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शिक्षा के विभिन्न अंगों पर मनोविज्ञान के प्रभाव को स्पष्ट कीजिए।
मनोविज्ञान, आज शिक्षा प्रक्रिया के विभिन्न अंगों- शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम, शिक्षण-विधि, बालक, समय-सारणी, अनुशासन आदि को काफी प्रभावित कर रहा है। मनोविज्ञान, शिक्षा-प्रक्रिया के विभिन्न अंगों को किस प्रकार प्रभावित करता है, इसकी विवेचना निम्नवत् की जा रही है-
1. मनोविज्ञान और शिक्षा के उद्देश्य (Psychology and Objectives of Education) – मनोविज्ञान शिक्षा के उद्देश्यों को निर्धारित नहीं करता है, क्योंकि यह विधायक विज्ञान है। उद्देश्यों का निर्धारण नियामक विज्ञान या दर्शन करता है। इस प्रकार शिक्षा के उद्देश्यों को शिक्षा-दर्शन निर्धारित करता है। मनोविज्ञान यह बतलाता है कि किसी उद्देश्यों की प्राप्ति हो सकती है अथवा नहीं। इस सम्बन्ध में क्रो एवं क्रो ने कहा है- “यद्यपि मनोविज्ञान शिक्षा के लक्ष्य निश्चित नहीं कर सकता, वैज्ञानिक मनोविज्ञान हमें यह बतला सकता है कि कोई लक्ष्य निराशाजनक बादलों में है या उसे पाया जा सकता है।”
जेम्स ड्रेवर के तर्क भी इस बात की पुष्टि करते हैं- “शिक्षा का उद्देश्य पूरा करने के लिए मनोविज्ञान इतना तय करके समाप्त नहीं हो जाता जितना कि यह सम्भव है अथवा असम्भव बल्कि मनोविज्ञान यह निश्चित रूप में बता सकता है कि उन्हें किन साधनों द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।”
इससे स्पष्ट है कि मनोविज्ञान द्वारा ज्ञात हो जाने पर कि किसी उद्देश्य की प्राप्ति हो सकती है अथवा नहीं, उद्देश्यों में परिवर्तन करके उन्हें प्राप्ति के लायक बनाया जा सकता है। बिना मनोविज्ञान के ज्ञान के अध्यापक भी यह नहीं जान सकता है कि वह अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में सफल हुआ या नहीं। इस प्रकार शिक्षा के उद्देश्यों को निर्धारित करने में तथा उनको प्राप्त करने में मनोविज्ञान काफी सहायता करता है।
2. मनोविज्ञान तथा पाठ्यक्रम (Psychology and Curriculum) – शिक्षा प्राचीन विधियों में पाठ्यक्रम को अधिक महत्व दिया जाता था तथा बालक को सभी अनिवार्य विषय पढ़ना होता था। पुस्तकीय ज्ञान पर अधिक बल दिया जाता था। आज मनोविज्ञान की सहायता से इस बात का अनुभव किया गया है कि पाठ्यक्रम बालकों की रुचियों, रुझान, क्षमताओं और मानसिक योग्यताओं को ध्यान में रखकर बनाया जाना चाहिए। पाठ्यक्रम निर्मिता को बाल-मन का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। बात विकास की प्रत्येक अवस्था की अलग-अलग विशेषताएँ और आवश्यकताएँ होती हैं। इन आवश्यकताओं की पूर्ति पाठ्यक्रम द्वारा ही की जा सकती है। उदाहरणार्थ-किस कक्षा के लिए कौन-सी पाठ्य पुस्तक उपयुक्त होगी? इसका विचार पहले कर लिया जाता है कि बालक की अवस्था और आवश्यकतानुसार निर्धारित पाठ्यक्रम कहाँ तक उपयोगी सिद्ध होगा। मनोविज्ञान की सहायता से हम पाठ्य विषयों और पाठ्यवस्तुओं को ‘सरल से. जटिल की ओर’ के सिद्धान्तों के आधार पर निश्चित कर सकते हैं। बाल विकास की प्रत्येक अवस्था की अलग-अलग आवश्यकताएँ होती हैं। मनोविज्ञान की सहायता से बाल-मन का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। अतः पाठ्यक्रम निर्माण में मनोविज्ञान की सहायता अमूल्य है।
3. मनोविज्ञान तथा शिक्षण विधि (Psychology and Teaching Method) – प्राचीन शिक्षा-पंद्धति में शिक्षण विधियाँ मौखिक थीं। बालकों को स्वयं करके सीखने को अवसर नहीं मिलता था। वे मौन श्रोताओं के समान गुरुओं द्वारा कही जाने वाली बातों को सुनते थे और फिर उनको कंठस्थ करते थे। आज मनोवैज्ञानिक उपागम की सहायता से ऐसी शिक्षण विधियों का आविष्कार किया गया है जिनसे बालकों में सीखने की जिज्ञासा उत्पन्न होती है और वह स्वयं सीख सकता है। वर्तमान शिक्षा-प्रक्रिया में ‘करके सीखना’, ‘खेल द्वारा सीखना,’ रेडियो, पर्यटन, चलचित्र, टेलीविजन, शिक्षण मशीन, प्रोग्राम अनुदेशन आदि को शिक्षण विधियों में महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है। इन्हीं विचारों के कारण ही मॉन्टेसरी पद्धति, किण्डरगार्टन *पद्धति, प्रोजेक्ट पद्धति, प्रयोगशाला पद्धति आदि शिक्षण विधियों की खोज की जा चुकी है जिनके माध्यम से बालक अपनी क्षमताओं के अनुसार रुचिपूर्वक शिक्षा ग्रहण कर रहा है। यह सब मनोविज्ञान के सिद्धान्तों और नियमों के शिक्षा में अनुप्रयोग के कारण सम्भव हुआ है।
