समय-विभाग-चक्र बनाने के सिद्धान्त (PRINCIPLES OF FRAMING TIME TABLE)
समय-विभाग-चक्र बनाते समय कई सिद्धान्तों को सामने रखना पड़ता है। समय-विभाग-चक्र बनाते समय काफी होशियारी का परिचय देना होता है। समय विभाग- चक्र बनाने वाला शिक्षक तथा मुख्याध्यापक दोनों बहुत ही चतुर होने चाहिए। साधारणतया निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखकर समय-विभाग- चक्र बनाना चाहिए-
1. स्कूल किस स्तर का है ?– समय विभाग- चक्र स्कूल के कार्यों पर निर्भर है। लड़कों का शिक्षालय है अथवा लड़कियों का, साधारण स्कूल है या पब्लिक, शिशु स्कूल है या बड़े बच्चों का ग्रामीण स्कूल अथवा नगर का इस बात का समय विभाग-चक्र पर विशेष प्रभाव पड़ता है। जहाँ पर दो पारियाँ लगती हैं वहाँ समय कम होता है इसलिए समय विभाग-चक्र अन्य ढंग से बनाया जायेगा। मिले-जुले स्कूलों में लड़कियों की सुविधा के लिए कुछ विशेष परिवर्तन करने होंगे। घण्टे का समय बड़े स्कूलों में ज्यादा होगा और छोटे बच्चों के स्कूलों में कम।
2. विभागीय नियम- किस विषय को तथा किस कार्य को कितना समय दिया जाए, इसका निर्णय कुल समय पर आधारित है। प्राय: हायर सेकेण्डरी स्कूलों में प्रतिदिन स्कूल अधिक समय के लिए लगता है, इस कारण घण्टे भी बड़े होते हैं। दूसरा कारण यह है कि बड़े बच्चे जल्दी नहीं थकते। पंजाब शिक्षा कोड के अनुसार राजकीय स्कूलों में स्कूल खुलने अथवा बन्द होने का समय निरीक्षक द्वारा निर्धारित होगा तथा दूसरे अन्य मान्यताप्राप्त स्कूलों में समय कमेटी द्वारा समय निर्धारित करते समय मौसम, स्थान, बच्चों की कक्षा तथा विषय को ध्यान में रखते हुए एक सप्ताह में पढ़ाने का समय (ड्रिल तथा आधी छुट्टी को छोड़कर) नीचे दी हुई सीमा से बाहर नहीं जायेगा-
पहली कक्षा- 16 घण्टे
दूसरी तथा तीसरी- 19 घण्टे
चौथी- 24 घण्टे
सेकेण्डरी कक्षाएँ- 30 घण्टे
3. विषयों का महत्त्व तथा विषयों की कठिनता- स्कूल के पाठ्यक्रम में कुछ विषय अधिक महत्त्वपूर्ण माने गये हैं तथा कुछ कम और कुछ अधिक कठिन माने जाते हैं। अंग्रेजी तथा हिसाव का विषय अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है तथा कठिन भी। अतः इनको अधिक समय दिया जाता है। गाँव के स्कूलों में बागवानी तथा कृषि, आदि को अधिक समय दिया जाता है।
4. थकावट का सिद्धान्त– थकावट का सिद्धान्त समय-विभाग- चक्र बनाने में बहुत प्रभाव डालता है। कुछ विषय ऐसे होते हैं जिनके पढ़ने में छात्रों को बहुत थकावट आती है तथा कुछ ऐसे विषय होते हैं जिनके पढ़ने में छात्रों को कोई थकान नहीं मालूम पड़ती अथवा कम थकान मालूम पड़ती है।
शिक्षालय में पहला घण्टा अधिक थकान वाला नहीं माना गया है। धीरे-धीरे छात्रों के मन एकाग्र होते हैं। दूसरे घण्टे के आरम्भ तक उनकी रुचियाँ अथवा शक्तियाँ सजग हो जाती हैं। इसके पश्चात् समय व्यतीत होने पर धीरे-धीरे थकावट आने लग जाती है। चौथे घण्टे में छात्र थक जाते हैं और अवकाश चाहते हैं। आधी छुट्टी के बाद छात्रों में फिर स्फूर्ति व शौक उत्पन्न होता है। छठे घण्टे में छात्र अध्ययन के लिए पूर्ण रूप से तैयार हो जाते हैं। आठवें घण्टे में वे बहुत थकान का अनुभव करते हैं।
