समाजशास्त्र एवं निर्देशन / SOCIOLOGY & GUIDANCE TOPICS

वैज्ञानिक पद्धति का अर्थ एवं परिभाषाएँ | वैज्ञानिक पद्धति की प्रमुख विशेषताएँ | समाजशास्त्र की वैज्ञानिक प्रकृति

वैज्ञानिक पद्धति का अर्थ एवं परिभाषाएँ | वैज्ञानिक पद्धति की प्रमुख विशेषताएँ | समाजशास्त्र की वैज्ञानिक प्रकृति
वैज्ञानिक पद्धति का अर्थ एवं परिभाषाएँ | वैज्ञानिक पद्धति की प्रमुख विशेषताएँ | समाजशास्त्र की वैज्ञानिक प्रकृति

समाजशास्त्र को एक विज्ञान मानना कहाँ तक उचित है? इसे किस प्रकार का विज्ञान कहा जा सकता है? अथवा समाजशास्त्र की वैज्ञानिक प्रकृति से आप क्या समझते हैं ? समाजशास्त्र में वैज्ञानिक अध्ययन की मुख्य का वर्णन कीजिए।

समस्याओं  सामान्यतः विज्ञान किसी विषय के बारे में क्रमबद्ध ज्ञान को कहते हैं। विज्ञान सम्पूर्ण अनुभव किए जाने वाले जगत को समझने की एक पद्धति है। यह वह पद्धति है, जिसका लक्ष्य अन्तिम सत्य की खोज करना है अर्थात् तथ्यों, प्रघटनाओं तथा वस्तुओं का विश्लेषण करना है, ताकि इनके कार्य-कारण सम्बन्धों का पता लगाया जा सके। गुड तथा हैट ने विज्ञान को एक क्रमबद्ध या व्यवस्थित ज्ञान के संकलन के रूप में परिभाषित किया है। व्यवस्थित से अभिप्राय किसी वस्तु के बारे में अध्ययन के परिणामस्वरूप प्राप्त किया गया यथार्थ या वास्तविक ज्ञान है। अतः विज्ञान का अर्थ प्रकृति अथवा मानव जीवन से सम्बन्धित घटनाओं व व्यवहार से सम्बन्धित ऐसा व्यवस्थित ज्ञान है, जिसका सत्यापन किया जा सकता है और जिसकी सहायता से इन्हें नियमित किया जा सकता है।

वैज्ञानिक पद्धति का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Scientific Method)

कार्ल पियर्सन (Karl Pearson), गुड तथा हैट (Goode and Hatt) तथा स्टुअर्ट चेज (Stuart Chase) ने विज्ञान की परिभाषा वैज्ञानिक पद्धति के रूप में देने का प्रयास किया है। यह जाँच की एक ऐसी पद्धति है, जिसमें किसी स्थिति, घटना, व्यवहार इत्यादि के बारे में समस्या का निर्माण किया जाता है, समस्या से सम्बन्धित उपकल्पना बनाई जाती है तथा फिर तथ्यों का संकलन करके उपकल्पना का परीक्षण किया जाता है। जाँच का यह तरीका सभी विज्ञानों में एक जैसा है। कार्ल पियर्सन ने इसी सन्दर्भ में यह तर्क दिया है कि, “समस्त विज्ञान की एकता केवल उसकी पद्धति में है न कि उसकी विषय-सामग्री में।” विज्ञान की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्न प्रकार हैं-

1. गुड तथा हैट (Goode and Hatt) के अनुसार- “विज्ञान समस्त अनुभवसिद्ध संसार के प्रति दृष्टिकोण की एक पद्धति है।”

2. लुण्डवर्ग (Lundberg) के अनुसार- “विस्तृत अर्थ में वैज्ञानिक पद्धति व्यवस्थित अवलोकन, वर्गीकरण एवं निर्वचन है।”

3. बर्नार्ड (Bernard) के अनुसार- “विज्ञान की परिभाषा इसमें पाई जाने वाली छह प्रमुख प्रक्रियाओं परीक्षण, सत्यापन, है।” परिभाषा, वर्गीकरण, संगठन तथा दृष्टिकोण, जिसमें पूर्वानुमान एवं प्रयोग भी सम्मिलित हैं के रूप में दी जा सकती है।”

