शैशवावस्था में समाजिक एवं संवेगात्मक विकास का वर्णन कीजिये।
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शैशवावस्था में सामाजिक विकास (Social Development during in fancy)
समाजीकरण की प्रक्रिया दूसरों के साथ शिशु के प्रथम सम्पर्क से आरम्भ होती है और पूरे जीवन भर चलती रहती है।” इस कथन से यह संकेत मिलता है कि सामाजिक विकास शैशवावस्था से शुरू होता है और लगातार आगे की अवस्थाओं में भी होता रहता है। यह विकास एक प्रकार से यावत् जीवन चलता है। इस कथन से ज्ञात होता है कि शुरू में शिशु अपनी शारीरिक असहायावस्था के कारण दूसरों से मिलने-जुलने में असमर्थ होता है और जब 1-2 वर्ष में वह चलने-फिरने लगता है, तो उसका सामाजिक विकास शुरू हो जाता है। अतः शैशवावस्था के शुरू में सामाजिक विकास का कोई रूप नहीं पाया जाता है। 1-2 वर्ष के बाद से इसकी शुरुआत होती है।
हरलॉक महोदय ने बताया है कि 1 वर्ष की आयु में शिशु दूसरों के बुलाने, मना किए जाने या बताए जाने पर कार्य करता है। 2 वर्ष की आयु में वही शिशु दूसरे बड़े लोगों के साथ मिल-जुलकर काम करने लगता है, जैसा कि घरों में बच्चे किया करते हैं। इस प्रकार उसमें सक्रियता आने लगती है। 6 वर्ष की आयु में वह घर से बाहर के लोगों के साथ सम्पर्क स्थापित कर लेता है। अब घर से बाहर भी उसका सामाजिक सम्बन्ध हो जाता है। 3 वर्ष की आयु में उसका कार्य अपने तक सीमित रहता है अर्थात् वह अपना खाना, अपना खेल, अपने साथी, ऐसी भावना से भरा होता है। यही कारण है कि एक घर के बच्चे अपने बगल के एक-दो घर के बच्चों से मेल-जोल रखते हैं और दूसरों से अनभिज्ञ भी होते हैं। परन्तु यदि शिशु को विद्यालय में भेज दिया जाये तो उसका सामाजिक सम्बन्ध व्यापक हो जाता है। उसके कार्य-व्यवहार में परिवर्तन पाया जाता है। 4 वर्ष में यह सामाजिक सम्बन्ध और अधिक बढ़ जाता है और दृढ़ भी हो जाता है। 5 वर्ष की आयु में सामाजिक अनुकूलन की क्षमता आती है, दल की मान्यताएं वह स्वीकार करता है और उसी के अनुसार उसका जीवन-कार्य भी होता है। 6 वर्ष की आयु से अनुकूलन और सम्बन्ध की क्षमता और भी अधिक दृढ़ होती है जबकि शिशु प्रारम्भिक पाठशाला में प्रवेश करता है। इस आयु तक उसमें काफी सामाजिक परिवर्तन हो जाते हैं, जो उसके सामाजिक विकास को बताते हैं। धीरे-धीरे बच्चा पहले की तुलना में ‘मैं और तुम’ की अवधारणाओं का अन्तर समझने लगता है।….. जब बच्चा तीन वर्ष का होता है तब वह समझने लगता है कि जो मेरा है वह तुम्हारा भी है।” ऐसा विचार क्रो और क्रो महोदयों का है। इस अवस्था में प्रायः बच्चा घर से बाहर पड़ोस के बच्चों के साथ खेलता है और खेलने में उनमें आदान-प्रदान की भावना का भी विकास होता है, लेकिन यह तब दिखाई देता है जबकि वह अपने खिलौने दूसरों को दे देता है और उनके साथ मिल-जुलकर खेलता है। आगे चलकर यह भावना स्थिर रूप धारण करती है।
शैशवावस्था में संवेगात्मक विकास
