो सके। परन्तु स्मरण रहे कि विद्यालय भी समाज से यह अपेक्षा करता है कि वह उसकी सुरक्षा करते हुए उसकी अभिवृद्धि करने के लिए यथाशक्ति सहायता दे।
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