4. पियर्सन (Pearson) के अनुसार- “विज्ञान वह पद्धति है, जिससे तथ्यों पर आधारित महत्त्वपूर्ण ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। विज्ञान की वस्तु सम्पूर्ण भौतिक समय है। जो व्यक्ति किसी भी प्रकार के तथ्यों का वर्गीकरण करता है, उनके पारस्परिक सम्बन्धों का पता लगाता है तथा उनमें पाए जाने वाले क्रमों का वर्णन करता है, वह वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग कर रहा है तथा वह एक वैज्ञानिक व्यक्ति है।”

5. चेज (Chase) के अनुसार- “विज्ञान पद्धति के साथ चलता है, विषय-वस्तु के साथ नहीं।”

6. कोहन तथा नागल (Cohen and Nagel) के अनुसार- “जिसे वैज्ञानिक पद्धति कहा जाता है, वह अन्य पद्धतियों से मूल रूप में इस बात में भिन्न है कि वह यथासम्भव सन्देह (शंका) को प्रोत्साहित एवं विकसित करती है, जिससे कि इस सन्देह से जो कुछ बच रहे वह सदैव सर्वोत्तम प्राप्त प्रमाण से परिपुष्ट हो सके।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि विज्ञान क्रमबद्ध ज्ञान या किसी तथ्य अथवा प्रघटना से सम्बन्धित वस्तुनिष्ठ रूप से जानकारी प्राप्त करने का एक तरीका है। इसमें अवलोकन, परीक्षा, प्रयोग, वर्गीकरण तथा विश्लेषण द्वारा वास्तविकता को समझने का प्रयास किया जाता है। यह प्रघटना के पीछे छिपे तथ्य अथवा वास्तविकता को प्राप्त करने का एक मार्ग है। परिभाषाओं से यह भी स्पष्ट होता है कि विज्ञान को क्रमबद्ध ज्ञान की शाखा के रूप में तथा एक पद्धति के रूप में परिभाषित किया गया है। ज्ञान की शाखा के रूप में इसमें निश्चितता, सामान्यता तथा कार्य-कारण सम्बन्धों पर बल दिया जाता है। पद्धति के रूप में इसमें वैज्ञानिक विधि के सभी चरणों पर बल दिया जाता है।

वैज्ञानिक पद्धति की प्रमुख विशेषताएँ (Major Characteristics of Scientific Method)

विज्ञान क्रमबद्ध ज्ञान तथा तथ्यों एवं प्रघटनाओं को समझने की एक निश्चित पद्धति है, जिसमें निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएँ पाई जाती हैं-

1. वस्तुनिष्ठता (Objectivity) – विज्ञान की मुख्य विशेषता वस्तुनिष्ठता है अर्थात् इसमें व्यक्तिपरक (Subjective) रूप से पक्षपात एवं उद्वेगों के आधार पर तथ्यों की व्याख्या न करके, तटस्थ रूप में या ज्यों-के-त्यों रूप में तथ्यों को समझा जाता है। हमारे अपने विचारों, मनोवृत्तियों अथवा उद्वेगों द्वारा अनुसन्धान अगर प्रभावित नहीं होता है तो उसे वस्तुनिष्ठ अध्ययन कहा जा सकता है। अगर अनुसन्धान वस्तुनिष्ठ है तो विभिन्न विश्लेषणकर्त्ता किसी सामान्य तथ्य का विश्लेषण करके एक समान निष्कर्ष ही निकालेंगे।

2. सामान्यता (Generality) – विज्ञान एक सामान्य पद्धति है, क्योंकि सभी प्रकार के विज्ञानों में इसका एक ही निश्चित रूप या निश्चित चरण है। इसीलिए इसे सामान्य पद्धति कहा जाता है, क्योंकि इसके द्वारा सामान्य नियमों या सिद्धान्तों का भी निर्माण किया जाता है।

3. कार्य-कारण सम्बन्ध (Cause-effect Relationship) – विज्ञान एवं वैज्ञानिक पद्धति की एक अन्य प्रमुख विशेषता इसका कार्य-कारण सम्बन्धों पर बल देना है अर्थात् यह पद्धति किसी प्रघटना के कारण व परिणाम दोनों का पता लगाने में सहायता देती है।

