20वीं सदी के प्रारम्भ में अध्यापक शिक्षा के विकास को स्पष्ट कीजिए।
लार्ड कर्जन (1902-05) ने विश्वविद्यालय स्तरीय शिक्षा में गुणवत्ता वृद्धि हेतु कई प्रयत्न किये, जिसके साथ ही प्राथमिक स्तरीय शिक्षा की गुणवत्ता में वृद्धि और माध्यमिक स्तर पर उत्तम नियन्त्रण और सुधार के लिए भी प्रयास हुए उन्होंने अपनी शिक्षा नीति की संस्तुति (Resolution on Education Policy 1904) भारत सरकार की संस्तुति भी कहते हैं में अनुदान या ग्रैण्ट-इन-एड प्राप्त करने के लिए शर्तों का उल्लेख किया। मान्यता तभी प्रदान करने की व्यवस्था की गई यदि अध्यापक चरित्र संख्या और योग्यताओं की दृष्टि से विद्यालय में उपयुक्त हो। दो साल की अवधि वाले प्राथमिक स्तरीय प्रशिक्षण हेतु पर्याप्त संख्यक संस्थानों की आवश्यकता पर बल दिया गया जो कि ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक कृषि को सिखाने के लिए जरूरी माना गया। प्रमुख संस्तुतियाँ इस प्रकार थी-
- किसी प्रशिक्षण महाविद्यालय में उपकरण (Equipment) कला महाविद्यालय के समान ही अधिक महत्वपूर्ण है।
- स्नातकों के लिए प्रशिक्षण पाठ्यक्रम एक वर्षीय विश्वविद्यालयीय कोर्स के रूप में हो जो विश्वविद्यालयीय उपाधि की प्राप्ति से सम्बन्धित हो गैर-स्नातकों के लिए प्रशिक्षण की अवधि दो वर्षीय हो।
- प्रशिक्षण पाठ्यक्रम में सैद्धान्तिक और शिक्षण अभ्यास सम्बन्धी दोनों ही कोर्स हों।
- प्रत्येक प्रशिक्षण महाविद्यालय के साथ अवश्य ही एक अभ्यास विद्यालय संलग्न हो। तथा प्रशिक्षण महाविद्यालय तथा विद्यालयों के मध्य सम्बन्ध को बनाये रखने के लिए हर सम्भव प्रयास अवश्य ही किये जाये।
इन संस्तुतियों को तत्कालीन प्रशिक्षण व्यवस्था में पर्याप्त महत्व दिया गया।
1909 में मिण्टो-मार्ले सुधार के आधार पर सरकार ने एक अन्य संस्तुति की जिसे 1913 की शिक्षा नीतिगत संस्तुति कहते हैं। इसके अनुसार फलतः आधुनिक शिक्षा प्रणाली के अन्तर्गत किसी भी अध्यापक को शिक्षकीय कार्य करने के लिए अनुमति नहीं दी जायेगी, जो यह प्रमाण-पत्र प्रस्तुत न कर सके कि वह ऐसा करने के लिए योग्य है।
इसका दूरगामी प्रभाव पड़ा और अध्यापक शिक्षा की औपचारिक आवश्यकता को सभी ने स्वीकृत किया।
इसके पश्चात कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग (1917-19) का गठन मूलतः विश्वविद्यालय स्तरीय शिक्षा में सुधार हेतु किया गया, लेकिन आयोग के द्वारा अध्यापक शिक्षा से सम्बन्धित कई बातें कही गयी और कई सुझाव भी दिये गये। डॉ० सैडलर की अध्यक्षता में गठित इस आयोग को सैडलर आयोग भी कहा जाता है। आयोग ने प्रशिक्षित शिक्षकों के उत्पाद को बढ़ाने पर बल दिया और संस्तुत किया कि एक-एक शिक्षा विभाग का निर्माण ढाका तथा कलकत्ता विश्वविद्यालयों में किया जाय और शिक्षा को एक अध्ययन विषय के रूप में इण्टरमीडिएट बी०ए० और ए०ए० स्तरीय उपाधि परीक्षाओं में सम्मिलित किया जाय। प्रथम विश्वयुद्ध का काल होने के कारण इस दिशा में विशेष कार्य करना सरकार के द्वारा सम्भव नहीं हो पाया जिसके पश्चात गाँधीजी के असहयोग आन्दोलन (1920-21) और सविनय अवज्ञा आन्दोलन (1930- 32) के कारण पर्याप्त राजनैतिक विक्षोभ उत्पन्न हुआ। अतः 1929 तक विशेष प्रगति दिखाई नहीं दी। इसके पहले 1927 में अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा एक्ट को पारित किया गया और 1929 में सर फिलिप हार्टोग की अध्यक्षता में गठित समिति (Hartog Committee of 1929) ने निम्न सुझाव प्रस्तुत किये’ –
- प्राथमिक विद्यालयीय अध्यापकों के सामान्य शिक्षा स्तर को उन्नत बनाना। प्रशिक्षण कोर्स की अवधि को बढ़ाना।
- शिक्षण संस्थानों के लिए पर्याप्त कर्मियों का प्रबन्ध करना।
- प्राथमिक विद्यालयीय अध्यापकों की सेवा शर्तों में सुधार करना ताकि उच्च गुणवत्ता के अध्यापक अकर्षित हो तथा वे इस कार्य में लगे या टिके रहें।
इन संस्तुतियों के परिणामस्वरूप प्राथमिक विद्यालयीय अध्यापकों के लिए सेवारत प्रशिक्षण के लिए व्यवस्था प्रारम्भ की गई और पूर्व प्राथमिक अध्यापक के लिए प्रशिक्षण काल दो वर्ष जूनियर बेसिक (प्राथमिक) गैर-स्नातक हेतु 2 वर्ष सीनियर बेसिक (मिडिल) हेतु 3 वर्ष और हाईस्कूल में पढ़ाने वाले स्नातक अध्यापकों के लिए एक वर्ष का किया गया।
