व्यक्तिगत स्वास्थ्य | PERSONAL HYGIENE
यह सर्वमान्य है कि स्वस्थ शरीर ही जीवन-धारण के योग्य होता है। जो व्यक्ति शरीर से स्वस्थ नहीं होता वह जीवित रहकर भी सांसारिक सुखों का उपभोग नहीं कर सकता। उसका जीवन स्वयं तथा लिए भार बन जाता है। यह मानव शरीर ईश्वर की देन है। इसको स्वस्थ रखना तथा स्वास्थ्य के नियमों का दूसरों के पालन प्रत्येक मानव का धर्म है। स्वस्थ रहना प्रकृति की देन नहीं है, वरन् स्वस्थ रहने हेतु प्रकृति के नियमों का पालन करना, उसके अनुकूल चलना मानव का पुनीत कर्तव्य है।
शरीर को पूर्ण स्वस्थ बनाने हेतु मात्र पौष्टिक भोजन ही आवश्यक नहीं है वरन् शरीर की स्वच्छता पर भी ध्यान देना अनिवार्य है। व्यक्तिगत स्वच्छता का आशय शरीर के विभिन्न अंगों की नियमित स्वच्छता तथा पहने व ओढ़े जाने वाले वस्त्रों की स्वच्छता से है। नियमित रूप से शारीरिक स्वच्छता व्यक्ति को स्वस्थ बनाये रखने में सहायक सिद्ध होती है। व्यक्तिगत स्वच्छता का क्षेत्र व्यक्ति की स्वयं की शारीरिक तथा वस्त्रादि सम्बन्धी स्वच्छता तक सीमित है। व्यक्ति के शरीर के विभिन्न अंग आँख, कान, नाक, दाँत, नाखून, बाल, त्वचा, आदि की सफाई, उसके द्वारा प्रयुक्त किये जाने वाले वस्त्रों और दिन-प्रतिदिन काम में आने वाली वस्तुओं की सफाई, आदि सभी सम्मिलित है। मनुष्य की आदतें भी व्यक्तिगत स्वच्छता के अन्तर्गत आती हैं जिन पर व्यक्ति का स्वास्थ्य निर्भर करता है।
(1) अच्छी आदतें— आदतें एक बार पड़ जाती हैं तो वे मानव के स्वभाव में इस प्रकार से घुल-मिल जाती हैं कि व्यक्ति को इस बात का पता भी नहीं लगता कि अमुक आदत उसने कब सीखी। अतः किसी भी आदत को सदा सोच-समझकर जीवन में स्थान दिया जाए। एक बार किसी बात की आदत पड़ जाने पर उसे छोड़ना अत्यन्त कठिन हो जाता है। प्रातःकाल सूर्य उगने से पूर्व उठना, समय से शौच जाना, प्रतिदिन स्नान करना, अपने कमरे की स्वयं सफाई, आदि जीवन को नियमित करने वाली आदतें हैं। यदि छात्रों को अभ्यास द्वारा इस प्रकार की आदतें डलवा दी जाती हैं तो वे भविष्य में चलकर अपने जीवन को तथा देश को समृद्ध बना सकेंगे। इन आदतों के अतिरिक्त छात्रों को बोलने, बड़ों का कहना मानने, बात-बात पर क्रोध न करने को आदतें डलवायी जाएँ। इस प्रकार की अच्छी आदतें छात्रों के मानसिक स्तर को ऊँचा उठाती हैं। छात्र जीवन के वास्तविक अर्थ को समझते हैं और सच्चे रूप में अपने जीवन के प्रति सजग रहते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि अच्छी आदतें व्यक्ति को उचित मार्ग की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा देती हैं, परन्तु इसके विपरीत बुरी आदतें व्यक्ति को विनाश की ओर ले जाती हैं। जो छात्र बुरी संगत के परिणामस्वरूप सिगरेट, बीड़ी तथा सिनेमा, आदि की आदत डाल