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संगठन प्रक्रिया के आवश्यक चरणों का वर्णन कीजिए।
संगठन एक विषय प्रक्रिया होती है, किन्तु फिर भी किसी संस्था के संगठन में निम्न चरण उठाए जा सकते हैं।
1. लक्ष्यों का सही ज्ञान- कुशल संगठन के लिए सर्वप्रथम लक्ष्यों का सही एवं सुनिश्चित ज्ञान आवश्यक है। मूलभूत कार्य आवश्यकताओं एवं संगठन ढांचे के स्वरूप का निर्धारण अन्ततोगत्वा उद्देश्यों पर ही निर्भर होता है। यदि उद्देश्यों का सही ज्ञान प्रबन्धक को है तो वह एक अनुकूल संगठन ढांचे का निर्माण कर सकता है। उद्देश्यों के साथ संगठनकर्ता को प्रतिष्ठान की नीतियों, नियमों, कार्यविधियों एवं कार्यक्रमों का भी भलीभांति ज्ञान होना चाहिए।
2. सम्पूर्ण कार्य का अनुमान एवं उसका संघटक क्रियाओं में विभाजन- दूसरे चरण में, प्रतिष्ठान के उद्देश्यों को ध्यान में रखकर कुल आवश्यक कार्य का उचित अनुमान किया जाना चाहिए। फिर इस कार्य को विभिन्न तर्कसंगत संघटक क्रियाओं में विभाजित कर देना चाहिए तथा इन क्रियाओं की एक सूची तैयार कर लेनी चाहिए।
3. क्रियाओं का व्यावहारिक इकाइयों में वर्गीकरण- तीसरे चरण में, तमाम संघटक क्रियाओं को उनके स्वभाव की समानता और निष्पादन की सुविधा के आधार पर कुछ व्यावहारिक इकाइयों में वर्गीकरण करना चाहिए। उदाहरण के लिए सामग्री भण्डारण, निरीक्षण उठायाधरी एवं परिवहन सम्बन्धी क्रियाओं को सामग्री क्रय क्रिया के वर्ग में एक साथ रखा जा सकता है और विक्रय बाजार-शोध, विज्ञापन एवं विक्रय-सम्बर्द्धन किऱ्याओं को विपणन-क्रिया में सम्मिलित किया जा सकता है।
4. हर संघटक क्रिया के आवश्यक कर्त्तव्यों को परिभाषित करना- इस चरण में, हर संघटक क्रिया के निष्पादन के लिए आवश्यक कार्यों को परिभाषित करना सम्मिलित होता है। क्रियाओं के परिभाषित करने से तात्पर्य है कि प्रत्येक पद या व्यक्ति के द्वारा क्या कार्य सम्पन्न होने हैं, उनके द्वारा किन परिस्थितियों एवं किन साधनों द्वारा कार्य किया जाना है, आदि की स्पष्ट व्याख्या करना। उधाहरण के लिए, वित्ताधिकारी के क्या कर्तव्य और दायित्व होंगे, अथवा कारखाना प्रबन्धक को क्या-क्या करना है।
5. आवश्यक भौतिक साधनों एवं वातावरण की व्यवस्था करना – क्रियाओं के स्वभाव एवं आवश्यकताओं के अनुसार भौतिक साधनों (जैसे भवन, यंत्र, उपकरण, फर्नीचर वित्त आदि) एवं वातावरण (गर्मी सर्दी, हवा, प्रकाश आदि) की व्यवस्था करना जिससे कि क्रियाएं सुचारूरूप से सम्पन्न हो सकें।
6. संगठन पदों पर सुयोग्य व्यक्तियों की नियुक्ति- कर्तव्यों, दायित्वों एवं परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए, फिर संगठन के विभिन्न पदों पर सुयोग्य व्यक्तियों की नियुक्ति की व्यवस्था की जानी चाहिए। वस्तुतः यह प्रश्न सही कर्मचारियों के चुनाव का है और बाद में उनके सही प्रशिक्षण, पदोन्नति एवं स्थानान्तरण का है। अतः इनकी कुशल व्यवस्था होनी चाहिए।
7. अधिकारों का प्रतिनिधायन – कार्यों के सफल निष्पादन के लिए अधीनस्थों को उचित अधिकारों का प्रतिनिधायन आवश्यक है। अतः संगठन के इस चरण में, अधीनस्थों के कर्तव्यों एवं दायित्वों के स्वभाव को ध्यान में रखते हुए उन्हें उचित अधिकारों को प्रदान किया जाना चाहिए। अधिकार एवं दायित्व का चोली-दामन का साथ है। बिना उचित अधिकार के प्रदान किए हुए दायित्व को सौंपना स्वयं में कार्य को अवरुद्ध करना है और बिना तदानुरूप दायित्वों के अधिकारों का प्रतिनिधानयन एक भयंकर अस्त्र है। अतः अधिकार एवं दायित्व में उचित तालमेल एवं संतुलन होना चाहिए। फिर अधिकार प्रतिनिधान ही संगठन संरचना में दो कर्मचारियों के परस्पर सम्बन्धों के निर्धारण का आधार होता है। इसी के द्वारा एक व्यक्ति यह जानता है कि उसका अधिकारी कौन है, उसका अधीनस्थ कौन है या संगठन में उसका क्या स्तर है। इसी के द्वारा वह जान पाता है कि उसे किससे आदेश और निर्देश मिलेंगे और किसे वह आदेश या निर्देश दे सकेगा। यही वह माध्यम है जिसके द्वारा एक व्यक्ति के अधिकार क्षेत्र एवं कार्य की सीमा निर्धारित होती है और संस्था में विकेन्द्रीकरण की सीमा निश्चित होती है।
8. समन्वय एवं संतुलन – विभिन्न विभागों उपविभागों, समूहों और व्यक्तियों की क्रियाओं में समन्वय एवं संतुलन की स्थापना करना संगठन प्रक्रिया का अन्तिम चरण है। इसके लिए संगठन के विभिन्न विभागों और व्यक्तियों की क्रियाओं का सावधानी एवं सतर्कता से अवलोकन करना तथा उनमें आवश्यक समायोजन और पुनर्विभाजन करना आवश्यक हो सकता है।
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