स्कूल का प्रात:कालीन भाग अर्थात् आधी छुट्टी से पहले वाला भाग शिक्षालय के दूसरे भाग से ज्यादा अच्छा होता है। पहले चार घण्टे अन्तिम चार घण्टों की अपेक्षा हमेशा अच्छे रहते हैं। परन्तु चौथा घण्टा, छठे घण्टे से अच्छा नहीं समझा जाता, क्योंकि चौथे घण्टे में छात्र थकान अनुभव करते हैं तथा छठे घण्टे में स्फूर्ति स्कूल का पहला घण्टा पाँचवें से, दूसरा छठे से, तीसरा सातवें से और चौथा घण्टा आठवें घण्टे से थकान की दृष्टि से अच्छा रहता है।
थकान के सिद्धान्त के अनुसार जो विषय बहुत कठिन अथवा थकान वाले हैं, वे दूसरे तथा तीसरे घण्टे में पढ़ाने चाहिए। इसी प्रकार छठा घण्टा भी थकान वाले विषयों के लिए अच्छा है। इन घण्टों में छात्रों के मन पढ़ाई की ओर अधिक एकाग्रता के साथ लगते हैं। आठवाँ घण्टा बहुत थकान वाला घण्टा माना गया है। इसलिए इस घण्टे में सबसे हल्का विषय पढ़ाया जाना चाहिए।
थकावट का सिद्धान्त सप्ताह के दिनों में भी उसी प्रकार लागू होता है। मंगलवार तथा बुधवार पढ़ाई की दृष्टि से सप्ताह के बहुत अच्छे दिन माने गये हैं। सप्ताह का पहला दिन सोमवार इतना अच्छा नहीं माना गया है। इस दिन छात्रों में इतनी स्फूर्ति नहीं होती क्योंकि यह दिन छुट्टी के बाद आता है। शनिवार सप्ताह का पढ़ाई की दृष्टि से अन्तिम दिन होने के कारण थकान का दिन माना गया है। समय विभाग-चक्र बनाते समय इस बात को ध्यान में रखना चाहिए।
थकान वाले विषयों का स्थान इस प्रकार है-गणित, अंग्रेजी, हिन्दी तथा संस्कृत, विज्ञान, भूगोल, विज्ञान की प्रयोगात्मक क्रियाएँ, ड्राइंग, हस्तकला, संगीत, काष्ठकला व खेतीबाड़ी भी ऐसे विषय हैं जिनमें थकान कम अनुभव होती है। अंग्रेजी तथा गणित के लिए दूसरा तथा तीसरा घण्टा ठीक है। आठवें घण्टे में ड्रिल, संगीत, ड्राइंग अथवा प्रयोगात्मक क्रियाएँ रखनी चाहिए।
छोटे बच्चे बड़ों की अपेक्षा जल्दी थक जाते हैं, इस कारण घण्टे की अवधि 30 मिनट से अधिक नहीं होनी चाहिए तथा बड़े बच्चों के लिए 40 मिनट से अधिक नहीं। गर्मियों के दिनों में घण्टों की संख्या तो बढ़ा देनी चाहिए, परन्तु अवधि कम करनी चाहिए।
5. विभिन्नता का सिद्धान्त- जहाँ तक सम्भव हो सके स्थान, विषय तथा अध्यापक की विभिन्नता होनी चाहिए। ऐसा करने से थकावट कम अनुभव होती है। थकावट तथा विभिन्नता के सिद्धान्त मिलते-जुलते ही हैं। काम में विभिन्नता भी आराम के तुल्य है। बच्चों को लगातार एक ही विषय उसी अध्यापक द्वारा पढ़ाने पर वह नीरस-सा अनुभव होने लगता है। विभिन्नता निम्नलिखित उपायों से आ सकती है-
1. कोई भी विषय (प्रैक्टिकल को छोड़कर) लगातार दो घण्टे नहीं पढ़ाना चाहिए।
2. विषयों में भी विभिन्नता आनी चाहिए। अंग्रेजी तथा इतिहास के पश्चात् भारतीय इतिहास नहीं पढ़ाना चाहिए।
3. जहाँ तक हो सके एक कक्षा सारा दिन उसी कमरे में न बैठे।
4. उसी कक्षा में एक ही अध्यापक के लगातार तीन घण्टे नहीं होने चाहिए।
5. यदि सप्ताह में एक विषय के तीन घण्टे हैं तो वे लगातार तीन दिनों में ही नहीं आने चाहिए।