4. प्रामाणिकता या सत्यापनशीलता (Verifiability)- विज्ञान प्रामाणिकता पर बल देता है अर्थात् इसके द्वारा संकलित आँकड़ों की प्रामाणिकता की जाँच कोई भी व्यक्ति, जिसे उनके बारे में सन्देह हो, कर सकता है। अर्थात् विज्ञान या वैज्ञानिक विधि द्वारा एकत्रित आँकड़ों का परीक्षण एवं पुनर्परीक्षण किया जा सकता है। अतः विज्ञान दार्शनिक या काल्पनिक तथ्यों के संकलन पर बल न देकर उन तथ्यों के संकलन पर बल देता है, जिनकी प्रामाणिकता की जांच की जा सकती है।

5. निश्चयात्मकता (Definiteness) – विज्ञान की अन्य विशेषता इसका सुनिश्चित स्वरूप है। इसमें अनिश्चितता या सन्देह पैदा करने वाली बातों पर बल नहीं दिया जाता है, अपितु स्पष्ट रूप से तथ्यों के सत्यापन पर बल दिया जाता है। सम्पूर्ण वैज्ञानिक पद्धति एक निश्चित कार्यपद्धति है, जिसको अपनाए जाने पर क्या किया जाना चाहिए, इसके बारे में कोई सन्देह नहीं है, क्योंकि इस पद्धति के निश्चित चरण होते हैं।

6. क्रमबद्धता (Systematic) – विज्ञान क्रमबद्ध अध्ययन पर बल देता है अर्थात् इसके द्वारा अनुसन्धान समस्या से सम्बन्धित तथ्य संकलन करने में सहायता मिलती है। यह सभी सम्बन्धित सामग्री, विश्लेषण की इकाइयों के अनुरूप एकत्रित करने में सहायता देती है। अतः इस पद्धति को अपनाने से व्यक्ति इधर-उधर भटकने से बच जाता है।

7. पूर्वानुमान (Predictability) – क्योंकि विज्ञान क्रमबद्ध रूप से अध्ययन करने पर बल देता है तथा इसके द्वारा कार्य-कारण सम्बन्धों का भी पता चल जाता है इसलिए इसमें पूर्वानुमान लगाने की भी क्षमता पाई जाती है।

समाजशास्त्र की वैज्ञानिक प्रकृति (Scientific Nature of Sociology)

क्या समाजशास्त्र में वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग किया जा सकता है या नहीं ? यह प्रश्न समाजशास्त्र की स्थिति या प्रकृति से सम्बन्धित प्रश्न है अर्थात् इसका सम्बन्ध इस तथ्य का पता लगाना है कि क्या समाजशास्त्र विज्ञान है अथवा नहीं? यदि यह एक विज्ञान है तो इसमें वैज्ञानिक पद्धति की कौन-सी विशेषताएँ पाई जाती हैं और अगर यह विज्ञान नहीं है तो इसमें कौन-सी ऐसी आपत्तियाँ हैं, जिनके आधार पर इसे विज्ञान नहीं कहा जा सकता है। इस प्रश्न के बारे में विद्वानों में मतैक्य का अभाव पाया जाता है। प्रमुख रूप से हमारे सामने दो दृष्टिकोण रखे गए हैं-

  1. समाजशास्त्र एक विज्ञान है; तथा
  2. समाजशास्त्र विज्ञान नहीं है।

पहले दृष्टिकोण में इस बात पर बल दिया जाता है कि समाजशास्त्र अन्य विज्ञानों की तरह ही एक विज्ञान है तथा समाज, सामाजिक घटनाओं और सामाजिक पहलुओं वैज्ञानिक अध्ययन किया जा सकता है। दूसरे दृष्टिकोण के समर्थक का इस बात पर बल देते हैं कि सामाजिक घटनाओं की प्रकृति एवं सामाजिक व्यवहार इतना जटिल है कि इनका वैज्ञानिक अध्ययन सम्भव नहीं है। अतः समाजशास्त्र को एक विज्ञान नहीं कहा जा सकता। इन दोनों दृष्टिकोणों के समर्थकों ने अपने-अपने दृष्टिकोणों की पुष्टि करने के लिए अनेक तर्क दिए हैं, जिनका संक्षिप्त विवेचन निम्न प्रकार से किया जा सकता है-

