चरित्र निर्माण में शिक्षा का क्या योगदान है?
कहा जा सकता है कि चरित्र का निर्माण शिक्षा का आवश्यक अंग है। चरित्र-निर्माण से व्यक्तित्व का विकास होता है। बालक के चरित्र का निर्माण उसके जन्म से ही आरम्भ हो जाता है। पहले उसके मूल प्रवृत्यात्मक व्यवहार की भूमिका चरित्र-निर्माण में होती है। कालान्तर में अर्जित की गई अच्छी तथा बुरी आदतों के द्वारा चरित्र एक निश्चित रूप लेने लगता है। “चरित्र की शिक्षा, ईमानदारी, निरन्तरता, सत्य, सहयोग आदि गुणों के विकास के लिए जोकि व्यवहार की पूर्णता को व्यक्त करते हैं तथा जोकि उन मूल्यों को महण करने के लिए उसी प्रकार ली जाती है, जैसे हम भोजन या ऑक्सीजन लेते हैं।”
बाल्यकाल में बच्चों पर माता-पिता तथा परिवार के अन्य सदस्यों के व्यक्तित्व तथा चरित्र का प्रभाव पड़ता है। माता-पिता को चाहिए कि वे बच्चों के सम्मुख आदर्श व्यवहार प्रस्तुत करें, जिससे वह उनके व्यवहार का अनुकरण कर सकें। घर पर बालकों को नैतिक कहानियाँ सुनानी चाहिएँ। बच्चों के संवेगों को ठीक प्रकार से प्रशिक्षण देना चाहिए। स्वस्थ स्थायीभावों का निर्माण करना चाहिए।
“विद्यालय में चरित्र विकास के लिए ये प्रयत्न किये जा सकते हैं-
1. उच्च आदर्श – बालकों में अनुकरण करने की प्रवृत्ति मुख्य होती है। अनुकरण की प्रवृत्ति से ही बालकों में आदतों का विकास होता है और ये आदतें धीरे-धीरे बालकों में उच्च आदर्श एवं मान्यताएँ स्थापित करती हैं। विद्यालय में अध्यापकों एवं घर में माता-पिता को सदैव यह प्रयत्न करना चाहिए।
.2. आदर्श प्रस्तुतीकरण – अध्यापक को बच्चों के समक्ष आदर्श का प्रस्तुतीकरण सहज रूप से करना चाहिए। ये आदर्श, महान व्यक्तियों के कार्यों, नैतिकता से ओत-प्रोत कहानियों एवं अच्छे वातावरण द्वारा प्रस्तुत किये जा सकते हैं। अध्यापक को छात्रों को निर्देश (Suggestions) देते समय यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उसके द्वारा दिये गये निर्देश चरित्र विकास में सहायक हों, बाधक नहीं।
3. वातावरण का निर्माण –चरित्र की शिक्षा विद्यालयों में तभी सम्भव है, जबकि विद्यालय का वातावरण स्वयं ही चरित्रयुक्त हो। प्रधानाध्यापक, अध्यापक तथा अन्य कर्मचारी चरित्रवान हों। इसके लिए प्रार्थना सभाएँ, नैतिक तथा चारित्रिक महत्त्व के व्याख्यान, धार्मिक-सांस्कृतिक उत्सवों आदि का आयोजन करना चाहिए। हैविंगहर्स्ट एवं टाबा ने इस सन्दर्भ में कहा है—(i) बालकों को विश्व के कार्यों तथा उसके कार्यों के सन्दर्भ में शिक्षा दो, (ii) बालक को सामाजिकता के विकास की शिक्षा दो, (iii) बालक में आत्म-नियन्त्रण तथा आत्मानुशासन विकसित करो।
4. अच्छी आदतों का विकास – अध्यापकों को चाहिए कि वे छात्रों में अच्छी आदतों के विकास पर बल दें। अच्छी आदतें अच्छे चरित्र के निर्माण का आधार हैं। बच्चों की गन्दी आदतों को दूर करने के प्रयत्नों में कभी ढील नहीं आनी चाहिए।
5. अहं का निर्माण – बालक का चरित्र अहं (Ego) के अभाव में अविकसित रह जाता है। अध्यापक को चाहिए। कि वह उनमें आत्माभिमान के स्थायीभाव को समाज सम्मत आधारों पर विकसित करने का प्रयत्न करे। बालक अपने आदर्शों का निर्माण स्वयं करते हैं और उसी के अनुसार वे चलने का प्रयत्न भी करते हैं। अध्यापक बालकों को स्वतन्त्रता दे और विद्यालय के दायित्वपूर्ण कार्यों को उनको सौंपे।
6. पुरस्कार एवं दण्ड हैविंगहर्स्ट एवं टाबा – ने पुरस्कार, दण्ड, अचेतन, चिन्तन आदि को चरित्र निर्माण के लिए आवश्यक बताया है। चरित्र-निर्माण में भय, चिन्तन, पुरस्कार, अनुकरण की परिस्थितियों का महत्त्वपूर्ण योग रहता है। ये परिस्थितियाँ चरित्र को विकसित करती हैं।
हैविंगहर्स्ट तथा टावा के अनुसार- “चरित्र निर्माण तीन प्रकार से अधिगमित होता है- (i) पुरस्कार एवं दण्ड द्वारा (ii) अचेतन अनुकरण द्वारा, (iii) विमर्शक चिन्तन द्वारा ये तीनों चरित्र के निर्माण में सहायक होते हैं।” अध्यापकों को पुरस्कार तथा दण्ड, आदर्श के प्रस्तुतीकरण तथा परामर्श आदि के रूप में चरित्र विकास पर बल देना चाहिए।
7. स्थायीभावों का विकास- बालक के चरित्र का निर्माण करने में उसके संवेगों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है। शैड के अनुसार-“स्थायीभाव किसी वस्तु पर केन्द्रित संवेगात्मक प्रवृत्तियों की एक सुव्यवस्थित समष्टि है।” स्थायीभाव का निर्माण करने में संवेगात्मक प्रवृत्तियों के गठन का योग रहता है। संवेगों की भाँति स्थायीभाव अधिक स्थायी होते हैं। अतः अध्यापक को समाज सेवा, राष्ट्र प्रेम, विश्व-बन्धुत्व, दया, सहयोग, निष्ठा आदि स्थायीभावों का विकास करना चाहिए।
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