केन्द्रीय शिक्षा परामर्श समित (Central Advisory Board of Education) ने 1943 में इन संस्तुतियों को स्वीकृत किया और तदनुसार व्यवस्था करने के लिए निर्देश जारी किया। तत्पश्चात 1944 में सार्जेण्ट समिति (Sargent Committee 1944) का गठन किया गया। यह काल द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-45) और भारत छोड़ों आन्दोलन (1942) से सम्बन्धित होने के कारण भी शिक्षा तथा अध्यापक शिक्षा के क्षेत्र में विशेष उल्लेखनीय प्रगति का काल न था। इसी बीच इस महत्वपूर्ण समिति ने कई महत्वपूर्ण संस्तुतियाँ की जैसे-
- विभिन्न वर्गीय अध्यापकों के प्रशिक्षण के लिए प्रबन्ध पूर्वोक्त कालावधि को ध्यान में रखते हुए ही किया जाय।
- हाईस्कूल कक्षा/कोर्स के अन्तिम दो वर्ष के मध्य से अध्यापन कार्य हेतु उपयुक्त व्यक्तियों का चयन कर लिया जाय और उन्हें समय पर शिक्षकीय प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए आर्थिक अनुदान प्रदान किया जाय।
- अध्यापकों को सेवाकालीन प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए पुनश्चर्या पाठ्यक्रमों का आयोजन क्रिया जाय ताकि वे नवीन विधि, प्रविधि आदि से परिचित हो सके और नवीन ज्ञान को भी ग्रहण करने में पीछे न रह जाये।
- इन अध्यापकों को आवश्यकतानुसार शोध कार्य करने के लिए उचित सहायता प्रदान की जाय।
- शिक्षण अभ्यास के पक्ष को अधिक मजबूत बनाया जाय ताकि शिक्षण तकनीक एवं कला आदि को प्रशिक्षु के द्वारा ठीक से अधीत करना सम्भव हो सकें।
इन सुझावों के कारण स्नातक पूर्व-स्नातक (मिडिल स्तर के लिए) तथा प्राथमिक स्तरीय अध्यापकीय प्रशिक्षण के लिए अलग-अलग संस्थान खोले गये। 1937 में आन्ध्र विश्वविद्यालय में नवीन बी०एड० पाठ्यक्रम प्रारम्भ किया गया और 1936 में बम्बई विश्वविद्यालय में एम०एड० पाठ्यक्रम की शुरूआत हुई।
जॉन सार्जेण्ट महोदय ने हाोंग समिति की कई संस्तुतियों को स्वीकृति दी थी। साथ ही 1937 के वर्धा सम्मेलन (Wardha Conference) में भी जो प्रायोगिक और सामुदायिक आवश्यकता आधारित दीर्घ (तीन वर्षीय) तथा लघु (एक वर्षीय) अवधि के पाठ्यक्रमों को चलाये जाने की सिफारिशें की गई थीं, उन्हें भी महत्व दिया गया। इस सम्मेलन में क्राफ्ट शिक्षण को अनिवार्य बनाने पर अधिक जोर दिया गया था।
जॉन सार्जेण्ट ने हाईस्कूल पाठ्यक्रम को समाप्त कर रहे छात्रों में से विशेषकर लड़कियों को चयनित करने के लिए तथा उन्हें निःशुल्क प्रशिक्षण प्रदान करने की संस्तुति की। साथ ही उन्हें उदार ढंग से आर्थिक सहायता प्रदान करने की बात भी कही जो गरीब छात्रों के लिए ही थी। पाठ्यक्रम को व्यावहारिक विद्यालयीय आवश्यकतानुकूल तथा अभ्यासात्मक बनाने पर बल दिया गया। स्नातकों के लिए प्रशिक्षण महाविद्यालय सरकार या विश्वविद्यालय के द्वारा खोलने के लिए कहा गया। यह भी स्पष्ट किया गया कि जब तक शिक्षक प्रशिक्षण के स्तर एवं गुणवत्ता में सुधार नहीं हो पाता है, शिक्षा का स्तनोन्मुख होना सम्भव नहीं है।
पूर्व प्राथमिक विद्यालय प्राथमिक विद्यालय और जूनियर प्रशिक्षण विद्यालय तीनों के लिए ही शिक्षक प्रशिक्षण की आवश्यकता को स्पष्ट किया गया। अधिक प्रशिक्षण महाविद्यालय खोलने के साथ ही पुनश्चर्या पाठ्यक्रम की आवश्यकता को भी स्वीकारा गया विशेषकर इसे दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्र के अध्यापकों के लिए जरूरी माना गया। शोध के लिए सुविधाएँ प्रदान करने की बात की गई। परिणामस्वरूप यह देखा गया कि 1947 तक लगभग चार लाख अध्यापक (प्राथमिक विद्यालयों में) पदासीन पाये गये जिनमें से 64 प्रतिशत प्रशिक्षित हो चुके थे। मिडिल स्तर पर 88 हजार अध्यापकों में से 51 प्रतिशत प्रशिक्षण प्राप्त कर चुके थे। 649 प्रशिक्षण विद्यालय थे। 42 माध्यमिक स्तरीय प्रशिक्षण महाविद्यालयों में कुल 300० प्रवेश क्षमता थी।
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