(1) समाजशास्त्र विज्ञान के रूप में (Sociology as a Science)

समाजशास्त्र में विज्ञान की निम्नलिखित विशेषताएँ पाई जाती हैं-

1. समाजशास्त्रीय ज्ञान प्रमाण पर आधारित है (Sociological knowledge is based on evidence) – समाजशास्त्री किसी बात को बलपूर्वक मानने के लिए नहीं कहते, अपितु तर्क एवं प्रमाणों के आधार पर इसकी व्याख्या करते हैं। समाजशास्त्र में वास्तविक घटनाओं का अध्ययन, अवलोकन या अन्य प्रविधियों द्वारा किया जाता है।

2. तथ्यों का वर्गीकरण एवं विश्लेषण (Categorisation and analysis of facts) – समाजशास्त्र में वैज्ञानिक पद्धति द्वारा एकत्रित आँकड़ों को व्यवस्थित करने के लिए उनका वैज्ञानिक वर्गीकरण किया जाता है और तर्क के आधार पर निर्वचन करके निष्कर्ष निकाले जाते हैं, क्योंकि तथ्यों का वर्गीकरण, उनके क्रम का ज्ञान व सापेक्षिक महत्त्व का पता लगाना ही विज्ञान है और इन सब बातों को हम समाजशास्त्रीय विश्लेषणों में स्पष्ट देख सकते हैं, अतः समाजशास्त्र एक विज्ञान है।

3. सामान्यीकरण या सिद्धान्त-निर्माण का प्रयास (Attempt for generalization or building a theory) – समाजशास्त्र में वैज्ञानिक पद्धति द्वारा अध्ययन किए जाते हैं तथा सामाजिक वास्तविकता को समझने का प्रयास किया जाता है। इसीलिए इसमें सामान्यीकरण करने तथा सिद्धान्तों का निर्माण करने के प्रयास भी किए गए हैं, यद्यपि एक आधुनिक विषय होने के कारण इनमें अधिक सफलता नहीं मिल पाई है। समाजशास्त्र में यद्यपि अधिक सर्वमान्य सिद्धान्तों का निर्माण नहीं किया गया है, परन्तु अनेक सामान्यीकरण किए गए हैं तथा आज हम निरन्तर सिद्धान्तों के निर्माण की तरफ आगे बढ़ रहे हैं।

4. भविष्यवाणी करने में सक्षम (Capable of making predictions) – समाजशास्त्र में ‘क्या है’ के वैज्ञानिक पद्धति द्वारा अध्ययन के आधार पर यह बतलाया जा सकता है कि ‘क्या होगा’। समाजशास्त्र में क्योंकि कार्य-कारण सम्बन्धों की खोज-सम्भव है, अतः उसके आधार पर एक समाजशास्त्री भविष्यवाणी कर सकता है। उदाहरणार्थ, समाजशास्त्र हमें यह बतलाता है कि अपराध क्या है ? इसके होने के क्या कारण हैं ? अगर अपराध की दर में वृद्धि होती है तो समाज में इसके क्या परिणाम होंगे ? इसलिए वर्तमान परिस्थितियों के आधार पर भविष्य का पूर्वानुमान लगाने की क्षमता होने के कारण समाजशास्त्र को विज्ञान मानना उचित होगा।

5. वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग (Use of scientific method)- समाजशास्त्र में सामाजिक सम्बन्धों, सामाजिक अन्तर्क्रियाओं, सामाजिक व्यवहार तथा समाज का अध्ययन कल्पना के आधार पर नहीं किया जाता अपितु, इनको वास्तविक रूप से वैज्ञानिक पद्धति द्वारा समझने का प्रयास किया जाता है। वैज्ञानिक पद्धति द्वारा ही उपकल्पनाओं का परीक्षण तथा सामाजिक नियमों या सिद्धान्तों का निर्माण किया जाता है। समाजशास्त्रीय अध्ययन वैज्ञानिक पद्धति द्वारा ही किए जाते हैं तथा दुर्खीम मैक्स वेबर जैसे प्रारम्भिक समाजशास्त्रियों के अध्ययनों को निश्चित रूप से वैज्ञानिक अध्ययनों की श्रेणी में रखा जा सकता है। अतः समाजशास्त्र अन्य विज्ञानों की तरह ही एक विज्ञान है।