लेते हैं, वे शीघ्र ही अपने स्वास्थ्य तथा मान-सम्मान को धूल में मिला देते हैं। गाली बकना, अपने मित्रों को मारना-पीटना, किताब चुराकर बेचना, आदि भी ऐसी अनिष्टकारी आदतें हैं जो भविष्य में चलकर छात्रों के जीवन तक को नष्ट कर डालती हैं। इस प्रकार बालकों के साथ अध्यापकों को विशेष सावधानी रखनी चाहिए। अध्यापक को चाहिए कि वह इस प्रकार के दोषी बालकों की बुरी आदतें मनोवैज्ञानिक प्रणाली द्वारा छुड़ाएँ केवल दण्ड और भय से ही इस रोग का उपचार नहीं होगा बुरी आदतें छात्रों से प्यार द्वारा छुड़वाई जाएँ तो वे सदा के लिए छूट जाएँगी। इस कार्य में छात्रों के संरक्षकों से भी सहायता ली जा सकती है।
(2) त्वचा और उसकी स्वच्छता- त्वचा हमारे समस्त शरीर को ढके रहती है। अतः समस्त शरीर की स्वच्छता के लिए त्वचा की सफाई की ओर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। त्वचा के अन्दर अनेक लघु छिद्र होते हैं जिनसे पसीने के रूप में विषैले पदार्थ निकला करते हैं। जब नियमित रूप से त्वचा की सफाई नहीं होती है तो त्वचा की सतह पर मैल जम जाता है और ये छिद्र बन्द हो जाते हैं। परिणामस्वरूप शरीर का मैल पसीने के रूप में शरीर से बाहर नहीं निकल पाता है। पसीने के उचित रूप से बाहर न निकलने से अनेक रोग हो जाते हैं। दाद, खाज, फोड़े-फुंसी त्वचा की गन्दगी के कारण ही होते हैं। त्वचा को सदा स्वच्छ रखना हमारे लिए परम आवश्यक है।
(3) स्नान और उसके लाभ- हमारे देश में स्नान को प्राचीनकाल से ही विशेष महत्त्व दिया गया है। आज कोई भी धार्मिक अनुष्ठान बिना स्नान किये नहीं होता है। जल द्वारा स्नान करने से त्वचा के छिद्र खुल जाते हैं तथा पसीना सरलता के साथ बाहर निकलने लगता है। स्नान करने से शरीर में रक्त संचार तीव्रता से होने लगता है जिससे हमें एक नवीन स्फूर्ति का अनुभव होता है।
जहाँ तक सम्भव हो, शीतल जल से स्नान किया जाए, क्योंकि शीतल जल से त्वचा पर बुरा प्रभाव नहीं पड़ता है। गर्म जल से स्नान करने पर त्वचा में कमजोरी आती है।
स्नान करते समय शरीर को खूब मलना चाहिए। साबुन का प्रयोग करना भी उचित है, क्योंकि इससे त्वचा का मैल साफ हो जाता है। साबुन सदा नहाने का प्रयोग किया जाए, नहीं तो त्वचा खुरदरी हो जाएगी।
(4) नेत्रों की स्वच्छता- नेत्र हमारे शरीर की महत्त्वपूर्ण इन्द्रियाँ हैं। नेत्रहीन इस सुन्दर संसार को बिना देखे ही रह जाता है। कभी-कभी आँखों वाले व्यक्ति लापरवाही के कारण अपनी दृष्टि खो देते हैं अतः प्रत्येक अध्यापक का कर्तव्य हो जाता है कि वह छात्रों को नेत्र रक्षा के उपाय बताये।
आँखों की स्वच्छता की ओर सदा ध्यान देना चाहिए। आँखों को धूल से, जहाँ तक हो सके, बचाया जाए, धूल के कण आँखों के लिए अत्यन्त हानिकारक होते हैं। इन कणों के कारण आँखें लाल हो जाती है और आँखों से पानी बहने लगता है। वह पानी कीचड़ युक्त होता है, जिससे कभी-कभी पलकें आपस में जुड़ जाती हैं और अत्यन्त पीड़ा के बाद खुलती हैं।
