स्वतंत्रतापूर्व अध्यापक शिक्षा के विकास का उल्लेख कीजिए।
ब्रिटिश काल- आधुनिक या अर्वाचीन काल के इस अंग्रेजी शासन कालावधि (जो प्रायः 250 वर्षों तक चली) में पहले ईस्ट इण्डिया कम्पनी और बाद में इंग्लैण्ड के ब्रिटिश शासकों ने हुकूमत की। यही कारण है कि इस अवधि में तत्कालीन ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली के आधार पर भारत में भी नवीन अंग्रेजी प्रधान शिक्षा प्रणाली का प्रचलन किया। गया। सर्वप्रथम विभिन्न सम्प्रदायों के ईसाई धर्मगुरुओं के द्वारा ही धर्म प्रचार के लिए शिक्षा प्रदान करना (अंग्रेजी में) आवश्यक माना गया ताकि वे अपने पवित्र धर्मग्रन्थ बाइबिल की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करते हुए इस देश के अज्ञानियों (Hiddens) या हिदेन के लिए उद्धार का मार्ग प्रशस्त कर सकें और उन्हें अपने धर्म के अनुयायी बना सकें। इस कालावधि को हम 1700 ई0 से लेकर 1850 ई0 तक के प्रथम और 1851 ई0 से लेकर 1947 तक के द्वितीय दो चरणों में विभाजित कर सकते हैं क्योंकि पहले में कम्पनी के शासनकाल में मिशनरी और सरकारी अनुदानगत सेवाधार पर ही भारत में विदेशी शिक्षा प्रणाली को संचालित करने के लिए प्रयत्न किया जाता रहा जबकि द्वितीय चरण में ब्रिटिश शासकों ने शिक्षा के दायित्व को अपने ऊपर लिया ताकि उन्हें कार्यालयों में सस्ते लिपिक और अंग्रेजी स्थानीय भाषागत विद्यालयों में अंग्रेजी के ज्ञाता अध्यापक की सुविधा प्राप्त हो सके। प्रथम चरण में भारतीय शिक्षा व्यवस्था पर धर्म-प्रचारकों के अलावा शासकीय तौर पर विशेष ध्यान न दिये जाने के कारण, पारस्परिक स्वदेशी पाठशालाएँ प्रचलित रही। संस्कृताध्ययन से सम्बन्धित इन केन्द्रों को प्रायः टोल के नाम से जाना जाता था। यहाँ भी वरिष्ठ और श्रेष्ठ विद्यार्थी को अनुशासन सम्बन्धी व्यवस्था को बनाये रखने के साथ ही साथ गुरु के आदेशों का पालन करने और अपने अधीनस्थ छात्रों को पूर्व पाठों के अभ्यास करवाने का कार्य सँभालना पड़ता था। गुरु अपने कार्यभार को कम करने के लिए तथा औपचारिक तौर पर योग्य छात्रों को शिक्षण हेतु प्रस्तुत करने के लिए इस अग्रशिष्य प्रणाली को व्यवहार में लाते थे। डॉ० एण्ड्रयू बैल नामक मद्रास सैनिक असाईलम के अक्षीक्षक ने 1787 में अपनी पुस्तक एन एक्सपेरिमेण्ट इन एजुकेशन में इस प्रणाली को बेल लेकेस्टिरिन (Bell-Lancastrian) प्रणाली के रूप में स्थापित करते हुए मद्रास में प्राथमिक स्तर पर प्रयोग हेतु संस्तुत किया। इसमें भी प्रशिक्षु या एप्रैन्टिस छात्रों को कक्षा में अनुशासन व्यवस्था बनाये रखना अध्यापकों के निर्देशों का पालन करना एवं उनके द्वारा पहले दिये गये पाठों को छात्रों से दोहराना आदि काम करने पड़ते थे। डैनिश और ब्रिटिश संयुक्त प्रयास के अन्तर्गत कैरी साहब ने अपने सहयोगी मार्शमैन और वार्ड के साथ 1793 में पहले बंगाल के सेरामपोर (श्रीरामपुर) नामक स्थान में एक औपचारिक अध्यापकीय प्रशिक्षण केन्द्र की स्थापना की जिसे नार्मल स्कूल के रूप में जाना गया। यह व्यक्तिगत प्रयास ही सर्वप्रथम भारत में औपचारिक अध्यापक शिक्षा से सम्बन्धित सफल प्रयत्न रहा। इसके फलतः आगे चलकर अनेक ऐसी ही स्वैच्छिक संगठनों के द्वारा इस दिशा में प्रयास प्रारम्भ किया गया। 