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विभिन्न संस्थाओं का किशोर के विकास पर प्रभाव (Effect of Different Institutions on the Development of an Adolescent)
बालक के विकास में अनेक कारकों का प्रभाव पड़ता है। जन्म के समय बालक एक पशु के समान होता है। सामाजिक वातावरण ही उसे एक सामाजिक प्राणी बनाता है। समाज उसे दूसरों के साथ व्यवहार, रहन-सहन, सामाजिक प्रतिमानों एवं नैतिक विचारों की जानकारी प्रदान करता है। इस अवस्था में बालक का तेजी से सामाजिक एवं मानसिक विकास होता है। ऐसे में बालक अपने परिवार, मित्रों, स्कूल और समाज के कार्य, व्यवहार और आदर्शों से प्रभावित होकर अपना जीवन निर्माण करता है।
विकास एक आजीवन चलने वाली प्रकिया है जिसे निम्नलिखित कारक प्रभावित करते हैं-
1) परिवार का प्रभाव (Effect of Family) – परिवार सामाजीकरण की पहली संस्था है। परिवार के सदस्यों के अनुसार ही बालक अपना व्यवहार करने लग जाता है। एलिस को के अनुसार, ‘किशोरावस्था में बालक को यह विश्वास होता है कि यदि वह परिवार के मान्य व्यवहार की तरह अपना आचरण नहीं करेगा तो उपहास का शिकार होगा।” परिवार में माता-पिता का उनके प्रति समानता का व्यवहार भविष्य में उन्हें हीनता का अनुभव नहीं होने देता। इस अवस्था में बालक प्रायः किसी न किसी समस्या या चिंता में उलझे रहते हैं ऐसे में पारिवारिक सदस्य उनका उचित निर्देशन एवं मार्गदर्शन करते हैं। ऐसे समय में परिवार का साथ नहीं मिलने पर बालक गलत राह पर चलना प्रारम्भ कर देते हैं। परिवार बालकों के सामने नैतिक आदर्श प्रस्तुत कर उनका अनुकरण करने पर बल देता है। छोटे परिवार में अच्छी आर्थिक स्थिति होने से बालक के खान-पान पर अच्छा ध्यान दिया जाता है जिससे उसका शारीरिक स्वास्थ्य उत्तम बना रहता है। इस अवस्था में बालक को भरपूर पोषण वाले भोजन की आवश्यकता होती है अन्यथा उसका शारीरिक विकास अवरुद्ध हो जाता है।
2) विद्यालय का प्रभाव (Effect of School) – परिवार के बाद विद्यालय बालक के सामाजीकरण की महत्वपूर्ण संस्था है। विद्यालय समाज का एक लघु रूप होता है। यहाँ अनेक छोटे-छोटे समूह होते हैं। विद्यालय छात्रों के समक्ष आदर्श और नैतिक लक्ष्य प्रस्तुत करता है। यहाँ भारतीय दर्शन को ध्यान में रखकर राष्ट्रीय एकता और देश भक्ति का पाठ पढ़ाया जाता है। विद्यालय में राष्ट्रीय पर्वो के आयोजन और पाठ्य सहगामी क्रियाओं के संचालन से छात्र परस्पर निकट आते हैं इससे उनमें सामूहिकता की भावना का संचार होता है। विद्यालय में बालक नवीन ज्ञान एवं कौशलों का प्रशिक्षण प्राप्त करता है। विद्यालय उसको भावी व्यवसाय चुनने में मदद करता है। विद्यालय में बालक बालचर, स्काउट व एन.सी. सी. का सदस्य बन जाता है। ऐसी संस्थाओं के माध्यम से वह समाजोपयोगी कार्य करना सीखता है।