6. शिक्षकों के लिए खाली घण्टे- अध्यापकों के लिए खाली घण्टे अवश्य होने चाहिए। इससे उनकी कार्यक्षमता बढ़ती है। थकान कम होती है, साथ ही लिखित कार्य को जाँचने का अवसर प्राप्त होता है। औसतन दो घण्टे प्रतिदिन खाली होने चाहिए। कई बार ऐसा भी देखने में आया है कि एक ही दिन किसी शिक्षक के बहुत से घण्टे खाली होते हैं और बाकी दिनों में उसको एक भी घण्टे का अवकाश नहीं मिलता है। ऐसा करने पर शिक्षक को कोई विशेष लाभ नहीं पहुँचता है। जहाँ तक हो सके, प्रधानाचार्य को चाहिए कि अध्यापकों को खाली घण्टे में अपने पास कार्यवश बुलाए।
7. खेल तथा आमोद- प्रमोद का सिद्धान्त आराम तथा आमोद-प्रमोद का ध्यान रखना चाहिए। खेल का बच्चों के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। आधी छुट्टी कम-से-कम आधे घण्टे की होनी चाहिए। इस समय बच्चे खुली वायु का सेवन करते हैं, एक-दूसरे से स्वतन्त्रतापूर्वक मिलते हैं, खेलते-कूदते तथा कुछ खाते-पीते हैं। इस प्रकार उनकी थकान दूर होती है। वे फिर से ताजगी अनुभव करते हैं तथा उनकी नीरसता समाप्त होती है।
रेडियो ब्रोडकास्ट का प्रबन्ध यदि हो सके तो आधी छुट्टी के समय किया जाना चाहिए। इससे नीरसता समाप्त होती है, बच्चों का ज्ञान भी बढ़ता है और वे आनन्द का अनुभव करते हैं।
सहपाठीय कार्यक्रमों का उल्लेख भी समय-विभाग- चक्र में होना चाहिए।
8. न्याय का सिद्धान्त- शिक्षक वर्ग में जहाँ तक हो सके काम का ठीक बँटवारा होना चाहिए। यदि ऐसा नहीं है तो शिक्षकों में निराशा तथा निरुत्साह भर जाती है। इसी प्रकार सारे कार्यों को उनके महत्त्व के अनुसार बाँटना चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि किसी कार्य को बहुत समय दे दिया जाए और किसी की अवहेलना की जाए।
9. शिक्षालय का भवन तथा सामग्री- स्कूल में कमरे, अध्यापकों की संख्या मेज-कुर्सियाँ, प्रयोगशाला, आदि का समय विभाग-चक्र पर विशेष प्रभाव पड़ता है। एक ही शिक्षक वाले स्कूल का टाइम. टेबिल बिल्कुल भिन्न होगा। कमरों की कमी के कारण कई बार एक ही कमरे में दो कक्षाएँ लगती हैं। ऐसी अवस्था में टाइम टेबिल इस प्रकार से बनाया जाए कि जब एक कक्षा पढ़ने के कार्य में लगी हुई है तो दूसरी लिखने के। ऐसा करने से दोनों क्लासों की पढ़ाई सुचारू रूप से हो सकेगी।
10. लोच का सिद्धान्त- समय विभाग- चक्र दृढ़ नहीं बनाया जाना चाहिए। लोचदार समय विभाग- चक्र अच्छा रहता है। कई बार कुछ विशेष बच्चों की विशेष आवश्यकताएँ होती हैं, उन्हें पूरा करने के लिए परिवर्तन करना अनिवार्य हो जाता है। अध्यापक के तबादले के साथ समय-विभाग-चक्र में भी परिवर्तन करने पड़ते हैं। यह आवश्यक नहीं कि टाइम-टेबिल में विषय की अलग-अलग शाखाओं का भी वर्णन हो। यदि किसी कक्षा में अंग्रेजी के लिए 12 घण्टे प्रति सप्ताह नियत किये जायें तो व्याकरण, अनुवाद तथा निबन्ध के घण्टे अध्यापक पर ही छोड़ देने चाहिए। वही कक्षा के स्तर के अनुसार घण्टों का विभाजन करे।
इसी प्रकार स्कूल में कई बार किसी एक विषय का पढ़ाने वाला अध्यापक नहीं होता या कुछ समय के लिए स्कूल से किसी कारण अनुपस्थित हो जाता है और छात्रों की पढ़ाई उस विषय में नहीं हो पाती। अध्यापक के आने पर उस कमी को पूरा करने के लिए अधिक समय देने के लिए समय-विभाग-चक्र में परिवर्तन करना पड़ता है।
हमें सदा स्मरण रखना चाहिए कि समय-विभाग-चक्र एक यन्त्र है, न कि हमारा स्वामी। समय के अनुसार इसमें परिवर्तन होना चाहिए।
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