1819 में बंगाल के कलकत्ता स्कूल सोसायटी और 1823 में नैटिव एजुकेशन सोसायटी के द्वारा क्रमशः कलकत्ता तथा बम्बई में ऐसे ही औपचारिक शिक्षक प्रशिक्षण केन्द्रों की स्थापना नार्मल स्कूल के रूप में हुई। तीसरा प्रयास इस क्रम में मद्रास में 1824 में किया गया। कलकत्ता के लेडिस सोसायटी के द्वारा महिलाओं के लिए पृथक प्रशिक्षण केन्द्र की स्थापना वहाँ की गई। बाद में सरकारी अनुदान के आधार पर ऐसे. ही नार्मल स्कूल पूना और सूरत में भी खोले गये। प्राथमिक विद्यालयों में अंग्रेजी भाषा के शिक्षकों की कमी को पूरा करने के लिए ऐसे प्रयास 1824 में एलफिस्टोन (Elphinstone) के तत्त्वावधान में निरन्तर होते गये और कुल 26 संस्थाओं की स्थापना हुई।
उद्देश्य वही था कि भारत के ऐग्लो-वर्नाकुलर स्कूल में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाने वाले देशी सस्ते अध्यापक तैयार किये जायें तथा निम्नस्तरीय प्रशासनिक कार्यों के लिए भी अंग्रेजी के जानकार सस्ते लिपिकों की भर्ती की जा सके। इन्हीं पदों पर आँसीन विदेशी व्यक्ति के कई गुना अधिक वेतन और अन्य सुविधाएँ देनी पड़ती थी।
1826 ई0 में मद्रास के गवर्नर थामस मुनरों ने योजनाबद्ध ढंग से प्रत्येक कलैक्ट्रेट में प्रशिक्षण विद्यालय की स्थापना के लिए प्रयास प्रारम्भ किया जिन्हें प्रमुख विद्यालय या प्रिन्सिपल स्कूल (Principal School) कहा गया ताकि प्रशिक्षित अध्यापकों की निरन्तर उपलब्धि सम्भव हो सके। कोर्ट ऑफ डायरेक्टर ने 1825 में बंगाल के गवर्नर जनरल को साफ लिखा था कि भारत के निवासियों के एक अंश के लिए संशोधित शिक्षा के विस्तार हेतु प्रशिक्षण के द्वारा एक अध्यापकीय वर्ग को प्रदान करने की व्यवस्था की जाय ताकि सस्ते दर पर विद्यालयीय प्रणाली को अग्रसर किया जा सके।
परिणामस्वरूप उन्होने मद्रास स्कूल बुक सोसायटी जैसे स्वैच्छिक संगठन को आर्थिक सहायता प्रदान करना स्वीकृत किया और उसके बाद मद्रास प्रेसीडेन्सी की 300 तहसीलों में से प्रत्येक में एक विद्यालय खोलने के लिए योजना भी बनाई। बम्बई प्रेसीडेन्सी के सचिव ने भी इस तौर पर तीन स्वैच्छिक सोसायटी को आर्थिक सहायता प्रदान की और 1850 तक की अवधि के मध्य इस प्रकार सरकारी अनुदान आदि के बल पर ही प्रशिक्षण की व्यवस्था चलती रही।
सरकारी प्रयत्न- यह द्वितीय चरण का काल था जिसमें 1854 में वुड के घोषणा- पत्र (Wood’s Despatch) के साथ ही ब्रिटिश सरकार के द्वारा अध्यापकीय प्रशिक्षण की दिशा में ठोस और सार्थक प्रयत्न प्रारम्भ हुए। इस घोषणा-पत्र में शिक्षकीय प्रशिक्षण की दिशा एवं क्षेत्र में सुविधाओं की पर्याप्त कमी का उल्लेख किया गया और प्रशिक्षण हेतु संस्थानों की स्थापना जितनी भी जल्दी सम्भव हो सके, करने के लिए संस्तुति की गई।