6. ‘क्या है’ का अध्ययन (Study of ‘what is’) – समाजशास्त्र तथ्यों का यथार्थ रूप से वर्णन ही नहीं करता, अपितु इनकी व्याख्या भी करता है। इसमें प्राप्त तथ्यों को बढ़ा-चढ़ाकर या आदर्श एवं कल्पना से मिश्रित करके प्रस्तुत नहीं किया जाता, अपितु वास्तविक घटनाओं (जिस रूप में वे विद्यमान है) का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है।

7. कार्य-कारण सम्बन्धों की व्याख्या (Explanation of cause-effect relationships) समाजशास्त्र अपनी विषय-वस्तु में कार्य-कारण सम्बन्धों की खोज करता है अर्थात् इसका उद्देश्य विभिन्न सामाजिक घटनाओं के बारे में आँकड़े एकत्रित करना ही नहीं है, अपितु उनके कार्य कारण सम्बन्धों तथा परिणामों का पता लगाना भी है। प्राकृतिक विज्ञानों में कार्य-कारण सम्बन्धों का निरीक्षण प्रयोगशाला में किया जाता है, परन्तु समाजशास्त्र में यह अप्रत्यक्ष प्रयोगात्मक पद्धति अर्थात् तुलनात्मक पद्धति द्वारा ही सम्भव है।

8. सामाजिक सिद्धान्तों की पुनर्परीक्षा (Verification of social principles) – विज्ञान के लिए यह आवश्यक है कि उसके द्वारा प्रतिपादित नियमों का पुनर्परीक्षण हो सके और इस कसौटी पर समाजशास्त्र खरा उतरता है। जब किसी समाजशास्त्री द्वारा सिद्धान्त अथवा नियम प्रतिपादित किए जाते हैं तो अन्य लोग उसे तर्क के आधार पर समझने एवं प्रमाण के आधार पर उनकी पुनर्परीक्षा करने का प्रयास करते हैं।

(2) समाजशास्त्र को विज्ञान कहे जाने में आपत्तियाँ (Arguments against the Status of Sociology as a Science)

कुछ विद्वानों का विचार है कि समाजशास्त्र एक विज्ञान नहीं है, क्योंकि इसे विज्ञान कहने में निम्नलिखित आपत्तियाँ हैं।

1. वस्तुनिष्ठता का अभाव (Lack of objectivity) – आलोचकों के अनुसार समाजशास्त्र में वस्तुनिष्ठता का अभाव पाया जाता है, क्योंकि समाजशास्त्री स्वयं समाज का एक अंग है तथा सामाजिक घटनाओं के बारे में अपने विचार रखता है। इसलिए उसके द्वारा किए गए अध्ययनों में साधारणतः प्रतिपादित किए गए विचारों अथवा अपने व्यक्तिगत विचारों, पूर्व धारणाओं का प्रभाव एवं पक्षपात होना अवश्यम्भावी है। इसके अतिरिक्त, अध्ययनकर्त्ता की रुचि, योग्यता, संवेदनशीलता व स्थिति का भी उसके अध्ययन पर प्रभाव पड़ता है। अतः प्राकृतिक तथा भौतिक विज्ञानों में तो निष्पक्ष (Unbiased) एवं वस्तुनिष्ठ अध्ययन सम्भव है, परन्तु समाजशास्त्र में नहीं।

आधुनिक समाजशास्त्री यद्यपि यह तो स्वीकार करते हैं कि सामाजिक अध्ययन प्राकृतिक तथा भौतिक विज्ञानों की तरह वस्तुनिष्ठ नहीं हो सकते, परन्तु यह मानने को तैयार नहीं हैं कि सामाजिक घटनाओं एवं व्यवहार का वस्तुनिष्ठ रूप में अध्ययन किया ही नहीं जा सकता। समस्या का चयन जरूर व्यक्ति की रुचि से प्रभावित हो सकता है, लेकिन मैक्स वेबर (Max Weber) जैसे विद्वानों ने इस बात पर बल दिया है कि समस्या के चयन के पश्चात् सामाजिक अनुसन्धान के सभी चरणों में वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग किया जा सकता है और वस्तुनिष्ठता बनाए रखी जा सकती है। अतः यह आरोप अधिक उचित एवं तार्किक प्रतीत नहीं होता।