विद्यालय में अध्यापन मनोवैज्ञानिक तरीके से कराया जाता है ऐसे में उसे अनेक समस्याओं के उपचार में सहायता मिलती है। जब से शिक्षा में मनोविज्ञान का समावेश हुआ है बालकों के व्यवहार में आशातीत परिवर्तन देखने को मिले हैं। मनोविज्ञान के ज्ञान से अध्यापक बालक के संवेगों को जल्दी पहचान लेते हैं और उनका योग्यता अनुसार प्रर्दशन या दमन किया जाता है। इससे बालकों के मन में विकार उत्पन्न होने से उन्हें बचाया जा सकता है। विद्यालय में बालक में चिंतन एवं तर्क क्षमता का विकास होता है जिससे उसे निर्णय लेने में सरलता होती है। विद्यालय में बच्चों के संवेगों पर नियंत्रण और आदतों एवं रुचियों में विस्तार मिलता है। अनुभवी अध्यापकों के मार्गदर्शन से बालक में जीवन के प्रति सकारात्मक अभिगमन का विकास होता है। किशोरों के मन में कल्पना की अधिकता के कारण कविता, साहित्य और कला के प्रति लगन हो जाती है। विद्यालय से उसे जीवन के उद्देश्य का ज्ञान प्राप्त होता है और वहाँ उसे प्राप्ति का मार्ग भी सुझाया जाता है। वर्तमान में बालक विद्यालय में परम्परागत दार्शनिक शिक्षा के स्थान पर प्रजातान्त्रिक एवं व्यवहारवादी शिक्षा अधिक ग्रहण करते हैं।
इस प्रकार समाज द्वारा वांछित उद्देश्यों की पूर्ति विद्यालय में ही संभव है। विद्यालय का वातावरण जनतंत्रीय होता है जिससे बालक का सामाजिक एवं मानसिक विकास निरन्तर उत्तम तरीके से एवं तेज गति से होता है। विद्यालय बालक में सृजनशीलता का विकास करता है। किशोरावस्था जीवन का सबसे कठिन व नाजुक काल होता हैं। इस अवस्था में अध्यापक उसे निरन्तर निर्देशन और परामर्श देते है।
3) मित्र मंडली का प्रभाव (Effect of Peer Group) – मित्र मंडली का मुख्य उददेश्य मनोरंजन होता है। किशोरावस्था में घर से बाहर बालक अपनी मित्र मंडली के साथ सामूहिक खेलों में रुचि लेना प्रारम्भ कर देता है। इससे प्रतिस्पर्धा की भावना का विकास होता है। मित्र मंडली अथवा टोली बालक में अनेक सामाजिक गुणों का विकास करती है। इस उम्र में बालकों के विचारों में मतभेद, मानसिक स्वतंत्रता और विद्रोह की प्रवृत्ति देखी जा सकती हैं। इस अवस्था में किशोर समाज में प्रचलित परम्पराओं, अंधविश्वासों के जाल में न फंस कर स्वछंद जीवन जीना चाहता हैं। ऐसे में मित्र उसकी भावनाओं को समझकर उसकी सहायता करते हैं।
हरलॉक के अनुसार, मित्र मंडली से बालक में न्याय, साहस, अपने सदस्यों के प्रति सद्भाव, आत्म-नियंत्रण, अपने दल और नेता के प्रति निष्ठा एवं भक्ति जैसे गुणों का विकास होता है। इस अवस्था में बालक अपने प्रिय कार्यों को अधिक करता है इस कारण समान रुचि वाले मित्रों में सामूहिकता की भावना पैदा होती है। कई बार इस अवस्था में संवेगों की तीव्रता के कारण बालक अवसाद की स्थिति में आ जाते हैं। अतः संघर्ष व मतभेद की स्थिति में मित्र वर्ग बालक को अपने मन की भड़ास निकालने की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करते हैं। किशोरावस्था में बालक समाज सेवा व देश हित के कार्य में बढ़-चढ़ कर भाग लेता हैं। उसे लगता है कि समाज की प्रत्येक समस्या का समाधान उसके पास है।
4) सामाजिक वातावरण का प्रभाव (Effect of Social Environment) – सामाजिक वातावरण बालक के विकास को एक निश्चित दिशा और रूप प्रदान करता है। रॉस के अनुसार, “किशोर समाज के निर्माण व पोषण कार्य के लिए सबसे आगे रहते हैं। किशोरों में समाज का महत्वपूर्ण व्यक्ति बनने की चाह रहती हैं। समाज के कार्य एवं प्रतिमान बालक के मन में स्वस्थ एवं सकारात्मक दृष्टिकोण उत्पन्न करते हैं। प्रायः देखा गया है कि बालक की अपने समूह के प्रति अत्यधिक निष्ठा होती है ऐसे में समाज के रहन-सहन, आचार-विचार और व्यवहार को अपना आदर्श बना लेता है। सामाजिक वातावरण का निर्माण सदस्यों की परस्पर अन्तः क्रिया से होता है जिसमें सदस्यों का एक समान हित होता है।