इसके परिणामस्वरूप प्रत्येक प्रेसीडेन्सी में प्राथमिक विद्यालयीय अध्यापकों के लिए प्रशिक्षणार्थ नॉर्मल स्कूल की स्थापना को स्वीकृत किया गया। नार्मल स्कूल के स्थान पर इन विद्यालयों को ट्रेनिंग स्कूल की संज्ञा दी गई। 1856 ई० में मद्रास ट्रेनिंग स्कूल के प्रशिक्षु अध्यापकों की स्थिति उन अध्यापकों की तुलना में अच्छी पाई गई जो अप्रशिक्षित थे। इस परिणाम के कारण ही 1887 में यूनाइटेड प्राविन्सेस में आगरा, मेरठ, बनारस आदि स्थानों में ऐसे ही विद्यालयों की स्थापना की गई।
फिर भी 1859 के स्टैनले घोषणा-पत्र में यह कहा गया कि कोर्ट ऑफ डायरैक्टर्स के द्वारा जिस सीमा तक कार्य करने के लिए कहा गया था, प्रशिक्षण संस्थान उसे करने में असफलत रहे अतः इन स्कूलों की संख्या में वृद्धि के लिए प्रयास किया गया और 1881-82 में इन स्कूलों की संख्या बढ़कर 106 हो गई जिनमें 15 महिलाओं के लिए निर्दिष्ट थे। इन विद्यालयों में 3886 प्रशिक्षु प्रशिक्षण ग्रहण कर रहे थे और उनके संचालन के लिए वार्षिक व्यय की राशि चार लाख रुपये की हो गई। तत्पश्चात मिडिल तथा माध्यमिक प्रत्येक स्तर के स्कूल में महिला अध्यापकीय प्रशिक्षण हेतु पृथक व्यवस्था की गई।
1857 के बाद विभिन्न विश्वविद्यालयों की स्थापना प्रारम्भ हो जाने से महाविद्यालयों की संख्या बढ़ने लगी और शिक्षण विधियों के सम्बन्ध में विशिष्ट पाठ्यक्रम का अध्यापन वहाँ प्रारम्भ किया जाने लगा। नार्मल स्कूल में प्रशिक्षुओं को वित्तीय सहायता के साथ ही उत्तीर्ण प्रमाण पत्र भी दिया जाना प्रारम्भ होने के बाद जो कि रोजगार प्राप्ति के लिए गारण्टी के समान था, क्रमशः अधिक संस्था में प्रशिक्षु आकर्षित होने लगे।
1877 में लाहौर में केन्द्रीय प्रशिक्षण विद्यालय की स्थापना हुई। भारतीय आयोग या हण्टर आयोग (1882) ने स्पष्ट किया कि-‘माध्यमिक शिक्षक प्रशिक्षण हेतु नार्मल स्कूल सम्पूर्ण देशभर में खोले जाएँ, सिद्धान्त तथा अभ्यास दोनों के क्षेत्र में ही परीक्षा की व्यवस्था की जाय और सफल प्रसिक्षु मात्र को ही सरकारी अथवा वित्तीय सहायता प्राप्त माध्यमिक स्तरीय विद्यालयों में नियुक्ति दी जाय। साथ ही प्रशिक्षण कोर्स और पाठ्यक्रम दोनों ही आधार पर स्नातक एवं पूर्व स्नातकों के लिए पृथक और विशेष प्रकार की प्रशिक्षण सम्बन्धी व्यवस्था की जाय।
अतः 1886 में सर्वप्रथम माध्यमिक विद्यालय स्तरीय शिक्षक प्रशिक्षण के लिए मद्रास के सैदपैठ में प्रशिक्षण महाविद्यालय खोला गया और 1889 में नागपुर ट्रेनिग स्कूल में माध्यमिक विभाग खोला गया। इस प्रकार 19वीं सदी के अन्त तक देश में कुल छः प्रशिक्षण महाविद्यालयों की स्थापना मद्रास (1886), लाहौर, राजमुन्दी (1894), कर्सयांग जबलपुर और इलाहाबाद (1840) में नार्मल स्कूलों के अलावा हुई, जिस समय 50 माध्यमक प्रशिक्षण विद्यालय भी अस्तित्व में आ चुके थे। 1896-97 में इन केन्द्रों में कुल प्रशिक्षु अधयापकों की `संख्या क्रमशः सैदपैठ और राजमुन्द्री में 58 इलाहाबाद 28 लाहौर 82 तथा जबलपुर में 17 थी (कर्सयांग के आँकड़े उपलब्ध नहीं) पूरे मद्रास प्रेसीडेन्सी में 1917 तक मद्रास ट्रेनिंग कालेज माध्यमिक स्तरीय अध्यापकीय प्रशिक्षण के लिए एकमात्र केन्द्र बना रहा।
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