इन दोषों को दूर करने के लिए नेत्रों को ठण्डे जल से धोना परम आवश्यक हो जाता है। नित्य प्रातः काल उठकर शीतल जल से नेत्रों को धोया जाए। यदि जल में कभी-कभी त्रिफला भी मिला दिया जाए, तो विशेष लाभ होता है।
आँखों को गन्दे रूमाल तथा गन्दे हाथों से नहीं मलना चाहिए। कभी-कभी छात्र आँखों को हाथों से मलकर लाल कर लेते हैं। इससे आँखों में मैल भर जाता है जो कि अनेक रोगों को उत्पन्न कर सकता है।
नेत्रों की सफाई के अतिरिक्त छात्रों को पढ़ने के लिए उचित प्रकार की व्यवस्था होनी चाहिए। कम प्रकाश में पढ़ने से नेत्रों पर जोर पड़ता है। प्रकाश सदा बायीं ओर से आये। यदि प्रकाश पढ़ते या लिखते समय दायीं ओर से आता है तो कलम पेन्सिल की परछाई कापी पर पड़ेगी। पुस्तकों का प्रिण्ट भी अधिक महीन नहीं होना चाहिए। आँखों में ताजगी तथा शक्ति लाने के लिए घी, मक्खन तथा ठण्डक पहुँचाने वाले फलों का प्रयोग किया जाए। लाल मिर्चों का प्रयोग कम-से-कम किया जाए।
(5) नाखूनों की सफाई- हमारे देश में मुख्यतया हाथों से भोजन किया जाता है। परन्तु साथ ही हाथों द्वारा अनेक गन्दे कार्य भी किये जाते हैं, जैसे-गुदा, आदि की सफाई। परिणामस्वरूप हाथों के नाखून यदि लम्बे-लम्बे होते हैं तो उनमें मल भर जाता है और जब हम हाथों द्वारा भोजन करते हैं तो वही मल हमारे मुख से पेट में चला जाता है। पेट में पहुँचकर यह मल अनेक रोग उत्पन्न करता है। अतः भोजन को विषयुक्त होने से बचाने के लिए आवश्यक हो जाता है कि नाखूनों को समय-समय पर काटा जाए। आजकल लड़कियाँ लम्बे-लम्बे नाखून रखने लगी हैं। इस प्रकार के नाखूनों की सफाई ब्रश से नित्य होनी चाहिए। परन्तु जहाँ तक हो सके, नाखूनों का काटना ही उचित है।
(6) वालों की सफाई- त्वचा की सफाई के साथ-साथ बालों की सफाई भी आवश्यक है। यद्यपि हमारा समस्त शरीर बालों से ढका हुआ है और जब हम त्वचा की सफाई करते हैं तो शरीर के अधिकांश बालों की सफाई स्वयं हो जाती है। परन्तु फिर भी हमें सिर के बालों के प्रति विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। सिर के बाल शरीर के अन्य भागों की अपेक्षा बड़े होते हैं। अतः यदि उन्हें नियमानुसार साफ नहीं किया जाए तो उनमें मैल भर जाता है। बिना बालों को साफ किये तेल डालने से बालों की जड़ों में धूल जम जाती है। अधिक समय तक सिर गन्दा रहने से सिर में जूँ पड़ जाती हैं जो कि बालों की जड़ों में चिपककर खून चूसा करती हैं। ये जुएँ इतनी भयंकर हो जाती हैं कि कंधे से बाल काढ़ने पर भी नहीं निकलतीं। इम्पेटिगो (Impetigo) रोग जुओं के काटने से फैलता है।