2. सामाजिक घटनाओं एवं व्यवहार की परिवर्तनशीलता (Dynamic nature of social cvents and behaviour) – सामाजिक घटनाएँ, सामाजिक सम्बन्ध तथा सामाजिक व्यवहार परिवर्तनशील हैं। विभिन्न धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक-सांस्कृतिक कारक सामाजिक संगठन और इसके विभिन्न पहलुओं को निरन्तर प्रभावित करते रहते हैं। आलोचकों का कहना है कि सामाजिक घटनाओं, सामाजिक व्यवहार एवं सम्बन्धों की परिवर्तनशील प्रकृति के कारण हो इनका वैज्ञानिक अध्ययन नहीं किया जा सकता। यह पता लगाना भी कठिन है कि कौन-सा कारक किस दिशा में कितना परिवर्तन लाता है।

आधुनिक समाजशास्त्री इस आरोप को भी स्वीकार नहीं करते हैं। उनका कहना है कि यह तो ठीक है कि सामाजिक घटनाएँ, व्यवहार तथा सम्बन्ध परिवर्तनशील है, किन्तु यह ठीक नहीं है कि परिवर्तनशील प्रकृति के कारण इनका वैज्ञानिक अध्ययन नहीं किया जा सकता। यदि परिवर्तनशीलता वैज्ञानिक अध्ययनों में बाधा होती तो पृथ्वी की गति तथा रॉकेट की गति का अनुमान तथा वैज्ञानिक अध्ययन भौतिक विज्ञानों में कैसे सम्भव हो पाया है ? मानव स्वभाव, सम्बन्ध एवं व्यवहार इतनी अधिक तीव्रता से परिवर्तित नहीं होते, जितनी तेजी से भौतिक जगत में परिवर्तन होते हैं। अतः यह आरोप लगाना भी उचित नहीं लगता है।

3. प्रयोगशाला की कमी (Lack of laboratory) – क्योंकि समाजशास्त्र के पास रसायनशास्त्र, भौतिक विज्ञान तथा जीव विज्ञान के समान प्रयोगशाला नहीं है तथा प्रयोगशाला विज्ञान की अनिवार्य विशेषता है, अतः समाजशास्त्र को विज्ञान नहीं कहा जा सकता। किसी प्रयोग की पुनरावृत्ति की जा सकती है, किन्तु सामाजिक घटनाओं की पुनरावृत्ति सम्भव नहीं है। अतः इनका प्रायोगिक अध्ययन भी सम्भव नहीं है।

इस तर्क में भी अधिक बल नहीं है, क्योंकि सामाजिक घटनाओं, सम्बन्धों तथा व्यवहार को सीमाबद्ध नहीं किया जा सकता। वास्तव में, समाज ही हमारी प्रयोगशाला है। समाजशास्त्र की विषय-वस्तु समाज है तथा इसके अन्तर्गत ऐसे विषयों का अध्ययन होता है, जिसे यदि प्रयोगशाला में किया जाए तो उनमें कृत्रिमता आ जाएगी और वैज्ञानिकता समाप्त हो जाएगी। उदाहरणार्थ, परिवार या जाति का अध्ययन प्रयोगशाला में नहीं, अपितु समाज में ही सम्भव है। आर्किमिडीज, न्यूटन, मारकोनी, गेली इत्यादि वैज्ञानिकों ने जिन नियमों का प्रतिपादन किया वे प्रयोगशाला से बाहर के पर्यावरण में ही हुए थे। इस परिस्थिति में यदि समाजशास्त्र अपने नियमों का प्रतिपादन खुले वातावरण में करता है तो इसकी वैज्ञानिक प्रकृति को स्वीकार करना ही पड़ेगा।

