शिक्षाशास्त्र / Education

विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग 1948-49 (राधाकृष्णन आयोग) की सिफारिशें तथा सुझाव

विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग- 1948-49 (राधाकृष्णन आयोग) की प्रमुख सिफारिशों का वर्णन कीजिए। 

अन्तर्विश्वविद्यालयीय परिषद तथा केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड ने भारत सरकार को एक अखिल भारतीय विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग की नियुक्ति का सुझाव दिया जिसके प्रस्ताव में कहा गया- “भारतीय विश्वविद्यालयों के कार्य का मार्गदर्शन करने के लिए भारत सरकार हण्टर कमीशन के आधार पर एक ऐसे आयोग की नियुक्ति करे जो विश्वविद्यालय शिक्षा पर देश की वर्तमान तथा भावी आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर सुधार और विकास के लिए सुझाव दे।”

भारत सरकार ने उपरोक्त प्रस्ताव को स्वीकृत करते हुए 4 नवम्बर 1948 को डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन की अध्यक्षता में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग (1948-49) की नियुक्ति की ।

आयोग की नियुक्ति का उद्देश्य-

आयोग की नियुक्ति का उद्देश्य था- “भारतीय विश्वविद्यालय शिक्षा पर रिपोर्ट प्रस्तुत करना और उन सुधारों एवं विस्तारों के विषय में सुझाव देना था, जो देश की वर्तमान तथा भावी आवश्यकताओं के उपयुक्त होने के लिए वांछनीय हो सके।”

आयोग का जाँच क्षेत्र- आयोग को विश्वविद्यालय शिक्षा से सम्बन्धित निम्नलिखित विषयों पर सुझाव देने को कहा गया-

  1. भारत में विश्वविद्यालय शिक्षा तथा शोधकार्य के उद्देश्य निर्धारित करना।
  2. विश्वविद्यालय के संगठन, प्रशासन, कार्य-क्षेत्र, वित्तीय साधन, शिक्षण के स्तर, परीक्षा, पाठ्यक्रम, शिक्षा का माध्यम, नैतिक तथा धार्मिक शिक्षण आदि में सुधार के लिए सुझाव देना ।
  3. विद्यार्थियों के अनुशासन, संशिक्षणीय कार्य तथा छात्रावास आदि के विषय में सुझाव देना ।
  4. शिक्षकों के वेतनमान, योग्यता, सेवा की दशाओं, सुविधाओं, कार्यों आदि के विषय  में सुझाव देना।
  5. केन्द्रीय विश्वविद्यालयों तथा अन्य अखिल भारतीय शिक्षण संस्थाओं की प्रमुख समस्याओं पर विचार करके सुझाव देना ।
  6. विश्वविद्यालयीय शिक्षा से सम्बन्धित अन्य महत्वपूर्ण विषयों पर विचार करना और उनके सम्बन्ध में सुझाव देना।

आयोग की सिफारिशें तथा सुझाव

1- विश्वविद्यालय शिक्षा के उद्देश्य- आयोग भारतीय आदर्श, न्याय, स्वतन्त्रता, समानता तथा बन्धुत्व के सिद्धान्तों को ध्यान में रखकर निम्न उद्देश्य निर्धारित किये-

(1) सामाजिक, राजनैतिक, प्रशासकीय एवं व्यावसायिक क्षेत्रों में नेतृत्व ग्रहण करने की योग्यता का विकास करना।

(2) भारत की प्राचीन संस्कृति तथा सभ्यता का संरक्षण करना और उसका विकास करना।

(3) प्रजातन्त्र को सफल बनाने के लिए विद्यार्थियों में नागरिकता और सामाजिकता के गुणों का विकास करना।

(4) स्वतन्त्रता, समानता, बन्धुत्व तथा न्याय के आदर्शों का संरक्षण तथा समर्थन करना।

(5) जीवन तथा ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में समन्वय स्थापित करना।

(6) विद्यार्थियों के मानसिक और शारीरिक विकास के साथ-साथ उनका आध्यात्मिक विकास करना।

(7) भारत के प्राचीन आदर्श वसुधैव कुटम्बकम् के अनुसार विद्यार्थियों में विश्वबन्धुत्व की भावना का विकास करना।