उपर्युक्त हानियों से बचने के लिए बालों की नित्य सफाई करना आवश्यक है। सप्ताह में दो बार रीठा, मुल्तानी मिट्टी या दही से इन्हें धोया जाए। बाल जब सूख जाएँ, तब उनमें तेल डाला जाए।
(7) कान की स्वच्छता- शरीर के अन्य अंगों की भाँति कानों को स्वच्छ रखना आवश्यक है। कानों के अन्दर मोम के प्रकार का पदार्थ निकला करता है जिसका कार्य कान में धूल, आदि के प्रवेश को रोकना होता है। यह धूल कान के बाह्य भाग में एकत्रित होती है। अधिक मैल एकत्रित हो जाने पर कान में दर्द तथा कम सुनाई पड़ने लगता है। अतः कानों में समय-समय पर सरसों का तेल डाला जाए तथा अत्यन्त सावधानी । रुई की फुरहरी द्वारा कान के अन्दर के मैल को बाहर निकाल लिया जाए। कान के अन्दर दियासलाई तथा अत्यधिक गर्म तेल डालना अत्यन्त हानिकारक है। इससे कानों के पर्दे फटने का डर रहता है।
(8) दाँतों की सफाई– दाँतों को स्वच्छ रखना शारीरिक स्वास्थ्य के लिए परम आवश्यक है। दाँतों के गन्दे रहने से उनसे लगा मैल खाने के साथ पेट में चला जाता है जिससे अपच होने की सम्भावना रहती है। दाँतों के मैल के कारण मुख से बदबू आने लगती है। दाँतों की नियमित सफाई न करने के कारण कुछ काल बाद उनमें कीड़ा लग जाता है और वे समय से पहले ही गिर जाते हैं। अतः सुबह-शाम खाना खाने के पश्चात् कुल्ला करके दाँतों को अवश्य साफ किया जाए।
दाँतों की सफाई के लिए मंजन या पेस्ट का प्रयोग किया जा सकता है। गाँव में नीम या बबूल की दाँतीन का प्रयोग भी लाभदायक रहता है।
अध्यापक का कर्तव्य है कि वह छात्रों को नित्य दाँत साफ करने के लिए बाध्य करे। जो छात्र दाँत साफ करके नहीं आएँ, उन्हें दाँत साफ करने की चेतावनी दी जाए। छात्रों को बताया जाए कि वे दिन में कम-से कम दो बार (सुबह-शाम) दाँतों को साफ करें। खाने और नाश्ते के पश्चात् तुरन्त कुल्ला अच्छी तरह से किया जाए। यदि छात्र बार-बार कहने पर भी दाँत साफ करके नहीं आते हैं तो उनके माता-पिता को दाँतों की स्वच्छता का महत्त्व समझाया जाए जिससे वे अपने बच्चों को दाँत साफ करने के लिए उत्साहित कर सकें।
(9) वस्त्र और उनकी स्वच्छता- हम दिन-रात कुछ-न-कुछ वस्त्र पहने ही रहते हैं। इस कारण हमारे जीवन में वस्त्रों का अत्यधिक महत्त्व हो गया है। वस्त्र हमारे शरीर का केवल सौन्दर्य ही नहीं बढ़ाते, वरन् गर्मी, सर्दी तथा तेज वायु से भी हमारे शरीर की रक्षा करते हैं।
वस्त्र पहनने के नियम- वस्त्र अधिक भारी नहीं होने चाहिए। किसी भी वस्त्र के लिए जो कपड़ा प्रयोग में लाया जाए, वह सछिद्र (Pores) हो जिससे वायु सरलता से अन्दर आ-जा सके। बिना छिद्र के वस्त्र शरीर के लिए हानिकारक होते हैं, क्योंकि उनमें से होकर वायु प्रवेश नहीं कर पाती जिससे शरीर का पसीना नहीं सूखता है।