4. सामाजिक घटनाओं एवं व्यवहार की जटिलता (Complexity of social events and behaviour) – आलोचकों द्वारा समाजशास्त्र के विज्ञान के दावे के बारे में दूसरा आरोप सामाजिक घटनाओं तथा व्यवहार की जटिलता का लगाया जाता है, क्योंकि सामाजिक घटनाएँ तथा सामाजिक व्यवहार अत्यधिक जटिल होता है, अतः इनका वैज्ञानिक अध्ययन सम्भव ही नहीं। प्रत्येक सामाजिक घटना अनेक अन्य घटनाओं से जटिल रूप से जुड़ी होती है तथा मानवीय व्यवहार भी काफी कारकों द्वारा प्रभावित होता है, किन्तु घटनाओं अथवा कारकों को एक-दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता है।

आधुनिक समाजशास्त्री यद्यपि यह तो स्वीकार करते हैं कि सामाजिक घटनाओं एवं व्यवहार की प्रकृति जटिल होती है, परन्तु वह इतनी जटिल नहीं है कि इन्हें समझा ही न जा सके। यदि हमारा व्यवहार इतना जटिल होता जितना कि आलोचकों का कहना है तो हमें यह तक पता नहीं होता कि अगले पल हमें क्या करना है, किन्तु इसके विपरीत मानवीय व्यवहार में कुछ नियमितताएँ पाई जाती हैं, जोकि इस बात की ओर संकेत करती हैं कि इसे समझा जा सकता है। अतः यह आरोप भी न्यायोचित प्रतीत नहीं होता।

5. मापने की समस्या (Problem of measurement) – आलोचकों का कहना है कि सामाजिक घटनाओं तथा व्यवहार की प्रकृति ही ऐसी है कि इनके बारे में केवल गुणात्मक आँकड़े ही एकत्रित किए जा सकते हैं, क्योंकि इनका परिशुद्ध माप नहीं किया जा सकता, अतः इनका वैज्ञानिक अध्ययन भी नहीं किया जा सकता।

यह आरोप भी अधिक उचित नहीं लगता क्योंकि एक तो संकेतन (Coding) प्रक्रिया द्वारा गुणात्मक सूचनाओं को गणनात्मक सूचनाओं में परिवर्तित किया जा सकता है और दूसरे समाजशास्त्रियों ने भी अनुमापन प्रविधियों (Scaling techniques) द्वारा विभिन्न विषयों के बारे में मनोवृत्तियों को मापने का प्रयास किया है। साथ ही आज यदि चिकित्सा विज्ञान वालों द्वारा शरीर का तापमान मापा जा सकता है, परन्तु जब थर्मामीटर का आविष्कार नहीं हुआ था तब भी तो छूकर ही तापमान का अनुमान लगा लिया जाता था, किन्तु कोई भी चिकित्सा विज्ञान के अस्तित्व को चुनौती नहीं देता था। अतः अगर इसमें परिशुद्ध मापन यन्त्र नहीं भी हैं तो यह नहीं कहा जा सकता है कि समाजशास्त्र एक विज्ञान नहीं है।

6. भविष्यवाणी करने में असमर्थ (Unable to make predictions) – सामाजिक घटनाओं में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है और इस परिवर्तन के कारण कोई निश्चित नियम नहीं बन सकते। अतः सामाजिक घटनाओं के बारे में भविष्यवाणी नहीं की जा सकती, क्योंकि मानव व्यवहार हमेशा परिवर्तित होता रहता है और व्यक्ति का व्यवहार स्थान तथा काल पर निर्भर करता है, इसलिए ऐसे निश्चित नियमों की स्थापना नहीं की जा सकती, जिनके आधार पर भविष्यवाणी को जा सके ।

यह तर्क भी उचित नहीं है, क्योंकि सामाजिक विज्ञानों में आज भविष्यवाणी की जाने लगी है, चाहे यह सीमित क्षेत्र ही लागू क्यों न होती हो। साथ ही, पूर्वानुमान तो अभी ठीक तरह से अनेक अन्य विज्ञानों में भी नहीं लगाया जा सकता। फिर भी, हम उसकी वैज्ञानिकता पर किसी प्रकार का सन्देह नहीं करते। चेस्टर अलेक्जेण्डर (Chester Alexander) का कहना है कि-