2- शिक्षक वर्ग- आयोग ने शिक्षकों के महत्व पर बल देते हुए कहा कि शिक्षा के क्षेत्र में  शिक्षकों का महत्वपूर्ण स्थान है। शिक्षा व्यवस्था की सफलता उनकी शैक्षिक योग्यता और चारित्रिक श्रेष्ठता पर निर्भर करती है। आयोग ने अनुभव किया कि शिक्षकों की वर्तमान स्थिति अच्छी नहीं है। शिक्षकों की इस स्थिति के कारण शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा है। इन कमियों को दूर करने के लिए आयोग ने निम्न सुझाव दिये-

(1) शिक्षकों को अच्छा वेतन दिया जाये, जिसे आयोग ने श्रेणीवार बांटने की सिफारिश की।

(2) शिक्षकों की पदोन्नति योग्यता के आधार पर

(3) शिक्षकों को भविष्य निधि की उत्तम व्यवस्था।

(4) शिक्षकों के निवास की व्यवस्था ।

(5) शिक्षकों की सेवा निवृत्ति की आयु 60 वर्ष और स्वास्थ्य उत्तम होने पर 64 वर्ष की आयु तक कार्य का अवसर ।

3- अध्यापन स्तर- विश्वविद्यालयों में अध्यापन स्तर को ऊँचा उठाने के लिए आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिये-

(1) विश्वविद्यालयों में इण्टर पास विद्यार्थियों को ही प्रवेश दिया जाये।

(2) अच्छे स्तर के इण्टर मीडियट कालेज खोले जाये जिनमें योग्य तथा कुशल अध्यापक नियुक्त किये जाये।

(3) हाईस्कूल तथा इण्टर उत्तीर्ण विद्यार्थियों के लिए पर्याप्त संख्या में व्यावसायिक और टेक्निकल संस्थाएं स्थापित की जाये जिससे विश्वविद्यालय में केवल योग्य और प्रतिभाशाली विद्यार्थी ही प्रवेश ले सकें।

(4) विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों की संख्या 3000 से अधिक और सम्बद्ध कालेज में 1500 से अधिक न हो ।

(5) विद्यार्थियों को 40 प्रतिशत पर तृतीय 55 प्रतिशत पर द्वितीय तथा 70 प्रतिशत पर प्रथम श्रेणी दी जाये।

इसके अतिरिक्त ट्यूटोरियल कार्य, स्नातकोत्तर विचार, गोष्ठियों, पुस्तकालयों तथा प्रयोगशालाओं की व्यवस्था एवं अभिनवन पाठ्यक्रम की व्यवस्था के सम्बन्ध में सिफारिश की।

4- पाठ्यक्रम- कमीशन ने पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में अग्रलिखित सुझाव दिये-

बी० ए० की उपाधि को प्राप्त करने की अवधि तीन वर्ष की होनी चाहिए तथा स्नातकोत्तर उपाधि ‘ आनर्स’ कोर्स के एक वर्ष बाद प्रदान की जानी चाहिए। बी० ए० की परीक्षा में चार विषयों का निर्धारण होना चाहिए जिसमें एक प्रांतीय भाषा अवश्य हो । विश्वविद्यालयों और माध्यमिक कक्षाओं में सामान्य ज्ञान का शिक्षण आवश्यक माना जाये। पाठ्यक्रम विस्तृत और लचीला होना चाहिए जिससे विद्यार्थी अपनी रुचि के अनुसार विषयों का चुनाव कर सकें।

5- स्नातकोत्तर प्रशिक्षण तथा शोध- आयोग ने विश्वविद्यालय में उच्चतम शिक्षा और शोध कार्य की समुचित व्यवस्था करने पर बल दिया और विकास के लिए आयोग ने निम्न सुझाव दिये-

(1) सभी स्नातकोत्तर कक्षाओं में प्रवेश प्रदान करने के नियम अखिल भारतीय स्तर पर निर्धारित किये जाये।

(2) स्नातकोत्तर कक्षाओं में शिक्षण का संगठन भाषण, गोष्ठियाँ, पुस्तकालय, अध्यापक, संशिक्षिकीय कार्य व प्रयोगशाला कार्य पर आधारित होना चाहिए।

(3) स्नातकोत्तर कक्षाओं के कार्यक्रम में अनुसंधान की विधियों का प्रशिक्षण भी सम्मिलित होना चाहिए।