क्रो एवं क्रो के अनुसार, “किशोरावस्था में उसके स्वयं एवं दूसरों के प्रति दृष्टिकोण, अनुभवों तथा सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन होने लगता है। सामाजिक समूहों की सदस्यता बालकों में सद्भावना, सहानुभूति और उत्साह जैसे सामाजिक गुणों का विकास करती है। इससे बालकों में अच्छी आदतों, रूचियों एवं जीवन-दर्शन का निर्माण होता है।”
हालिंगवर्थ के अनुसार, “किशोरावस्था में बालकों के संवेगात्मक व्यवहार में उग्रता अधिक होती है ऐसे में सामाजिक वातावरण बालक के संवेगों पर नियत्रंण स्थापित कर उन्हें समाजोपयोगी रूप प्रदान करता है। सामाजिक वातावरण में बालक समूह के संगठन की शक्ति से रूबरू होते हैं इस प्रकार समाज उसे अनुचित कार्य करने से रोकता है। सामाजिक वातावरण में प्रत्येक समूह अपने कुछ नियमों का निर्धारण करता है जिसका पालन करना सभी सदस्यों के लिए आवश्यक होता है इससे बालकों में अपनत्व और सामुदायिकता की भावना जागृत होती है। समाज से बालक अनेकता में एकता का पाठ भी पढ़ता है।” ऐलिस क्रो ने बताया कि, “इस उम्र के बालकों में नवीन ज्ञान खोजने की प्रबल इच्छा शक्ति होती है। वह समाज के विकास के लिए अपने विचार प्रस्तुत करता है और इसकी जानकारी वह अपने परिवार के सदस्यों एवं मित्र मंडली को भी देता है।”
5) सामाजिक मीडिया का प्रभाव (Effect of Social Media) – मीडिया मनुष्य की अभिव्यक्ति व संवाद की सीमित क्षमताओं का असीमित एवं विस्तृत रूप है। बालक के सामाजिक, मानसिक, शारीरिक और नैतिक विकास में रेडियो, टेलीविजन, समाचार पत्र एवं पत्रिकाओं, मोबाइल और इन्टरनेट का भी बहुत अधिक योगदान रहता है। वैज्ञानिक युग में आज सामाजिक मीडिया का उपयोग अपने चरम पर है। सामाजिक मीडिया, इन्टरनेट की सहायता से अनेक व्यक्तियों और समुदायों को आपस में जोड़ने का माध्यम है। यह लोगों को अन्तःक्रिया और परस्पर सूचनाओं को साझा करने का मंच प्रदान करता है। युवा वर्ग इस माध्यम का जमकर प्रयोग कर रहा है। फेसबुक, वाट्स अप, ट्विटर, यू-ट्यूब, क्विकर, ब्लॉग्स, ब्राडकास्ट्स, गूगल, लिंक्ड इन आदि कुछ मशहूर सामाजिक मीडिया के रूप हैं। इस माध्यम में संदेश, चित्र, ब्लॉग, चलचित्र आदि शामिल हैं।
क्रो एवं क्रो के अनुसार, इस अवस्था में बालक वांछित और अवांछित कार्यों में अधिक भेद नहीं करता है। प्रायः वह बिना कोई उचित कारण जाने ही कार्य करता है। जिनमें उसे आनन्द की अनुभूति होती है। आज लगभग प्रत्येक किशोर बालक इस माध्यम से जुड़ा हुआ है। तकनीकी ज्ञान के बढ़ते प्रयोग ने आज आगामी सभ्यता को जन्म दिया है। वर्तमान में भले ही लोग आपस में एक दूसरे को जाने या नहीं परन्तु सामाजिक मीडिया से सम्पर्क में रहते हैं। इस प्रकार सामाजिक मीडिया ने सामाजिक सम्बन्धों की नई परिभाषा रच दी है।
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