भारी वस्त्र शरीर में थकान उत्पन्न करते हैं। अत: जहाँ तक हो सके, हल्के वस्त्रों का ही प्रयोग किया जाए। परन्तु साथ ही यह भी ध्यान रहे कि वस्त्र मौसम के अनुकूल हों। गर्मी के मौसम में सूती कपड़े तथा शीतकाल में ऊनी कपड़ों का प्रयोग किया जाए।
सँकरे या तंग वस्त्रों को पहनना हानिकारक है, अतः सदा ढीले कपड़े उपयोग में लाये जाएँ। तंग कपड़े उठने-बैठने में असुविधा उत्पन्न करते हैं। पेट और शरीर में कसे रहने के परिणामस्वरूप भोजन पचने और रक्त-परिभ्रमण में बाधा आती है।
अध्यापक का कर्तव्य है कि वह छात्रों को अधिक चमकीले, रेशमी तथा कीमती वस्त्रों को पहनने के लिए प्रोत्साहित न करे। अमीर घरानों के छात्र कीमती तथा भड़कीले वस्त्र पहनकर विद्यालय में आते हैं तो निर्धन छात्रों के मन में हीनता और प्रतियोगिता की भावना का उदय होता है। अतः जहाँ तक हो सके, विद्यालय के समस्त छात्रों के लिए एक पोशाक निर्धारित हो।
विद्यालय में आने वाले छात्रों के वस्त्रों की सफाई पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाए। गन्दे वस्त्र पहनने से शरीर में से बदबू आती है तथा त्वचा के अनेक रोग (जैसे-खुजली, आदि) हो सकते हैं। अत्यधिक गन्दे कपड़ों में जूं तक पड़ जाते हैं। वस्त्र रन्ध्रमय हों तथा अधिक चुस्त न हो। वस्त्र अधिक भारी न हों तथा यतासम्भव हल्के वस्त्र पहने जाएँ।
अतः अध्यापक छात्रों को वस्त्रों की सफाई का महत्त्व बताएँ वस्त्र भले ही फटे हों, परन्तु साफ होने चाहिए। जाँघिया और बनियान को प्रतिदिन धोया जाए।
(10) व्यायाम- शारीरिक वृद्धि, पुष्टि तथा सुडौल शरीर के लिए व्यायाम अत्यन्त आवश्यक है। परन्तु इसकी व्यवस्था उम्र के अनुसार होनी चाहिए। व्यायाम से निम्नांकित लाभ हैं-
(i) रक्त संचार अधिक होता है।
(ii) माँसपेशियाँ बलिष्ठ होती हैं।
(iii) व्यायाम के समय श्वसन क्रिया अधिक होती है जिससे शरीर को अधिक ऑक्सीजन प्राप्त होती है और फेफड़े मजबूत होते हैं।
(iv) कार्यक्षमता बढ़ती है।
(v) रोगरोध क्षमता के साथ-साथ मानसिक क्रिया क्षमता बढ़ती है। व्यायाम सुबह, खुले स्थान पर तथा नियमित रूप से करना चाहिए।
(11) भोजन- भोजन मनुष्य की आयु, कार्य तथा मौसम के अनुसार सन्तुलित और पौष्टिक तत्वों वाला होना चाहिए। भूख से अधिक भोजन करना हानिकारक है। अधिक भोजन करने से मन्दाग्नि और पाचन सम्बन्धी रोग हो जाते हैं। भोजन सुपाच्य तथा ताजा होना चाहिए। भोजन करते समय कुछ बातों पर ध्यान देना आवश्यक है; यथा-
(i) भूख लगने पर ही भोजन करना चाहिए।
(ii) भूख से अधिक भोजन नहीं करना चाहिए।
(iii) इच्छानुकूल भोजन करना चाहिए।
(iv) खाते समय एकाग्रचित्त होकर खाना चाहिए।
(v) भोजन प्रसन्नचित्त होकर स्वच्छ स्थान पर करना चाहिए।
(vi) भोजन अच्छी तरह चबाकर करना चाहिए।
(vii) भोजन करने के तुरन्त बाद नहीं सोना चाहिए।
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