(4) इस स्तर पर लिखित तथा मौखिक दोनों प्रकार की परीक्षायें होनी चाहिए।

(5) शोध कार्य के विद्यार्थियों का निर्वाचन अखिल भारतीय स्तर पर होना चाहिए।

(6) पी० एच० डी० में शोध कार्य की अविध कम से कम दो वर्ष होनी चाहिए।

6- व्यावसायिक शिक्षा- भारत के लिए व्यावसायिक शिक्षा को आयोग ने अति महत्वपूर्ण माना तथा कृषि, वाणिज्य, शिक्षा व्यवसाय, इन्जीनियरिंग एवं टेक्नालॉजी, कानून तथा चिकित्सा के सम्बन्ध में उपयोगी सिफारिशें कीं।

(क) कृषि शिक्षा- इस विषय में अन्य उन्नत राष्ट्रों का उदाहरण देते हुए तुलनात्मक दृष्टि से भारत की स्थिति पर प्रकाश डाला। कमीशन ने कृषि शिक्षा को प्राथमिक, माध्यमिक तथा उच्च सभी स्तरों पर समान महत्व देने, देश में कृषि शिक्षा के प्रसार के लिए वर्तमान कृषि महाविद्यालयों को विकसित करने, नये कृषि महाविद्यालय खोलने के सुझाव दिया।

(ख) वाणिज्य शिक्षा- आयोग ने वाणिज्य शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों के लिए सिफारिश की कि उन्हें 3 या 4 प्रकार के फार्मों में व्यवहारिक ज्ञान दिया जाये, विद्यार्थियों को किसी विशेष शाखा में विशेषज्ञ बनने के लिए प्रोत्साहित किया जाये तथा एम० काम में कुछ ही विद्यार्थियों को प्रवेश दिया जाये और पुस्तकीय ज्ञान की अपेक्षा व्यवहारिक ज्ञान पर अधिक बल दिया जाये।

(ग) शिक्षा व्यवसाय – शिक्षा व्यवसाय के सुधार के लिए आयोग ने अनेक महत्वपूर्ण सुझाव दिये, जैसे- पाठ्यक्रम में सुधार करके अध्यापन अभ्यास को अधिक महत्व दिया जाये, इसके लिए उपयुक्त विद्यालयों को चुना जाये, स्कूल शिक्षा का पर्याप्त अनुभव रखने वाले अध्यापकों को प्रशिक्षण विद्यालयों में अध्यापक रखा जाये तथा एम०एड० पाठ्यक्रम प्रारम्भ किये जाये और इनमें उन्हीं को प्रवेश दिया जाये जिनका कुछ वर्षों का अध्यापन अनुभव हो।

(घ) इन्जीनियरिंग तथा टेक्नालाजी- इस सम्बन्ध में आयोग ने सिफारिश की कि वर्तमान शिक्षा संस्थाओं में सुधार किया जाये, उच्च शिक्षा के लिए संस्थान स्थापित किये जाये। पाठ्यक्रम में सुधार करके इण्टर मीडिएट के पश्चात् प्राविधिक तथा इंजीनियरिंग पाठ्यक्रमों के प्रथम डिग्री कोर्स की अवधि 4 वर्ष निश्चित की जाये, इसके बाद एक वर्ष का व्यवहारिक अनुभव हो, अनुसंधान की उपयुक्त व्यवस्था की जाये।

(ङ) कानून शिक्षा- कानून की शिक्षा के सम्बन्ध में आयोग के प्रमुख सुझाव देश के कानून के कालेजों का पुनः संगठन, तीन वर्ष का पाठ्यक्रम तथा तृतीय वर्ष में व्यवहारिक अनुभव की व्यवस्था, कानून कोर्स के साथ किसी अन्य कोर्स को लेने की सुविवा, अन्य विभागों के अध्यापकों के समान ही कानून के अध्यापकों की नियुक्ति तथा कानून के क्षेत्र में अनुसंधान को प्रोत्साहन आदि-आदि थे।

(च) चिकित्सा शिक्षा- किसी भी मेडिकल कालेज में 100 से अधिक छात्रों को प्रवेश न दिया जाये, व्यवसाय में प्रवेश के पूर्व 1 वर्ष से 15 माह तक किसी चिकित्सालय में व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त हो, सार्वजनिक स्वास्थ्य तथा नर्सिंग को विशेष महत्व दिया जाये, भारतीय चिकित्सा पद्धति को महत्व दिया जाये।