इस प्रकार मनोविज्ञान शिक्षण पद्धतियों के निर्धारण में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। शिक्षण पद्धतियों के क्रान्तिकारी परिवर्तन का श्रेय मनोविज्ञान को ही जाता है। रायबर्न के अनसार- “मनोविज्ञान के ज्ञान के प्रचलित होने के कारण ही शिक्षण विधियों में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं।”
4. मनोविज्ञान तथा समय-सारणी (Psychology and Time Table) – समय-सारणी के अन्तर्गत पाठ्य-विषय, खेल तथा पाठ्यसहगामी क्रियायें आती हैं। समय-सारणी बनाते समय इस बात का ध्यान देना चाहिए कि जिन विषयों में अधिक परिश्रम की आवश्कता है उनके लिए वे ही समय निर्धारित किए जाएँ जब बालक थका न हो और मस्तिष्क में ताजगी हो। इस विचार से गणित, भाषा आदि को सबसे अच्छा समय देना चाहिए। प्रत्येक विषय के लिए, निर्धारित समय (घण्टे) छोटी तथा बड़ी कक्षाओं के उपयुक्त हों। समय-सारणी के बीच अवकाश, खेल-कूद, पाठ्यसहगामी क्रियाओं के लिए निश्चित स्थान होना चाहिए।
5. मनोविज्ञान तथा मूल्यांकन (Psychology and Evaluation) – बालकों के अर्जित ज्ञान और प्रगति का मूल्यांकन करने के लिए दीर्घकाल से मौखिक और लिखित परीक्षाओं का प्रयोग हो रहा है। इन परीक्षाओं से विद्यार्थी का वास्तविक मूल्यांकन नहीं हो सकता है। प्रचलित परीक्षा प्रणाली के विभिन्न दोषों को दूर करने के लिए मनोविज्ञान ने अनेक नई विधियों की खोज की है। यथा-वस्तुनिष्ठ परीक्षा, व्यक्तित्व परीक्षा, बुद्धि परीक्षा आदि। इन नवीन विधियों द्वारा बालक की उपलब्धियों का मूल्यांकन भली-भाँति किया जा सकता है।
6. मनोविज्ञान तथा बालक (Psychology and Learner) – प्राचीन काल की शिक्षा, अध्यापक और पाठ्यक्रम केन्द्रित होती थी। मनोविज्ञान ने बालक के महत्व को स्पष्ट करके, आज शिक्षा को बाल केन्द्रित बना दिया है। शिक्षा प्रक्रिया में सीखने पर विशेष बल दिया गया है। सीखना बालक को ही है। यदि बालक नहीं सीखना चाहता तो अध्यापक को पता लगाना चाहिए कि बालक क्यों नहीं सीखना चाहता, उसके सामने क्या कठिनाइयाँ हैं। अध्यापक को बालक की क्षमताओं, रुचियों, योग्यताओं, मानसिक विकास आदि का पूर्ण ज्ञान होना आवश्यक है और अध्यापक को चाहिए बालक की इन सब बातों को ध्यान में रखकर शिक्षण योजना बनाए। रूसो बालक को एक ऐसी पुस्तक मानता था जिसे अध्यापक को भलीभाँति पढ़ना चाहिए। आज शिक्षा बालक के लिए है, न कि बालक शिक्षा के लिए। इस बात को ध्यान में रखते हुए शिक्षण योजना तैयार करते समय मनोविज्ञान के सिद्धान्तों को काफी महत्व दिया जाता है।
7. मनोविज्ञान एवं व्यक्तिगत भिन्नता (Psychology and Individual Differences) – शिक्षा की प्राचीन विधियों में बालकों की व्यक्तिगत भिन्नताओं पर ध्यान नहीं दिया जाता था। सबके लिए समान शिक्षा का आयोजन किया जाता था। मनोविज्ञान ने इस बात पर हमेशा बल दिया है कि बालकों की रुचियों, रुझानों, क्षमताओं योग्यताओं आदि में अन्तर होता है। सब बालकों के लिए समान शिक्षा का आयोजन करना सर्वथा अतार्किक है। इस बात को ध्यान में रखकर मन्द बुद्धि, पिछड़े हुए और शारीरिक दोष वाले बालकों के लिए अलग-अलग विद्यालयों में अलग-अलग प्रकार की शिक्षा व्यवस्था की जाती है। कूप्पूस्वामी के अनुसार – “व्यक्तिगत विभिन्नताओं के ज्ञान ने इन व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुकूल शैक्षिक कार्यक्रम का नियोजन करने में सहायता दी है।”
8. मनोविज्ञान तथा अध्यापक (Psychology and Teacher) – अध्यापक के लिए मनोविज्ञान का ज्ञान आवश्यक एवं उपयोगी है। अध्यापक को अपने अध्ययन विषय के साथ ही अपने विद्यार्थी के विषय में भी पूर्ण ज्ञान होना आवश्यक है।
स्किनर के अनुसार – “शिक्षक के लिए मनोविज्ञान का ज्ञान बहुत आवश्यक, उपयोगी एवं महत्वपूर्ण है। कक्षा शिक्षण और बालकों के दैनिक सम्पर्क में मनोविज्ञान का प्रयोग किए बिना वह अपने कार्यों को कुशलतापूर्वक सम्पन्न नहीं कर सकता है।”
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