  1. वनस्पतिशास्त्री यह भविष्यवाणी नहीं कर सकते कि कौन-सा बीज पहले अंकुरित होगा,
  2. ऋतु विज्ञान विशेषज्ञ मौसम के बारे में भविष्यवाणी पाँच दिन पूर्व नहीं कर सकते,
  3. कुशल डॉक्टर भी किसी रोग के बारे में पहले से ही नहीं बता सकते, और
  4. भू-गर्भशास्त्री यह भविष्यवाणी नहीं कर सकते कि आगामी शीतकाल में कौन-सी रेल की पटरी टूटेगी ? फिर भी हम इन विषयों को विज्ञान मानते हैं।

7. अमूर्तता (Abstractness) – आलोचकों का कहना है कि सामाजिक घटनाएँ अमूर्त हैं, अतः प्राकृतिक घटनाओं की तरह इनका प्रत्यक्ष अवलोकन एवं वैज्ञानिक अध्ययन सम्भव नहीं है।

यद्यपि अनेक घटनाएँ अमूर्त हैं, किन्तु उनका अध्ययन हम वस्तुनिष्ठ सूचकों द्वारा कर सकते हैं। उदाहरणार्थ, यह ठीक है कि ‘सामाजिक एकता’ एक अमूर्त बात है, किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि इसका वैज्ञानिक अध्ययन ही नहीं किया जा सकता। हम समाज में प्रचलित व्यवहार की मात्रा, संघर्ष एवं सहयोग की मात्रा इत्यादि अनेक सूचकों द्वारा समाज की एकता के बारे में अध्ययन कर सकते हैं। लुण्डबर्ग (Lundberg) का कहना है कि प्रथा, परम्परा, विचार, अनुभव आदि किसी न किसी प्रकार से अवलोकन योग्य व्यवहार ही हैं। अतः यह आरोप भी उचित नहीं है।

8. स्वतन्त्रता एवं अनिश्चितता (Independence and indefiniteness) – ऑलोचकों ने यह तर्क भी प्रस्तुत किया है कि समाजशास्त्र के अन्तर्गत प्राकृतिक विज्ञानों की भाँति विषय-वस्तु को अपनी इच्छानुसार नियन्त्रित नहीं किया जा सकता। क्योंकि अधिकतर घटनाएँ, मानवीय क्रियाएँ तथा व्यवहार स्वतन्त्र एवं अनिश्चित होते हैं, अतः समाजशास्त्र में वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग करना सम्भव नहीं है।

यह सच है कि समाजशास्त्री सामाजिक घटनाओं, प्रक्रियाओं तथा व्यवहार को नियन्त्रित नहीं कर सकता, किन्तु तुलनात्मक पद्धति द्वारा, जिसमें ‘समानता की पद्धति’ (Method of Agreement) तथा असमानता की पद्धति’ (Method of Difference) को अपनाया जाता है, अध्ययन करके समाजशास्त्री वास्तविक नियन्त्रण की स्थिति में अध्ययन कर सकता है। यद्यपि यह आरोप आंशिक रूप से सत्य है, किन्तु केवल उसी के कारण समाजशास्त्र को विज्ञान न मानना एक भ्रम है।

अतः समाजशास्त्र के विज्ञान होने के दावे के बारे में जो आरोप लगाए गए हैं, उनमें अधिक बल नहीं है और समाजशास्त्री वैज्ञानिक पद्धति द्वारा समाजशास्त्रीय अध्ययन कर सकता है। इसीलिए यह कहा जा सकता है कि समाजशास्त्र निश्चित रूप से एक विज्ञान है, यद्यपि इसका विकास अन्य विज्ञानों की अपेक्षा कम हुआ है।

हेरी एम० जॉनसन (Harry M. Johnson) के अनुसार, विज्ञान क्या है और क्या नहीं है ? यह एक बहुधा निष्फल विवाद का विषय है, इसलिए कि विज्ञान और अविज्ञान में अन्तर केवल कुछ अंशों का है। अतः हम यह कह सकते हैं कि यद्यपि समाजशास्त्र एक विज्ञान है, किन्तु भविष्यवाणी करने तथा सिद्धान्तों का निर्माण करने की दृष्टि से यह अन्य विज्ञानों से अभी पीछे है।

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Anjali Yadav

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