विद्वान इस बात पर एकमत नहीं कि बच्चों के संवेग जन्मजात एवं मौलिक होते हैं अथवा वातावरण की उपज। वाटसन ने अपने अध्ययनों के आधार पर यह सिद्ध किया कि बच्चों में संवेग जन्मजात और मौलिक होते हैं। वाटसन के विचारों का शर्न, ब्रिजीस व इर्वन ने जोरदार ढंग से खण्डन किया। उनका कहना है कि बच्चों में जन्म से किसी प्रकार की संवेगात्मक क्रिया नहीं होती और उनके व्यवहार पूर्णतः अस्पष्ट होते हैं। शैशवकाल की प्रमुख विशेषता बच्चे के संवेगों की अस्थिरता ही है। वास्तव में संवेगों का विकास तो परिपक्वता एवं सीखने की प्रक्रिया के द्वारा बाद में होता है। जन्म के समय की बच्चों की सामान्य उत्तेजनात्मक स्थितियां बाद में संवेगों के रूप में विकसित होती हैं। उदाहण के लिए प्रारम्भ में बालक केवल रोकर ही अपनी पीड़ा को अभिव्यक्त करता है किन्तु जैसे-जैसे वह बड़ा होता है वह अपनी पीड़ा को तोड़-फोड़ एवं प्रतिरोध के माध्यम से व्यक्त करने लगता है, जैसे-जैसे बालक बड़ा होता जाता है वह अपने संवेगों को शब्दों के माध्यम से व्यक्त करने लगता है। संक्षेप में शैशवकाल में बच्चे के संवेगात्मक विकास को निस्न प्रकार से बताया जा सकता है- प्रारम्भ में शिशु अपनी पीड़ा व क्रोध केवल रोकर ही प्रकट करता है। शिशुओं के यह संवेग स्थिर नहीं होते क्योंकि हम अक्सर देखते हैं कि जब बच्चा किसी चीज के लिए रोता है और वह वस्तु उसे मिल जाती है, तो वह हंसने लगता है। इस प्रकार से बच्चे का रोने का यह संवेग स्थिर नहीं है। जैसे-जैसे बच्चे की आयु बढ़ती जाती है बच्चे के संवेगों के प्रदर्शन में परिवर्तन आ जाता है। उदाहरण के लिए प्रारम्भ में बच्चा अपनी खुशी प्रकट करने के लिए मुस्कुराता है लेकिन जैसे-जैसे वह बड़ा होता जाता है उसकी यह मुस्कुराहट हंसी में बदल जाती है। शिशु की प्रारम्भिक अवस्था में उसके संवेग तीव्र होते हैं। लेकिन उम्र के साथ-साथ संवेगों की यह तीव्रता घटती जाती है। उदाहरण के लिए छोटा बच्चा जब भूखा होता है तो वह रोने लगता है और वह तब तक रोता रहता है जब तक उसे दूध नहीं मिल जाता परन्तु उम्र के साथ-साथ उसके रोने की यह आदत समाप्त हो जाती है। इस प्रकार उम्र के साथ-साथ उसके संवेगों में स्पष्टता आती है। शैशवावस्था के प्रारम्भिक स्तर पर बच्चे में डर का कोई संवेग नहीं होता। यदि सांप भी उसके सामने डाल दिया जाये तो वह उसे पकड़ लेता है। परन्तु उम्र के साथ-साथ उसका यह संवेग विकसित होता है और वह सांप से डरने लगता है। जार्सिल और होल्मस के अनुसार 3 महीने से लेकर 12 महीने तक के बच्चे अधिकतर कुत्ते, सांप, ऊंचे स्थान, अंधेरे, तेज आवाज आदि से डरते हैं। लेकिन उम्र के साथ- साथ उनका डर का यह संवेग समाप्त होने लगता है। ब्रिसेस का मानना है कि 6 महीने के बच्चे में क्रोध का संवेग स्पष्ट रूप से प्रकट होने लगता है। बच्चे के संवेग जैसे-जैसे उसकी उम्र बढ़ती है स्थिर होते जाते हैं और शैशवावस्था की समाप्ति तक उसके काफी संवेग स्थिर होने लगते हैं।
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