7- धार्मिक शिक्षा- आयोग की रिपोर्ट में डॉ० राधाकृष्णन ने स्वयं एक पृथक अध्याय धार्मिक शिक्षा पर लिखा जिसका समर्थन अन्य सदस्यों ने किया। आयोग ने धार्मिक शिक्षा के महत्व पर बल दिया, और भारत के लिए इसे आवश्यक माना। आयोग ने इस सम्बन्ध में सभी शिक्षण संस्थाओं में कुछ समय मौन चिन्तन के बाद शिक्षण कार्य प्रारम्भ करने, स्नातक स्तर की प्रथम कक्षा में महान धार्मिक नेताओं के जीवन चरित्र, द्वितीय वर्ष में संसार के विख्यात धार्मिक ग्रन्थों में सार्वजनिक महत्व के चुने हुए अंश तथा तृतीय वर्ष में धर्म दर्शन की मुख्य समस्याओं का अध्यापन आदि सुझाव दिये।

8- शिक्षा का माध्यम-

(1) संघीय भाषा के रूप में हिन्दी का विकास किया जाये।

(2) राष्ट्रभाषा के लिए देवनागरी लिपि का प्रयोग किया जाये तथा लिपि में विद्यमान दोषों को दूर किया जाये।

(3) उच्च शिक्षा का माध्यम प्रान्तीय भाषाओं को बनाया जाये।

(4) उच्चतर माध्यमिक स्तर पर तीन भाषाओं का ज्ञान कराया जाये। प्रादेशिक भाषा (मातृ भाषा) संघीय भाषा (राष्ट्र भाषा) और अंग्रेजी ।

9- परीक्षायें- परीक्षाओं के सुधार के लिए आयोग ने सुझाव दिया कि वस्तुनिष्ठ तथा निबन्धात्मक परीक्षा का मिला जुला स्वरूप विकसित किया जाये, कक्षा कार्य के लिए कुल 1/3 अंक सुरक्षित रखे जाये। प्रथम, द्वितीय और तृतीय श्रेणी के न्यूनतम अंक 70, 55, 40 प्रतिशत हों। रियायती अंक की प्रथा बन्द कर दी जाये तथा स्नातकोत्तर एवं व्यावसायिक कक्षाओं में मौखिक परीक्षा ली जाये।

10- स्त्री शिक्षा- स्त्री शिक्षा के सम्बन्ध में आयोग ने निम्न सुझाव दिये-

(अ) यद्यपि अनेक बातों में स्त्री और पुरुष समान ही होते हैं परन्तु दोनों का कार्य क्षेत्र भिन्न होता है अतः स्त्री शिक्षा स्त्रियों के अनुरूप हो और उन्हें ऐसी शिक्षा दी जाये जिससे वे सुहृदय व सुगृहणी बन सकें।

(ब) महिलाओं को अधिक से अधिक शिक्षा सम्बन्धी सुविधाएं दी जाये।

(स) स्त्रियों के लिए पाठ्यक्रम में गृह अर्थशास्त्र, गृह प्रबन्ध व ललित कलाओं को स्थान दिया जाये।

(द) समान कार्य के लिए महिलाओं को समान वेतन दिया जाये।

(य) विश्वविद्यालय स्तर पर सह शिक्षा को प्रोत्साहित किया जाये।

11- ग्रामीण विश्वविद्यालय

(अ) बड़ी संख्या में ग्रामीण महाविद्यालयों की स्थापना की जाये।

(ब) ग्रामीण महाविद्यालयों और ग्रामीण विश्वविद्यालयों की छात्र संख्या क्रमश: 300 तथा 2500 हो ।

(स) ग्रामीण महाविद्यालयों व विश्वविद्यालयों का मुख्य उद्देश्य छात्रों को सामान्य शिक्षा देना तथा वैज्ञानिक रुचियों का विकास करना हो।

(द) कालेजों में पुस्तकालय, प्रयोगशाला तथा क्रीड़ास्थल की समुचित व्यवस्था हो ।

(य) यहाँ अनुसंधान की व्यवस्था हो ।

(र) अखिल भारतीय स्तर पर ग्रामीण शिक्षा परिषद का गठन किया जाये।

इसके अतिरिक्त वित्तीय व्यवस्था, विश्वविद्यालय शिक्षा का संगठन तथा केन्द्रीय विश्वविद्यालय शिक्षा के सम्बन्ध में अनेक सुझाव दिये।

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Anjali Yadav

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